जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रसिद्ध कवि-विचारक अशोक वाजपेयी ने कनौता कैंप में आयोजित ‘कथा कहन’ में उपन्यास की अवधारणा, भारतीय उपन्यास की अवधारणा, हिन्दी उपन्यास की परंपरा, अवधारणा को लेकर एक शानदार व्याख्यान दिया था। आज अशोक जी का व्याख्यान अविकल रूप से प्रस्तुत है-

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केसव! कहि न जाइ का कहिये।

देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥

सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।

मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥

रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।

बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥

कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।

तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥

अब आप कहेंगे दूर की कौड़ी लाए हो, इसका उपन्यास से क्या ताल्लुक़ है? तो मैं बताना चाहूँगा क्या है।

’तव रचना विचित्र’

मिलान कुंदेरा ने, जब उनको इजराइली पुरस्कार मिला तब उन्होंने एक भाषण में कहा कि उपन्यास ईश्वर की हँसी से पैदा हुआ है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर ने जब यह संसार रचा जब यह मनुष्य बनाया और जब वो बन गया जब वो चलने लगा है तो ईश्वर को देखकर हँसी आती है कि अरे हमने यह क्या बना दिया है, इतना ऊबड़- खाबड़ परेशान और बेचैन करने वाला है। तब तुलसीदास 400 वर्षों पहले यही कह गए हैं नव रचना विचित्र…

 शून्य भित्ति चित्र

उपन्यास एक भ्रम पैदा करता है कि यह सच्चाई है। असल में कोई सच्चाई होती नहीं है। वह तो शून्य है जिसकी दीवार पर आप चित्र उकेरते हैं और यूँ उकेरते हैं कि चित्र देखने वाला उस शून्य और उसकी भित्ति को तो भूल जाता है कि यह चित्र आख़िर बना किस पर है ? वह बना है शून्य की दीवार पर। परन्तु आपको यह शून्य की दीवार याद नहीं रहती है । क्या याद रहता है? चित्र।

रंग नहीं तनु बिन ..

उसमें रंग भी नहीं है और बिना किसी शरीर के है, पर जो असली बात है वह आगे है , ‘रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं’ यह जो मरीचिका है और उपन्यास भी मरीचिका है, जिसमे मकर रूप बैठा है जो चराचर को ग्रसता है। उपन्यास में जो मरीचिका है उसमें भी एक मकर बैठा होता है जो कई बार या तो उपन्यासकार को ग्रस लेता है, कई बार उसके पात्र खा लेता है, कई बार पूरे उपन्यास को ही खा जाता है तुलसीदास एक निहायत अतियथार्थवादी चित्र बना कर कह रहे हैं कि –

यह जो मरीचिका है, यह जो शून्य भीति पर चित्र है यह जो तव विचित्र रचना है इसके बारे में कुछ लोग कहते हैं यह सच है, कुछ लोग कहते हैं झूठ है, कुछ लोग कहते हैं यह दोनों का मिश्रण है। तुलसी दास कहते हैं कि ये तीनों भ्रम हैं, इससे मुक्त होइए तभी आप अपने सेपहचान पाएंगे। उपन्यास क्या करता है…? यह भ्रम पैदा करता है कि वह सच है। पाब्लो पिकासो ने एक बार कहा ‘Art is a lie which tells the truth’ यानि कला एक ऐसा झूठ है जो सच बोलती है। तो इसी अर्थ में उपन्यास न सच है न झूठ है न इन दोनों के सम्मिश्रण से बना कुछ है।

मारियो वर्गास ल्योसा को जब नॉवेल पुरस्कार मिला तो उन्होंने व्याख्यान दिया उसका एक अंश आप देखें:

Like writing, reading is a protest against the insufficiencies of life. When we look in fiction for what is missing in life, we are saying, with no need to say it or even to know it, that life as it is does not satisfy our thirst for the absolute – the foundation of the human condition – and should be better. We invent fictions in order to live somehow the many lives we would like to lead when we barely have one at our disposal.

उपन्यास हमको एक और जीवन जीने की सुविधा देता है जो हमारे अपने सीमित जीवन से अलग है। कई बार वह विस्तार भी लग सकता है। कई बार वह प्रतिरूप भी लग सकता है। कई बार वह उसका प्रतिषेध हो सकता है और कई बार वह उससे बिल्कुल अप्रत्याशित लग सकता है। पर यह बात याद रखने की है कि हम गल्प रचते क्यों है…? अगर हम अपनी ज़िंदगी से मुतमईन होते कि हाँ हमको सब मिला, बहुत मुतमईन हैं। हम और आप दुर्भाग्य से उन में से हैं जो मुतमईन नहीं हैं। इसी व्यख्यान में मारियो ल्योसा ने यह भी कहा कि वह लोग झूठ बोलते हैं जो कहते हैं कि दी हुई दुनिया पर्याप्त है। लेखक वे होते हैं जो यह कह सकने की हिम्मत रखते हैं, जो यह कह सकते हैं कि जो दुनिया हमें दी गई है वह पर्याप्त नहीं है। इसी में उन्होंने आगे कहा यही नहीं कि वह पर्याप्त नहीं है वह खराब बनी दुनिया है और हमसे यह उम्मीद की जा रही है कि इस ख़राब बनी हुई दुनिया को हम स्वीकार कर लें और उससे सन्तुष्ट हो जाएँ।

