हिंदी ग़ज़ल की जिस परंपरा को दुष्यंत कुमार ने पुख्ता जमीन दी. अदम गोंडवी, ज्ञान प्रकाश विवेक और राजेश रेड्डी जैसे शायर जिसे अवाम के और करीब ले गए. उसी हिंदी ग़ज़ल को आलोक श्रीवास्तव ने इंसानी रिश्तों से जोड़ कर एक नया आयाम दे दिया है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस समय अपनी पीढ़ी में आलोक श्रीवास्तव हिंदी ग़ज़ल का सबसे बड़ा नाम हैं. सिर्फ मकबूलियत में ही नहीं, अपने कहन और मिजाज के लिए भी वे एक अलग पहचान रखते हैं. उनकी गजलों में जहां उर्दू शायरी की पारंपरिक रवानी मिलती है वहीं हिंदी की ठेठ बोली-बानी भी सुनाई देती है. उनकी ग़ज़लों में खुसरो, कबीर, मीरो-ग़ालिब से लेकर फैज़ तक की जुबान का अंदाज़ नज़र आता है. आलोक की शायरी जुबान पर चढ़ने और दिल में उतरने की तासीर रखती है. यही कारण है कि उनका पहला ही ग़ज़ल संग्रह ‘आमीन’ न सिर्फ़ हाथों-हाथ लिया गया बल्कि इस एक संग्रह के लिए ही उन्हें साहित्य के अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया. आलोक हिंदी के पहले ऐसे युवा ग़ज़लकार हैं जिनकी ग़ज़लों और नज़्मों को जगजीत सिंह, पंकज उधास, तलत अज़ीज़ से लेकर शुभा मुद्गल तक ने ख़ूब गाया है. अनुष्का शंकर के साथ उनका एलबम ‘ट्रैवलर’ ग्रैमी अवॉर्ड में नॉमिनेट हुआ तो हाल ही में प्रसिद्ध संगीतकार आदेश श्रीवास्तव ने गुड़िया के लिए उनके लिखे गीत की मर्मस्पर्शी धुन बनाई. ‘जानकी पुल’ के लिए आलोक श्रीवास्तव की चुनिन्दा दस ग़ज़लें, साथ में ऊपर जिन गजलों, नज़्मों का उल्लेख किया गया है उनके लिंक्स भी दिए जा रहे हैं. ख़ास आपके लिए – जानकी पुल.
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ग़ज़ल 1
बोझल-पलकें, ख़्वाब-अधूरे और उस पर बरसातें सच,
उसने कैसे काटी होंगी, लंबी-लंबी रातें सच. लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच. कच्चे-रिश्ते, बासी-चाहत और अधूरा-अपनापन,
मेरे हिस्से में आई हैं, ऐसी भी सौग़ातें, सच. जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,
पलकों से लौटी हैं कितने सपनों की बारातें, सच. धोखा खूब दिया है खुदको झूठे-मूठे किस्सों से,
याद मगर जब करने बैठे, याद आई हैं बातें सच.
उसने कैसे काटी होंगी, लंबी-लंबी रातें सच. लफ़्जों की दुनियादारी में आँखों की सच्चाई क्या?
मेरे सच्चे मोती झूठे, उसकी झूठी बातें, सच. कच्चे-रिश्ते, बासी-चाहत और अधूरा-अपनापन,
मेरे हिस्से में आई हैं, ऐसी भी सौग़ातें, सच. जाने क्यों मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते,
पलकों से लौटी हैं कितने सपनों की बारातें, सच. धोखा खूब दिया है खुदको झूठे-मूठे किस्सों से,
याद मगर जब करने बैठे, याद आई हैं बातें सच.
ग़ज़ल 2
तुम सोचते रहते हो, बादल की उड़ानों तक,
और मेरी निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक.
और मेरी निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक.
ख़ुशबू सा जो बिखरा है, सब उसका करिश्मा है,
मंदिर के तरन्नुम से, मस्जिद की अज़ानों तक.
मंदिर के तरन्नुम से, मस्जिद की अज़ानों तक.
ऎसी भी अदालत है जो रुह की सुनती है,
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक.
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक.
टूटे हुए ख़्वाबों की एक लम्बी कहानी है,
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक. दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को,
बेकार ही लाए हम, चाहत को ज़ुबानों तक. हर वक़्त फ़िज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूँगा ज़मानों तक.
शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक. दिल आम नहीं करता, एहसास की ख़ुशबू को,
बेकार ही लाए हम, चाहत को ज़ुबानों तक. हर वक़्त फ़िज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,
मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूँगा ज़मानों तक.
(
महदूद = सीमित)ग़ज़ल 3
मंज़िल पे ध्यान हमने ज़रा भी अगर दिया,
आकाश ने डगर को उजालों से भर दिया. रुकने की भूल हार का कारण न बन सकी,
चलने की धुन ने राह को आसान कर दिया. पीपल की छाँव बुझ गई, तालाब सड़ गए,
किसने ये मेरे गाँव पे एहसान कर दिया. घर, खेत, गाय, बैल, रक़म अब कहाँ रहे?
