जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

नेहरु की पुण्यतिथि है. नेहरु ने इतिहास की कई किताबें लिखीं लेकिन नेहरु के इतिहास-दृष्टि की चर्चा कम होती है. युवा इतिहासकार सदन झा का यह संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित लेख नेहरु के इतिहास दृष्टि अच्छी झलक देता है. आपके लिए- जानकी पुल.
===========================================
यदि चंद जीवनीकारों के अपवाद को कुछ देर के लिये दरकिनार कर दें तो यह विडंबना ही लगती है कि जवाहरलाल नेहरू जिन्‍होने इतिहास सम्बंधित तीन महत्‍वपूर्ण किताबें लिखीं– आत्‍मकथा [आटोबायोग्राफी,1941 जो जून 1934 में शुरू कर फरवरी 1935 में उन्‍होने पूरी कर दी थी], विश्‍व इतिहास की झलक और भारत की खोज उनके इतिहास दर्शन पर इतिहासकारों ने कुछ खास नहीं लिखा है। उनके सबसे प्रसिद्ध बायोग्राफर एस.गोपाल ने भी नेहरु के भारत की खोज को अनेकों किताबों और अध-पके मार्क्‍सवादी विचारधारा का जल्‍दबाजी में लिखा किताब माना है और एक अन्‍य ने तो उन्‍हे रोमानी इतिहासकार कह कर खारिज कर दिया। विडंबना इसलिये भी कि उनकी किताबें कई पीढियों को प्रभावित करती रही हैं। प्रोफेशनल इतिहासविदों के दायरे के बाहर बुद्धिजीवियों, पढ़ेलिखों और छात्रों के लिये इतिहास के लोकप्रिय दिग्‍दर्शक की तरह रही हैं उनकी रचनाएं। भारत की खोज पर उम्‍दा टी वी सीरियल बना है और मुझे नहीं लगता कि भारत के इतिहास से संबंधित किसी किताब की इतनी धूम मची हो जितनी नेहरु के द डिस्‍कवरी आफ इंडिया की रही है। दूसरी ओर देखें तो महात्‍मा गांधी ने इतिहास पर चंद वाक्‍य ही तो लिखे हैं अपने छोटी सी पुस्‍तिका, हिंद स्‍वराज में। वहां भी हिकारत से ही। उनका मानना था कि वह राष्‍ट्र सुखी है जिसके पास इतिहास नही है। लेकिन गांधी के इतना कम लिखने के बाद भी, इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों के मध्‍य अपनी इतिहास दृष्‍टि के लिये चर्चा का विषय रहे हैं।
अन्‍य बातों के समान ही नेहरु और गांधी के बीच इतिहास दर्शन में भी बहुत अंतर है जिस पर चर्चा अपेक्षित तो है लेकिन यहां संभव नही। नेहरू की तीनो कृतियों पर भी समग्र रुप में कुछ सार्थक कहना इस छोटे से लेख में मुमकिन नहीं। इसलिये यहाँ मैं उनके भारत की खोज[ द डिस्‍कवरी आफ इंडिया, 1946 [1941 में शुरु लेकिन अप्रैलसितंबर 1944 में पूरी]) से जुड़ी कुछ मोटे सवालात रखना चाहूंगा।
नेहरु का भारत एक मानवीय देह लिये हमारे सामने आता है। वे इसके सौंदर्य से अभिभूत हैं। लेकिन उनके लिये यह रहस्‍यों से भी अटा पड़ा है। कभी इसे देखने की भाषा स्‍त्रीलिंग की हो जाती है तो कभी यह बहुबचन के रुप में देश की जनता, इसके किसान का शक्‍ल ले लेती है।
इस किताब के जरिये नेहरु के इतिहास के आकलन के लिये यह याद दिलाना जरुरी है यह किताब अहमदनगर जेल में एकरसता और उबाऊ भरे दिनों में लिखा गया था।न मात्र किताब के आरंभ का बड़ा हिस्‍सा इस त्रासद मनोदशा से जूझता है वरन् इसका स्‍पष्‍ट प्रभाव इतिहास को लेकर उनकी सोच में भी झलकता है। उनके लिये इतिहास कोई अकादमिक शोध का हिस्‍सा नहीं है। वे निजी जीवन की गुत्‍थियों को सुलझाने का प्रयत्‍न करते दिखते हैं। जेल का जीवन जहां वर्तमान का कोई वजूद नहीं, जहां वह अहसास ही गायब है जो वर्तमान को भूतकाल से अलग करता है ऐसे में अतीत के बोझ से मुक्ति के लिये, एक थेरेप्युटिक अभ्‍यास के लिये अतीत से सामना किया जा रहा है, इतिहास लेखन की ओर नेहरु रुख कर रहे हैं। वर्तमान और भविष्‍य की तलाश के साथ साथ यह लेखन उनके लिये मानव संबंधों की संशलिष्‍टता को समझने का यत्न है जिसमे कमला का व्‍यक्‍तित्‍व, उनके साथ बिताये आखिरी दिन और उनसे बिछोह के बाद का उदासीपन स्‍वत: ही सामने आता है। लेकिन जाहिर सी बात है कि हैरोकैम्ब्रिज में पढ़े और बचपन में थियोसोफिट शिक्षक से प्रभावित नेहरू के लिये अतीत का यह सवाल गांधी से बहुत अलग होगा। जहां गांधी के लिये अतीत खुला आसमान है, नेहरु