प्रसिद्ध आलोचक नंदकिशोर नवल जब 75 साल के हुए थे तब उनसे यह बातचीत की थी योगेश प्रताप शेखर ने, जो समकालीन पीढ़ी के प्रखर आलोचक और प्राध्यापक हैं। नवल की स्मृति में यह बातचीत पढ़िए- मॉडरेटर
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१. इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं ? कुछ उसके बारे में बताइये.
इन दिनों अस्वस्थ हूँ , फिर भी दिनकर जी की कविता पर एक पुस्तक का ‘ डिक्टेशन ‘ दे रहा हूँ. मैंने आधुनिक हिन्दी कविता के प्रत्येक दौर के सर्वश्रेष्ठ कवि पर पुस्तकें लिखी हैं, यथा मैथिलीशरण, निराला और मुक्तिबोध. इस लिहाज से मुझे नव-स्वच्छंदतावादी दौर के सर्वश्रेष्ठ कवि दिनकर पर भी एक पुस्तक लिखनी ही चाहिए थी. मैं काफी थक चुका था लेकिन कह नहीं सकता कि कहाँ से आत्मविश्वास पैदा हुआ कि मैंने दिनकर रचनावली के आरंभिक पाँचों काव्य- खंड पढ़ डाले और फिर पुस्तक का प्रारूप बना लिया. पुस्तक लिखाने में यदि मुझको आनंद न मिलता, तो यह योजना धरी रह जाती. उम्मीद है कि इस साल के अंत तक पुस्तक पूरी हो जाएगी.
२. हाल ही में आप ने मैथिलीशरण गुप्त और तुलसीदास पर किताबें लिखी हैं. क्या यह पुनर्मूल्यांकन है?
मैं नहीं जानता कि मैथिलीशरण और तुलसीदास पर लिखे गई पुस्तकों में इन कवियों का पुनर्मूल्यांकन हुआ है या नहीं? मैं अपने आनंद के लिए और उस कवि को जानने के लिए लिखता हूँ. उस में क्या बनता और बिगड़ता है, नहीं मालूम.
३. इतना लंबा आप का आलोचकीय जीवन रहा | किस तरह देखते हैं आप अपनी रचना-यात्रा को?
मैं अपने को आलोचक ही नहीं मानता. मैं एक काव्य -प्रेमी हूँ और मेरे मन में यह भाव रहता है कि कविता में जो मैंने सुन्दर दृश्य देखे हैं, उन्हें दूसरों को भी दिखलाऊँ. ‘रचना-यात्रा‘ एक बड़ा शब्द है, जिसको अपने आलोचनात्मक लेखन के प्रसंग में मैं बिलकुल अनुपयुक्त समझता हूँ.
४. सबसे अधिक संतुष्टि किस काम से हुई?
मैंने आलोचना में जो भी शटर-पटर किया है , उसमें सबसे अधिक संतुष्टि मुझे ‘सूरदास‘ नामक पुस्तक से मिली है , जो राजकमल से शीघ्र प्रकाश्य है | यह छोटी – सी पुस्तक है , जो बिलकुल आस्वादनपरक है | मैं जानता हूँ कि यह विद्वानों के काम की चीज नहीं है , पर मुझे उम्मीद है कि रसज्ञ पाठक मेरी ही तरह इस से आनंद -लाभ करेंगे.
५. आप को लेखन की प्रेरणा कहाँ से मिलती है?
मेरे लेखन की प्रेरणा यश और अर्थ की आकांक्षा तो बिलकुल नहीं है. वह यदि है तो अपनी रुचि और जिज्ञासा.
६. आप ‘आलोचना‘ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादन से जुड़े. ‘कसौटी‘ जैसी पत्रिका का संपादन किया. एक संपादक के रूप में सबसे अधिक किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
‘आलोचना‘ और ‘कसौटी‘ दोनों आलोचनात्मक पत्रिकाएँ थीं. जाहिर है कि किसी भी पत्रिका के संपादक को प्रथम और अंतिम रूप में इसके लिए प्रयास करना चाहिए कि पत्रिका का स्तर न गिरे. इसके लिए बहुत श्रम करना पड़ता है. पत्रिका की रूपरेखा बनाना, लेखकों के नाम तय करना, उनसे बार-बार आग्रह कर के और कभी-कभी सामग्री देकर उनसे लेख लिखवाना और सभी लेखों को ध्यानपूर्वक देखना, यह सब कठिन काम है, जिस से संपादक आमतौर पर भागते हैं. लेकिन संपादक के रूप में सफलता प्राप्त करने के लिए जो सबसे अप्रिय काम करना पड़ता है वह है ढेर सारे लेखकों को अपना दुश्मन बनाना. यह यों ही नहीं है कि ‘सरस्वती‘ के संपादक पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी अपने दुश्मनों के भय से बंदूक ले कर सोते थे.
