जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

जानकी पुल की  यह  पहली पोस्ट है. मेरी अपनी कहानी, जो ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुई थी- प्रभात रंजन

लाइटर

 

उस दिन के बाद सब उसे बबलू लाइटर के नाम से बुलाने लगे।
नाम तो उसका बबलू सिंह था। जबसे वह राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय में पढ़ने आया था तबसे उसके इसी नाम की शोहरत फैली थी। इंटर में दाखिला लेते ही उसने अपने नाम का डंका बेलसंड प्रखंड ही नहीं, पूरे सीतामढ़ी जिले में बजवाया था। उस साल उसके विधानसभा क्षेत्र से उसके सजातीय ठाकुर रिपुदमन सिंह ने पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा था। उसने कॉलेज के हॉस्टल में रहने वाले बीस समर्पित नौजवानों का ऐसा दल बनाया कि कहते हैं उस दल ने अपने दम पर पैंतालीस-जी! बीस और पाँच पैंतालीस-बूथ छापकर ठाकुर साहब को 22,000 मतों से विजयी बनवाने में अहम भूमिका निभाकर जिले की राजनीति में दशकों से दखल रखनेवाले नेताओं को भी उसने एक बार अपने नाम के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया था।
जब भी अलग-अलग पार्टियों के छोटे-बड़े नेताओं का जमघट कहीं लगता तो उनमें इस बात को भी लेकर चर्चा छिड़ जाती थी कि आखिर इंटर फर्स्ट ईयर में पढ़ने वाले इस बबलुआ ने कमाल कर दिया। खुद ठाकुर साहब ने चुनावी जीत के अपने जलसे में उसके माथे पर लाल पगड़ी बांधते हुए यह घोषणा भी कर दी कि असल में बबलू सिंह उस जिले का भावी युवा हृदय सम्राट है।
कोई और होता तो उसकी राजनीति चमक गई होती, मगर लगता है जैसे बबलू की किस्मत कुछ खास अच्छी नहीं थी। एक तो कारण यह कि ठाकुर रिपुदमन सिंह झोंक-झोंक में अपने पीढ़ियों पुराने दुश्मन राम अजायब सिंह को सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा टिकट दे दिए जाने के कारण निर्दलीय ही चुनाव में खड़े हो गए थे। पटना पहुंचने के बाद भी सरकार में अपनी कुछ खास साख नहीं बना पाए, क्योंकि सत्तारूढ़ पार्टी को अपनी बदौलत सदन में पूर्ण बहुमत मिल गया था। इसके कारण निर्दलियों की कुछ खास दरकार सरकार को रह नहीं गई थी। दूसरा कारण यह भी था कि अपने अक्खड़ स्वाभाव के कारण ठाकुर रिपुदमन सिंह की कोई साख भी नहीं बन पाई। वे निर्दलीय के निर्दलीय बने रहे। बस, बबलू और उसके कुछेक साथियों को जी-जान से की गई मेहनत के बदले यही लाभ मिल पाया कि एमएलए बनने पर ठाकुर साहब को जो यात्रा-कूपन मिले थे उसका उपयोग करते हुए वे दो-चार दफा दिल्ली की यात्रा कर आए, वह भी एसी कोच में बैठकर।
यात्रा में ठाकुर रिपुदमन सिंह की कोई खास दिलचस्पी नहीं थी। वे चाहे बेलसंड के अपने पैतृक गांव में रहते हों या पटना के विधायक निवास में हर शाम एक ही स्थान की यात्रा करते थे- मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान में रेशमा खानम के कोठे पर गजल सुनने जाया करते थे। इस यात्रा के लिए उनकी गाड़ी ही पर्याप्त थी। इसलिए रेलयात्रा का कूपन वे अपने लगुओं-भगुओं में बांट दिया करते।
बहरहाल, ठाकुर साहब अगला चुनाव हार गए और अपने उस स्वायत्त संसार में लौट गए जिसमें अब उनके और रेशमा खानम के गायन के दरम्यान कोई बाधा नहीं रह गई थी। राजनीति के पांच सालों के प्रवास से ठाकुर साहब की बरसों पुरानी नियमित दिनचर्या में बाधा ही आ गई थी। वे नियमित तौर पर गजल सुनने नहीं जा पाते थे। जल्दी ही ठाकुर रिपुदमन सिंह राजनीति के संसार के लिए गुमनाम हो गए और बबलू सिंह की राजनीति दिशाहीन हो गई।