आप में से बहुत सारे युवा लेखक होने जा रहे हैं, हमें यह याद रखना चाहिए कि हम बेचैन लोग हैं परेशान लोग हैं नाराज़ लोग हैं, अगर उपन्यास लिखें तो उसमें यह प्रकट होना चाहिए।

मैं जो चतुराई बरत रहा हूँ वो यह है कि मैं आपको अपनी कोई राय नहीं दे रहा उपन्यास के बारे में, क्योंकि मुझे आती ही नहीं है, तो उसको मैं अपनी विद्वता से छिपा रहा हूँ। मैं आपको दुनिया भर के लोगों की बातें बताऊँगा क्योंकि मेरी अपनी कोई बात तो है नहीं, और बहुत सारे लोग हैं जो आपको बहुत बड़ी-बड़ी बातें बताते हैं दरअसल वह उनकी अपनी बातें नहीं होती हैं। सारे लेखक चोर होते हैं, कुछ लेखक दिल चोर भी होते हैं, तो उनकी छोड़ के कहें हम सब अपने बड़े लेखकों से कुछ ना कुछ चुराते हैं। कुछ लोग इसका एहतराम करते हैं कि हाँ ये हमने फलाँ-फलाँ से लिया है।

कुछ लोग हैं जो बिल्कुल ऐसे पेश करते हैं जैसे यह उसने मौलिक किया है।, हर लेखक को, युवा लेखक को तो बहुत ज्यादा यह भ्रम होता है कि वह दुनिया का पहला लेखक है। अगर वह पहला लेखक नहीं है तो होना चाहता है, यानी वह सारे इबारत को लकड़ी की पट्टी पर लिखी इबारत की तरह पोछ देना चाहता है। मुश्किल यह है कि आप पहले नहीं है, ग़ालिब तक को कहना पड़ा कि “अगले जमाने में कोई मीर भी था।” हमसे पहले भी बहुत हुए हैं, और जिन चीज़ो के बारे में आपमें यह भरम होता है कि यह तीर आप मार रहे  हैं वह तीर पहले भी मारा जा चुका होता है ।

एक अर्नेस्तो सिब्बतए ( अमरीकी उपन्यासकार ) हैं। इनका एक कथन मिलान कुंदेरा ने उद्धरित किया है ;

 “In the modern world abundoned by philosophy and splintered by deed of scientific specialties, the novel remains to ask the last observatory from which we can embrace life as a whole”

    आपको पता होगा, पता न हो तो होना चाहिए कि उपन्यास को बहुत वर्षों तक महाकाव्य का स्थानापन्न माना जाता था, महाकाव्य का, जो कि बीत गया। उसकी जगह आया उपन्यास, पश्चिम में तो यह भी कहा गया कि उपन्यास से ही पश्चिमी व्यक्ति पैदा हुआ। हमारे यहाँ निर्मल वर्मा ने, जो ‘कफ़न’ कहानी है, उसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि घीसू और माधव जब कफ़न के पैसे से शराब पीना शुरू करते हैं तो जो पहला घूँट है उससे हिंदी साहित्य में व्यक्ति पैदा हुआ है, तो ये जो व्यक्ति पैदा हुआ उसके सामने जो लक्ष्य था वो तो पश्चिम में तो हो चुका था हमारे यहाँ भी हुआ अन्ततः क्योंकि दर्शन हमें छोड़ चुका था और विज्ञान इतना जटिल हो गया कि उसने भी हमें छोड़ ही दिया,तो फिर बचा क्या? जीवन की समग्रता का मनुष्य की समग्रता का दर्शन कहाँ हो? तो यह उपन्यास का एक लक्ष्य बना। मैं इसपर सवाल उठाऊँगा बाद में कि हिंदी उपन्यास में कितनी समग्रता है, क्या उसकी चूकें हैं क्या उसकी कमियाँ हैं।

यह दूर बैठे व्यक्ति का दुःख है.. ‘आज एक दर्द मेरे दिल में सिवा होता है।’ जैसा कि ग़ालिब ने कहा है।

,मैं ने ‘पूर्वग्रह’ के सम्पादक के रूप में निर्मल वर्मा को चिट्ठी लिखी और पूछा कि भारतीय उपन्यास भी कोई चीज़ है क्या? 70 ,80 के दशक के ये दिन थे जब लैटिन अमरिकी उपन्यास विश्व परिदृश्य पर बड़ी जोर शोर से फैल गया था तो यह सवाल मेरे मन में पैदा होता था कि क्या कोई भारतीय उपन्यास है जो उपन्यास पश्चिम के उपन्यासों से और दूसरे उपन्यासों की परंपरा से अलग है? तो निर्मल वर्मा ने एक निबंध लिखा और हमने उसे ‘पूर्वग्रह’ में प्रकाशित किया।

