जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज बिना किसी भूमिका के पढ़िए सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना की कविताएँ-

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1.पेनकिलर वाली औरतें

दुनियादारी में प्रैक्टिकल हो चुकी चालीस प्लस की औरतें
अपनी ही भूतहा तन्हाई से लड़तीं
मोबाइल और दोस्तों की दुनिया में मशगूल पतियों से
अपने अधिकारों के लिए और झगड़े नहीं करना चाहतीं
सयाने हो चुके बच्चों की अलग सी दुनिया में
झांकने की मनाही हो चुकी होती है
इसलिए उपदेशक के तमगे नहीं पाना चाहतीं
अपने ही ख़ून को बेलगाम होता देखतीं बेबस औरतें

बदलते हार्मोन्स के खेल के साथ समझौते के लिए तैयार
कभी खुद के तन से रूठ जाती है
और कब जीवन के मोह से टूट जाती है यकायक
इसका पता उन्हें भी नहीं चल पाता
हद से गुज़र जाता है जब आवारा दर्द
नींद की गोलियों के उधार पर चलती है
उनकी नींद से भागी अधजगी अंतहीन रातें

उनकी लापरवाह सी अनिच्छित ज़िन्दगी
कहीं रूक न जाए
बच्चों का मुंह देखकर परेशान हो जाती ममतामयी औरतें
चलती रहतीं बेमन से इस कोने से उस कोने तक
खामोश दीवारों से टकराती सिसकियों वाली लाचार औरतें
पता नहीं टूट जाए कब सांसों का मेला
कठपुतलियो सी डोर पर नाचती बीमार औरतें
असुरी दर्द को मात देने चली है देखो चुपचाप
कटे पंखों पर उड़ती पेनकिलर वाली चमत्कार हैं औरतें !
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2.मंगलबेड़ियां

स्त्रियों के गले में एक रस्सी लटकती होनी चाहिए
उस रस्सी से एक लेबल लगा होना चाहिए
उस पर उसके स्वामी का नाम लिखा होना चाहिए
उसे हांकने में उसके स्वामी को आसानी होगी
जैसे गायों का मालिक ले जाता है उन्हें पहचानकर घर
ऐसा कहता है कोई बाबा
स्त्रियों के माथे पर लाल निशान होना चाहिए
ताकि दूर हो जाएं ग़ैर मर्द पानी के खतरे के निशान से
पाप का भागी बन कर न लगानी पड़े गंगा में डुबकी
आवारा सांड मचाते रहे उत्पात खाली प्लॉटों पर
यानी अविवाहित स्त्रियां और विधवाएं खाली प्लॉट है
सार्वजनिक प्रॉपर्टी
जिसपर बना सकता है कोई भी हवा हवाई मकान
जिसपर हर कोई आकर लपलपा सकता है जीभ
गा सकता है धड़ल्ले से ‘तू चीज बड़ी है मस्त मस्त ‘
और नहीं मानने पर फेंक सकता है चेहरे पर तेज़ाब
एक तालिबान उधर है, एक तालिबान इधर भी
स्त्रियो को ये फूहड़ चुटकुले मत सुनाओ
वे पोर्न देखने लगी हैं तुम्हारी तरह
उनका स्वाद सचमुच बिगड़ चुका है
वे तुम्हारी नैतिक शिक्षा के पन्ने फाड़
सोशल मीडिया के गलियारे में उड़ रही है आंचल लहराकर
उन्हें दोष कत्तई मत देना
तुम्हारे प्रवचनों और पाखंडों का
उन्हें बिगाड़ने में बड़ा योगदान है !