शिक्षा में भी इन पांच सालों में उसने कुछ खास प्रगति नहीं की थी। इन पांच सालों में वह शिक्षा के महज तीन पायदानों को ही पार कर पाया था। अभी वह बीए फाईनल ईयर का छात्र था। कुछ तो सेशन लेट होने के कारण वह पिछड़ गया था और एक साल मौज में आकर उसने परीक्षा भी नहीं दी थी। उसका सारा ध्यान कॉलेज-विश्र्वविद्यालय के चुनाव लड़ने और जीतने पर था।
ठाकुर साहब विधानसभा का चुनाव क्या हार गए बबलू सिंह के लिए तो जैसे दुनिया ही बदल गई। जिस लॉज में रहते थे, जिस मेस में खाना खाते थे उसकी ओर से बकाए का तकाजा आने लगा। एक दिन पुलिस वाले ने बिना हेल्मेट स्कूटर चलाने पर मेहसौल चौक के व्यस्ततम चौराहे पर शाम के छह बजे उस समय रोक लिया था जब अमूमन पान खाने के लिए शहर के बड़े-बड़े नक्शाबाज वहां प्रिंस पान भंडार के सामने जुटते थे। पुलिस वाले ने डंडे से उसके स्कूटर को कई बार खटखटाया भी। वह तो भला हो चुनचुन यादव का कि उसने आगे बढ़कर पुलिस वाले से कहा कि ये बड़े सीनियर कार्यकर्ता है, जरा संभलकर बात करे। खैर..तब बात आई गई हो गई।
लेकिन एक बात बबलू सिंह के समझ में आ गई कि शहर में पहचान इससे नहीं बनती कि आप किस आदमी का झंडा उठाते हैं। पहचान इससे बनती है कि भले आप चलते बजाज सुपर के स्कूटर से ही हों, मगर उस पर झंडा किस पार्टी का लगा है। आखिरकार मायने यही रखता है।
ठाकुर साहब की निर्दलीय राजनीति गुमनाम हो गई और बबलू सिंह को कोई प्रश्रय देने वाला ही नहीं रहा। ऐसे में कॉलेज में चुनाव जीतकर युवा हृदय सम्राट का सपना खटाई में पड़ता दिखने लगा था।
ऐसा नहीं है कि बबलू भी गुमनामी के गर्त में चला गया हो, वह पढ़ाई-लड़ाई साथ-साथ के नारे में यकीन रखता था। जिले के एकमात्र प्रतिष्ठित कॉलेज में पढ़ने उसके प्रखंड से आने वाले लड़कों की तादाद में कोई कमी नहीं आई थी। उनके बीच उसका अच्छा जोर भी था। उनके ही बूते उसने बताते हैं कि एक बार ऐसा कारनामा कर दिखाया कि उसका नाम शहर के बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ गया। उसने दुर्गा पूजा के चंदे के सवाल पर शहर के प्रतिष्ठित श्याम स्टोर्स के मालिक पर चाकू चला दिया था। मालिक लाला रामनाथ को थोड़ी-बहुत खरोंच ही आई। मगर यह घटना उसे अपनी प्रतिष्ठा पर इतना बड़ा आघात लगी कि उसने अगले दिन से दुकान पर बैठना ही छोड़ दिया। सारा कामकाज अपने बच्चों के हाथ में छोड़कर वह बाबा वैद्यनाथधाम रहने चला गया।
बबलू सिंह पर कोई खास कार्रवाई नहीं हुई। वह गिफ्तार तक नहीं हुआ। कहते हैं सत्तारूढ़ पार्टी के एक रसूख वाले नेता ने उसके साहस को देखते हुए उसके ऊपर अपना हाथ रख दिया था। सेठ के परिवार वाले इस घटना से इतने आतंकित हो गए कि उन्होंने भी इस मामले को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा।
इस घटना ने जैसे बबलू सिंह का कद शहर के रंगबाजों में चढ़ गया। लोग कहने लगे यही हाल रहा तो यह कॉलेज से निकलते ही विधानसभा का चुनाव तक लड़ जाएगा। लड़के उसकी दोस्ती में अपनी शान समझते। देखने-सुनने में वह इतना गोरा-चिट्टा, लंबा था कि देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उसने इतने बड़े-बड़े कारनामे किए हैं। उन दिनों शहर में गिने-चुने लड़के ही जींस और नाईके या रीबॉक के स्पोर्ट्‌स शूज पहनते…बबलू उनमें से एक था। चुनाव में अब उसे इस बात की उम्मीद ज्यादा दिखाई देने लगी थी कि सत्तारूढ़ पार्दी के छात्र संगठन का समर्थन उसे मिल जाए। वह छात्र संगठन के जिलाध्यक्ष विमल सिंह तूफानी की दूकान पर अक्सर शाम को उठने-बैठने भी लगा था।
