जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए ज्योति शर्मा की कविताएँ । इन कविताओं में स्त्री-मन का विद्रोह भीतर ही भीतर गुँथा मिलता है। विद्रोह प्रकट करने के दो तरीके होते हैं, एक आक्रोश से भरा और दूसरा शालीनता से। ज्योति शर्मा की कविताओं की यह विशेषता है कि वे आक्रोश में तो हैं लेकिन उस आक्रोश को भी कविता में शालीनता से दर्ज़ करती हैं। विभिन्न पत्रिकाओं में ज्योति की कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। वे ‘ब्रज संस्कृति युवा सम्मान 2019’ से सम्मानित हैं। जानकीपुल पर ज्योति की कहानी पहले प्रकाशित हो चुकी है। अब यह कविताएँ पढ़िए – अनुरंजनी

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बुरी कविता

बुरी औरत ही नहीं होती पाठकों
बुरी कविता भी होती है
औरत को जैसे बुरी बताया जाता है
उसी तरह कविता को भी बुरी बताते है लोग

अच्छी कविता चरित्रवान होती है
आजकल जगह जगह अच्छी कविता क्या है?
बता रहे है लोग
नारियों को योग्य बनाते तक है लोग
इसलिए कविता अच्छी करने में लगे

मगर सुन लीजिए आलोचक लोग बबुइनियाँ
न औरत तुम्हारी सुनेगी अब न कविता
वह बनेगी सच्ची तुम्हें अच्छी लगे न लगे

झूठ मूठ बातें कविता के नाम पर
हम नहीं बनाते

दो दो दो

कोई काम नहीं करना चाहता इन दिनों
आदमी दुकान बाद में खोलता है नौकर पहले रखता है
औरतें चाहती है आदमी कमाए
कमाकर लाए और वह नौकर रखे
घर नौकरों के भरोसे
दुकान नौकरों के भरोसे
संसार नौकरों के भरोसे चल रहा है
भगवान भरोसे नहीं

बाक़ी क्या है?
सब लिखना चाहते
कोई पढ़ना नहीं चाहता
जो कहता है “पढ़ो-पढ़ो”

वह कहता है पढ़ता कब है कौन जाने
कभी-कभी वह लिखता है “पढ़ो-पढ़ो”
कौन जाने कब पढ़ता है

सब दूसरों से कुछ न कुछ चाहते हैं
बदले में देने को है अपमान और भर्त्सना
वह ज़माना गया जब प्यार में
लोग करते थे पूजा-अर्चना

अब तो जनता प्यार ही इसलिए करती है
कि कोई उन्हें पूजे
कोई उन्हें प्यार करे
दो दो दो दो

मुझे दो मुझे दो मुझे दो
मैं करता हूँ तुमसे सच्चा प्यार
दो दो दो

भगवान, आदमी और औरत

अच्छी लगती है न जब औरत प्रेम-कविताएँ लिखे
अच्छी लगती है न जब हो जाए वह पागल किसी मर्द के पीछे
अच्छी लगती है न मर्दों ऐसी औरत

अजीब बात है ऐसी औरत औरतों को अच्छी नहीं लगती
औरत औरत से  जलने लगती है
देखकर प्यार में पागल एक औरत
क्योंकि वे नहीं कर पाती इस तरह टूटकर कभी प्यार
असल में इस तरह बौरा देनेवाला मर्द उन्हें मिलता ही
नहीं कभी

और जब कोई औरत हँसिया लेकर निकल पड़ती है
किसी मर्द के पीछे मारने को
कितनी बुरी लगती है मर्दों
ऐसी औरतें तुम्हें

औरतों को अच्छी लगती है ऐसी औरत
जिसके हाथ में किसी मर्द का हाथ नहीं
किसी मर्द का सिर होता है

हम औरतों की अजीब मुश्किल है
हम एक साथ एक भरी पूरी औरत
किसी को अच्छी नहीं लगती
एक दिन भगवान मिले
सलमा हाँ तुम्हारे अल्लाह
और माधुरी तुम्हारे राम

मैंने पूछा तुमने ही बनाया है प्रभु
तुम्हें तो अच्छी लगती हूँ न ?
जानते हो क्या कहा भगवान ने
कहा दूँगा जवाब मगर पहले
लूँगा अग्निपरीक्षा तुम्हारी

अच्छा लगता है न
हम औरतों को बार बार देना
अग्नि परीक्षा
अच्छा लगता है न

मूड

हाँ होती हूँ मैं कभी-कभी कविता के मूड में
कभी होता है मूड  तुम्हें प्यार करूँ
कभी लगता है बस लिखूँ और तुम मुझे डिस्टर्ब न करो
मेरे लिए चाय बना दो

