जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

 युवा लेखक राकेश बिहारी का यह लेख समकालीन युवा कहानी को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की मांग करता है. उस मुहावरे को विस्तार से समझने की अपेक्षा रखता है. यह लेख उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘केंद्र में कहानी’ में संकलित है. लेख पर बहस आमंत्रित है- जानकी पुल.
===========================================================

उदारीकरण के एजेंडे के साथ हमारे देश के कैलेंडर में दाखिल हुआ नब्बे का दशक उन आर्थिक बदलावों की भूमिका का कालखंड है, जिसका स्पष्ट और मुखर प्रभाव आज जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है. यहां प्रक्रिया और एजेंडे के बुनियादी फर्क को समझने की जरूरत है. प्रक्रिया जहां समय और समाज की जरूरतों, अपेक्षाओं, सहूलियतों, संवेदनाओं आदि के साथ घटित होनेवाली एक स्वाभाविक और गतिशील स्थिति है वहीं, एजेंडा सुनियोजित तरीके से किन्हीं पूर्वनिर्धारित अवधारणाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों आदि को समय और समाज की अनिवार्य नियति के रूप में स्थापित करने का उपक्रम है. यही कारण है कि प्लानिंग, मार्केटिंग और ब्रांडिंग जैसी शब्दावलियां एजेंडे की अनिवार्य सहगामिनी होती हैं. प्रक्रिया और एजेंडे का यही फर्क आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण को एक दूसरे से अलग करता है. फिलहाल इन अवधारणाओं को मैं हिन्दी कहानी की दुनिया में पीढ़ी और नमोन्वेष के नाम पर हो रहे शोर के आलोक में देखना चाहता हूं.
पुरानी पीढ़ी का शिथिल होना, नई पीढ़ी का आना और इस दौरान पीढ़ियों के बीच एक व्यावहारिक अंतराल की उपस्थिति एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन यदि इस स्वाभाविक प्रक्रिया को किसी खास एजेंडे की शक्ल में पेश किया जाय तो? जाहिर है ऐसे में कई सत्य सुनियोजित प्रचार से ढंक दिये जायेंगे. सच को विखंडित, विस्मृत या कांट-छांट कर किसी झूठ या अर्ध्यसत्य को स्थापित करने का उपक्रम तेज हो जायेगा. पीढ़ी-अंतराल की स्वाभाविकता पीढ़ियों की टकराहट का रूप ले लेगी और इस दौरान कब कैसे कोई ब्रांड एम्बेसडर तो कोई सेल्स प्रोमोटर की तरह इस्तेमाल कर लिया जायेगा इसका पता भी नहीं चलेगा. इससे पहले कि प्रक्रिया और एजेंडे के द्वंद्व के बीच हिन्दी कहानी में लगभग स्थापित हो चुकी नई पीढ़ी के विकास पर कालक्रमानुसार विचार किया जाये, दो-एक वक्तव्यों पर गौर करना जरूरी है –
लेकिन जैसे-जैसे संपादक कहानीकार न रहकर, विमर्शकार होता गया, हंस कहानी की पत्रिका न रहकर विमर्श की पत्रिका होती गई, कहानीकारों ने – और खासकर युवा पीढ़ी ने दूसरे ठिकानों की खोज शुरु कर दी. ऐसे ही युवाओं में चर्चित कथा लेखिका नीलाक्षी सिंह और क्विज़ मास्टर पंकज मित्र हैं, जिन्हें हमने तद्भवमें देखा था. लेकिन हमें इस बात की जरा भी भनक नहीं थी कि युवा कहानीकारों की एक बड़ी संख्या बिखरी हुई जहां-तहां पड़ी है और कहानीकार रवीन्द्र कालिया के कोलकाता में वागर्थका संपादन संभालने का इंतज़ार कर रही है” (काशीनाथ सिंह, यथार्थ का मुक्ति-संघर्ष : नई सदी की कहानी; वागर्थ, युवा पीढ़ी विशेषांक – दिसंबर २००५)
