किसी भी लड़की के लिए एक छोटे शहर से चलकर देश की राजधानी तक पहुँचना, सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय में नामांकन पाना बेहद संघर्षपूर्ण होता है। मुझे ‘वर्षा वशिष्ठ’ बार-बार याद आती है, बहुत याद आती है। उसका संघर्ष सभी लड़कियों के संघर्ष का प्रतीक बन कर आता है।वह भी अपने छोटे से शहर शाहजहाँपुर से निकल कर, दिल्ली पहुँचती है और धीरे-धीरे अपनी पहचान हासिल करती है। कुछ इसी तरह के अनुभव से हमें रूबरू करा रही हैं प्रीति कुमारी। यह अनुभव गया से निकल कर जेएनयू तक पहुँचने और वहाँ अब तक की सीख-समझ के बारे में है। प्रीति गया से बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद अभी जेएनयू में रूसी भाषा से स्नातक कर रही हैं। उनका यह अनुभव अब आपके सामने है – अनुरंजनी
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गया से जेएनयू तक का सफर: क्या सीखा क्या बदला?
सबके पास सवाल का जवाब था कि 12वीं के बाद क्या करना है और शायद ये भी कि क्यों करना है? मैं, जिसे सिर्फ़ यह पता था कि क्यों करना है! लेकिन, इसके लिए कैसे और कौन- से विषय और कौन-सी जगह से करना सही रहेगा है, 12वीं की आख़िरी परीक्षा तक साफ नहीं था। परीक्षा हॉल के बाहर खड़े होकर जब सब अपने भविष्य की बातें कर रहे होते थे तो मैं खामोश खड़ी सोचती थी की आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना है, रूढ़िवादी सोच से, इस बिहार से बाहर निकलना है लेकिन कैसे? कैसे बोलूँगी घर पर और क्या बोलूँगी? मैं शांत खड़ी सोचती थी, मैं उनके भविष्य की बातों में बस इतनी ही शामिल हो पाती थी। मैं जिस जाति और समाज से आती हूँ वहाँ शादी की बात तो 12वीं के बाद शुरू हो ही जाती है। अगर मेरी परीक्षा का परिणाम अच्छा ना आया होता तो शायद मैं यहाँ नहीं होती। महेश भैया, ‘गुरु कम दोस्त’ और मेरे भाई मनीष, इन लोगों ने मुझे सपोर्ट किया। पापा को मनाना, मम्मी को समझाना, भाइयों को बताना, कभी लड़कर, कभी गुस्सा कर, कभी अपनी मेहनत पर, अपनी काबिलियत पर भरोसा कर और कभी रोकर, यह सिलसिला जारी रहा, अंततः वह मान गए। लेकिन, उसी समय चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से एक न्यूज़ आती है कि लड़कियों के नहाते हुए वीडियो वायरल हो गए हैं। इस घटना ने एक अलग ही किस्म का योगदान दिया मेरे यहाँ तक पहुँचने में। किसी तरह घरवाले मान गए कुछ शर्तों के साथ कि मुझे लड़कों से दूर रहना होगा, पढ़ाई करनी होगी, कुछ बनना होगा जो कि ज़रूरी है, हर माँ-बाप चाहते हैं। मेरे दोनों भाइयों ने बहुत साथ दिया ।