के लिये अतीत से सार्थक साक्षात्‍कार के लिये इसको आलोचनात्‍मक (क्रिटिकल) नजरिये से एक ऐसे थाती के रुप में देखना लाजिमी हो जाता है जो वैज्ञानिक ज्ञान दे सके। गांधी के विपरीत यहां अतीत अनुभव नहीं है। अतीत पहले ही ज्ञान के भंडार में परिवर्तित हो चुका है और उसी हिस्‍से को विश्‍लेषण में शामिल किया जाता है जो ज्ञान में तब्दील हो चुका है। एक अंधकारमय वर्तमान अपने लिये जिम्‍मेदार अतीत से अपने वजूद को समझने के लिये जानकारियां इक्‍ट्‍ठा कर रहा है। यह तो याद रखना होगा कि जानकारी का मतलब यहां आंकड़े और तथ्‍य मात्र नहीं है। वे वेदांत से प्रभावित हैं, बौद्ध मत और भारत के दर्शन की परंपरा उन्‍हें आकर्षित करती है। लेकिन वेदांत का अबुझ निराकार अनंत उन्‍हे भयभीत करता है उसकी तुलना में प्रकृति की विविधता और पूर्णता उन्‍हे खिंचती है उन्‍हे भारत का दर्शन प्रिय है लेकिन देवी देवताओं का साथ नहीं। कैसी है यह दृष्‍टि? हमारी पीढ़ी के लिये या फिर स्‍वतंत्रता के बाद की पीढ़ियों के लिये वैज्ञानिक नजरिया और अतीत का यह इतिहास एक थाती के रूप में सरकारी पाठ्‍यक्रमों और शिक्षा तथा ज्ञान के संस्‍थागत माध्‍यमों से मिला है एक सेक्‍युलर अतीत जिसमें धार्मिकता को सांस्‍कृतिक और दार्शनिक ज्ञान परंपरा के रुप में तो उँचा दर्जा हासिल है लेकिन अंध-विश्‍वास के रास्‍ते से नहीं।
नेहरु आक्‍सीडेंट और ओरियंट के खांचो में विश्‍वास नहीं करते, उनपर सवालिया निशान लगाते हैं। मन और तन के द्वैत को नहीं स्‍वीकारते। मार्क्‍स और लेनिन के भौतिकवाद पसंद है, सोवियत संघ की स्‍थापना आकर्षित करती है लेकिन भारतीय मार्क्सवादियों को नापसंद करते हैं। लेकिन वेदांत से लेकर मार्क्‍सवाद तक कुछ भी उन्‍हे संतुष्‍ट करने में अक्षम रहता है। वे गोठे (Goethe) और नीत्शे (Nietzsche) का उद्धरण देते हैं। आधुनिकता और वैज्ञानिक प्रगति से चकाचौंध हैं जिसने जगह-समय की अवधारणा में मूलभूत परिवर्तन लाये और वे क्‍वांटम सिद्धांत का हवाला देते हुए कहते हैं कि विज्ञान ने भौतिक संसार के चित्र को निहायत ही बदल कर रख दिया। लेकिन इन सबके बाबजूद जो उन्‍हे जद्दोजहद की ओर ले जाता है वह है व्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता और उसका संशलिष्‍ट सामाजिक संरचना के साथ तारतम्‍यता का प्रश्‍न, सदियों से चली आ रही भारतीय संस्‍कृति के परिवर्तनशील स्‍वरुप के मध्‍य उसकी चंद आमूल निरंतरता। क्या हैं वे निरंतरता के तार, वे सवाल करते हैं?
नेहरू कोई इतिहासकार नहीं हैं वे ऐसा दावा भी नहीं करते। वे एक स्‍टेट्‍समैन हैं एक आधुनिक युगपुरूष। इसीलिये, उनकी अतीत की खोज वैज्ञानिक है, अपने स्‍व के जटिलता की तलाश है लेकिन इसके राजनैतिक और सभ्‍यताजनित निहितार्थ है वे अतीत की अच्‍छी और बुरी बातों से देश और समाज को शिक्षित करना चाहते हैं। वे व्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता के पक्षधर हैं लेकिन इतिहास उनके लिये व्‍यक्तियों का जमा हिसाब न होकर समूहों की दास्‍तान है जिसमें कई बार लोगों के चेहरे सामने नहीं भी आते। और, अपने व्‍यक्‍तित्‍व के समान ही उनके इतिहास का फलक भी असाधारण रुप से विशालकाय है। अपनी पुत्री के नाम लिखे खतों में (जिसने विश्‍व इतिहास की झलक का शक्‍ल अख्‍तियार किया [ग्लिम्‍पसेस आफ वर्ल्‍ड हिस्‍टरी, 1934]) उनके इतिहास के ज्ञान की विविधता और नजरिये की समृद्धता का अंदाजा लगता है। वे पुराकालिक आदिमानव की बात करते हैं, उसके सभ्‍य होने की दास्‍तान कहते हैं, मिस्र, सुमेर, अक्‍कद और बेबीलोन की सभ्‍यता की बातें करते हैं, हडप्पा और आरंभिक चीन की संस्‍कृति, अजटेक, माया, इंका, ग्रीस, रोम, मध्‍य और आधुनिक योरप का उल्‍लेख करते हैं। इसी के साथ, इंग्‍लैंड, फ्रांस और डच साम्राज्‍यवाद, अमरिका के स्‍वाधीनता आंदोलन और गृह युद्ध, एशिया एवं अरब के राष्‍ट्रवादी उत्थानों,महायुद्द, पूंजीवाद की समस्‍यायें, नाजीवाद, फासीवाद और अमरिका का एक विश्‍व शक्ति के रुप में उदय की बात भी कहते हैं।
