सिमोन द बोउआर का प्रसिद्ध कथन है “स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है”। ठीक इसी तरह पुरुषों के लिए भी यह कहा जा सकता है कि पुरुष पैदा नहीं होते, बनाए जाते हैं। शालू शुक्ल की यह कविताएँ विविध स्वर वाली कविताएँ हैं जिनमें से एक पुरुष निर्मिति की ओर ही ध्यान दिलाती है। इसके साथ किसी अपने की पुकार पर लौट आने, ठहरने का निवेदन भी है, देवताओं की पूजा-अर्चना करने के बनिस्पत अपने आस-पास के लोगों की सहायता करना भी है, हाउसवाइफ का दुख भी है और ‘जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि’ जैसे कहावतों पर शिकायतें और सवाल भी है। शालू शुक्ल लखनऊ, उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं। उनकी कविताएँ देशज, आजकल सहित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इस वर्ष उन्हें काव्य-संग्रह ‘तुम फिर आना बसन्त’ के लिए शीला सिद्धांतकर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया है – अनुरंजनी
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अनुबन्ध
कुछ पुरूषों को जन्म लेने का शऊर नहीं होता
बड़े होने से पहले ही
किसी अलिखित अनुबंध पर
कर देते हैं हस्ताक्षर
ऐसे पुरूष बरगद जैसे होते हैं
जिनकी हर शाख पर लटकती हैं जिम्मेदारियों की जटाएँ
ऐसे पुरुष नहीं टूटने देते किसी का विश्वास
क्योंकि वे जानते हैं
विश्वास के टूटने की पीड़ा
मन की टूटन से भी ज्यादा दुखदाई होती है
ऐसे पुरुष नम आंखों से उतार आते हैं रंगीन सपने
भाग्य की पथरीली गलियों में
ये बात और है कि ऐसी गलियों को वे नहीं
वे गलियां ही चुना करती हैं
ऐसे पुरुष स्वीकार नहीं करते अपने हृदय में उपजे प्रेम को
वे जानते हैं स्वीकारोक्ति की कोख से पैदा होती हैं उम्मीदें
नहीं कर पाते अपनी सीमाओं का उल्लंघन
और असह्य पीड़ाओं में भी मुस्कुराते हैं
कितना विस्मय है यह जानना
कि अपने कर्मों के अनुबन्ध से बंधे होने के बावजूद
उन्हें पता नहीं होता
वर्तमान की चौहद्दी
नहीं मिलती भविष्य की राह से
और इस तरह जीना
मरना होता तिल तिल
पट्टे पर लिखी हुई सज़ा की तरह मुकर्रर….
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पुकार
तुम आओगे न ?
अगर तुमको भरोसा है मुझ पर
और अपने आप पर
तो जरूर आऊंगा
कहने को तो यह चन्द अल्फाज़ हैं
किन्तु इन अल्फाज़ के सहारे
गुजारी जा सकती है कई सदियां
नापी जा सकती हैं प्रतीक्षा की हजारों वर्ष लम्बी सड़कें
खर्च किए जा सकते हैं
संवेदनाओं के अनमोल आंसू
इन्हीं के सहारे उगाई जा सकती है
रेगिस्तान में हरी दूब
बसाए जा सकते हैं उम्मीदों के शहर
लिखे जा सकते हैं भारी भरकम उपन्यास
इसलिए जब भी कोई अपना
अपनेपन से पुकारे
तो उस पुकार को संजो लेना
कौन जाने जीवन का कोई क्षण
उसका वह अर्थ दे जाए
जिसकी चाह में बीत जाती है
अंतहीन इंतज़ार में पूरी यह देह….