मदद यानी जेएनयू का एक पर्यायवाची। जेएनयू का पहला दिन, सोच कर ही डर लगता है पर अब हँसी भी आती है। जब आपकी गाड़ी जेएनयू में अंदर आती है और उसी के साथ कई लोग आपकी गाड़ी के पीछे भागना शुरू करते हैं और सिर्फ़ इसलिए भागते हैं ताकि वह आपकी मदद कर सकें, आपकी प्रवेश प्रक्रिया(एडमिशन) में और उनकी पार्टी की भी मदद हो सके। मुझे उस समय बहुत डर लग रहा था कि यह क्या हो रहा है लोग ऐसे मेरे ऑटो के पीछे क्यों भाग रहे हैं? ख़ैर, बाद में सब बातें समझ आ गई यह सारी चीज बहुत ही आम है और यूँ कहें कि यह ख़ास भी है।
एक भैया मेरे ऑटो के साथ दौड़ते-दौड़ते अपना परिचय देते हैं और ऑटो में बैठ जाते हैं और फिर हमसे हमारा परिचय पूछते हैं। हमें थोड़ा अजीब सा लगता है कि ये ऐसा क्यों हो रहा है ? हम भाई बहन एक दूसरे को देखते हैं और फिर बहुत मुश्किल से उन्हें मना करते हैं और फिर वह हमारे ऑटो से उतर जाते हैं।
वापस जिसके पास हम गए अपनी एडमिशन प्रक्रिया में मदद लेने के लिए और उन्होंने हमारी बहुत ही शांत मिज़ाज के साथ मदद की। इनकी टेंट के पास मुझे एक दीदी जिन्हें मैं पहले से जानती थी वो लेकर गई थी। उस दीदी ने हमारी पूरे दिन मदद की । यहाँ हर कोई हर किसी की मदद कर सकता है। कर्मचारी, कैंटीन वाले भैया, सुरक्षा करने वाले भईया, सब में आपको एक जागरूक इंसान देखने को मिलेगा। जो नहीं भी होता है वह यहाँ आकर बन जाता है। पूर्णता की तो गारंटी कहीं भी नहीं है लेकिन अधिकता की है और यहाँ अधिकतम, जागरूकता, तार्किकता आपको मिलेगी।
तार्किकता यानी जेएनयू- तथ्य( fact)है तो बात करो वरना सुनो । तथ्य कुछ भी हो सकता है, तर्क-वितर्क आपको यहाँ देखने को मिलेगी, आते-जाते लोगों की बातों में एक मुद्दा होता है जिस पर वो बातें करते है। यहाँ आप क्लास से बहुत ज्यादा कैंपस में घूमते-टहलते, ढाबा पर बैठते हुए सीखते हैं।आप सीखते हैं, जो यहाँ जन्म लिए और यही के होकर रह गए, किसी ने किताबों की दुकान खोली तो किसी ने कैंटीन खोल लिया, कोई पुस्तकालय में काम करने लग गए, आप इन सब लोगों से सीखते हैं। यह सिर्फ़ कहने की बात नहीं है, यह हमें शिक्षक कहते हैं कि क्लास आओ तुम शिक्षा संबंधी चीज़ सीखोगे लेकिन जब बाहर घूमोगे तो तुम ज़िंदगी जीना सीखोगे, तुम लोगों को जानना- समझना सीखोगे।
जो बच्चे क्लास नहीं आते जरूरी नहीं कि उन्हें कुछ नहीं आता वह कुछ नहीं समझते। वो इस कैंपस में ही रहकर सोचना शुरू कर देते है। जो यूँ ही किसी को जज नहीं कर सकता। कैंपस उसे ऐसा इंसान बना देता है। मुझे लगता है कि यहाँ के लोग किसी भी यूनिवर्सिटी के लोगों से बहुत बेहतर हैं।मैं फिर कहती हूँ कि पूर्णता की गारंटी नहीं है पर अधिकता की है और यहाँ अधिकता है।