उसकी गाड़ी पटरी पर अच्छी तरह दौड़ रही थी कि कॉलेज छात्र संघ के चुनाव से यह घटना घट गई। उसके बढ़ते राजनीतिक कैरियर पर विराम लग गया। उसका नाम बबलू लाइटर पड़ गया…
घटना कुछ ऐसी है कि उसे मामूली भी कह सकते हैं और चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि यह तो बड़ी बात है। आजकल तो इसकी कोई परवाह भी नहीं करता। मगर कौन जानता था कि बात इतनी बड़ी बन जाएगी। लेकिन बात इतनी बढ़ गई कि शहर में जो भी उसे जानता था बबलू लाइटर कहकर बुलाने लगा।
मुझे अच्छी तरह याद है सरस्वती पूजा का दिन था। गोयनका महाविद्यालय सरस्वती पूजा समिति की ओर से कॉलेज की तब पैंतीस साल की परंपरा का निर्वाह करते हुए हर साल की तरह उस साल भी सरस्वती पूजा का आयोजन किया गया था। शहर का शायद ही कोई नवयुवक या नवयुवती हों जो उस जगह सरस्वती मां को माथा नवाने न आते हों। उस साल आयोजकों में बबलू सिंह भी था और जैसी उसकी प्रतिष्ठा थी कोई यह मान भी नहीं सकता था कि वहां कुछ गड़बड़ हो जाए।
बताने वाले बताते कि सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, शाम हो चुकी थी और आरती की तैयारी चल रही थी। उस समय डुमरा प्रखंड के बीडीओ साहब गणेशी मंडल की लड़की रोजी सरस्वती माता की वंदना करने आई। वह माता की पूजा करके जाने के लिए पीछे मुड़ी ही थी कि प्रसाद का ठोंगा लेकर बबलू उसकी ओर बढ़ता दिखाई दिया। अब वह पूजा की थकान का बोझ था या भांग का नशा वह रोजी के सामने ऐसा लड़खड़ाया कि उसके हाथ में रोजी के दुपट्टे का पल्लू आ गया। मंडप में ज्यादा लड़के थे नहीं, जो थे भी उनमें से ज्यादातर बबलू के अपने ही इलाके के थे। सब सन्न होकर देखते रह गए।
रोजी रोती हुई वहां से तीर की तरह निकल गई। हल्ला हो गया कि बबलू ने एक लड़की का दुपट्टा खींच लिया। बबलू लाइटर हो गया है…
आप कहेंगे लाइटर माने?
तो साहब उन दिनों हमारे उस छोटे से शहर में जो भी स्कुलिया-कॉलेजिया विद्यार्थी शर्ट को पेंट के अंदर खोंस कर पहनता, पेंट की पिछली जेब में कंघा रखता, तेल या जेल लगाकर बाल को सेट करके रखता, लड़कियों के कॉमन रूम के सामने से निकलते हुए बार-बार अपने बाल ठीक करते हुए चोर निगाहों से उधर देखता, तो लोग उसे लाइटर बुलाने लगते।
सत्तारूढ़ पार्टी के छात्र संगठन के जिलाध्यक्ष विमल सिंह तूफानी कहते- ढ़ने-लिखने वाले लड़कों का ई सब काम थोड़े होता है। ऊ त लाइटर लोग गंड़सटाक पहनकर, जुलफी बढ़ाकर शहर का माहौल खराब करता है।
एक बार तो उन्होंने शहर के लाइटर लड़कों को सुधारने का अभियान भी चलाया था। नगर थाना के जमादार रामबरन सिंह का भी उनको इस अभियान में सहयोग मिला था। उन दिनों बड़ी मोहरी के पेंट पहनने का चलन था। विमल सिंह तूफानी जमादार साहब के साथ स्कूल-कॉलेजों के चक्कर लगाता। जो भी लड़का बड़ी मोहरी का पेंट पहने मिलता उसके पेंट की मोहरी काट दी जाती या किसी लड़के के बाल बढ़े हुए पाए जाते तो उसका तत्काल मुंडन कर दिया जाता। जमादार रामबरन सिंह लड़के के बालों को हाथों से पकड़ कर घोषणा करते हुए कहते- बच्चा लोग घ्यान से सुनो, जिसका भी बाबड़ी मेरे हाथ में आ गया उसका सिर मूंड़ दिया जाएगा। तुम लोग कॉलेज में पढ़ने आते हो, बाबड़ी बढ़ाकर लाइटर बनने नहीं। इस घोषणा के बाद उस लड़के को मुंडन करने वाले के हवाले कर दिया जाता।
