‘देर आयद दुरुस्त आयद’- यह मुहावरा अंजू शर्मा के सन्दर्भ में सही प्रतीत हो है. उन्होंने कविताएँ लिखना शायद देर से शुरू किया लेकिन हाल के वर्षों में जिन कवियों ने हिंदी में अपनी पहचान पुख्ता की है उनमें अंजू शर्मा का नाम प्रमुखता से लिए जा सकता है. आज उनकी कुछ नई कविताएँ- जानकी पुल.
===========================================================
1.
यह समय हमारी कल्पनाओं से परे है
यह कह पाना
दरअसल उतना ही दुखद है
जितना कि ये विचार,
कि यह समय कुंद विचारों से जूझती
मानसिकताओं का है
हालांकि इसे सीमित समझ का नाम देकर
खारिज करना आसान है,
पर हमारी कल्पनाओं से परे,
बहुत परे है
आज के समय की तमाम जटिलताएँ, पहाड़ से दुखों तले मृत्यु से जूझते हजारों शरीर
और हृदयहीनता के क्रूर मंज़र से भयभीत,
विचलित आत्माएं
आधुनिक जीवन के पर्व, उल्लास और उत्सव
और पल पल मृत संख्याओं में
बदलने को अभिशप्त जिजीविषाएं,
यदि यह दु:स्वप्न नहीं
तो यह किस युग का सच हैं
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे,
बहुत परे है ………. मौत अब पल भर भी हमें ठिठकाती नहीं
और बुद्धू बक्से पर कड़वी खबरों के
हर वीभत्स दृश्य के साथ गले से निर्बाध
उतरते हैं लज़ीज़ डिनर के निवाले,
जब तब सनसनी के झटको से बोझिल
मृतप्राय संवेदनाएं
सहज ही ओढ़ लेती हैं उदासीनता का दुशाला
और सोच के वृत में
चक्कर लगाता है ये विचार
आखिर हम किस बात से चौंकते हैं,
सुन्न पड़ी शिराएँ,
धीमा होता रक्तचाप,
शिथिल चेतनाएं
अगर हमारा आज है तो चेत ही जाइए
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे,
बहुत परे है ……….
यह समय हमारी कल्पनाओं से परे है
यह कह पाना
दरअसल उतना ही दुखद है
जितना कि ये विचार,
कि यह समय कुंद विचारों से जूझती
मानसिकताओं का है
हालांकि इसे सीमित समझ का नाम देकर
खारिज करना आसान है,
पर हमारी कल्पनाओं से परे,
बहुत परे है
आज के समय की तमाम जटिलताएँ, पहाड़ से दुखों तले मृत्यु से जूझते हजारों शरीर
और हृदयहीनता के क्रूर मंज़र से भयभीत,
विचलित आत्माएं
आधुनिक जीवन के पर्व, उल्लास और उत्सव
और पल पल मृत संख्याओं में
बदलने को अभिशप्त जिजीविषाएं,
यदि यह दु:स्वप्न नहीं
तो यह किस युग का सच हैं
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे,
बहुत परे है ………. मौत अब पल भर भी हमें ठिठकाती नहीं
और बुद्धू बक्से पर कड़वी खबरों के
हर वीभत्स दृश्य के साथ गले से निर्बाध
उतरते हैं लज़ीज़ डिनर के निवाले,
जब तब सनसनी के झटको से बोझिल
मृतप्राय संवेदनाएं
सहज ही ओढ़ लेती हैं उदासीनता का दुशाला
और सोच के वृत में
चक्कर लगाता है ये विचार
आखिर हम किस बात से चौंकते हैं,
सुन्न पड़ी शिराएँ,
धीमा होता रक्तचाप,
शिथिल चेतनाएं
अगर हमारा आज है तो चेत ही जाइए
सचमुच यह समय हमारी कल्पनाओं से परे,
बहुत परे है ……….
2.