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3. मरद

वह आज आई तो वदन पर उदासी की चुनर ओढ़े
चेहरे पर रात भर आंखों के रोने की कहानी साटे
पैरों की चाल पर नकली पायल की जगह चोटों की पीड़ा पहने
फिर भी आंखों में टपकने को आतुर पन्द्रह वर्षों के इतिहास को थामे
हां, मेरी घरेलू सहायिका आज फिर मार खा कर आई थी दारूबाज पति के हाथों
और खोल कर बैठ गई अपने दामन की स्याह गठरी
गठरी में से निकले कई प्रश्न चिह्न
मेरे स्त्री विमर्श को चिढ़ाते रहे हार कर मैं कहने ही वाली थी उसे
थाने में रपट लिखवाने को
कि तभी स्मरण हो आया
अभी पिछले महीने ही तो उसने रपट लिखवाई थी
लेकिन अगली ही शाम खुद पैसे देकर
अपने मरद को पुलिस के डंडे से बचा
वापस अपने घर लाई थी !

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4. सुनो लक्ष्मणों

चौखटें अक्सर कहती हैं
ठहरो
अभी बाहर खतरा है
तापमान बहुत बढ़ा हुआ है
सूरज आसमान के सिर पर चढ़ा हुआ है
पर सीताएं कहां मानती हैं
मृग-मरीचिकाएं अक्सर बुलाती हैं
अपने पीछे नाजुक पांवों को लुभाती हैं
कई कसमें इस दरमियान टूट-फूट जाती हैं
हां वो रुकती नहीं
वे जो तोड़ती हैं चौखटें
उनके नाम बस सीता नहीं
नाम का क्या हो सकते हैं कुछ भी
जायरा, सुहाना, निखत ज़रीन या विनेश या साक्षी मलिक आदि इत्यादि

सुनो लक्ष्मणों
बावजूद इसके कि मिली थी सीता को
तुम्हारी खींची हुई रेखा को लांघने की अभूतपूर्व सजा
अभी कई लक्ष्मणरेखाएं लांघना बाक़ी है
जो नहीं टूटी हैं अब तक
उन इस्पाती हदों का टूटना लाज़िमी है
तुम जितनी रेखाएं पूरे मनोयोग से खींचोगे
वे उतनी ही शिद्दत से मुट्ठियां भीचेंगी
चाह कर भी बांध न सकोगे उन्हें मर्यादाओं की खड़ी-तनी रेखाओं में

हां, सीताएं कहां मानती हैं
सूरज के साथ तपना जानती हैं
जो उठा सकती हैं शिव का महाधनुष
उसपर बाण चढ़ाना भी जानती हैं
तुम्हारी रुकावटें उनके लिए चुनौतियां हैं
रावणों की गालियां-धमकियां उनके लिए चिर प्रतिक्षित तालियां हैं
अपनी हदों से बढ़ेंगे राक्षस अगर
वे फिर भी नहीं देंगी अग्नि-परीक्षा
उन्होंने साध लिया है
अबकी बार
ब्रह्मास्त्र !

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5.चिलमनों में जकड़ी हुई पृथ्वी

शहर के बीचोबीच खड़े
एक नर्सिंग होम की भारी भीड़ में अल्ट्रासाउंड रूम के बाहर
इंतज़ार की कुर्सियों पर बैठी कुछ उम्मीदों के संग
एक नन्ही बिटिया पर पड़ी मेरी नज़र
लगभग चार साल की रही होगी मगर
काजल की मोटी रेखाओं के संग उभर रही थीं उसकी गोल आंखें
पर होठों पर सजी थी कुछ अधिक लाली
सुंदर लिबास में सजी वो कोई नन्हीं शहजादी दिख रही थी
फिर भी उसके लिपे-पुते चेहरे पर
उसके बालों को सहला रही काले बुर्क़ेवाली अम्मा की
अधूरी हसरतों की मोटी परत बार-बार झांक रही थी
पता नहीं क्यों
जब भी बहुत पास से देखती हूं पूरी की पूरी ढंकी स्त्री को
पृथ्वी उदास नज़र आती है
उसकी आंखों को पढ़ते-पढ़ते लगता है किसी व्यक्ति की क़ैद में है अब भी पृथ्वी
उसकी चीखें किसी साउंडप्रूफ ग्लोब में टकराती हैं
और वह जीने की खातिर ख़तरों की खिलाड़ी बन जाती है
चंद संवेदनशील दर्शक चाह कर भी नहीं बचा पाते उसके सुंदर कटते पंख
उसकी आंखों में प्रतिबिम्बित हो रही मेरी रंगीन तस्वीर
उसकी बेरंग दुनिया को थोड़ा और स्याह बना देती होगी
और मैं अपनी इस आज़ादी की सुकून भरी सांस लेती हुई
अगले ही पल किसी अपराधबोध से भर जाती हूं
पता नहीं कैसा है ये बहनापा।