वास्तव में साहित्य में युवा पीढ़ी की दस्तक एक सहयोगी प्रयास का परिणाम है. इसमें युवा कहानीकारों के साथ-साथ रवीन्द्र कालिया (वागर्थ और अब नया ज्ञानोदय), अखिलेश (तद्भव), ज्ञानरंजन (पहल), शैलेन्द्र सागर (कथाक्रम) जैसे संपादकों और कृष्णमोहन, भारत भारद्वाज और परमानंद श्रीवास्तव सरीखे आलोचकों की महत्वपूर्ण भूमिका है और फिर, विरोध के द्वारा सहयोग करनेवाले तो है हीं हमेशा की तरह!” (प्रियम अंकित, बेचैन जल में डगमगाते चांद का यथार्थ; नया ज्ञानोदय, युवा पीढ़ी विशेषांक – मई २००७)  
यह लापरवाही का नतीजा हो कि एक सुचिंतित विचार, उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में जिस तरह, हंस, कथादेश, इंडिया टुडे, परिकथा आदि जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं और युवा रचनाशीलता के विभिन्न संदर्भों को बार-बार रेखांकित करनेवाले जरूरी आलोचकों यथा – रोहिणी अग्रवाल, शंभु गुप्त आदि को नजरअंदाज़ कर कथाकारों की नई पीढ़ी और उनके शुभ चिंतकों का जो खाका खींचा गया है वह पूर्वाग्रहों से प्रेरित तो है ही अक्टूबर २००४ में प्रकाशित वागर्थ के नवलेखन विशेषांक में व्यक्त उस संपादकीय एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रायोजित उपक्रम भी है कि – “जैसे महानगरों में शाम के झुटपुटे में रेल की पटरियों की आड़ में देह व्यापार चलता है, उसी प्रकार साहित्य में भी कुछ संभ्रांत नागरिक प्रेमचंद की आड़ में दैहिकता का धंधा चलाते हैं. नई पीढ़ी के युवा रचनाकार इस यौनाचार के प्रति पूर्णरूप से उदासीन हैं, सामाजिक अन्याय और आर्थिक विषमता के विरुद्ध रचनारत युवा रचनाकारों का तथाकथित दलित विमर्श के प्रति भी ठंडा रुख है”. स्पष्ट है कि तब यौनाचारका नाम लेकर रवीन्द्र कालिया अस्मितावादी विमर्श के नकार का एक सुनियोजित एजेंडा प्रस्तावित कर रहे थे जो मूल रूप में ढोल-नगाड़े के साथ बाज़ार में अपना ब्रांड स्थापित करने की एक रणनीति थी. दर असल विज्ञापन एक दुधारी तलवार है जो न सिर्फ अपने उत्पाद की स्वीकॄति के लिये जरूरी माहौल तैयार करता है बल्कि उपभोक्ताओं के मानस पटल पर पहले से अंकित हो चुके अन्य समानधर्मी उत्पादों की स्मृतियों को पोंछने का काम भी करता है. वागर्थ के नवलेखन विशेषांक में बिना सीधे-सीधे किसी पत्रिका या संपादक का नाम लिये अपने एजेंडे की प्रस्तावना और बाद के अंकों में उसके सुनियोजित प्रचार-प्रसार के नव उदारवादी टोटकों से लैस अपने प्रोडक्ट की ब्रांडिंग और मार्केटिंग की इस तकनीक को देखकर मुझे टी वी पर दिखाये जानेवाले रिन और निरमा जैसे डिटर्जेंट साबुनों के उन विज्ञापनों की याद आती है जिनमें अपने चमकते-दमकते उत्पाद के समानांतर बिना नाम लिये गले-पिघले, तेजविहीन दूसरे समानधर्मी उत्पादों को रख दिय जाता है.
