जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज युवा कवि त्रिपुरारि कुमार शर्मा की कविताएँ- मृत्यु
जिसका अर्थ
मैंने बाबूजी से पूछा था
जाने कहाँ चले गये
बिना उत्तर दिये
शायद खेतों की ओर
नहीं, स्कूल गये होंगे
आज सात साल, तीन महीना
और बीसवाँ दिन भी बीत गया
लौट कर नहीं आये
क्या मृत्यु इसी को कहते हैं
हिन्दुस्तान की हालत
एक चीख सुनाई देती है
हिन्दुस्तान के हाथों में मेरी सोच का गला है
गले से साँस लटकती है पेंडुलम की तरह
आवाज़ की चमक बढ़ सी गई है
लहू के साथ-साथ बहती है गरीबी
इस तरह गिरा हूँ चाँद से नीचे
केले के छिलके पर जैसे पाँव आ जाये
देखा है जब कभी आसमान की तरफ
गीली-सी धूप छन कर पलकों पे रह गई
जिस्म छिल गया सूखा-सा अंधेरा
और आँखों से रूह छलक आई
हवाओं ने ओढ़ ली आतंक की चादर
अपनी ही गोद में बैठी है दिशाएँ
पाला है आज तक जिस मटमैली मिट्टी ने
क्षितिज के उपर बिखरी पड़ी है
सारे सन्नाटे वाचाल हो गये हैं
कट गये शायद जवान इच्छाओं के
आहटें कह्ती हैं आज़ाद हूँ
चुभते हैं बार-बार नाखून बन्दिशों के
पेड़ भी अब तो खाने लगे हैं फल
और नदी अपना पीने लगी है जल
कमजोर हो गई है यादाश्त समय की
लम्हों का गुच्छा पक-सा गया है
कुछ परतें हटाता हूँ जब उम्र से अपनी
तो भीग जाती है उम्मीद की बूँदें
कभी तो सुबह छ्पेगी रात की स्याही से
जैसे दिन की सतह पर शाम उगती है ।
बचपन
नंगी सड़क के किनारे
भूख से झुलसा हुआ बचपन
प्यास की पनाह में
प्लास्टिक चुनता है जब
कोई देखता तक नहीं
मगर वहीं कहीं
पीठ पर परिवार का बोझ उठाये
रोटी को तरसती जवानी
हथेली खोल देती है
तो अनगिनत आँखें
छाती के उभार से टकरा कर
हँसी के होठ को छूती है
क्या यही भविष्य है भारत का ?
क्या यही फैसला है कुदरत का ?
कि उतार कर जिस्म का छिलका
नमक के नाद में रख दो
और रूह जब कच्ची-सी लगे
तो भून कर उसे
खा लो चाय या कॉफी के साथ
महसूस हो अधूरा-सा
जब ज़िन्दगी पीते समय
या उजाला गले से ना उतरे
तो चाँद को फ्राई कर लो
और चबाओ चने की तरह
ये हक़ किसने दिया ?
यूँ ही पिसने दिया ?
खुशी को चक्कियों के बीच
नसीब का नाम देकर
ताकि बढ़ता ही रहे
अंधेरों का अधिकार क्षेत्र
और देश की जगह
एक ऐसी मशीन हो
जिसे मर्ज़ी के अनुसार
स्टार्ट और बन्द किया जा सके
तड़प रहा है धूप का टूकड़ा
बहुत बेबस हैं बेजुबान कमरे
खिड़की का ख़ौफ बरसता है
बचपन ज़िन्दगी को तरसता है
नंगी सड़क के किनारे
भूख से झुलसा हुआ बचपन ।
ख़ुदकुशी
उस आख़िरी लम्हे का मुंतज़िर हूँ मैं
जिस घड़ी सूख-सी जायेगी
सफ़ेद साँस की आख़िरी बूँद भी
और रूह किसी परिंदे की मानिंद
जा बैठेगी दूसरे दरख़्त पर
एक टूटे हुए शाख़ की तरह
कुछ दिनों में गल जायेगा जिस्म
या किसी ग़रीब के घर
चुल्हे में चमकती चिंगारी बनकर
तैयार करेगा एक ऐसी रोटी
जिसका एक टुकड़ा खाकर
बूढ़ा बाप खेत जायेगा चाँद गुमते ही
बदन पर कड़ी धूप मलने को
कहते हैं –
धूप से विटामिन डी मिलती है
रोटी का दूसरा टुकड़ा
माँ ख़ुद नहीं टोंग कर
अपने बेटे के पेट की शोभा बढ़ायेगी