यह कुछ ऐसा था कि हम एक ऐसे बने बनाए मकान में रहने लगें जो दूसरों ने अपनी ज़रूरतों, संस्कारों, स्मृतियों – एक शब्द में कहें तो अपनी ‘जलवायु’ के अनुसार बनाया था। हम न केवल उसमें रहने लगे बल्कि कभी उसमें अनुकूल परिवर्तन करने की ज़रूरत महसूस नहीं की। प्रेमचंद से लेकर अधुनातन उपन्यासकार ने कभी ‘उपन्यास’ की विधा पर शंका प्रकट नहीं की, अपने अनुभवों के संदर्भ में उसका पुनर्परीक्षण तो दूर की बात थी।

भारत में अनेक उपन्यास लिखे गये हैं: हर साल लिखे जाते हैं – मनोवैज्ञानिक उपन्यास, यथार्थवादी उपन्यास, आंचलिक उपन्यास – लेकिन स्वयं ‘उपन्यास की समस्या’ पर विचार, उसके जातीय फॉर्म का अन्वेषण हमने नहीं के बराबर किया है। इस स्तर पर उपन्यास की समस्या हमारी समूची संस्कृति के विश्लेषण से जुड़ी है।

(‘संस्कृति, समय और भारतीय उपन्यास’ 1976)

आप याद कीजिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल का प्रसिद्ध निबंध है कविता क्या है? उसके बाद हम लोग भी इस पर कभी-कभी विचार करते रहें हैं, अच्छा बुरा जैसा, शुक्ल न सही कृष्ण सही, कि कविता क्या है? ऐसा कोई निबंध हिन्दी में शायद नहीं है जो सवाल उठाए कि उपन्यास क्या है? यह जो विधा है इस विधा के होने का क्या मतलब है? इस पर हमने कभी विचार नहीं किया। न प्रेमचंद ने किया न अज्ञेय ने न जैनेंद्र ने न फणीश्वरनाथ रेणु ने किया। मनोहर श्याम जोशी ने थोड़ा बहुत  किया, निर्मल वर्मा ने किया, फिर भी कुल मिलाकर ऐसी विचार सामग्री नहीं बनती जिससे आपको यह पता चले कि उपन्यास कैसे हमारे यहाँ इम्प्लांट हुआ है।

मदन सोनी ने एक बहुत दिलचस्प सवाल उठाया और उन्होंने कहा-
मुश्किल सिर्फ़ यह नहीं है कि ‘हम भारतीय लेखक उस विधा के बारे में बहुत कम सोचते हैं जिसे स्वयं अपने सृजन के लिए चुनते हैं’, बल्कि मुश्किल, इससे पहले शायद, यह है कि सिर्फ़ भारतीय लेखक ही नहीं बल्कि हम भारतीय मनुष्य मात्र उस विधा के बारे में और भी कम सोचते हैं जिसे हम स्वयं अपने जीवन के लिए चुनते हैं। हमारे उपन्यास की समस्या, विशेष रूप से, जीवन-विधा के बारे में विचार ना करने की हमारी प्रवृति का शायद सबसे अचूक, सबसे सटीक संकेतक है। विशेष रूप से इसलिए कि ये दोनों चीजें एक उभयनिष्ठ संदर्भ से जुड़ी हुई हैं, और वह संदर्भ है ‘आधुनिकता’। उपन्यास की जिस विधा को हमने अपने सृजन के लिए चुना, हम एक बार फिर स्मरण करें, वह उसी आधुनिकता का एक विक्षेप है, जिसे हमने अपने जीवन की विधा के रूप में चुना। इसलिए एक बने-बने मकान में रहने लगने की जो बात उपन्यास के संदर्भ में कही गयी है, वह दरअसल कहीं ज़्यादा अभिधात्मक ढंग से, सबसे पहले इस आधुनिक सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ में हम पर लागू होती है।

हमने महज़ उपन्यास की विधा पर ही नहीं बल्कि दरअसल अपने गद्य और खड़ी बोली के उत्स पर ही मूलगामी ढंग से विचार नहीं किया – उतना भी नहीं जितना, अंग्रेज़ी में ही सही, राष्ट्रवाद, सेक्युलरिज़्म, संसदीय लोकतंत्र, नौकरशाही, न्यायपालिका, शिक्षा और चिकित्सा आदि की आधुनिक संस्थाओं के बारे में किया गया है। स्वयं इन विमर्शों में भी आधुनिक हिन्दी साहित्य का दृष्टान्तपरक उपयोग करते हुए इसको ‘साहित्य’ की तरह, भाषा की कला की तरह, पढ़ने की बजाय, सूचनाओं के संचय की तरह बरता जाता रहा है। यह अविचार, एक बार फिर, इन अभिव्यक्ति और भाषा-रूपों (गद्य और खड़ी बोली) की (आत्म-) विमर्शात्मक सामर्थ्य की कमी, और इनके बारे में हमारी उदासीनता को, इनको ग़ैरमहत्त्वपूर्ण मानने की हमारी प्रवृति को, ही दर्शाता है।