७. आगे की लेखकीय योजनाओं के बारे में कुछ बताना चाहेंगे ?
अभी तो मन में एक ही बात है कि नागार्जुन की मैथिली कविताओं पर मैं एक लंबा लेख लिखूँ, पर यह इच्छा पूरी होगी या नहीं, यह मेरे स्वास्थ्य पर निर्भर है. मैं अज्ञेय और नागार्जुन की हिंदी कविताओं पर भी दो पुस्तकें लिखना चाहता था, लेकिन यह इच्छा अब मेरे साथ ही जायेगी. चूँकि मैं पढ़े-लिखे बिना नहीं रह सकता, इसलिए मुझसे और क्या बन पड़ेगा, मैं नहीं कह सकता.
८. हिंदी आलोचना के वर्तमान परिदृश्य को आप किस देखते हैं?
हिंदी आलोचना का दुर्भाग्य यह है कि वह साहित्य से भटककर वैचारिक विमर्शों में उलझ गई है, जो कि वस्तुतः समाजशास्त्र का विषय है. दूसरे, यह आलोचना रचना के बारे में इधर-उधर की बातें बहुत करती है, लेकिन रचना के पाठ का साक्षात्कार नहीं करती. नामवर जी द्वारा उद्धृत किया गया एक शेर याद आता है: ‘ तूने जाने क्या निकाला है किधर का रास्ता / तेरे घर से दो कदम है मेरे घर का रास्ता‘, लेकिन मैं यह भी कह देना चाहता हूँ कि आलोचक का सिर्फ पाठ से बँधकर चलना काफी नहीं है. उस को रचना के पाठ को ‘लॉचिंग पैड‘ बनाना चाहिए और वहाँ से उसे उड़ान भरनी चाहिए, क्योंकि बिना उस उड़ान के रचना के पाठ से निकलनेवाली ध्वनि-तरंगें पकड़ में नहीं आ सकतीं.
हिंदी आलोचना का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि वह अपनी विरासत को नहीं जानती, इसलिए उसका मूल्यांकन बहुत ही छिछला होता है. उसे रचना की ऊँचाई और गहराई का ही पता नहीं है, फिर वह मूल्यांकन क्या करेगी. इसके साथ यह बहुत दुख की बात है कि समकालीन हिंदी आलोचना सिर्फ पुस्तक-समीक्षा तक सिमट कर रह गई है और इस पुस्तक-समीक्षा का कहानी, गीत और ग़ज़ल की तरह पूरा व्यावसायीकरण हो चुका है. स्वभावतः अपवादस्वरूप ही कभी कोई अच्छी समीक्षा ही पढ़ने को मिला जाती है. अधिकतर समीक्षाएँ राग-द्वेष और लाभ-लोभ से प्रेरित होकर लिखी जाती हैं.
९. समकालीन रचनात्मक लेखन के संपर्क में रहते हैं आप? उसमें उभरती प्रवृत्तियों को आप किस रूप में देखते हैं ?
समकालीन लेखन के संपर्क में पूरा तो नहीं रहता, फिर भी जो अच्छे उपन्यास, अच्छी कहानियाँ और अच्छे आलोचनात्मक लेख होते हैं, उन्हें पढ़ डालने की कोशिश करता हूँ. यह तथ्य है कि रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में भी फैशन हावी है और ‘जेनुइन‘ रचनाकार भी उँगलियों पर गिने जाने योग्य हैं. जहाँ तक रचनात्मक लेखन की सकारात्मकता की बात है यह अच्छा है कि वह राजनीतिक विचारधारा से मुक्त हो चुका है, लेकिन यह दुखद है कि वह नारीवाद और दलितवाद के गड्ढे में जा गिरा है. स्त्रियों और दलितों के उत्पीड़न के विरुद्ध होना और उन्हें समाज में पुरुषों एवं उच्च वर्णवालों के समकक्ष स्थान दिलाना बहुत महत्त्वपूर्ण बात है, लेकिन वह अनुभूति और कला के स्तर पर रची गई रचनाओं से ही संभव है, केवल विमर्शों की दुहाई देने से नहीं.
१०. हिंदी की पाँच सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ आप की नज़र में कौन-कौन सी हैं?
गद्य -पद्य मिलाकर मेरी दृष्टि में आधुनिक हिंदी साहित्य की पाँच नहीं छ: सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ हैं— गोदान, कामायनी, अनामिका, उर्वशी, चाँद का मुँह टेढ़ा है और मैला आँचल. यदि इस सूची को और बढ़ाया जाए तो आधुनिक हिंदी साहित्य का पूरा रूप उभर कर सामने आयेगा. उस में साकेत, चिंतामणि, कबीर और दूसरी परंपरा की खोज को भी रखना चाहिए साथ-साथ ‘हिंदी की कालजयी कहानियाँ‘ को भी.
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