जो कुछ था सब निकाल के फसलों में भर दिया. मंडी ने लूट लीं जवाँ फसलें किसान की,
क़र्ज़े ने ख़ुदकुशी की तरफ़ ध्यान कर दिया.
आकाश ने डगर को उजालों से भर दिया. रुकने की भूल हार का कारण न बन सकी,
चलने की धुन ने राह को आसान कर दिया. पीपल की छाँव बुझ गई, तालाब सड़ गए,
किसने ये मेरे गाँव पे एहसान कर दिया. घर, खेत, गाय, बैल, रक़म अब कहाँ रहे?
जो कुछ था सब निकाल के फसलों में भर दिया. मंडी ने लूट लीं जवाँ फसलें किसान की,
क़र्ज़े ने ख़ुदकुशी की तरफ़ ध्यान कर दिया.
ग़ज़ल 4
वो दौर दिखा जिसमें, इंसान की ख़ुशबू हो,
इंसान की साँसों में, ईमान की ख़ुशबू हो. पाकीज़ा अज़ानों में, मीरा के भजन गूँजें,
नौ दिन के उपासों में, रमज़ान की ख़ुशबू हो. मस्जिद की फ़िज़ाओं में, महकार हो चंदन की,
मंदिर की हवाओं में, लोबान की ख़ुशबू हो. हम लोग भी फिर ऐसे बेनाम कहाँ होंगे,
हममें भी अगर तेरी पहचान की ख़ुशबू हो. मैं उसमें नज़र आऊँ, वो मुझमें नज़र आए,
इस जान की ख़ुशबू में, उस जान की ख़ुशबू हो.
इंसान की साँसों में, ईमान की ख़ुशबू हो. पाकीज़ा अज़ानों में, मीरा के भजन गूँजें,
नौ दिन के उपासों में, रमज़ान की ख़ुशबू हो. मस्जिद की फ़िज़ाओं में, महकार हो चंदन की,
मंदिर की हवाओं में, लोबान की ख़ुशबू हो. हम लोग भी फिर ऐसे बेनाम कहाँ होंगे,
हममें भी अगर तेरी पहचान की ख़ुशबू हो. मैं उसमें नज़र आऊँ, वो मुझमें नज़र आए,
इस जान की ख़ुशबू में, उस जान की ख़ुशबू हो.
ग़ज़ल 5 सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अंधेरी रतियाँ, 1
के‘ जिनमें उनकी ही रौशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अँखियाँ.
दिलों की बातें दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें जुब़ाँ से सब कुछ, मैं करना चाहूँ नज़र से बतियाँ. ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती साँसें, तरसती आँखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियाँ.
उन्हीं की आँखें, उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की खुशबू,
किसी भी धुन में रमाऊँ जियरा, किसी दरस में पिरोलूँ अँखियाँ. मैं कैसे मानूँ बरसते नैनो के‘ तुमने देखा है पी को आते,
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटकी कलियाँ.
किसी भी धुन में रमाऊँ जियरा, किसी दरस में पिरोलूँ अँखियाँ. मैं कैसे मानूँ बरसते नैनो के‘ तुमने देखा है पी को आते,
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटकी कलियाँ.
(1. अमीर ख़ुसरो को खेराज-ए-अक़ीदत, जिनके मिसरे पर ये ग़ज़ल हुई)
ग़ज़ल 6
हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,1
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या. धुएँ की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना,
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या.
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या. धुएँ की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना,
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या.
तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू, लहू के साथ बहती है,
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या उतर जाए है छाती में, जिगरवा काट डाले हैं
मुई तनहाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या. हमन कबिरा की जूती हैं, उन्हीं का क़र्ज़ भारी है,
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या, उधारी क्या.
(1. कबीर को खेराज-ए-अक़ीदत, जिनके मिसरे पर ये ग़ज़ल हुई, अज़्म = श्रेष्ठता)
ग़ज़ल 7
अगर सफ़र में मेरे साथ मेरा यार चले,
तवाफ़ करता हुआ मौसमे-बहार चले. लगा के वक़्त को ठोकर जो ख़ाकसार चले,
यक़ीं के क़ाफ़िले हमराह बेशुमार चले. नवाज़ना है तो फिर इस तरह नवाज़ मुझे,
के‘ मेरे बाद मेरा ज़िक्र बार-बार चले. ये जिस्म क्या है, कोई पैरहन उधार
तवाफ़ करता हुआ मौसमे-बहार चले. लगा के वक़्त को ठोकर जो ख़ाकसार चले,
यक़ीं के क़ाफ़िले हमराह बेशुमार चले. नवाज़ना है तो फिर इस तरह नवाज़ मुझे,
के‘ मेरे बाद मेरा ज़िक्र बार-बार चले. ये जिस्म क्या है, कोई पैरहन उधार