स्वाभाविक रूप से बढ़ती-पनपती एक कथा-पीढ़ी जिसमें स्त्री और दलित चेतना से संपन्न कथाकारों की भी महत्वपूर्ण उपस्थिति थी, को सीधे-सीधे नकारते हुये फसल की एक नई डाली को ही संपूर्ण पेड़ की तरह सुनियोजित रूप से प्रचारित-प्रसारित करने का यह एजेंडा एक तरह से अस्मिता विमर्श के महत्व को नकारने की एक अव्यावहारिक कोशिश थी. हमारे समय का इतिहास दर असल सदियों से दमित-प्रताड़ित वंचितों, चाहे वे स्त्री हों या दलित, के उन्मेष का ही इतिहास है. ऐसे में किसी एक ऐसी कथा-पीढ़ी  की प्रस्तावना जिसमें ये दोनों ही स्वर अनुपस्थित हों एक बहुत बड़े सामाजिक सत्य की उपेक्षा का नतीजा थी. यहां इस बात का उल्लेख किया जाना भी युवा पीढ़ी-युवा पीढ़ी के तमाम शोर के बीच इस सामाजिक यथार्थ की उपेक्षा का भान काशीनाथ जी को भी था – “इस तरह यह है कहानी की नई पीढ़ी – चंदन, राकेश, कुणाल, विमलेश, मो. आरिफ, दीपक, तरुण, मनोज, राजेश प्रसाद, पंकज सुबीर. न इसमें कोई स्त्री है न दलित. ऐसा क्यों है, कैसे हुआ – यह संपादक से बेहतर कोई नहीं जानता होगा. जबकि संपादक स्वयं एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं और जानते हैं कि इनके बगैर नई सदी का कोई भी साहित्य मुकम्मल नहीं होगा.” (यथार्थ का मुक्ति-संघर्ष : नई सदी की कहानी; वागर्थ, युवा पीढ़ी विशेषांक – दिसंबर २००५) जाहिर है कि नई रचनाशीलता को प्रोत्साहित करने के उत्साह में काशीनाथ जी ने यह भले ही कह दिया हो कि कथाकारों की एक पीढ़ी वगर्थ के उक्त नवलेखन अंक का इंतजार कर रही थी, लेकिन कहीं न कहीं कथाकारों की इस नई खेप को ही नई पीढ़ी का मुकम्मल चेहरा मानने में उनके भीतर भी संशय था, जिसे बाद में उन्होंने पाखीद्वारा आयोजित कथा केंद्रित आयोजन पीढ़ियां आमने सामने’ (पाखी, नवंबर २०१०) में और स्पष्ट कर दिया है.
हालांकि जिस तरह तथाकथित यौनाचारोंऔर दलित विमर्श के प्रति इन कथाकारों की उदासीनता, जिसकी तरफ रवीन्द्र कालिया ने वागर्थ (अक्टूबर,२००४) के अपने संपादकीय में इशारा किया था, का जो पुरुषवादी और उत्श्रंखल रूप साइकिल कहानीसे लेकर ग्यारहवीं ए के लड़केतक जैसी कहानियों में देखने को मिला है या फिर जिस तरह से स्त्री जीवन में आये सार्थक बदलावों को बिना पहचाने कई कहानीकारों ने बदलती स्त्री के नाम पर सिर्फ कैरियरिस्ट और अपौर्चुनिस्ट लड़कियों की कहानियां लिखी हैं, या फिर जिस तरह सामंती मानसिकता के साथ दलित विरोधी कहानियां लिखी जा रही हैं, वह न सिर्फ चिंताजनक है बल्कि अस्मिता विमर्श की जरूरतों को नये सिरे से रेखांकित करनेवाला भी है. ऐसे में स्वाभाविक रूप से विकसित होती कथाकरों की एक नई पीढ़ी को एक खास जगह से अवरुद्ध कर उसकी सबसे ताजा परत को ही पूरी पीढ़ी का नाम दे देने की इस कवायद से सहमत होना नई कथा-पीढ़ी की एकांगी और अधूरी तस्वीर पेश करना ही होगा.