जहाँ तक विधा पर अविचार का प्रश्न है, इसे हम अपनी आलोचना में सहज ही लक्ष्य कर सकते हैं जहाँ न सिर्फ़ उपन्यास की विधा पर बल्कि किसी भी विधा पर, और उससे भी पहले स्वयं साहित्य पर, सत्तामीमांसात्मक क़िस्म के किसी भी स्तर के विमर्श का सर्वथा अभाव है। और यह अभाव सिर्फ़ आलोचना तक सीमित नहीं है, इसको स्वयं इन विधाओं में किये जाने वाले लेखन में लक्ष्य किया जा सकता है। इसके बावजूद कि पिछले दस-पंद्रह वर्षों के कुछ लेखन में, विशेष रूप से कविताओं और कहानियों में, इन विधाओं को जब तक विषय बनाया जाता रहा है, ऐसा लगभग नहीं हुआ है जहाँ किसी रचना का अनुभव उस अनुभव को विन्यास प्रदान करती विधा के साथ ज़िरह, तनाव या संवाद का कोई रिश्ता बनाता हो।

उत्कर्ष हासिल करने वाली प्रतिभाएँ, जैसे कि मसलन प्रसाद और निराला, जब उपन्यास लिखने की कोशिश करते हैं, तो उनकी ये कृतियाँ स्वयं उनकी कविता के समक्ष भी निहायत ही कमज़ोर ठहरती हैं। ये ‘आधुनिक’ प्रतिभाएँ हैं, लेकिन जिस आधुनिकता को ये लेखक अपनी कविता में इतनी सहजता और लाघव के साथ साधते प्रतीत होते हैं, वही आधुनिकता जब एक सम्पूर्ण विधा (उपन्यास) की शक्ल में उनके सामने आती है, तो वे असहज और बोझिल साबित होते हैं।

मदन सोनी ने एक दिलचस्प बात यह भी कही कि जब कवियों ने उपन्यास लिखे तो ढीले-ढाले उपन्यास लिखे, निराला ने, प्रसाद ने। अलबत्ता अज्ञेय और विनोद कुमार शुक्ल ने कवि होते हुए अच्छे उपन्यास लिखे।

अब क्या हुआ है उपन्यास आया, आधुनिकता के साथ आया। तथाकथित आधुनिकता और उपन्यास दोनों को हमने बिना प्रश्न पूछे, बिना किसी संकोच के, बिना विचार विमर्श किए, स्वीकार कर लिया। जैसे आधुनिकता स्वीकार हो गई और हम लगातार आधुनिक होते जा रहे हैं, उसी तरह से उपन्यास हो गया। हमने उसके भारतीय समाज में औचित्य और भारतीय मेधा पर विचार ही नहीं किया। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ.. महाभारत। महाभारत तो संसार के सबसे बड़े महाकाव्यों में से एक है और महाभारत की संरचना क्या है? वह निरन्तर विपथगामी संरचना है ,महाकाव्यकार कहानी कह रहा है, भटक जाता है, भटक में दूर तक चला जाता, फिर याद आती है फिर वापस कहानी में चला आता है। इस महाकाव्य के उत्तराधिकार को हिंदी के किस उपन्यास ने या उपन्यासकार ने कभी आयत्त करने की कोशिश की ? सीधे-सीधे रास्ते जो चलेगा अक्सर तो वह मंजिल तक भी नहीं पहुँचेगा। लेकिन उसको यह भ्रम है कि सीधे रास्ते चलकर मंजिल पर पहुँच जाएगा। जो भटकेगा, जो अटकेगा जो विपथगामी होगा, वही शायद मंजिल पर पहुँचेगा। इस बात को महाभारत से सीखने की जरूरत थी। इस बात को सीखने के लिए आपको जादुई यथार्थ के लिए लैटिनी अमरीकी उपन्यास तक जाने की जरूरत नहीं थी। तुलसीदास जब वर्णन कर रहें हैं तो बता रहे हैं कि इस मरीचिका में मगरमच्छ बैठा है।
तो, हम अधकचरे आधुनिक हैं, अधकचरे परम्परावादी।

इसमें कचरा प्रधान है। हम न यह हैं न वह हैं। इसीलिए हमने उपन्यास में वह मेयार हासिल नहीं किया। किसी हद तक यह बात याद आई होगी सलमान रूश्दी को जब उसने अंग्रेजी को भ्रष्ट करने का, उसे चटनी बनाने की हिम्मत की। यह कहना तो कठिन है कि उन्होंने महाभारत से प्रेरणा ली होगी लेकिन कम से कम उनमें यह हिम्मत थी कि उन्होंने वर्चस्वशाली प्रभुत्वमय अंग्रेजी की पूरी तरह से उसकी चटनी बना दी। हमारे यहाँ भाषा की किसी ने ऐसी चटनी बनाई तो वे कृष्ण बलदेव वैद तो आजतक हिंदी साहित्य ने उनको स्वीकार नहीं किया। हम पूरी बेलने वाले लोग हैं जिसकी पद्धति तय है। हम चटनी वटनी नहीं बना सकते। हमने अपनी भाषा की ही चटनी नहीं बनाई। मूर्खतापूर्ण ढंग से खिचड़ी बना रहे हैं आजकल वह अलग बात है। ऐसे लोग बढ़ते जा रहे हैं जो साफ सुथरी हिंदी नहीं बोल सकते, तो जो साफ सुथरी हिंदी नहीं बोल सकते वे चटनी क्या बनाएँगे। चटनी तो वही बनाएगा न जिसको पता हो इसमें जीरा कितना डलता है नमक कितना डलता है, क्या डाला जा सकता है और क्या नहीं!