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देव ऋण
देव ऋण चुकाने के लिए मैंने नही की कोई चारधाम यात्रा
नहीं चढ़ाए किसी भी मन्दिर में सोने -चांदी के छत्र या पीतल के घंटे
पुरूषोत्तम मास में भी नहीं कराए रूद्राभिषेक या नवरात्रि में जगराता
मैंने तीर्थस्थलों से उठाये फैले हुए जूठे पत्तल
बुजुर्गों को चढ़ाईं उंची सीढ़ियां
दर्शनों से लौटे दर्शनार्थियों को पिलाये शीतल पेय जल
पवित्र नदियों से निकाले सड़े हुए फूल
प्लास्टिक की थैलियां
बोतलें सम्हाले कुछ लड़खड़ाते कदम
दिशा दी कुछ मासूमों के अनगढ़ सपनों को
ऊंचे पहाड़ों और वीरान राहों में लगाये नीम
बरगद और पीपल के वृक्ष
बच्चों को सिखाया मनुष्यता धारण करके प्रकृति का आदर करना
आश्चर्य है यह कि मुझ पर अभी भी शेष है देवऋण….
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सुनो कवि!
कवि ! तुमने कहा था –
‘जहां रवि नहीं पहुंचते वहां कवि पहुंचते हैं ‘
सच सच बतलाना कवि
क्या तुम पहुंच पाए
उस पीड़ा तक जो बिल्किस बानो ने महसूस की थी
एक साथ कई हाथों को अपनी देह के पार जाते हुए?
या फिर उस मां की बेबसी तक
जिसका जवान बेटा
तड़प कर मर गया
एक आक्सीजन सिलेंडर के अभाव में?
या फिर उस बेरोजगार युवक की पीड़ा तक
जिसके कन्धों पर टिका है समूचा परिवार?
या फिर उस निर्दोष लड़की की पीड़ा तक जिसकी योनि में घुसा दी गई थी लोहे की रॉड?
क्या तुम पहुंच पाए उस जंगल की पीड़ा तक
जिसकी लाश पर उगाये गये शहर?
या फिर उस तितली की हताशा तक
जो चाहकर भी छू नहीं पाई अमलतास?
सुनो कवि! किसी भी लेखनी में
वह सामर्थ्य ही नहीं
जो किसी पीड़ा को अभिव्यक्त कर सके
उसके घनत्व के साथ
फिर भी ईमान की अपनी
जगह है
आत्मा की अपनी
दोनों जब मिलें
तो सच बनता है वह दुनिया का भी
क्या भागकर इससे
लिखने का अधिकार रखते हो तुम ?
सुनो कवि ! सुनो सुनो सुनो…
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हाउस वाइफ औरतें
हम हाऊस वाइफ औरतें हैं
हम कोई काम नहीं करतीं
हमारा नाम आधार कार्ड के सिवा
कहीं दर्ज नहीं है
हम सबसे बाद में सोने और सबसे पहले जागने वाली औरतें हैं
चूल्हे पर रींधते भात के साथ
अपने सपनों को पकानेवालीं
आटे की लोई में दुखों को छुपानेवालीं औरतें हैं
पहली पंक्ति हमारी किस्मत में नहीं
सबको खाना खिलाने के बाद
अपने खाने के बीच से उठकर हम
फिर से खाना बनानेवालीं औरतें हैं
आधी रात को बड़े बुजुर्गों को
वाशरूम ले जानेवाली
अल्लसुबह बच्चों को दूध पिलाने वाली औरतें हैं
हम गानें के बीच रोने और रोने के बीच गाने वाली औरतें हैं
हम हर एक के लिए हर समय उपस्थित रहनेवालीं
खैरात में आई हुई औरतें हैं
हमारे हिस्से में कोई इतवार
ई एल,सी एल, कोई मेडिकल नहीं
हमारी किस्मतें जूतों की पालिश से चमकती हैं
हम जेठ की दुपहरी में खसखस माघ की सर्द रात में अलाव – सी जलनेवालीं औरतें हैं
हम गृहस्थी का वह नमक थीं जिसके बिना हर स्वाद फीका रहा
फिर भी ख़ास मौकों पर एक कोने में गलनेवालीं औरतें हैं
हम कविता लिखने के योग्य नहीं
हमें पुरस्कार लेने का कोई हक़ नहीं
हमारा परिचय देते हुए शर्म आती है हमारे पतियों और बच्चों को
हम हाऊस वाइफ औरतें हैं
हम कुछ नहीं करतीं
हमसे कुछ नहीं होता
क्योंकि हम नकारा हैं
हाउस वाइफ औरतें….
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