कुछ हाथ मेरे सपने में आते हैं
सुनिए
मुझे कुछ कहना है आपसे,
मेरी रातें इन दिनों एक अज़ाब की
गिरफ्त में हैं
और मेरे दिन उसे पहेली से सुलझाया करते हैं,
पिछले कुछ दिनों से
अक्सर कुछ हाथ में मेरे सपने में आते हैं
मैं गौर से देखती हूँ इन हाथों का रंग
जो हर रात बदलता रहता है
दिल्ली के मौसम की तरह
वादागरों की तारीखों की तरह,
और बुरे दिनों में बदलते रिश्तों की तरह,
पर इनका मुसलसल आना किसी बदलाव से परे है
इस मुल्क में आम आदमी की बदकिस्मती की तरह, गोरे हाथ, भूरे हाथ, काले हाथ,
मेरे इर्द गिर्द घूमते ये हाथ
किसी तिलिस्म की मानिंद मेरी सोच पर शाया हो जाते हैं,
शायद इनकी पहचान ही मेरी आज़ादी का सबब है
यकीनन मैं इन हाथों को पहचानना चाहती हूँ हो सकता है ये भीड़ में खोये किसी बच्चे का हाथ हो
जो छूट गया है पीछे,
जिसका एक हाथ बार बार सहलाता है
सहमें सुर्ख गालों पर सूख गयी बेबसी की लकीरें
और दूसरा पकड़ लेता है बार बार
गुजरती महिलाओं के पल्लू का कोना, या क्या ये हाथ वही हैं जो खड़ा करते ही
सफ़ेद पत्थरों से बनी प्रेम की निशानी
भेंट चढ़ गए एक सनकी शहँशाह की खब्त की सूली पे,
वे हाथ जिन पर खिंची लकीरों ने ये कभी ये घोषणा की होगी
कि वे इतिहास में अमर होंगे,
हालांकि ये मुमकिन है
उनके मिट्टी में मिलने की बात पर
मौन रही होंगी लगभग सभी लकीरें, यूं कभी कभी सोचती हूँ
ये बॉबी की डिंपल कपाड़िया के आटे में सने
ज़ुल्फों पर छाप छोडते हाथ भी तो हो सकते हैं,
या फिर सलीम के प्याला थामते लरजते हाथ,
नूरजहां के इत्र-ए-गुलाब में महकते बेख्याली में
कबूतर उड़ाते हाथ
या प्रेम का परवाना लिखते किसी नाज़नीन के नाजुक हाथ,
पर जरा रुकिए,
ये भी हो सकता है
ये अपनी भूख और लाचारी को
कविता में ढालते किसी गुमनाम कवि के हाथ हों,
जिन्हे मुश्किल होती होगी लिखने में
ख्वाब, फूल, पंखुड़ियाँ, तितलियाँ और प्रेम,
या मेरे माज़ी के तसव्वुर में कैद
रद्दी कागज़ के लिफाफे बनाते एक नन्ही बच्ची के हाथ
जिसके लिए गिनती थम गयी है
और याद है तो बस सौ लिफाफे बराबर होते हैं एक रुपए के, मेरी उलझन मुझ पर हावी है
और मेरी सोच का दायरा अब तोड़ना चाहता है
वक़्त की सारी बन्दिशें,
फिर ख्याल आता है
कहीं ये हाथ राजा शिवि के तो नहीं
जो परोपकार के लिए
अपनी ही देह के दान का निमित्त बने,
यकीनन हाथ हाथ होते हैं आँखें नहीं,
यदि आँखें होते तो देख पाते
आज मांस अपनी नहीं पराई देह से
नोचने को आतुर है असंख्य हाथ, वैसे हाथ किसी के भी हो सकते हैं
रिक्शा खींचते कलकत्तिया मजदूर के हाथ,
समय का वर्क पलटते काल के हाथ,
क्रांति का झण्डा उठाए भूखे पेट मजदूर के हाथ
या वे हाथ जो दस्तखत कर रहे थे
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के फ़ांसीनामे पर, यूं जानती हूँ कि ये हाथ हैं पाँव नहीं
और हाथ कैद हुआ करते हैं मजबूरी की बेड़ियों में,