भारत की खोज में शुरुआती हिस्‍सों (जो उनके वर्तमान और वैचारिक उहापोह के हैं) के बाद वे सिन्‍धु घाटी सभ्‍यता से शुरुआत करते हैं। जैसा कि प्रख्‍यात राजनीति-वैज्ञानिक, पार्थ चटर्जी ने लिखा है नेहरु के भारत का यह खोज दो बड़े कालखंडों में बँटा दिखता है। पहला तो सिंधु सभ्‍यता से शुरु होकर अरबों, अफगानो और तुर्कों के साथ इस्‍लाम के आगमन से ठीक पहले खत्‍म होता है। यहां बौद्ध और भौतिकवादी दर्शन है, चंद्रगुप्‍त और अशोक है। वेद, उपनिषद और वेदान्‍त हैं। यह एक महान और समृद्ध सभ्‍यता है जहां दर्शन, कला, साहित्‍य, विज्ञान और गणित है, अर्थव्‍यवस्‍था विकसित है और दूसरे देशों से संपर्क हैं। लेकिन फिर भी यह भारत कमजोरी का शिकार हो जाता है जिसके जकड़ में न मात्र राजनैतिक व्‍यवस्‍था चरमरा जाती है वरन् सृजनात्‍मकता का पतन भी हो जाता है। शंकराचार्य के बाद कोई महत्‍वपूर्ण ग्रंथ दर्शन के क्षेत्र में उन्‍हे उदाहरण देने के लिये नहीं सूझता है और न ही भवभूति के बाद कोई साहित्यिक कृति ही (दोनो ही 8वीं सदी के)। सामाजिक संरचना में अलगाव और कठोरता का विकास होने लगता है, जातिगत और सामाजिक कुरीतियां जैसे परदा प्रथा घर कर लेती है। इसके बाद यद्धपि मुगलों के दौरान चंद सदियों के लिये समृद्धि का प्रवेश हुआ भी तो वह कमोबेश शासक के व्‍यक्‍तित्‍व पर आश्रित रहा। अठारहवीं सदी में कमजोरियों ने अंग्रेजी कंपनियों के लिये सुनहरे द्वार खोल दिये। इस लंबे कालक्रम में उनका मत है कि हम करीब करीब भारत के प्रगति, विकास और पतन को माप सकते हैं जब भारत का खुले मन से बाह्य विश्‍व का स्‍वागत कर रहा था, प्रगतिशील था, समृद्ध था पर जब उसने अपने को संकुचित कर लिया, पतन के रास्‍ते पर बढ़ने लगा। लेकिन राष्‍ट्रवाद और आधुनिकता के सदगुणों से ओत-प्रोत, आशावादी लहजे में नेहरु इस भारत में चिर-यौवन का अदम्‍य जीजिविषा भी पाते हैं।
यहां जिसे पहला भाग माना जा रहा है वह वस्‍तुत: दो अध्‍यायों से बना है जिसके नाम हैं डिस्‍कवरी आफ इंडिया और थ्रू द एजेस जबकि पतन की शुरुआती अध्‍याय (जो इस्‍लाम के आगमन से आकार लेने लगता है) का शीर्षक है–न्‍यू प्राब्‍लम्स
गौरतलब है कि सुनहरे अतीत में भी कमोबेश भारत की खोज उत्‍तर भारत तक ही सीमित रहती है। दक्षिण के आंध्र, चालुक्‍य, चोल और राष्‍ट्रकूट इस दास्तान में महज कोरस के पात्र के समान ही दाखिल होते हैं।
नेहरू यह इतिहास देश के आम और खास सबके लिये लिख रहे हैं लेकिन यहां आम आदमी अपने अनुभव से मरहूम है। इसे उस समय की वैचारिक-बौद्धिक संदर्भों में रखकर भी समझा जा सकता है जब नारीवादी या दलित चेतना जैसी हस्‍तक्षेपों को आना शेष था। लेकिन दूसरे तरह से इसे आम आदमी के अनुभवों पर अशोक के ऐतिहासिक व्‍यक्तिव को तरजीह देने के रुप में भी हम देख सकते हैं क्‍योंकि हमें संविधान सभा की बहसें याद दिलाती हैं कि उन्‍होनें स्‍वतंत्र भारत के राष्‍ट्रीय झंडे की प्रस्‍तावना में चरखे (जो आम आदमी और उनके प्रतिरोध उनके अनुभवों का प्रतीक था) के बदले अशोक के चक्र की पुरजोर वकालत की थी। अनुभव पर समृद्ध इतिहास के विजय के रुप में।
सवाल ये नही कि नेहरू के इतिहास को रोमानी या फिर लोकप्रिय कहकर खारिज कर दिया जाय। नेहरु एक राजनेता रहे और उनका इतिहास उनके लिये राष्‍ट्र के व्यक्तित्व के निर्माण से सीधा ताल्‍लकु रखता है। इसीलिये भी उनके लिये मन और देह का अंतर मायने नहीं रखता।  विविधता में एकता, जो सेक्युलर विरासत की पहचान के रुप में बाद के दशकों में प्रसारित किया जाता रहा है इस ओर पाठकों का ध्‍यान आकर्षित करने में नेहरु ने कोई कोताही नहीं बरती। उनके जैसे मानववादी आधुनिक व्‍यक्‍ति के लिये राष्‍ट्र की प्रगति खुले विचारों और अतीत की विरासत के आलोचनात्‍मक और सचेत लेकिन वैज्ञानिक दृष्‍टि से परिपूर्ण उपयोग से ही संभव था। भारत के इतिहास की तरफ वे इसी आधुनिक पुरुष की नजर से देखते हुए मिलते हैं।
==============================