बहरहाल भूमंडलीकरण-उदारीकरण के बीच हिन्दी कहानी में विकसित होती एक नई पीढ़ी पर चर्चा के क्रम में एक नज़र पिछले पंद्रह वर्षों में आये विभिन्न पत्रिकाओं के नवलेखन अंकों पर. इस श्रंखला में जो सबसे पहला विशेषांक मेरी स्मृति में है, वह है – आजकल’(मई-जून १९९५) का विशेषांक  – संभावनाओं और सामर्थ्य का जायजा’. इस अंक में जो कथाकार शामिल थे उनमें प्रमुख हैं – अलका सरावगी, आनंद संगीत, जयनंदन, मीरा कांत, प्रेमपाल शर्मा, संजय सहाय, प्रियदर्शन आदि. उल्लेखनीय हि कि प्रियदर्शन को छोड़कर इस अंक में शामिल सभी कथाकार पूर्ववर्ती कथा-पीढ़ी के हैं. इस तरह हम आजकल के इस विशेषांक को इस पीढ़ी से ठीक पहले के कथाकारों पर केन्द्रित आखिरी युवा विशेषंकों की श्रेणी में रख सकते हैं. हां, प्रियदर्शन उन कथाकारों में से जरूर हैं जिनका विकास १९९७ के बाद हुआ. लिहाजा उन्हें पिछली पीढ़ी से जोड़ने वाली कड़ी या वर्तमान कथा पीढ़ी के शुरुआती कथाकार के रूप में देखा जाना चाहिये. आजकल के उस उक्त विशेषांक के बाद १९९७ में प्रकाशित इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी – शब्द रहेंगे साक्षीमें पहली बार दिखते हैं – पंकज मित्र, अपनी पड़तालशीर्षक कहानी के साथ, जिसे युवा कथाकार प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था. उल्लेखनीय है कि यही कहानी इसके ठीक दो-एक महीने के बाद हंसमें भी प्रकाशित हुई थी. तत्पश्चात फरवरी २००१ में प्रकाशित हंस की विशेष प्रस्तुति – नई सदी का पहला बसंतमें दिखाई पड़ते हैं – नीलाक्षी सिंह, जयंती और निलय उपाध्याय. इसके तुरंत बाद जून २००१ में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक – ताजा पीढ़ी : बहुलता का वृतांतमें शामिल महत्वपूर्ण कथाकारों में हैं – रवि बुले, शशिभूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, सुभाषचन्द्र कुशवाहा, महुआ माजी, कमल आदि. उल्लेखनीय है कि उसके बाद बाद २००२ में प्रकाशित इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी – (संभावनाओं के साक्ष्य) भी तब तक प्रकाश में आ चुके इन्हीं नये कथाकारों – नीलाक्षी सिंह, रवि बुले, प्रियदर्शन, सुभाषचंद्र कुशवाहा और अल्पना मिश्र, को ही संभावनाशील काथाकारों के रूप में रेखांकित करती है. इसके बाद जुलाई २००३ में प्रकाशित उत्तर प्रदेशके संभावना विशेषांक में जो नये कथाकार दिखते हैं, उनमें प्रमुख हैं – अभिषेक कश्यप, चरण सिंह पथिक, कविता, अंजली काजल, तरुण भटनागर आदि. इस बीच २००४ के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रीय सहारा द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर प्रभात रंजन अपनी कहानी जानकी पुलके साथ कथा परिदृश्य पर उपस्थित हो जाते हैं. जुलाई २००४ में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक में जो महत्वपूर्ण कथाकार सामने आये, उनमें अजय नावरिया और अरविन्द शेष का नाम प्रमुख हैं. उल्लेखनीय है कि अलग-अलग पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में प्रकाशित इन कथाकारों में से कई कथाकारों की दो-एक कहानियां