विमल सिंह तूफानी और जमादार रामबरन सिंह का यह अभियान सफलतापूर्वक चल रहा था कि अचानक इस पर विराम लगाना पड़ा। हुआ यह कि एक दिन उनके दल ने एक ऐसे लड़के का लाइटर समझकर मुंडन कर दिया जिसके पिता पास के जिले में बड़े अधिकारी थे। इस घटना के बाद जमादार साहब का ट्रांसफर तस्करी रोक अभियान के तहत मोहनिया बॉर्डर पर कर दिया गया। विमल सिंह तूफानी ने पटना दौड़-भाग कर पार्टी के बड़े नेताओं से कह-सुनकर मामला शांत करवाया। वह अधिकारी तो तूफानी को मानहानि के मुकदमे में फंसाकर उसे गिरफ्तार करवाने की तैयारी में था। लेकिन ऊपर से कहने-सुनने पर वह शांत हुआ। खैर, लाइटरों के खिलाफ इसी अभियान के बाद तूफानी पार्टी की छात्र इकाइ का जिलाध्यक्ष बन गया।
बबलू सिंह के लाइटर निकल जाने की खबर आग की तरह फैल गई। शहर भर में यह बात खुसफुसाहटों के सहारे फैल गई कि उसने बीडीओ साहब की लड़की का दुपट्टा खींच लिया और वह दनदनाती हुई पूजा के मंडप से बिना प्रसाद लिए ही निकल गई।
विमल सिंह तूफानी ने बयान जारी कर दिया, आदमी लाइटर हो वह कॉलेज में पढ़ने वाली बहनों की क्या रक्षा कर पाएगा। ऐसे लाइटर का सामाजिक बहिष्कार कर देना चाहिए।
अगले दिन मूर्ति के भसान में भी बबलू सिंह नहीं दिखा। लड़के कानाफूसी कर रहे थे कि रात को हॉस्टल से उसे पुलिस उठाकर ले गई थी। आखिर एक अफसर की बेटी को छेड़ा था उसने।
बाद में लौटकर वह आ गया। लेकिन अपने ही गांव, प्रखंड के लड़के उसका साथ छोड़ने लगे। कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो वे यही कहते कि भइया कोई देख ले तो हमारी भी बदनामी होगी। पार्टी नेता ने भी अपने हाथ सिर के ऊपर से हटा लिए।
जिधर से भी गुजरता लोग कहते- देखो, बबलू लाइटर जा रहा है।
इसके बाद की कहानी के बारे में मैं केवल इतना ही बता सकता हूं कि बबलू सिंह ने हॉस्टल छोड़ दिया और किराए पर एक कमरा लेकर रहने लगा। चुनाव में भी उसने कोई सरगर्मी नहीं दिखाई। बीए की परीक्षा देकर वह उस शहर के सीन से सदा के लिए गायब हो गया। वैसे भी शहर के नौजवान पढ़ाई-नौकरी के लिए दिल्ली-मुंबई जैसे बड़े-बड़े शहरों का रुख कर रहे थे।
जल्दी ही बबलू लाइटर को हम भी भूल गए…
आप कहेंगे कि मैं भी बौड़म की तरह क्यों बिना किसी संदर्भ के यह कहानी सुनाए जा रहा हूँ। तो अब इसका संदर्भ भी बता देता हूँ।
पिछले साल जब बिहार में पंचायत चुनाव हो रहे थे तब मैं सीतामढ़ी में अपने गांव गया हुआ था। रोज चुनावों को लेकर तरह-तरह की खबरें छपती रहती थीं कि किस तरह पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू कर दिए जाने से गांवों में सत्ता-परिवर्तन तथा सामाजिक रुपांतरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इसी दौरान हिंसक घटनाओं की खबरें भी अखबारों में छप रही थीं। बेलसंड प्रखंड के एक पंचायत के उम्मीदवार के मरने की खबर भी छपी थी। खबर थी कि उसके प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार ने उसकी हत्या रात में सोते समय करवा दी थी। उम्मीदवार का नाम सीतामढ़ी समाचार में बबलू सिंह लिखा हुआ था। तस्वीर तो नहीं छपी थी कि मैं कुछ और अनुमान लगा पाता। लेकिन बबलू लाइटर की इस कहानी का मुझे ध्यान आ गया।
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7 Comments

  1. प्रभात जी,
    आपका ब्लाग पहली बार हाथ लगा है. जानकीपुल आपकी पहचान बन गई है पर इसे अपनी सीमा न बनने दें

  2. हमेशा कि तरह बहुत दमदार।मुजफ्‍फरपुर के चारो-तरफ आपकी कहानियाँ समकालीनता में गहरे उतरती है।टुच्‍चेपन को मार्मिकता के साथ पेश करना हँसी-खेल नही।
    सदन।

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