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6. सोशल मीडिया

वह मंदिर में देवी थी
घर में सजावटी सामान
बाहर थी मोहक मंडी
और सोशल मीडिया पर बहुधा शेयर की गई चुटकुला
गढ़ रहे थे अपने-अपने औजार से
कुछ संभ्रांत बुद्धिजीवी
नारी का नवीनतम शिल्प
उनकी छेनियां अटकी पड़ी थीं
उभारों और गहराइयों पर
हद तो यह है कि
आंखों की रचना न हो सकी थी
होंठ की जगह गुलाब खिल रहे थे
जिह्वा कभी दिखलाई न गई थी
बस कान स्पष्ट बन पड़े थे आकर्षक कर्णफूलों के साथ
कमर पर कमरधनी सज गई थी
किसी मॉडल की कमनीय सुडौल जांघें सबने बनाई थी
परंतु अद्भुत थी प्रतिमा
उसकी चूड़ियों वाले गोरे हाथ में
कोई कलम पकड़ाई न गई थी
यह औरत की घोषित आज़ादी का काल था
ऐसी प्रतिमा पर मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर
बहुत सी आधुनिकाएं धड़ाधड़ लाइक्स बरसा रहीं थीं !

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7. बैसाखियां

मुझे बेहद पसंद थे अपने बड़े खुरदरे पांव
और उन पांवों पर दूर-दूर तक चलना भी
गिरते-संभलते सीख लिया था मैंने चलना तनकर
परन्तु एक तयशुदा दुर्घटना के तहत
मेरे पांव अपाहिज हो गए
मिली उपहार में मजबूत बैसाखियां
शुरू-शुरू में ये बड़ी अच्छी लगी थीं
मेरे अपने पांवों की कमी महसूस न हुई
कोई परीकथा की परी की मांग में सितारे जड़े थे
जादू के डंडे पर हर ख़्वाहिश उड़ते थे
नाचतीं थीं आसपास सुनहरे पंखों वाली हज़ारों तितलियां
‘समय एक सा कहां रहता है’
कहती थीं जो अक्सर बूढ़ी दादी-नानी मां
वही साकार हो टपक पड़ा ऐशगाह में
वही बैसाखियां अब कमजोर महसूस होने लगीं
पता नहीं यह केवल भ्रम था या कोई अनचाहा भय
फिर भी चारदीवारी के भीतर रहते हुए उन्हीं बैसाखियों पर चलते हुए
बोलती चिकनी दीवारों के ताने सुनते हुए
अपने गूंगेपन का नाटक करते हुए लड़खड़ा ही जाती है अक्सर
संगमरमरी फर्श पर तड़पती-छटपटाती ज़िन्दगी !

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8.घरेलू गाय और चिड़िया का गीत

घरेलू गाय होती है
बस गाय बनी रहने के लिए
चिड़िया होती है
चिड़िया होने के अलावा
उड़ान भरने के लिए