दूसरी पत्रिकाओं के सामान्य अंकों में छपकर पहले भी चर्चित हो चुकी थीं. अलग-अलग पत्रिकाओं के सामान्य अंक से अपनी पहचान बनानेवाले अन्य कथाकारों में वंदना राग, पंखुरी सिन्हा आदि को शुमार किया जा सकता है. नवलेखन अंकों की सुदीर्घ परंपरा से चुन-छनकर आये इन्हीं कथाकारों से परत-दर-परत बनती है भूमंडलोत्तर समय की यह कथा पीढ़ी. अक्टूबर २००४ में प्रकाशित वागर्थके नवलेखन अंक के माध्यम से आये कथाकारों की नई खेप इसी पीढ़ी की अगली परत थी जिसके महत्वपूर्ण नामों में चंदन पांडेय, विमलेश त्रिपाठी, दीपक श्रीवास्तव, मो. आरिफ, कुणाल सिंह, मनोज कुमार पांडेय, पंकज सुबीर, राकेश मिश्रा आदि शामिल थे. उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश की यह पहली कहानी नहीं थी, यानी उनकी अन्य कहानी पहले किसी न किसी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी. नये कथाकारों को पहचानने और प्रकाश में लाने का यह समवेत और सहयोगी सिलसिला लगातार जारी है. इस क्रम में परिकथाके नवलेखन अंकों और युवा कहानी विशेषांकों के अतिरिक्त प्रगतिशील वसुधाका युवा कहानी अंक तथा हंसऔर कथाक्रमजैसी पत्रिकाओं के मुबारक पहला कदमऔर कथा दस्तकजैसे स्तंभों की भूमिका उल्लेखनीय है. मिथिलेश प्रियदर्शी, कैलाश वानखेड़े, जयश्री रॉय, ज्योति कुमारी, सुशांत सुप्रिय, इंदिरा दांगी आदि कथाकार इसी सतत शोध यात्रा की उपलब्धियां हैं. कहने का मतलब यह कि पीढियां किसी खास पत्रिका के अंक विशेष से किसी खास तारीख को पैदा नहीं होती बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जिसे अपने समय की सभी पत्रिकायें एक समवेत प्रयास के तहत पहचानती और प्रकाश में लाती हैं.    
कहने की जरूरत नहीं कि काशीनाथ सिंह जी को तद्भव में दिखीं नीलाक्षी सिंह हों या पंकज मित्र या फिर प्रियम अंकित के उपर्युक्त लेख में इसी पीढ़ी के कहानीकारों के तौर पर विश्लेषित अल्पना मिश्र, शिल्पी, प्रभात रंजन, मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग और तरुण भटनागर जैसे आधा दर्जन से ज्यादा अन्य कथाकार, इन सबकी शुरुआती पहचान रवीन्द्र कालिया द्वारा संपादित वागर्थ के नवलेखन अंक से पहले बन च
Share.

9 Comments

  1. इस पोस्ट ने , और विस्तार से पढने की इच्छा को जगा दिया |उम्मीद करता हूँ , कि मेले में यह किताब मेरे पास होगी |

  2. एक सुचिंतित लेख के लिए भाई राकेश जी को बहुत बधाई….।।

  3. Pingback: weed delivery Toronto

  4. Pingback: o molly dresses,

  5. Pingback: Luxury Villa Phuket

  6. Pingback: see here

  7. Pingback: buy rifles online

  8. Pingback: Online medicatie kopen zonder recept bij het beste Benu apotheek alternatief in Amsterdam Rotterdam Utrecht Den Haag Eindhoven Groningen Tilburg Almere Breda Nijmegen Noord-Holland Zuid-Holland Noord-Brabant Limburg Zeeland Online medicatie kopen zonder r

  9. Pingback: content

Leave A Reply