जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

युवा कवि रविभूषण पाठक ने नए साल की बधाई कुछ इस तरह से दी है- जानकी पुल.
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नया साल भी बेमौका ही आता है
जबकि पछता फसल भी पहुंच जाती है घर
खलिहान में चूहों तक के लिए दाने नहीं
और देश गोबर में से भी दाना निकाल चुका था
बड़े से बड़े किसान की भी फसल निकल चुकी है
खलिहान से दलाल के गोदाम में
चिप्‍स, पापड़, सूज्‍जी, टकाटक बनने
गेहूं का दस दिन पुराना पौधा ताक रहा पानी खाद के लिए
जैसे जनमौटी बच्‍चा घूमाता आंख गरदन
और सरसो में भी तो फूल नहीं लगे हैं
और इस ताक को सूर्य-चन्‍द्र कभी नहीं समझेंगे
वे करके अपनी गिनती आ जाते हैं मौका-बेमौका
इस देवत्‍व की चक्‍की में पिसता हमारा गांव
नया साल चाहता है कि हम ले ढोल-मजीरा
और नाचे हुलस-हुलसकर
पर दिसंबर घुसा है हमा‍री हड्डियों में
देह-मन ऐसे अलसियाता
जैसे खून में दी जा रही अफीम की ड्रिप
और खून में ही गारंटी है कि कुछ नहीं होना है
और ये गारंटी खून में इसलिए है कि
उनकी सारी गारंटी खून से ही है
हमारे खून में ही वो रसलोलुपता
जो हम देश, कविता और औरतों के प्रति दिखाते हैं

हमारे गुणसूत्रों में ही हथियारबंद शास्‍त्र, संस्‍कार
और जीनों में लिपटे वर्चस्‍व के प्रोटीन
और इस प्रोटीन के कितने नाइट्रोजन हिलेंगे इस नए साल

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और पुराना साल भी तो खतम होके नहीं गया
हमने एकजुट मोमबत्तियां जलाना सीखा ही था
हमने एकसाथ औजार सजाना सीखा ही था
हमने साथ औजार चमकाना सीखा ही था
यद्यपि एकबार भी जंग में नहीं हुए साथ
पर हारने के लिए हुए बेचैन कई बार

और पुरानी अधूरी कविता अब और भयानक दिख रहे हैं
जैसे अर्धनिर्मित मकान में उग आए हों
विशाल वृक्ष और कंटीली झाडि़यां
पुराने प्रतिज्ञाओं पर हँसना आसान भी नहीं हैं
पुराने वादों को याद करते वक्‍त होती झुरझुरी को बस थामना है
पुराने सपने अब अनुजों ने हथिया लिए है
और  सौंप उनके हाथ
हो गए हम निश्चिंत और चालाक
यद्यपि उनके हाथ तो और भी छोटे हैं
पर ऊंगलियां उनकी, हथेलियां मजबूत दिख रही हैं