वे किसी मासूम के तन पर कपड़ा ढक भी
सकते हैं
और किसी वहशी की कुत्सित कामना का
माध्यम बन उसे नोच भी सकते हैं
यदि ये पाँव होते तो चलकर दूर निकल जाते
मेरे सपनों की जद और अपनी पाबंदियों से कहीं दूर
पर हाथों को हाथ ही होना होता है,
इनकार इनके अधिकार-क्षेत्र से कहीं बाहर की शय है
और दिमाग से जारी हुये हुक्म की तामील इनका मुकद्दर,
मेरी पहचान के दायरे में नहीं बन पाती है
हाथों की कोई मुकम्मल तस्वीर
पहचान हमेशा अधूरी रहती हैं
क्योंकि हर बार सपने में दूर जाते या
करीब आते सिर्फ हाथ हैं,
जिनका न कोई चेहरा है और न ही कोई नाम
और मैं खामोशी से उनके बदलते रंग को देखा करती हूँ
इनमें देखती हूँ अब मैं अरबों-अरब हाथ
जो एक मुल्क की किस्मत बदलने का माद्दा रखते हैं
खुश हूँ कि कुछ हाथ थामे हैं कुदाल
और कुछ मजबूती से कलम
और दो हाथ उनमें शायद मेरे भी हैं ……..
3.
मुझे कुछ कहना है आपसे,
मेरी रातें इन दिनों एक अज़ाब की
गिरफ्त में हैं
और मेरे दिन उसे पहेली से सुलझाया करते हैं,
पिछले कुछ दिनों से
अक्सर कुछ हाथ में मेरे सपने में आते हैं
मैं गौर से देखती हूँ इन हाथों का रंग
जो हर रात बदलता रहता है
दिल्ली के मौसम की तरह
वादागरों की तारीखों की तरह,
और बुरे दिनों में बदलते रिश्तों की तरह,
पर इनका मुसलसल आना किसी बदलाव से परे है
इस मुल्क में आम आदमी की बदकिस्मती की तरह, गोरे हाथ, भूरे हाथ, काले हाथ,
मेरे इर्द गिर्द घूमते ये हाथ
किसी तिलिस्म की मानिंद मेरी सोच पर शाया हो जाते हैं,
शायद इनकी पहचान ही मेरी आज़ादी का सबब है
यकीनन मैं इन हाथों को पहचानना चाहती हूँ हो सकता है ये भीड़ में खोये किसी बच्चे का हाथ हो
जो छूट गया है पीछे,
जिसका एक हाथ बार बार सहलाता है
सहमें सुर्ख गालों पर सूख गयी बेबसी की लकीरें
और दूसरा पकड़ लेता है बार बार
गुजरती महिलाओं के पल्लू का कोना, या क्या ये हाथ वही हैं जो खड़ा करते ही
सफ़ेद पत्थरों से बनी प्रेम की निशानी
भेंट चढ़ गए एक सनकी शहँशाह की खब्त की सूली पे,
वे हाथ जिन पर खिंची लकीरों ने ये कभी ये घोषणा की होगी
कि वे इतिहास में अमर होंगे,
हालांकि ये मुमकिन है
उनके मिट्टी में मिलने की बात पर
मौन रही होंगी लगभग सभी लकीरें, यूं कभी कभी सोचती हूँ
ये बॉबी की डिंपल कपाड़िया के आटे में सने
ज़ुल्फों पर छाप छोडते हाथ भी तो हो सकते हैं,
या फिर सलीम के प्याला थामते लरजते हाथ,
नूरजहां के इत्र-ए-गुलाब में महकते बेख्याली में
कबूतर उड़ाते हाथ
या प्रेम का परवाना लिखते किसी नाज़नीन के नाजुक हाथ,
पर जरा रुकिए,
ये भी हो सकता है
ये अपनी भूख और लाचारी को
कविता में ढालते किसी गुमनाम कवि के हाथ हों,
जिन्हे मुश्किल होती होगी लिखने में
ख्वाब, फूल, पंखुड़ियाँ, तितलियाँ और प्रेम,
या मेरे माज़ी के तसव्वुर में कैद
रद्दी कागज़ के लिफाफे बनाते एक नन्ही बच्ची के हाथ