सुकून और बेचैनी – यहाँ पर आपको लगभग एक जैसे लोग मिलेंगे जो जेएनयू की एक तरफ बुराई करेंगे क्योंकि जेएनयू आपको अकेला रहना भी सीखाता है और ऐसे लोगों के साथ भी रहना सीखाता है जिनकी बातें आपको पसंद न हो, जो लोग नहीं पसंद हो। यहाँ के लोग विचारों और तर्कों से भरे हुए हैं लेकिन उनके अंदर सदैव एक खालीपन सा रहता है और यह एक सहज बात है। यहाँ बेचैनी और खालीपन को भरने की कोई इतनी जल्दी नहीं है। ये एक प्रक्रिया भर है और इस दौरान वह सीख रहे हैं, सही मायनों में यही जीने का तरीका है, कि आप बिना शिकायत के जीते हैं, जो है जहाँ पर हैं आप उसे जीते हैं, भविष्य की ज्यादा चिंता नहीं होती। जो नए बच्चे आते हैं जैसे कि हम जैसे पहले साल के बच्चे, उन्हें यह खालीपन बेचैन करता है। हम इसे भरने की बहुत ज्यादा कोशिश करते हैं लेकिन आख़िर में यह समझ में आता है कि यही जीवन है और ऐसे ही जीना चाहिए, पूर्णता कहीं भी नहीं है।
आप चाहे ना चाहे जेएनयू आपको खुद को खोजना सिखा देगा। आप एक्टिविस्ट या राजनीति में शामिल हों ज़रूरी नहीं पर हाँ आप सवाल करना सीख जाओगे।
राजनीति या यहाँ का जीवन- मुझे ऐसा लगता है कि यहाँ की राजनीति यहाँ की संस्कृति है, धर्म नहीं संस्कृति। यहाँ बच्चे चाहे श्रेष्ठ हो, कमजोर हो, आपको उनकी बातों में तर्क नज़र आएगा और जब बच्चे, युवा, सवाल-जवाब करने लग जाएँ, सोचने-समझने लग जाएँ तो उन राजनीतिक पार्टियों के लिए ये भ्रष्टाचार से भी बड़ी समस्या होती है। यहाँ की राजनीतिक पार्टियाँ, जो समय-समय पर टॉक (talk)रखवाती हैं, लेखक आते हैं, वकील, सक्रियतावादी(एक्टिविस्ट ), राजनेता आते हैं जो अपनी बातें रखते हैं। वर्तमान पर चर्चा करते है, भूत से तुलना कर के भविष्य को सोचने के नए रास्ते देते हैं।
एक पार्टी जो लगातार जीत रही है इस कैंपस में चाहे भारत में किसी की भी सरकार हो जेएनयू में यूनाइटेड होकर वह पार्टी हमेशा जीतती रही है। कहा जाता है एक पार्टी जो सिर्फ धर्म और लाभ का लोभ, देखकर नए आए बच्चों को अपनी पार्टी में शामिल करती है, जो बच्चों के आसानी से करवा देती है और दूसरी तरफ़ ऐसी पार्टी जो पूरे साल सक्रिय रहती है, तार्किक बातें करती है, जो बच्चे बहुत गाली-गलौज करते हैं वो एक समय पर सोचने लगते हैं कि हमें यहाँ पर गाली देनी चाहिए या नहीं और मुझे लगता है यह परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण है।। जहां एक पार्टी मुखर होकर आगे निकल रही है। यहां के जो सरदार है वह एक विचारधारा के हैं जिससे यहां राजनीतिक संघर्ष कभी-कभी बहुत ज्यादा बढ़ जाता है खैर यह सब तो एक राजनीति का हिस्सा है ।कई विचारधाराओं वालों मे दो-तीन का प्रभाव अधिक है पर ये मुझे चरम(एक्सट्रीम) लगते है, कोई भी चीज़ अतिवाद(एक्स्ट्रिम) किसी भी समाज के लिए अच्छी नहीं होती है, हाँ एक बँटवारा ज़रूर है जो होना चाहिए और मैं इसके समर्थन में हूँ। बँटवारे की राजनीति हमेशा से होती आई है और शायद यहाँ भी आपको वह चीज़ देखने को मिल सकती है। यहाँ भी बँटवारे की राजनीति देखने को मिल सकती
है, रंगो की ।पर यहाँ की जनता अनपढ़ नहीं है और अपने वोट का मतलब समझती है जो कि यह सकारात्मक बात है।