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पिछले साल जनवरी में अखबारों में उग आए थे
फूल, फूलझड़ी और मंगलकामना
और हम आश्‍वस्‍त थे कि
पूरे साल ये गंध रहेंगे हमारे नथुनों में
फिर पीछे हटते हुए यह सोचा कि
इन मंगलकामनाओं की उमर कम से कम छह महीने तो होगी
और अपने पुत्र को अक्षरारंभ करा दिया
हमने सोचा फिर से अष्‍टाध्‍यायी
या बालो अहं जगदानंदं न मे बाला सरस्‍वती
या फिर ए, बी, सी, डी
और उसने जिद कर दिया कि वह अखबार से पढ़ेगा
और फिर……
मार्च जो वित्‍तीय वर्ष का अंतिम महीना था
देश-दुनिया में मंदी की चर्चा थी
पूरी दुनिया पटे थे माल असबाब से
कमोडिटी ट्रेडर ऑनलाईन ‘उठाने’ से भी डरते थे
और मेरा बेटा अखबार के सबसे मोटे अक्षरों को पढ़ने लगा
मंदी, मंदी, मंदी
और अप्रैल की खबरें ‘घाटा’ में थी
मेरे बेटे को फिर मिल गये सस्‍ते शब्‍द
बंदी, बंदी, बंदी
यद्यपि हड़ताल और तालाबंदी कुछ कठिन शब्‍द थे
अप्रैल के पास कोई समाधान नहीं था
और टीवी रेडियो बस एक ही समाधान बता रहे थे
छँटनी छँटनी छँटनी
और मेरे बेटे ने चंद्रबिंदु को हटा के पढ़ना सीखा
छंटनी, छंटनी, छंटनी
मई के जिम्‍मे बस खून ही था
मेरा बेटा दिन-रात चिल्‍लाता था
खून, खून, खून
ऐसे ही चिल्‍लाता आया गरमागरम
जून, जून, जून
और जून पसीने से लथपथ था
पसीने में मोमबत्‍ती, प्रदर्शन और क्रांति की गंध थी
और मेरे बेटे ने क्रांति को भी पढ़ना सीखा
कभी किरांति कभी कीरांति कह
और जून के अखबार की हेडिंग क्रांतिमय थी
जुलाई के अखबार रंगहीन थे स्‍वादहीन
प्राय: असम, बिहार के बाढ़ से भींगे
और मेरे बच्‍चे ने बाढ़ को ऐसे पढ़ा
जैसे चाय, राय या हाय
मुझे कहीं से यह अच्‍छा नहीं लगा कि
मेरे बेटे को बाढ़ का स्‍वाद पता नहीं
फिर एक सुकून भी
पुरखे के कष्‍ट से मुक्ति का
और आगे अगस्‍त था जिसे सभी लोग अपना महीना मानते थे
जनता का अगस्‍त अलग था
सरकार का अलग और विपक्ष का अलग
और मेरे बच्‍चे ने एक कठिन शब्‍द सीखा
स्‍वतंत्रता, ‘स्‍वतंत्रता
यद्यपि बोलते वह लड़खड़ाता
और मुझे उसका लड़खड़ाना अच्‍छा लगता
बाप था न मैं
हम तो छह साल में ढंग से हकला भी न पाए थे
और बेटा  ता पर बल देकर पढ़ रहा था
स्‍वतंत्रता, ‘स्‍वतंत्रता
सितंबर में किसी एक शब्‍द पर बल नहीं था
और वह पिछले शब्‍दों को ही खोजता रहा
मंदी, बंदी, फूल, स्‍वतंत्रता सब अलग अलग बिखरे थे
अक्टूबर-नवंबर में पूजा ही पूजा
और उसने सीखा दुर्गा, काली, लक्ष्‍मी
शैलपुत्री से नवदुर्गा तक की विभिन्‍न मुद्राओं पर
चलाता रहा पेंसिल
फिर वो दिसंबर
जब मैंने अखबार चुराके पढ़ना रखना चाहा
क्‍योंकि देश की प्राथमिकता बदल चुकी थी
देश का मोस्‍टवांटेड, बेस्‍टसेलर न्‍यूज था
राजधानी में बलात्‍कार
और पहले दिन तो मैं भी सावधान नहीं था
और बेटे ने पढ़ ही लिया
रा.ज.धा.नी. में. दिन द.हा.ड़े
ब.ला.त्‍का.र
और फिर बेटे ने पूछा कि
ये बलात्‍कार क्‍या है
नहीं सुनने के कई बहाने के बाद
मैंने कहा कि जबरदस्‍ती
मानो तुमसे प्‍यारा खिलौना कोई छिन ले
वह संतुष्‍ट हो गया
अगले दिन से नया अखबार नहीं मिल रहा था उसे
पर टी.वी. पर भी यही खबरें थी
वह मां से पूछ रहा था
कि मम्‍मी खिलौना छिनने से देह पर चोट कैसे लगती है
उसने ये भी पूछा कि फांसी क्‍या होती है
क्‍या यह समय है जब हम अक्षरारंभ के शकुन पर बात करें
तसल्‍ली केवल यही है कि
देश के साथ मेरे बेटे ने भी
प्रश्‍न पूछना शुरू कर दिया है

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मेरे गांव के लोग आश्‍चर्यचकित हैं
कि अभी तो दिसंबर लोगों के खून में उबाल कर रहा था
यह दिसंबर इतना जल्‍दी कैसे खतम हो जाता है
निर्वीर्य हो चुके अनाज को जानवरों को खिला रहे
लक्ष्‍मी चौधरी कहते हैं
जब इस साल का अनाज अगले साल के लिए बीज नहीं रह पाता
पुरानी कविताओं का रस निचुड़ चुका है
पुरानी शैली की राजनीति नौटंकी लगती है
और दोहराया गया आदर्श पाखंड की तरह चोट करता है
तो ये कैसा पंचांग है
जिसके पुराने से ही नया साल निकलता जा रहा है
ओ चंद्रमा तुम्‍हारा
सूर्य तुम्‍हारा
और साथ के नक्षत्रों की साजिश है भर
कि अपनी सुविधा से उत्‍तरायण
दक्षिणायण होते हो
या फिर लेकर रिश्‍वत
बियर, फोन और ग्रीटिंग्‍स की कंपनियों से
भर देते हो भय हमारी जेहन में
मंगल और शनि की
ऐ कोटि कोटि अश्‍वों को जोत रहे सूर्य
इस बार तुम्‍हारा रथ रोकेगी
कोई रजस्‍वला स्‍त्री
एक-एक चांडाल
थामेंगे एक एक घोड़े
और भिखमंगों की फौज
काबू कर लेगी घोड़ों के फूले हुए नथुने
रंडियों की कामुक मुद्राओं से
विनीत हो जाएंगे सारे
और फिर नया साल आएगा
जो किसी मई के तेरहवें
या सितंबर के चौदहवें को भी हो सकता है
रवि भूषण पाठक
9208490261
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8 Comments

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