क्या ऐसा आएगा कभी दिन
जब ज़रथुष्ट्र ने क्या कहा यह सुनना भूलकर
तुम सुनना चाहोगे ज्योति क्या कहना चाहती है
हाँ होता है कभी-कभी मूड कि
तुम मेरे निचले होंठ को नहीं
मेरी चिबुक को चूमो

और थोड़ा सा घूमो और मुझे लिखने दो देर रात तक
या पढ़ने दो सिमोन द बोउआर की कोई नई किताब

सच्चा प्रेम

देखिए मैं प्रसाद निराला पन्त नहीं बन सकती
लिख नहीं सकती गुम्बद की कबूतरियों सी कविता
कुँवर नारायण टाइप प्रेम कविताएँ
कि सबको देखकर प्रेम आए
अपने बस की नहीं

मैंने तो पाया है तुमने प्रेम के नाम पर
करना चाहा है हमेशा मुझपर शासन
और बदले में दिया है
लाल मख़मल की ब्रा, बनारसी साड़ी
सोने का हार और मॉल से ख़रीदा महँगा राशन

देखिए मैं बड़ी बड़ी बातें नहीं बनाती
न मैं पहनती हूँ चिंदी
न लगाती हूँ बड़ी बिंदी
न फूँकती हूँ चिलमें
न देखती हूँ अंग्रेज़ी फ़िल्में

मगर यह सब करने का अधिकार ज़रूर चाहती हूँ
भले कितना ही कहूँ बाहर से कि नहीं चाहिए
मगर सच्चा प्यार ज़रूर चाहती हूँ

ब्रेक अप पार्टी

मेरी १६ की बेटी का जब पहला ब्रेक अप
हुआ तो उसने पार्टी दी
मेरा ब्रेकअप हुआ था तो मैं ढूँढती फिरती थी
नींद की गोलियाँ

दुनिया कितनी बदल गई है
मैं नहीं बदल सकी शायद
उसके बिना जीवन का सपना सम्भव ही नहीं था
मगर फिर भी शादी की, बच्चा पैदा किया
उसे पढ़ाया और अब आ गई हूँ बड़े शहर

इतने दिनों बाद आज देना चाहती हूँ
ब्रेक अप पार्टी
ब्रेक अप के बरसों बाद
हमारे ज़माने में तो शादी का खाना ही होता था
ब्रेकअप पार्टी

सब टूटे दिलवाली औरतों को इकट्ठा करूँगी
और कहूँगी तुम शहज़ादियाँ हो
गुलाम के बस की न थी

मुक्तिबोध जी

मुक्तिबोध जी मुक्तिबोध जी
मुझे नहीं हुआ अब तक मुक्ति का बोध
बीए, एमए कर लिया कर चुकी हूँ
मुक्तिबोध की कविता में स्त्री पर शोध

तब भी पता नहीं क्यों मुक्ति का अनुभव नहीं होता
कोई न कोई कहीं न कहीं
कभी न कभी एहसास दिलाता रहता है कि
कितनी ग़ुलाम हूँ मैं

पहले घर के मर्द बताते है कि मैं ग़ुलाम हूँ
अब दूसरी औरतें बताती है
कि कितनी ग़ुलाम हूँ मैं-

पति को पटाकर रखती हूँ
बेटे को सटाकर रखती हूँ
बार-बार तलवार नहीं भाँजती हूँ
कभी-कभी घर के जूठे बर्तन माँजती हूँ

आपकी कविताएँ पढ़ती हूँ
माफ़ कीजिए पितृसत्ता के पोषक आप
एक पुरुष की कविताएँ मैं पढ़ती हूँ

मैं ग़ुलाम की ग़ुलाम रहूँगी
मैं जी ग़ुलाम और ग़ुलाम ही मरूँगी

औरत की कविता

औरत ने अच्छा लिखा
तो मर्द की नक़ल की
यही कहती दौड़ी आई नारियाँ
सब जा रही है एक मर्द कवि पर बारियाँ

सच है यह दुनिया मर्द की है
औरतों की रजिस्ट्रियाँ बस दर्द की है
प्रेम के बारे में लिखा तो उन्होंने कहा
कब तक प्रेम के बारे में लिखोगी

ग़ुस्से को बनाई कविता
तो कहने आए बबलू और बबिता

कि बहुत फ़्रस्ट्रेशन है कविता में आपकी
मैं नहीं खा रही आपके बाप की
लिखूँगी जो दिल चाहेगा
कोई मेरा क्या उखाड़ लेगा
धूमिल, राजकमल चौधरी
अनामिका,निराला और कालिदास
सबसे लूँगी प्रेरणा सबके जाऊँगी पास
आप भले हो कितने हताश
करती रहूँगी तलाश