इस बार का चुनाव बहुत ही अलग रहा क्योंकि यह चुनाव लगभग तीन-चार सालों बाद हो रहा था जिसका कारण सिर्फ कोविड-19 था और एक और कारण यह भी था कि प्रशासन इस चुनाव को टाल रहा था। कभी यह कहकर की स्नातकोत्तर(पोस्ट ग्रेजुएट) का एग्जाम आने वाला है, उसके बाद चुनाव करेंगे उसकी प्रक्रिया में लंबा वक्त लग जाता तो एक-दो महीने के लिए क्यों चुनाव कराया जाए ऐसे करके यह चुनाव प्रक्रिया बहुत लंबे समय से टाला जा रहा था फिर लगातार विरोध (प्रोटेस्ट) हुए। लगभग सारी पार्टियों ने विरोध किया, मशाल जुलूस निकाली गई। हर कक्षा में जाकर बताया गया कि चुनाव की बहुत सख़्त जरूरत है, पर्चा निकल गया, लोगों के छात्रावास तक जाकर उनके कमरे तक जाकर यह चीज़ उन्हें समझाई गई, बताई गई कि हमें चुनाव की बहुत ज़्यादा जरूरत है। सारी पार्टी चाहती थी कि चुनाव हो सिर्फ एक के अलावा। चुनाव प्रक्रिया में बहुत सारी समस्याएँ पैदा की गई जिसमें हिंसा भी शामिल थी। हिंसा का कोई एक कारण नही हो सकता। एक पार्टी ने हिंसा की और दूसरे पार्टी ने हिंसा सहन करने का रास्ता अपनाया सिर्फ़ इसलिए ताकि चुनाव हो सके, उनके लिए चुनाव ज़्यादा जरूरी था और हिंसा न करने का एक और कारण यह भी था कि उनके ऊपर पहले भी कई ऐसी शिकायतें दर्ज़ हो चुकी थीं जिसमें उन्हें पैसों की भरपाई करनी पड़ी थी। किसी भी विद्यार्थी के लिए यह मुमकिन नहीं की क्षतिपूर्ति के लिए पैसे दे। एक तरफ़ यह भी देखने को मिला कि किसी एक पार्टी के विद्यार्थियों पर शिकायत के प्रति पूर्ति का बोझ दे दिया गया और जो हिंसा कर रहा है जिसके खिलाफ़ सबूत है उसे इस प्रक्रिया से दूर रखा गया, ना उस पर कोई शिकायत है और ना क्षतिपूर्ति का कोई बोझ ही डाला गया। मेरी नज़र में यह अन्याय है। तीन से चार घंटे चलने वाली विश्वविद्यालय की आम सभा की बैठक (यूनिवर्सिटी जनरल बॉडी मीटिंग) जो किसी भी त्योहार से कम स्तर का नहीं होता, उसमें हिंसा हुई फिर एक लंबी धरना प्रक्रिया के बाद विश्वविद्यालय की आम सभा की बैठक दोबारा रखी गई और इस बार दिन में रखी गई और वह 4 घंटे चलने की जगह 12 घंटे चली और आखिरकार उसमें भी हिंसा हुई। यह बहुत दुखी करने वाली बात है कि एक युवा पीढ़ी तर्क-वितर्क करने की जगह हिंसा कर रहे हैं पर यह सच्चाई है। आख़िरकार चुनाव के एक रात पहले मशाल जुलूस निकाला गया और यह मशाल जुलूस सीधे दो पार्टियों में बँट चुकी थी, दो विचारधाराओं में बँट चुकी थी जिन्हें हम ‘लेफ्ट’ और ‘राइट’ कह सकते हैं।और यह बहुत बड़ी संख्या में थी, बहुत सारे सुरक्षा कर्मी तैनात किए गए। आख़िरकार चुनाव का दिन आया और माहौल किसी त्योहार से कम नहीं था। लोग उतने ही उत्साहित थे, समय से पहले जाकर वोट देने के लिए पंक्ति में खड़े हो चुके थे ।चारों तरफ नारे सुनाई दे रहे थे, हर तरफ पर्चा था, ढोल की आवाज़ सुनाई दे रही थी, लोग चिल्ला रहे थे, समर्थन माँग रहे थे। जीती हुई पार्टी अभी ज़ोर- शोर से काम कर रही है क्योंकि कुछ महीने बाद फिर से चुनाव होने वाला है और इस बार का चुनाव काम दिखाकर माँगा जाएगा ना कि किसी एक विचारधारा को हराने के लिए।