दुर्लभ किताबों के PDF के लिए जानकी पुल को telegram पर सब्सक्राइब करें

https://t.me/jankipul

Share.

7 Comments

  1. शुक्रिया प्रभास. विवेकानंद का उद्धरण याद दिलाने के लिए भी. अध्यात्म ( निराकार वेदांत को मैं यहाँ सरलता के लिए इसी श्रेणी में रख रहा हूँ)और राष्ट्रवाद के बीच के संवंध पर बहुतों ने लिखा है खासकर १९वीं सदी के अंतिम चरण वाले पक्ष पर, लेकिन इन रूपकों का भारत की छवि के साथ के संवंध पर कम ही है. जो है वह सम्प्रदायवाद के इतिहास के रूप में हैं.

  2. सदन जी! बढिया आलेख है। वास्तव में आजादी से पहले बहुत से बुद्धिजीवियोँ के समक्ष एक बहुत बड़ा प्रश्न था भारत के पराजय का प्रश्न। उन सब ने अपने व्यक्तिगत स्तर पर उससे निबटने की कोशिश की। विवेकानन्द के भग्न काली मंदिर का प्रसंग सर्वविदित है। जिसमें उन्हे उत्तर मिला कि विवेकानन्द! तुम मेरी रक्षा करोगे या मैं तुम्हारी। यह शायद एक वेदान्ती निराकारवादी विवेकानन्द की साकार ईश्वर की अोर यात्रा थी। भारत की खोज नेहरू के लिए उस अवलम्ब की खोज है जिस पर उनका राष्ट्रीय व्यक्तित्व उभरा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इसकी रचना के समय तक भारत, काँग्रेस और नेहरु तीनो ही कई मुकाम पार कर चुके थे।

  3. Pingback: LSM99 แจกเครดิตฟรี ยืนยันเบอร์ รวมคาสิโน สล็อต

  4. Pingback: เผาผลาญไขมัน

  5. Pingback: naakte borsten

  6. Pingback: discover this info here

Leave A Reply

Exit mobile version