घरेलू गाय के आगे
होते हैं बड़े-बड़े नाद
रखे होते हैं उनमें पर्याप्त दाना – पानी
बैठे बिठाए
चल रही होती है ज़िन्दगानी
खूंट से बाँधी हुई
मजबूत मोटी रस्सी
करा देती है
छोटी -सी जगह में
गोल पृथ्वी की सैर
कभी – कभी यूं ही
मचल जाती है घरेलू गाय
और टूट जाती है रस्सी
मालिक मान लेता है इसे
लक्ष्मण-रेखा का पार हो जाना
सबक सिखलाता है घरेलू होने का
गाय फिर से सीधी बन जाती हैं
हालांकि उसकी आँखों से
छुपकर बारिश हो जाती है
गीली आँखों से ताकती है वह
टुकुर – टुकुर
बाहर की दुनिया
पल भर पहले
उसकी देह पर बैठी छोटी चिड़िया
चारदीवारी पर फुदक रही होती है
और वहाँ से
पास के अमरूद के पेड़ की ऊँची फुनगी पर
बैठी इतराती गीत गाती है
अपने सपनीले पंख फैलाती है
उड़ते – उड़ते हो जाती है
आँखोँ से ओझल
गूंज रहा होता है देर तक
कानों में चिड़िया का इंक़लाबी गीत
हालांकि घरेलू गाय नहीं जानती
छोटी चिड़िया की भाषा
पर लगता है सदियों से
यह आज़ादी का तराना
जिन्हें गाने के लिए
रस्सियों को तोड़ना होगा
शीघ्र ही
बड़े नादों की परवाह किए बिना !

9 आई रे आई रे हँसी आई

हंसना कोई मुश्किल काम नहीं होता
फिर भी लोग कम हंसते हैं
दूसरी की हंसी देख रो देते हैं
कुछ लोग कम हंसते हैं
क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि बड़े आदमी को हंसना नहीं चाहिए
कुछ लोगों के पास हंसने की फुर्सत ही नहीं होती
वे बटुए में खाली जगह नापने में पूरी ज़िंदगी गंवा देते हैं

बचपन में हम भी खुलकर हंसते थे
फिर धीरे धीरे समझ में बात आई कि लड़कियों को जोर से हंसना नहीं चाहिए
कुछ और बड़े हुए तो बड़े सपने टूट गये
जिसे चांद की खूंटी पर बचपन में टांग आए थे
उस टूटे हुए समय में हमने भी ब्रेकअप कर लिया
ईश्वर नामक लड़के से
तब भी आंसू नहीं रूके तो
अगले दिन उसे गोली मार दी पूरे होशोहवास में
उसी ने तो आकाश के स्वप्न महल में नाहक बिठा रखा था
फिर ख़ूब हंसे एकांत वन के निर्झर के साथ
पहली पैबंद लगा दी फटी हुई आत्मा पर
और छोड़ दिया ख़ुद को क़िस्मत के पास

इसी बीच एक उत्सव की फोटोज़ आईं
मैंने देखा कि मुझसे कम सुंदर लड़की
अधिक सुंदर दिख रही थी
मुझे याद आया कि जब भी फोटोग्राफर का कैमरा देखती
वह मुस्कराने लगती थी
फिर मैंने भी इसे सीख मानकर गांठ बांध ली
दूसरों की आंखों के सामने होठों के मुस्कराने की प्रैक्टिस सफल होती गई
अस्पताल में भर्ती वाले दिनों में
परिजनों को सामानों की छोटी पर्ची भेजकर
याद दिलाया पौधों को पानी देना
और लिख दी एक उम्मीद भरी कविता
फिर से लगा दी हंसी की पैबंद दर्द के ज़ख़्म पर

परंतु अब भी पूरी तरह हंसना नहीं सीखा है मैंने
अभी भी मौजूद हैं आसपास ग़मगीन आंखें
और ग़मों से फटी पड़ी अनगिनत देह
सभी को नया वस्त्र नहीं दे सकती
शायद पैबंदी या रफ्फू हो सकती है उन्हें हंसना सिखलाकर
तब कह सकूंगी कि हंसना सीख लिया है पूरी तरह
देखो फूलों के चेहरों पर मेरी ही तो हंसी है
तितलियां और चिड़ियां बांट रही हैं मेरी हंसी
बड़ी खुश लग रही हैं क्षणभंगुर फूलों को छूकर
हंसी का माधुर्य रस पीकर!