जिसके लिए गिनती थम गयी है
और याद है तो बस सौ लिफाफे बराबर होते हैं एक रुपए के, मेरी उलझन मुझ पर हावी है
और मेरी सोच का दायरा अब तोड़ना चाहता है
वक़्त की सारी बन्दिशें,
फिर ख्याल आता है
कहीं ये हाथ राजा शिवि के तो नहीं
जो परोपकार के लिए
अपनी ही देह के दान का निमित्त बने,
यकीनन हाथ हाथ होते हैं आँखें नहीं,
यदि आँखें होते तो देख पाते
आज मांस अपनी नहीं पराई देह से
नोचने को आतुर है असंख्य हाथ, वैसे हाथ किसी के भी हो सकते हैं
रिक्शा खींचते कलकत्तिया मजदूर के हाथ,
समय का वर्क पलटते काल के हाथ,
क्रांति का झण्डा उठाए भूखे पेट मजदूर के हाथ
या वे हाथ जो दस्तखत कर रहे थे
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के फ़ांसीनामे पर, यूं जानती हूँ कि ये हाथ हैं पाँव नहीं
और हाथ कैद हुआ करते हैं मजबूरी की बेड़ियों में,
वे किसी मासूम के तन पर कपड़ा ढक भी
सकते हैं
और किसी वहशी की कुत्सित कामना का
माध्यम बन उसे नोच भी सकते हैं
यदि ये पाँव होते तो चलकर दूर निकल जाते
मेरे सपनों की जद और अपनी पाबंदियों से कहीं दूर
पर हाथों को हाथ ही होना होता है,
इनकार इनके अधिकार-क्षेत्र से कहीं बाहर की शय है
और दिमाग से जारी हुये हुक्म की तामील इनका मुकद्दर,
मेरी पहचान के दायरे में नहीं बन पाती है
हाथों की कोई मुकम्मल तस्वीर
पहचान हमेशा अधूरी रहती हैं
क्योंकि हर बार सपने में दूर जाते या
करीब आते सिर्फ हाथ हैं,
जिनका न कोई चेहरा है और न ही कोई नाम
और मैं खामोशी से उनके बदलते रंग को देखा करती हूँ
इनमें देखती हूँ अब मैं अरबों-अरब हाथ
जो एक मुल्क की किस्मत बदलने का माद्दा रखते हैं
खुश हूँ कि कुछ हाथ थामे हैं कुदाल
और कुछ मजबूती से कलम
और दो हाथ उनमें शायद मेरे भी हैं ……..
3.
मैं तुम हो जाती हूँ
तन्हाई के किन्ही खास पलों में
कभी कभी सोचती हूँ
मैं एक मल्लिका हूँ तुम्हारी कायनात की,
जिसे हर रात बदलने से बचना है सिन्ड्रेला में,
कभी कभी सोचती हूँ
मैं एक मल्लिका हूँ तुम्हारी कायनात की,
जिसे हर रात बदलने से बचना है सिन्ड्रेला में,
7 Comments
बहुत बधाई अंजू…….बेहतरीन कविताएँ!!!
अनु
अंजु जी आप ने इन कविताओ ने मेरी अल्पबुद्धि को इतना नचाया कि उसे स्थिर होने मे कुछ और समय लगेगा तभी शायद समझ पाउंगा कि आखिर आप कहना क्या चाहती है ? बहरहाल आपको बहुत बहुत आभार और बधाई ।
अंजू हमारे समय की बेहद संवदनशील और ऊर्जावान कवयित्री हैं। ये कविताएं उनकी काव्ययात्रा की ओर दृढ़ता से आगे बढ़ने का संकेत देती हैं। बधाई और शुभकामनाएं अंजू जी के लिए।
बहुत शानदार रचनायें ………अंजू को बहुत बहुत बधाई
Pingback: Online businesses
Pingback: benefits of eating mushrooms
Now that many people are using smart phones, we can consider mobile phone positioning through wireless networks or base stations.