पंद्रह- सोलह राजनीतिक पार्टियाँ हैं जिनकी मूलतः विचारधाराओं में विभिन्नताएँ हैं पर अभी हमें यह समझने को नहीं मिला क्योंकि कोविद के बाद चीज वैसी नहीं चल पा रही है जैसी पहले हुआ करती थी ऐसा यहाँ के लोगों का कहना है। आने वाले समय में सामान्य चर्चा रखकर राजनीतिक पार्टियों के विचारधारा के मूल अंतर से हमें अवगत कराया जाएगा इस बात की मुझे उम्मीद है। कुछ निर्दलीय चुनाव में खड़े हुए कुछ गठबंधन के साथ। इस चुनाव का मक़सद सर्फ़ चुनाव करवाना था और जो देश में हो रहा है, एक विचारधारा का प्रभाव बढ़ता हुआ दिख रहा है उसे जेएनयू के अंदर होने से रोकने की कोशिश करना। चुनाव जीत कर मक़सद में कामयाबी तो मिली है पर मुझे नहीं लगता कि अगली बार भी चुनाव का मुद्दा यही होगा और जिस हिसाब से वर्तमान की राजनीतिक पार्टी अपना काम कर रही है तो इस बार वोट काम के आधार पर ही मांगी जाएगी।
बापसा (BAPSA) जैसी पार्टी इस बार उभर कर सामने आई। इस पार्टी का मानना था कि अब की जितनी पार्टियाँ आईं उनमें से किसी ने भी दलित, आदिवासी की समस्याओं को उस तरीके सी नहीं उठाई जैसी उनकी उम्मीद थी। इसलिए इस बार के चुनाव मे वो मुखर दिखे। उनका ये भी आरोप था कि चाहे वो किसी भी विचारधारा की पार्टी हो उनमें जातिगत राजनीति होती है। इसलिए उन्होंने किसी से भी समर्थन नहीं लिया और नहीं दिया।
जातिगत राजनीति या आर्थिक राजनीति की बात हो, यह हर पार्टी में होता है पर किसी एक पार्टी पर हमेशा ऐसे आरोप लगते रहे हैं जो कि एक बड़ी पार्टी में से एक है जैसे एसएफआई। वहीं कुछ बड़ी पार्टियों जैसे आइसा में ये चीज़ें देखने को कम मिलती है। उनमें वैचारिक दवाब देखने को मिलता है। एनएसयूआई, एआईएसएफ और भी पार्टी, उपरोक्त पार्टी मे ज्यादा अंतर समझ नहीं आया क्योंकि वाद- विवाद का वो माहौल बना नहीं जिससे हम जैसे नए आए बच्चे अंतर समझ सकें।
एक बात मुझे परेशान कर रही थी कि जब कोई पार्टी ये कहती है कि हम किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं और जब वो हर धार्मिक चीजों से खुद को दूर रखती है तो ये ये राजनीति समझ आती है पर जब धर्म की बुराई कर हम ईद मानते है तो मुझे बात समझ नही आती। अगर हम दिवाली, होली की शुभकामनाएँ नहीं दे सकते हैं तो फिर हम ईद की भी नही दे सकते हैं, ये सिर्फ़ उनके लिए जो धर्म को नही मानते हैं। उन्हें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि उनका राजनीतिक विचार अलग है, व्यवहारिक जीवन से। अपने विचारों के साथ वो जीवन नहीं जी सकते हैं, उन्हें ये समझने की ज़रूरत है और जिन विचारों के साथ खुद नही जीवन बिता सकते हैं तो उस जनसमूह में कहने की भी जरूरत नहीं है। वह बात उन्हें समझने की जरूरत है।