हमारे यहाँ परम्परा में एक पद है जिसका मैं आजकल बहुत इस्तेमाल करता हूँ, वह है ‘अप्रत्याशित का रमणीय।’

यकायक कुछ ऐसा होता है जिसकी आपने कल्पना नहीं की हो, जैसे किसने यह सोचा कि ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’। यह नहीं कहा जा रहा कि ‘दीवार में एक खिड़की थी’, लेकिन ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’। यह अप्रत्याशित का रमणीय है बस, हमने ‘पूर्वग्रह’ का उपन्यास अंक निकाला था तो विनोद कुमार शुक्ल ने अपने नए उपन्यास का एक अंश भेजा। तब विनोद जी उन दिनों बहुत ही निस्पृह व्यक्ति थे। आजकल नहीं हैं उतने तब थे। हमने उनको एक चिट्ठी लिखी कि इसका शीर्षक तो दे दीजिए। जवाब नहीं आया। तो मदन सोनी ने हमसे कहा ख़ुद आप ही इसका शीर्षक दे दीजिए। हमने पढ़ा एक पैराग्राफ शुरू होता था, जिसमें था ‘खिलेगा तो देखेंगे’, तो मुझे यह वाक्य अच्छा लगा। बाद में यह उनके उपन्यास का शीर्षक बना। तो यह जो अप्रत्याशित का रमणीय है यह सबसे अधिक उपन्यास में, गल्प में होता है। देखिए आपको दो उपन्यासों की मैं याद दिलाऊँगा।  एक तो उपन्यास नहीं कहानी है फ्रांज़ काफ्का की ‘मेटामोर्फोसिस’। इसका पहला वाक्य है ‘जब ग्रेगरी सामसा एक सुबह जागा परेशान सपनों से तो उसने अपने को अपने बिस्तर के विशाल कीड़े के रूप में बदला पाया।’

एक आदमी एक सुबह उठे और उसको पता चले कि वह एक कीड़ा बन गया है। यह पहला वाक्य अयथार्थ है। बाक़ी कहानी में सब यथार्थ है। वह कीड़ा बन गया तो लोग उसके साथ कैसा व्यवहार कर रहें हैं, ये है वो है सब..

अल्बेयर कामू का प्रसिद्ध उपन्यास है ‘आउटसाइडर\’।

वह शुरू होता है , मेरी माँ आज मर गयी या शायद कल, मैं नहीं जानता, बहुत बड़ा हथियार है गल्प के पास अप्रत्याशित का, और जो अप्रत्याशित है वह कौतुक भी है। यह भी सच्चाई को सही ढंग से देखने का एक तरीका है। तो आपके पास सब है। मिलान कुंदेराने कहा है कि ‘हम अब भी उस पराजय के बारे में जो ज़िंदगी होती है, यही कह सकते हैं कि उसे समझें…ज़िंदगी की आकस्मिक सघनता।उपन्यास ही प्रगट करता है बेतुके की अपार और रहस्यमयी शक्ति।’

जो बिल्कुल ही नगण्य लगता है, जिसे कहते हैं इसमें कोई पॉइंट नहीं क्या बहस कर रहे हो, यह जो मिस्टीरियस ब्यूटी है पॉइंटलेस की, जरा-जरा छोटी चीजों से सच्चाई का नक्शा बदल जाता है। किसी एक हरकत से, एक मक्खी के प्याले में गिरने से कुछ भी कोई भी ऐसा चीज़ जो अप्रत्याशित को संभव कर दे..उपन्यास की दुनिया में.. बल्कि साहित्य की दुनिया में।

उपन्यास पैदा हुआ है नायकों के महाभिनिष्क्रमण से। जब नायक गायब हो गए, यानि ऐतिहासिक नायक, पौराणिक नायक, फिर जब सामान्य मनुष्य साहित्य के केंद्र में आया तो उपन्यास साधारण की महिमा का दस्तावेज है। यह वीरगाथा नहीं है, और जो उपन्यास वीरगाथा या किसी चरित्र की वीरगाथा बनने की कोशिश करता है वह दिक्कत देता है। हो सकता है कि वह लोकप्रिय हो लेकिन लोकप्रियता और सफलता में अंतर आप लोगों को क्या बताना है! सबसे बड़े लोग दुनिया में वही हुए, उदाहरण के लिए मार्क्स, गाँधी, विन्सेंट वॉन वॉग, मुक्तिबोध कितने नाम हैं जो विफल थे!