क्योंकि उसे स्कूल जाना है
क्योंकि उसे स्कूल का मध्यान भोजन पसंद नहीं
क्योंकि उसे खिचड़ी के साथ मेंढ़क
,
गिरगिट या कंकड़ खाना अच्छा नहीं लगता । 
एक उम्र से चुपचाप लड़की
टुकूर-टुकूर देखती है रोटी का टुकड़ा
और ये सोच कर नहीं छूती है उसे
क्योंकि वह एक लड़की है
क्योंकि उसका भाई स्कूल से लौटते ही खाना मांगेगा
क्योंकि उसके बाप को
,
खेत से लौट कर खाने की आदत है
क्योंकि वह सोचती है –
उसके दिल की तरह भट्ठी फिर सुलगेगी ।   
रात, बिस्तर में जाने से पहले
दरार पड़े होंठों की प्यास
,
पेट की भूख पर हावी हो जाती है
उतर-सी आती हैं दबे पाँव
सैकड़ों सुइयाँ नसों के भीतर
जिसकी चुभन
,
न सिर्फ़ लड़की की माँ
बल्कि बाप को भी महसूस होती है
सिर्फ़ अपने दर्द की तस्सली के लिए
दोनों कहते हैं –
दुल्हन ही दहेज है
कुछ महीनों तक
यूँ ही चलता है सिलसिला
एक रोज़ अंदर के पन्नों में 
चिल्लाती है अख़बार की सुर्ख़ी
कुएँ में कूदकर लड़की ने की ख़ुदकुशी
अख़बार का एक कोना
दिखाई देता है लहू में तर
फटे हुए कपड़े
, नुची हुई चमड़ी
दबी ज़बान कहती है –
रेप हुआ था
पुलिस नहीं आयेगी दोबारा
इतना तो यक़ीन था सबको
क्योंकि पैसों ने पाँव रोक रखे हैं
क्योंकि लड़की ग़रीब की बेटी है
क्योंकि इससे टीआरपी में कोई फ़र्क़ नहीं आयेगा  
मुमकिन है – हादसा फिर हो
, होगी
कहते हैं –
इतिहास ख़ुद को दोहराता है
औरत की तरह
समय और समाज के बीच
एक औरत की तरह, औरत
स्याही की धूप में जलती हुई-सी
अब भी बाहर है कलम की कैद से
समय की चादर बुन रही है फिर
गले से गुज़रता है साँसों का काफिला
सितारे दफ़्न हो गये कदमों की कब्र में
आँखों से आह की बूँद नहीं आई
बिखर से गये हैं सोच के टुकड़े
क्षितिज के गालों पर हल्की-सी मुस्कान
बीमार होता है जब कोई अक्षर
सूखने लगती है पलों की पंखुरियाँ
बाढ़ सी आती है उम्र की नदी में
अंधेरा उठता है चाँद को छूने
चुपचाप देखती है मटमैली मिट्टी
कभी तमाशा कभी तमाशाई बन कर
जब बदला गया बेडशीट की तरह
और काग़ज़ों पर छपती रही
सोचता रहा सदियों तक कमरा
टूटा हुआ कोई साज़ हो जैसे
चुटकी भर उजाला बादलों ने फेंका
खुलता गया सारा जोड़ जिस्म का
रूह सीने से झाँकने लगी
गीली हो चली धूप भी मानो
और जीवन को मिल गया मानी
सन्नाटों के सारे होठ जग उठे
शर्म से सिमट गई चाँदनी सारी
बोल पड़ा सूरज अचानक से
समय और समाज के बीच
एक औरत की तरह, औरत
बेबस ज़िन्दगी
ज़मीन और जिस्म के बीच सुगबुगाता आदमी
जैसे फूट रही हो बाँस की कोपलें
छू ली मैंने बहती हुई रात
कितनी सर्द, कितनी बेदर्द 
करने लगी मज़ाक अपने आप से गरीबी
कितनी रातों से नहीं सोती है नींद मेरी
भीग गये अब तो आँसू भी रोते-रोते
एक सदी का सा एहसास देता है पल
घाव-सा कुछ है सितारों के बदन पर
आँखं छिल जायेंगी देखोगे अगर चाँद
काट दिये किसने पर हवाओं के
बिल्ली के पंजों में आ गया बादल
आज फिर मुसलाधार बरसा है लहू
पानी का रंग लाल है सारे नालों में
एकत्र करता हूँ बोतल में काली धूप