आप एक धर्म से हमदर्दी और दूसरे से नफ़रत नही कर सकते हैं। इससे बेहतर है कि कहें की फलाँ धर्म में ज़्यादा सुधार की जरूरत है बजाय इसके कि वो बेकार है।
बापसा के अपने अहम मुद्दे हैं पर पहले मुझे लगता था कि बापसा बिना धर्म की राजनीति करती है पर बौद्ध धर्म इसमें शामिल है। बिना धर्म के जीवन संभव ही नहीं है। मुझे नहीं लगता है कि संख्या से कुछ फर्क पड़ता है कोई धर्म इसलिए अच्छा या बुरा इसलिए नहीं हो जाता कि उसकी संख्या अधिक या कम है। खैर यहाँ की राजनीति भी मज़ेदार है बस आपको आँख-कान खोले रखना है।
यह चीज तो हर जगह होती है और हर जगह बहुत भारी मात्रा में होती है और यहां भी है पर इसकी मात्रा थोड़ी कम है अगर आपकी शारीरिक बनावट, सुंदरता अच्छी है, समाज के हिसाब से है तो आपको ज्यादा विशेष माना जाएगा और यह सिर्फ उनके द्वारा किया जाता है जो बहुत युवा हैं। आपको ‘लेफ्ट आउट’ फिल कराया जाएगा। आपको ऐसे लोग भी मिलेंगे जिन्हें सिर्फ ‘नॉलेज’ से फर्क पड़ता है। आप कितना जानते हैं, आपके विचार क्या हैं, आपने कितना पढ़ा है, सिर्फ उनको इससे मतलब होता है और यह लोग बहुत आसान कर देते हैं।हाँ, एक समय आएगा जो आपको बहुत मजबूत बना देगा। एक और दूसरी साइड है जेएनयू की कि कभी-कभी युवा जो वेस्टर्न कल्चर को फॉलो करते हैं, रिलेशनशिप के मामले में, क्योंकि यह उनका व्यक्तिगत चुनाव होता है, इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती पर हाँ यह जेएनयू का एक हिस्सा है कोई जानकर और कोई अनजाने में इसके अंदर जाता है, शामिल होता है।
एक छोटे शहर से यहां आकर पढ़ना एक संघर्ष से कम नहीं है क्योंकि आपकी पढ़ाई ना अंग्रेजी स्कूल में हुई होती है ना आपको ढंग से नाचना गाना और ना ही चित्र बनाना आता है। आपने उतना ही जाना समझा है जितना आपने पढ़ा है। एक सरकारी स्कूल में आपको अपनी बातें भी ठीक से रखती नहीं आ पाती और इन सबसे लड़ते हुए यहाँ पर अपनी एक जगह बना पाना बहुत मुश्किल काम है। बहुत ही मुश्किल है कभी-कभी आपको लगता है कि शायद मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था या फिर छोड़ देना चाहिए था लेकिन आपके टीचर्स ऐसे आपको मिलेंगे जो आपको सकारात्मकता से भर देंगे। लोग घूम रहे होंगे और आपको पढ़ना होगा, लोग एक रात पढ़ कर पास होंगे आपको चार दिन पहले से मेहनत करनी होगी। यह जो अंतर आपके साथ चलता है वह आपको आपकी मेहनत से ही भरना पड़ेगा। कभी-कभी इस बात से आप दुखी हो जाते हैं कि यह जो अंतर है इसमें हमारी कोई गलती नहीं है लेकिन फिर भी आप आगे का सोचते हैं और फिर आप मेहनत करते हैं, बहुत ज्यादा मेहनत करते हैं।
जो भी नए बच्चे आना चाहते हैं उनके लिए सिर्फ इतना है कि आपको बहुत मेहनत करना सिखा देगी जेएनयू, मुखर होकर बोलना सिखा देगी, जेएनयू जीवन जीने का सही मतलब सिखा देगी, यह जेएनयू आपको बिछड़ना भी सिखा देगी।