उपन्यासकार को या किसी भी लेखक को सफल होने के लिए नहीं लिखना चाहिए सार्थक होने के लिए लिखना चाहिए। हो सकता है उसकी सार्थकता फौरी तौर पर उसको विफ़ल साबित कर दे। फ्रांज़ काफ्का ने तो अपने मित्र से कहा था कि मेरी सारी पांडुलिपियाँ जला दो। मैक्स बांड ने इस हिदायत की अवज्ञा की क्योंकि उस वक़्त काफ़्का को यह मालूम नहीं था जो वह लिख रहा है उसका कोई खास मूल्य है। जो लोग अपने पर शंका नहीं करते, जो लोग बहुत आश्वस्त हैं कि हमको तो राह मिल गयी है, वे अक्सर अंततः कुछ हासिल नहीं कर पाएँगे।  उपन्यास भटकाव से पैदा होगा तब वो अधिक यथार्थ होगा। यथार्थवाद यथार्थ को जानने की एक युक्ति भर है, यथार्थवाद यथार्थ नहीं है, साहित्य में कोई भी यथार्थ  सीधे प्रेवश नहीं कर सकता, उसका द्वार साहित्य का द्वार है और वह ऐसा द्वार है जिसमें वह शिल्पित हो कर ही उसे पार सकता है।

पिछले सत्र में बात हो रही थी अमूर्तन के बारे में… मनुष्य का सबसे क्रांतिकारी अमूर्तन तो भाषा है। मेज़ वस्तु का मेज़ शब्द से कोई अनिवार्य या जैविक संबंध नहीं है। यह तो एक स्वेच्छाचारी भाव है कि हमने इसको मेज़ कहा हम इसको कुर्सी भी कह सकते हैं, और कुर्सी को मेज। भाषा सबसे क्रांतिकारी अविष्कार है अमूर्तन का..और यह मत भूलिए कि भाषा ही हमको दूसरे जानवरों से अलग करती है। दूसरे जानवर ज्यादा परवाह करते हैं। दूसरे जानवर हमसे ज्यादा नैतिक हैं, हमसे ज्यादा सभ्य हैं। यह जो क्रन्तिकारी अविष्कार है भाषा का, उपन्यास उसको खुला आँगन देता है। याद करिए जब ‘मैला आँचल’ आया था। मैं 17 या 16 बरस का था, राजकमल से मैला आँचल आया। उसकी बड़ी दुंदुभी बज रही थी हमने भी टेलीग्राम भेजा राजकमल को और मंगाया मैला आँचल। आप सोच सकते हैं 17 साल का युवक जिसकी दिलचस्पी ही उपन्यास में बहुत कम होने वाली है, उपन्यास मँगाता है, क्यों? उस उपन्यास ने ऐसी हलचल कैसे पैदा की? भाषा से, उसकी भाषा ऐसी भाषा थी जो हिंदी में पहले कभी नहीं आई थी, जो भाषा प्रेमचंद लिख ही नहीं सकते थे, क्योंकि प्रेमचंद को वैसी भाषा आती ही नहीं थी। प्रेमचंद यथार्थवादी उपन्यासकार हैं  इसीलिए सीमित उपन्यासकार हैं। फणीश्वरनाथ रेणु पूरे अंचल को बोलने देते हैं उस उपन्यास में पशु-पक्षी, वनस्पति, ज़मीन-जंगल लोग सब बोलते हैं। पहले कभी अंचल ऐसे नहीं बोला था गद्य में जैसे रेणु के यहाँ बोला। तो यह भाषा का जो खुला आँगन है इसमें यथार्थ सीधे-सीधे नहीं आता है। और न आ सकता है।

आप याद करिए ‘गोदान’ का अंतिम दृश्य। बिल्कुल अंतिम दृश्य जब होरी की मृत्यु हो रही है। ऐसा दारुण, ऐसा ट्रैजिक वर्णन हिंदी में पहले कभी नहीं हुआ था बल्कि उसके बाद भी नहीं हुआ। हिंदी उपन्यास मृत्यु से डरता उपन्यास है।

यह उस समाज का उपन्यास है जिसमें नश्वरता को सहज़ स्वाभाविक माना गया था.?ऐसा क्यूँ है कि हम अपने उपन्यास में जब मरते हैं एक़दम मर जाते हैं मतलब समाप्त हो जाते हैं? मरना इतना आकस्मिक? हो सकता है किसी का ऐसा हो मैं अपने लिए ऐसी ही आकस्मिक मृत्यु की कामना करता हूँ। लेकिन हो सकता है ऐसा न हो…

मिलान कुंदेरा ने एक और बात कही, संसार को बहुत सुंदर कोमल इत्यादि बताने की जो रिवायत है वह कविता में तो सोहती है उपन्यास में नहीं.. उपन्यास तो, हालाँकि कवि की ही उक्ति के अनुसार, इस मरीचिका में मगरमच्छ को देख सकता है और दिखा सकता है।

उपन्यास से हम उम्मीद बहुत लगाते हैं, क्यूँ लगाते हैं.? उपन्यास की अद्वितीयता कहाँ से आती है? ऐसा क्या है जो सिर्फ उपन्यास ही कह सकता है? कहानी नहीं कह सकती, कविता नहीं कह सकती, कोई और विधा भी नहीं कह सकती है। इस पर हमने बहुत कम विचार किया। हमारी आलोचना में इस तरह के प्रश्नों की जगह ही नहीं है, वह इसी में लगी रहती है कि इसमें सामाजिक यथार्थ है या मनोवैज्ञानिक यथार्थ है, वह इन सबको भूल गयी। ये जो आलोचनात्मक वर्गीकरण है कि यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास है, यह आंचलिक उपन्यास है यह सब निरर्थक है। उपन्यास का विवेक क्या है? विज़डम क्या है? उपन्यास का विज़डम हमारे सन्दर्भ में यही है जो महाभारत का विज़डम है। महाभारत का विज़डम काहे में पैदा होता है? अन्ततः व्यास हाथ उठाकर कहते हैं मैं पुकार रहा हूँ कोई मेरी नहीं सुन रहा है। मैं तुमको यह बता रहा हूँ कि तुम लोग मेरी नहीं सुन रहे हो। इसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए कि हमारी बात नहीं सुनी जाएगी। विफलता का यह दूसरा छोर है।

