फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट, पुणे के डीन अमित त्यागी का निधन हो गया। उनको याद किया है लखन रघुवंशी ने, जो देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में प्राध्यापक हैं। आप भी पढ़ सकते हैं-
===============================
भारतीय फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान, पुणे की सुबह और हम सभी बड़े उत्साह के साथ फ़िल्म एप्रीसियेशन कोर्स के अपने पहले लेक्चर के लिए तैयारी करते हुए। यह मई 2017 के दिन थे। सुबह के समय लॉ कॉलेज रोड पर कोई विशेष भीड़ नहीं थी। हम इंस्टीट्यूट के गेट पर खड़े एकबारगी उसको निहारते रहे और पास ही के छोटे से कैफे पर पुणे की रोजमर्रा की व्यस्तता दिखाई देने लगी थी। लॉ कॉलेज रोड के दोनों और लगे आम के पेड़ों से कच्चे पक्के आम सड़कों पर गिरे पड़े थे। हम लगभग अस्सी प्रतिभागी थे जो सिनेमा को समझने के लिए देश-विदेश से यहां इकट्ठा हुए थे। हम उत्साहित थे सिनेमा के अथाह सागर में डूबने और उतरने के लिए और आतुर थे एक-दूसरे को जानने के लिए भी। लेकिन हमसे भी अधिक उत्साहित थे इस कोर्स के सूत्रधार और इंस्टीट्युट के डीन अमित त्यागी सर जो सुबह की शुरुआत से लेकर देर रात तक इस पूरे कोर्स के सिरे जोड़ते थे। लगभग तीस दिनों तक चलने वाली इस सिने साधना के वो केंद्र बिन्दु थे।
मेरठ शहर से दिल्ली के सेंट स्टीफ़न कॉलेज और वहां से फ़िल्म इंस्टीट्यूट तक का उनका सफ़र उनके व्यक्तित्व की ही तरह रोचक था। उन्होंने ‘जाने भी दो यारों’ जैसी महान फ़िल्म का संपादन किया था और मणि कौल से लेकर कुमार शहानी जैसे महान फ़िल्मकारों का उन्हें सानिध्य प्राप्त हुआ था। अमित सर सिनेमा विषय के एनसाइक्लोपीडिया थे। भारतीय सिनेमा के साथ ही विश्व सिनेमा का उनका ज्ञान व्यापक था और वे किसी भी प्रतिष्ठित निर्देशक पर लगातार घंटों बात कर सकते थे। जो प्रश्न हम एक्सपर्ट से नहीं पूछ पाते थे वो निश्चित ही अमित सर के हिस्से आता था। इसीलिए हमने उनसे आग्रह किया कि सुबह का एक घंटा वे सिर्फ हमारे प्रश्नों के उत्तर देने के लिए रखें और उन्होंने हमारे इस आग्रह को उतनी ही सरलता के साथ मान भी लिया।
उनके उत्तरों में निबंध की जटिलता नहीं थी बल्कि शॉट्स की भाषा में उत्तर देते थे। अपने अलग-अलग रंगों के खादी के कुर्तों में स्पोर्ट्स वॉच के साथ हमेशा किसी फ्रेम में बात करते हुए से और पीछे की स्क्रीन पर किसी फिल्म का कोई शॉट पॉज़ होकर रह जाता था। जिस पर उनकी परछाई दिखाई देती थी। वे निर्देशक की शैली को कुछ ऐसे समझाते थे मानो वे स्वयं कोपोला हो गए हों। उनकी तन्मयता में हम गोताखोर हो जाते थे। सिनेमा की तकनीकियों के साथ ही साहित्य की गहरी समझ उन्हें अन्य शिक्षकों से अलग कर देती थी। सिनेमा अध्ययन की सबसे बड़ी समस्या अन्य कलाओं से उसके संबंध से जुड़ी है और उनकी दक्षता और जानकारी उन्हें सही अर्थों में बेहतरीन सिने शिक्षक बनाती थी। जो एंतोनियोनी की फ़िल्मों के आर्किटेक्ट पर भी बात कर सकते थे और वॉन्ग कर वाइ की लाईटिंग और एडिटिंग पर भी। कईं बार जब आकस्मिक कारणों से कोई एक्सपर्ट नहीं आ पाता तो वे स्वयं को फीलर कह कर उपस्थित हो जाते थे। पहली बार मुझे लगा कि किसी फ़िल्म पर लेक्चर उस फ़िल्म से भी सुंदर हो सकता है। वे एक निर्देशक से दूसरे निर्देशक और एक शॉट से दूसरे शॉट पर इतनी ही सहजता और लय से जम्प कर जाते थे मानों एडिटिंग उनके जीवन में रच बस गयी हो।
इन तीस दिनों में हमारे प्रश्नों के हिसाब से उन्होंने हमारे रूचि के विषयों का अनुमान भी लगा लिया था। प्रश्न पूछने से पहले ही वे अपने उत्तर के साथ तैयार रहते थे। उनकी ये तत्परता इस कोर्स के पूरा होने के बाद भी बनी रही। कोर्स के आखिरी दिन हम नेशनल फ़िल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के थियेटर में थे और उन्होंने हर एक को सर्टिफिकेट दिया। फ़िल्म पर कोई किताब आई हो या किसी फिल्म को कोई पुरस्कार मिला हो सोशल मीडिया पर पहली पोस्ट उन्हीं की होती थी। कोर्स पूरा होने के बाद उनकी जिम्मेदारी हमारी जिज्ञासाओं को लेकर और भी बढ़ गई। कोई फ़िल्म बना रहा हो या फ़िल्म पर शोध कर रहा हो अमित सर का मार्गदर्शन बना ही रहता था। फ़िल्म से संबंधित कोई पोस्ट हो और उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हो यह हमारे लिए संशय की ही बात थी और अंतत: ये संशय एक अप्रत्याशित घटना में बदल गया। हमने उन्हें टैग किया लेकिन उनका कोई जवाब नहीं था। धीरे-धीरे बात पुख्ता हो गई। वो अपनी फ्रेम से बाहर जा चुके थे। अमित सर नहीं थे। एक मिनट को लगा कि फ़िल्म पर एक अनिश्चित समय के लिए पॉज़ लग गया है। उन्होंने मुझे फ़िल्म की अपनी डिजीटल लाइब्रेरी से कईं किताबें दी थी और उन्हीं में से एक थी डेविड बोर्डवेल की किताब। बोर्डवेल को सिनेमा अध्ययन का अरस्तु भी कहा जाता है। उनकी किताब फ़िल्म: एन इन्ट्रोडक्शन सिनेमा अध्ययन की एक अति महत्वपूर्ण किताब है। यह विश्व सिनेमा का दुर्भाग्य ही है कि बोर्डवेल का निधन गत 29 फरवरी को हो गया।
स्वयं को फीलर कहने वाले अमित सर सिनेमा अध्ययन की वो कड़ी थे जिनकी अनुपस्थिति में साहित्य, सिनेमा, स्क्रीनप्ले, लाइटिंग और एडिटिंग सबकुछ अलग- अलग सा दिखाई देता है। वो एक ऐसी रिक्तता छोड़ गए हैं कि कोई भी फ़िल्म संपूर्ण नहीं लगती। मैं जब भी कोई फिल्म देखता हूं, तो सोचता हूं सर होते तो क्या कहते? मेरे इस प्रश्न पर भी आपकी अनुपस्थिति ने एक अनिश्चित पॉज़ लगा दिया है।