अपना स्वर
अपना वर
अपना ज़र

शरीर

शरीर मंदिर नहीं है
कि धो धोकर इसे रखूँ पवित्र
अपरस में रखूँ कोई छू न सके मुझे

शरीर किसी विचारधारा की प्रयोगशाला भी नहीं
कि पालूँ हृदय में चूहे और कहूँ दुनिया से
देखो इतने चूहे खाकर चली मैं हज को

शरीर इतना निजी है कि इस पर
मंच से बात करना इसका अपमान करना है
इतना निजी है कि इसे किसी को भी दिखा देना
ऐसा है कि कोई दिखा दे किसी को भी सड़क पर
अपने मन का सबसे अंदरूनी कोना

मेरे शरीर पर न सरकार का न विचार का
न आधार कार्ड का न बीमा कंपनी का
न पिता का न प्रेमी का न पति का न पुत्र का
न सखी का न नबी का न ऋषि का न कवि का
किसी का अधिकार नहीं

शरीर के बारे में लिखना मेरे मन के बारे में
लिखने से ज़्यादा कठिन
क्योंकि मन गढ़ा गया है भाषा से
जबकि शरीर के बारे में लिखने के लिए
भाषा काम नहीं आती

लिखूँ अगर रक्त, हड्डी, त्वचा, खून, रज, रोम
तो है क्या वह शब्द शब्द शब्द भाषा भाषा भाषा

क्या तुम पाँच दिन किसी घाव की तरह रिसते
भग लिए घूमती औरत के बारे में लिख सकते हो
न जी न तुम चाहे औरत को कि आदमी
औरत के शरीर के बारे में केवल बक सकते हो
निरी बकवास

प्रेम

ABC  नाम था उसका और उसके बारे में
मैं नहीं बताना चाहती आपको कुछ भी
फिर भी उसके बारे में कविता लिखना चाहती हूँ

उससे मैं मिली आँखों के डॉक्टर के यहाँ
दूर का उसे नहीं दिखता था पास का मुझे
देर तक आँखों के डॉक्टर ने हमारी आँखों का परीक्षण किया

दोनों को चश्मे लग गए
क्या चश्मा लगने की उमर कामुकता से भरने की होती है?
इच्छा चश्मा देखकर नहीं होती
हालाँकि उसका चश्मा देखकर मुझे हुई इच्छा
उसका चश्मा उतारकर उसकी आँखें चूमने की

मैंने ऐसा किया

अंधा होने से पहले दुनिया देख लेना चाहती थी
मरने से पहले महसूस करना चाहती थी
उसके ठोस कंधों के बीच कैसा लगता है
हड्डी के पिंजरे में उसके मैं क़ैद होना चाहती थी

अरज़

तुम भरो मुझे केवल
जैसे बादल भरते है नदी को
बादलों की छाया भरती पोखर को
जैसे दुनिया भरती है मन को

तुम मुझे लो
जैसे देवता लेते है यज्ञ की समिधा
जैसे संध्या लेती है अँधेरा
जैसे भोर लेती है सूरज को

तुम मुझमें समाओ
जैसे मन में किसी का मन समा जाता है
तुम मेरा उपभोग करो
और बीच में कुछ न आए
न मेरी स्त्रीवादी दबंगई
न तुम्हारी विनम्र मानवीयता

तुम नाश करो मेरा
जैसे हाथी उजाड़ डालते है केले का जंगल
जैसे बाघ खा डालता हिरणी

तुम मुझे ग्रहण करो
जैसे स्त्री को ग्रहण करता है पुरुष
पाणिग्रहण नहीं तुम मेरा सर्वस्व ग्रहण करो
जैसे मृत्यु ग्रहण करती है मनुष्य को सर्वस्व

रामचंद्र शुक्ल को प्रणाम

रामचन्द्र जी शुक्ल आपको प्रणाम, आपको दूर से ही प्रणाम
आपके हिन्दी साहित्य के इतिहास के सभी पुरुषों को प्रणाम
पहले सोचती थी आप मिल गए कभी अचानक
बस स्टेशन या रेल के डिब्बे में
तो आपके संग लूँगी सेल्फ़ी

फिर पता लगा आप स्वर्ग सिधार गए है
मेरे पापा के जन्म से भी कहीं पहले
बताइए न

नरक का द्वार स्त्रियाँ तो नहीं ही होंगी वहाँ
तब क्या यही विशुद्धात्मा कवि ही धरे नारियों का भेष
नाच रहे है अप्सराएँ बनकर आपके चारों ओर?

 

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