एक बहुत मोटे- मोटे अर्थ में उपन्यास स्मृति का रंगमंच है, वह कल्पना का घर है, वह स्मृति का दुर्ग है, वह याद रखता है, याद करता है, वह याद दिलाता है। उपन्यास पाठक को यह आश्वस्त करता है कि जैसे उसने एक पूरा संसार रचा है वैसे ही वो पाठक एक पूरा संसार रचेगा।

यह जो विकराल और विराट संसार उपन्यास रचता है अपने अंतिम लक्ष्य में वह आपको मनुष्य होने की सुंदरता, उसकी कठिनाई, उसकी विडंबना, उसकी बहुत सारी जो बुराईयाँ हैं, इन सब को समेटता है। समग्रता का क्या आशय हो सकता है इससे अच्छा! हमारे यहाँ तो हर देवता कोई न कोई गलती करता है और उसके लिए दंड पाता है। इसकी शुरूआत हुई ब्रह्मा से, ब्रह्मा से लेकर ऐसा कोई देवता नहीं है। राम जब अयोध्या में सरयू में जल-समाधि लेते हैं तो उपन्यासकार उसको आत्महत्या क्यों न कहेगा? मैंने तय किया है कि मैं जलसमाधि लूँगा पर है तो यह आत्महत्या ही ।यह कहने की हिम्मत कौन करेगा। महाकवि ने नहीं की। कोई बात नहीं। पर आज यदि उपन्यासकार इस बात को देखेगा तो यही कहेगा कि राम ने अंततः आत्महत्या की। हमारे यहाँ तो यह शुरू से ही परम्परा है कि कोई देवता अगर गड़बड़ करता है तो उसको दण्ड मिलता है, कृष्ण को भी मिला है, स्वयं राम अपने को अपराधी मानते हैं, उत्तररामचरित मानस में सीता को छोड़ आएँ हैं वाल्मीकि के आश्रम में वह गर्भवती हैं लेकिन छोड़ते हुए उनका हाथ काँपता है। अपने हाथ को संबोधित करते हुए एक श्लोक कहते हैं, जिसका आशय यह है कि तू निरपराध शम्बूक का वध करते हुए नहीं काँपा तो सीता तो वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ते हुए क्यूँ काँप रहा है। उत्तररामचरित में आते-आते राम अपने अपराध को कुबूल करते हैं।

कुछ लोग हैं जो कहते हैं पहले से मन में एक खाका बना लिया जाए एक नक्शा जिससे रूप न बिगड़े और वैसा ही काम किया जाए। थोड़ा-बहुत नक्शा तो जरूरी है बना लेना चाहिए लेकिन भटकना जरूरी है, विपथगामी होना जरूरी है। और यथार्थ की चिंता मत करिए आप जो लिखेंगे जो लिखा जा चुका है। वह भाषा मे यथार्थ हो चुका है उसको अलग से यथार्थ बनाने की जरूरत नहीं है। हम तो उस समय में रह रहे हैं जिसमें झूठ शिखर से बोलता है उसी भाषा मे बोलता है जिसमें सच बोला जाता है। भाषा अपने आप में एक बहुत बड़ा संसार है भाषा में जो आएगा वह अपने-आप यथार्थ है वह सच है कि झूठ है वह अलग बात है। हमारे समाज में जाति प्रथा इतनी मजबूत और जकड़ बन्द है हिंदी उपन्यास में कौन है ऐसा उपन्यास कितने हैं ऐसे उपन्यास, दलितों को छोड़कर जिन्होंने समाज की इस बुराई पर बोला लिखा?

इतनी नौकरशाही है बल्कि मिलान कुंदेरा ने तो यह भी कहा है हम एक सामान्य समय में नहीं रह रहे हैं, हम एक ब्यूरोक्रेटिक समाज में रह रहे हैं। हर जगह अफसरशाही है। वह सिर्फ सरकार में नहीं है पार्टियों में भी है, समाज मे भी है, घर्म में भी, एकेडमिक जगत में भी है, इस अफ़सरशाही का अन्वेषण करने वाला उपन्यास कौन सा है , ‘रागदरबारी’? बस एक, इतनी बड़ी समस्या का.?