मुट्ठी से फिसल जाती है ज़िन्दगी मेरी
देख रहा है उदास काँच का टूकड़ा
आज भी टेढ़ी है उस कुतिया की दुम
मचलती जाती है नदी मेरी बाहों में
कितना मटमैला है शाम का क्षितिज
टूट गया कोई हरा पत्ता डायरी से
वर्षों से खाली पड़ा है एक कमरा
चूम लेती है मुझे तस्वीर बाबूजी की
याद का कोहरा घना है बहुत
वह जो मिला था पॉकेटमार था शायद
चॉकलेट नहीं है अब जेब में मेरी
हर एक पल बढ़ती रही भूख बच्चों की
उबलता रहा सम्बन्ध का सागर
खो गई जाने कहाँ दूध-सी मुस्कान
पिछले साल माँ ने मेरी स्वेटर पर
उकेरा था एक नदी और एक चिड़िया
नदी में डूब कर मर गई वह चिड़िया
और बन्द हो गया आदमी का सुगबुगाना  
क्षितिज के उस पार
देखता हूँ क्षितिज के उस पारजा कर
कहीं सफ़ेद अँधेरा
कहीं स्याह उजाला
खो दिया है दर्द ने एहसास अपना
करीबी इतनी कि
देख तक नहीं सकते
कोयला सुलग रहा है
अंगीठी जल रही है बदन में
भुने हुए अक्षर
काग़ज़ पर गिरते हैं जब
तो छन्से आवाज़ आती है
गले में अटक जाता है
साँस का टुकड़ा  
मेरी पलकें नोचता है कोई
फिर देखती है नंगी आँखें
एक छिली हुई रूह
बिल्कुल चाँद की तरह
सोचता हूँ सन्नाटा बुझा दूँ
बहने लगती है उंगलियाँ
बिखरने लगता है वजूद
सोच पिघलती है धुआं बनकर
सहसा सूख जाती है नींद की ज़मीन
रात की दीवार में दरार हो जैसे
फ्रेम खाली है अब तक
मुस्कराहट बाँझ हो गई
कुछ हर्फ़-सा नहीं मिलता
बहुत उदास हैं टूटे हुए नुक्ते
समय के माथे पर ज़ख्म-सा क्या है ?
जमने लगी है चोट की परत
चीखते हैं मुरझाये हुए मौसम
अभी बाकी है सम्बन्ध कोई
अब तो दिन रात यही करता हूँ
क्षितिज से जब भी लहू रिसता है
देखता हूँ क्षितिज के उस पारजा कर।
जीवन का अर्थ
जीवन
जिसका अर्थ
मैं जानता नहीं
मुझे जीना चाहता है ।
मृत्यु
जिसका अर्थ
मैंने बाबूजी से पूछा था
जाने कहाँ चले गये
बिना उत्तर दिये
शायद खेतों की ओर
नहीं, स्कूल गये होंगे
आज सात साल, तीन महीना
और बीसवाँ दिन भी बीत गया
लौट कर नहीं आये
क्या मृत्यु इसी को कहते हैं ?
हाँ, उत्तर अगर हाँ है
तो मैं जीना चाहूँगा इसे ।
क्योंकि
माँ ने आकाश से रस्सी बाँध दी है
आ गया बसंत
बसंत आ गया
सामने हवाओं का झूला है
गाँव में सज रहा मेला है
पीली बर्फ जम गई खेतों पर
हरी आग लग गई जंगल में
दृश्यों में सिमट गई दृष्टि
समय थक गया
नब्ज़ें रूक गई रफ़्तार की
लेकिन मैं बढ़ता रहा
आँधियाँ विश्राम करने लगीं
किनारे पर पहुचने से पहले
नाव ऊंघने लगी
धरती ने ठीक से पाँव छुए भी नहीं
और चलने लगी धरती ।
परिवर्तन,
कुछ तो परिवर्तन हुआ
माँ ने भीगी हथेलियों से
स्पर्श किया गालों को, जगा दिया
फिर दिखाया मुझे मेरा लक्ष्य
कल रात स्वप्न में
तोड़ कर मुट्ठी भर आकाश
और कुछ अधखिले सितारे
जेब में रख गये बाबूजी
वो आकाश वो सितारे
अब भी हैं मेरी जेब में
अब भी है याद लक्ष्य
झरना चढ़ने लगा पहाड़ पर ।
परिवर्तन,
कुछ तो परिवर्तन हुआ
जीवन सोचता है जिसे
क्या वही मैं हूँ
जीवन चाहता है जिसे
क्या वही मैं हूँ
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