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10. रिमोट युग

सचिन तेंदुलकर किया करते थे विज्ञापन
रिमोट कंट्रोल वाले सीलिंग पंखे का
पहली बार देखकर विस्मय हुआ था तब
प्राय हर उत्पाद के साथ रिमोट फ्री है अब
यह आलसीपन की निशानी नहीं है
सभ्य होने का सोशल स्टेटस है
हमारे दिमाग में जंग लगने का प्रारंभ
हमारी सभ्यता के अंत होने की कहानी का खूबसूरत इंट्रो बन सकता है
और प्रमाणित कर सकता है कि ज़रूरी नहीं अब सभ्यताओं का अंत
प्राकृतिक आपदाओं से ही हो यह रूस-यूक्रेन इज़राइल-फिलिस्तीन जैसे गगनभेदी बारूदी नामों से भी हो सकता है
जो अक्सर देशी समाचार चैनलों पर
देश की समस्याओं से
दर्शकों का ध्यान भटकाने की खातिर सुनाए जाते रहे हैं अनवरत
अंतहीन युद्धों के साथ
और गुम हो जाया करता है
ठीक उसी समय कई बार
डाइनिंग टेबल पर हमारा टीवी रिमोट !

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11.दस्तावेज

पुरानी डायरी निकाली है अभी-अभी
ढूंढ कर दीवार अलमारी से
आ रही है सीलन की बदबू
पन्ने पीलिया रोग के शिकार दिख रहे हैं
बीचोंबीच के जुड़वा पन्ने पर कभी महकते रहे
बेला के कुछ नन्हे सफेद फूल कत्थई डिजाइन से दिख रहे हैं जैसा बचपन में मेरे एक सफेद सूती फ्रॉक पर बने थे
कुछ पन्नों पर मेरी शुरुआती कविताओं के साथ
पेंसिल से बनाए गए मेरे आड़े- तिरछे रेखाचित्र
कई मौसमों के उतार चढ़ाव से अप्रभावित
अब तक इठला रहे हैं
आखिरी पन्नों पर कुछ रिश्तेदारों और मित्रों के फोन नंबर झिलमिला रहे हैं
जो याद दिला रहे हैं उन दिनों के
नीले रंग के हमारे लैंडलाइन फोन की घनघनाहटें
जिनका बजना पैदा करता था कौतूहल
अब फोन नंबर्स डायरी में लिखने का प्रचलन नहीं रहा है और भी बहुत से अच्छे प्रचलनों की हत्या कर दी गई है
और हम हत्यारे एआई से बनी अपनी सुंदर तस्वीरों में
आसानी से अपनी गंवईं शक्ल छुपा लेते हैं
यह पुरानी डायरी कई हत्याओं का दस्तावेज है
कभी-कभी इसे पलट कर पश्चाताप कर लेना
रोबोट और मनुष्य के बुनियादी फ़र्क़ की
दिला देता है बेवजह याद !
__________________
-सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
संक्षिप्त परिचय :
जन्म-स्थान : सीवान ( बिहार)
जन्म-तिथि : 7 अगस्त
शिक्षा : स्नातक (वनस्पति विज्ञान ऑनर्स), पटना सायंस कॉलेज, (पटना विवि)।

हिन्दी पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीजी डिप्लोमा (पटना विवि )।
प्रकाशन :
*’इस जनम की बिटिया’ एवं ‘टुकड़ा- टुकड़ा इश्क़ और युद्ध’ काव्य संग्रह
*आज़ादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत डायमंड बुक्स से प्रकाशित ‘बिहार के युवामन की कहानियां’ में एक कहानी प्रकाशित।
*’हंस’ , ‘कथादेश’, ‘कादम्बिनी’, ‘आजकल’ , ‘इंद्रप्रस्थ भारती’ , ‘वागर्थ’, ‘हिमतरु’ इत्यादि साहित्यिक पत्रिकाओं में वर्ष 1996 से कविताएं प्रकाशित ।
*’कविताकोश’ वेबसाइट पर कविताएं प्रकाशित।
कार्यक्षेत्र: पूर्व में आकाशवाणी, दिल्ली में कैजुअल न्यूज़ रीडर ।
दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण एवं दूरदर्शन(पटना) आदि के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता ।
संप्रति : स्वतंत्र लेखन

ईमेल-jyotsna.me@gmail.com

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