राजनैतिक सर्वग्रासिता, अब तो राजनीति यह यह तय कर रही है न कि हम कहाँ जाएँ,, कहाँ ना जाएँ।  क्या पहने क्या ना पहने, क्या बोलें और क्या ना बोलें,  यह सब अब राजनीति का हिस्सा है। यह सर्वग्रासिता है। इसको इसकी सर्वग्रासिता को पकड़ने वाले कितने उपन्यास हैं कि जो हमारे जीवन पर बुरी तरह से छायी है उसको पकड़ रहा हो। अभी तक हम सोचते थे कि हिंदी समाज हिंदी समाज क्या भारतीय समाज बड़ा अहिंसक समाज है, बड़े अहिंसक लोग हैं। बहुत शांत प्रिय, यहाँ कोई झगड़ा नहीं करते, वह तो बाहरी लोग आ जाते हैं तो गड़बड़ हो जाती है पर अब जो दृश्य हो रहा है कम से कम हिंदी समाज के बारे में कि वह तो सबसे हिंसक समाज है और उसमें तो कई अलग-अलग तरह की हिंसाएँ हैं और यह मैं हवा में नहीं कह रहा हूँ, आप जिस यथार्थवाद से बहुत आतंकित हैं, यह उसी यथार्थवाद के आँकड़े हैं। स्त्रियों, बच्चों और अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले जघन्य अपराधों के जो राष्ट्रव्यापी आँकड़े हैं उनसे पता चलता है कि सारे जघन्य अपराध के 68% हिंदी राज्यों में होते हैं। आपको यह भी बताने की जरूरत नहीं की हिंदी में सबसे ज्यादा झूठ बोला जाता है और हर रोज बोला जाता है सबसे ज्यादा झगड़ा होता है सबसे ज्यादा गाली दी जाती है और हम यह सब देखते हैं यह जो समाज में घृणा छुपी हुई थी इसे उपन्यास कहाँ देख पाया और अब जो हो रहा है उसे भी कहाँ देख पा रहा है इसकी कौन जाँच करेगा? मैं एक उपन्यास पढ़ रहा था, एक फ्रेंच उपन्यास है जिसको बड़े पुरस्कार मिले। छोटा सा उपन्यास है ‘ऑर्डर ऑफ द डे’।  22 फरवरी 1938 के उसे पूरे दिन के दृश्य का वर्णन है एक बड़ी इमारत है जिसका बड़ा भारी दरवाजा है वह खुलता है जिस पर 12-15 लोग एक जैसे कपड़े पहने हुए, सूट-बूट पहने, मफलर लगाए, हैट लगाए दाखिल होते जाते हैं और एक बड़े कमरे में बैठते हैं। वहाँ एक आदमी आता है वह अफसर है, वह सबसे कहता है आपको तैयार रहना है यह नहीं बताता कि कहाँ के लिए तैयार रहना है? थोड़ी देर बाद फिर एक दूसरा आदमी आता है उनको दूसरे हाल में बैठता है जहाँ हिटलर बैठा हुआ है और हिटलर उनसे कहता है कि हम देश की मुक्ति के लिए जर्मन समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं हमको साधनों की कमी है इनमें से हर एक जर्मन नोटों की एक गड्डी निकालता है और सामने की टेबल पर रखा जाता जाता है। यह कौन लोग हैं यह जर्मन के सबसे बड़े व्यापारी लोग हैं जो बड़ी-बड़ी जर्मन कंपनियाँ है। नाजियों ने यहूदियों के साथ नरसंहार किया उसका समर्थन करने वाले कौन लोग थे? यही व्यापारी। क्या यही परिदृश्य आज भारत में नहीं है? उपन्यास का एक बड़ा भारी काम समय को व्यतीत होने से रोकता है। व्यतीत होने से रोकने का मतलब है उसको ऐसे पकड़ना या ऐसे दाखिल करना कि वह हमेशा वर्तमान है लगे आखिरकार ‘वार एंड पीस’ में जो समय पकड़ा गया है वह अनंत वर्तमान है। ‘गोदान’ में, ‘शेखर एक जीवनी’ में या ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में जो समय पकड़ा गया है वह वर्तमान है। यह जो तत्व है समय को व्यतीत होने से रोकना और यह केवल उपन्यास से ही संभव है या तो फिल्म में संभव है। ऐसी फिल्म बन सकती है जिसमें आप एक समय से दूसरे समय में जा सकते हैं। अब आप बाणभट्ट की आत्मकथा पढ़िए। कब की है वह और वह बाद की शैली में लिखी गई है। कब की है वह और लगता यह है कि वर्तमान है। लगता है संस्कृत शैली का हिंदी में पुनराविष्कार किया गया है लेकिन आज भी जहाँ हम उसको पढ़ते हैं तो लगता है कि यह उस समय की कथा तो है ही हमारे समय की कथा भी है। समय की कथा कहना यह हमारा नैतिक कर्तव्य है। अपने समय की कथा कहने के लिए तरह-तरह के उपाय संभव हैं। जब तक आप समय की कथा कह रहे होंगे तब तक जो सब कुछ यथार्थ होगा। जैसे ही आपने इस कथा में किसी प्रकार की बेईमानी करनी शुरू की, बेईमानी का मतलब जोखिम उठाने से, जो अप्रिय है उसे लिखने से बचने से है। उपन्यास की सच्चाई आपके हाथ से फिसल जाएगी। श्रीकांत वर्मा की एक कविता है ‘बचना चाहता तो बच सकता था लेकिन जो बचेगा वह कैसे रचेगा’ तो अगर आप रचना चाहते हैं तो बचना भूल जाइए। रचते वही हैं जिनको सार्थक होने की चाह है सफल होने की लालसा नहीं।

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