पत्रकार संतोष सिंह द्वारा लिखित ‘जननायक कर्पूरी ठाकुर’ पढ़ते हुए भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर के साहित्य प्रेम के बारे में कई बातें पता चलीं। कर्पूरी ठाकुर के साहित्य प्रेम को लेकर प्रोफ़ेसर गोपेश्वर सिंह जी से भी कई बार बात हुई। उन्होंने बताया था कि जब वे छात्र थे तो समाजवादी युवजन सभा की बैठकों में प्रसिद्ध कवियों की कविताएँ सुनाते थे जिसके कारण कर्पूरी ठाकुर उनसे बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने ही बताया कि कर्पूरी ठाकुर प्रसिद्ध लेखक-कवि जानकीवल्लभ शास्त्री से बहुत प्रेम करते थे। कर्पूरी जी जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हिन्दी के तीन लेखकों को पटना यूनिवर्सिटी में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर बनाया था- अज्ञेय, हज़ारी प्रसाद द्विवेदी तथा जानकीवल्लभ शास्त्री। अज्ञेय जी और हज़ारी प्रसाद जी ने तो ज्वाइन नहीं किया लेकिन जानकीवल्लभ जी ने विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में दो साल काम किया। ख़ैर, ‘जननानायक कर्पूरी ठाकुर’ किताब में भी इस बारे में कुछ दिलचस्प बातें हैं। यह किताब संतोष सिंह द्वारा अंग्रेज़ी में लिखित किताब ‘The jannayak Karpoori Thakur: Voice Of Voiceless’ का हिन्दी अनुवाद है। अनुवाद किया है स्वाति अर्जुन ने और प्रकाशन किया है पेंगुइन स्वदेश ने- मॉडरेटर
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कर्पूरी ठाकुर कई मायनों में दूरदर्शी थे। वे भारत के पहले मुख्यमंत्री थे जिन्होंने राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) की बैठक में हिंदी में अपनी बात कही यह एक ऐतिहासिक कदम था। उन्होंने बिहार में आधिकारिक कामकाज को हिंदी में करना अनिवार्य कर दिया, ऐसा करने वाले वे राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। हिंदी भाषा को लेकर कर्पूरी ठाकुर की प्रतिबद्धता उनके भाषणों में दिखाई देते हैं, जो न केवल विद्वतापूर्ण और वाकपटु थे, बल्कि भाषा की उनकी गहरी समझ को भी दर्शाते थे।
लेखक नरेश विकल और हरिनंदन साह लिखते हैं: मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान, ‘कर्पूरी ठाकुर ने सुनिश्चित किया कि बिहार में भी प्रशासनिक कार्य हिंदी में किए जाएँ। उन्होंने यह भी आदेश दिया कि सभी आईएएस और आईपीएस अधिकारी अपने अधीनस्थ कार्यालयों में हिंदी भाषाका उपयोग करे। कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में हिंदी भाषा को बढ़ावा देने से संबंधित विभिन्न बैठकों और समितियों में सक्रिय रूप से भाग लिया। अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद, उन्होंने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, हिंदी प्रगति समिति और हिंदी विधान समिति की बैठकों में भाग लिया। उन्होंने ‘भोजपुरी अकादमी’ की स्थापना में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अलावा, वे ‘संगमनी’ नामक एक साहित्यिक संस्था के अध्यक्ष भी थे, जिसके कारण उन्हें हिंदी भाषियों के बीच ‘हिंदी-बंधु’ की उपाधि मिली।
साहित्यकारों के प्रति कर्पूरी ठाकुर के गहरे सम्मान को दर्शाने वाला एक किस्सा बहुत मशहूर है जब आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री को कूल्हे में चोट लगी थी और वे कई दिनों तक पटना में ठीक से इलाज नहीं करवा पा रहे थे। खबर सुनते ही कर्पूरी तुरंत पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (पीएमसीएच) गए और मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री से मिले ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शास्त्री जी का तत्काल ऑपरेशन हो। ऑपरेशन के दिन कर्पूरी और उनके बेटे शास्त्री की पत्नी को सांत्त्वना देने के लिए ऑपरेशन रूम के बाहर बैठे रहे। रुपये के साथ एक बंद लिफाफा भेजा। उन्होंने शास्त्री जी का ऑपरेशन रूम से बाहर आने तक इंतज़ार किया। उसी दिन कर्पूरी ने शास्त्री की पत्नी को चिकित्सा व्यय में सहायता के लिए एक लिफ़ाफ़ा भिजवाया जिसमें 1000 रुपये थे।
मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कर्पूरी ने कवि पोद्दार रामावतार ‘अरुण’ और प्रसिद्ध गायक सियाराम तिवारी को बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में मनोनीत किया था। यह एक बड़ा कदम था, क्योंकि संविधान में यह प्रावधान है कि मुख्यमंत्री विधान परिषद के सदस्यों के रूप में नियुक्ति के लिए राज्य के राज्यपाल को व्यक्तियों के नामों की सिफारिश कर सकते हैं।
मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रभाषा परिषद की गतिविधियों के विस्तार और राज्य स्तर पर हिंदी में कानून संबंधित शब्दावली बनाने के लिए कर्पूरी ठाकुर ने जो प्रयास किया वह अविस्मरणीय है। उन्होंने
राज्य सरकार के राजभाषा विभाग के गठन को भी गति दी तथा आधुनिक मराठी दलित साहित्य आंदोलन को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया और भालचंद्र फड़के, शंकर राव शरत, दया पवार और कमलाकर गवाने जैसे लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा। उन्होंने डॉ. बी. आर. अंबेडकर की आत्मकथा कासा झालो की भी
बहुत प्रशंसा की है।
पटना विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व प्रमुख राम खेलावन राय ने लिखा है कि जब कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, तो उन्होंने सरकारी कामकाज में हिंदी भाषा के प्रयोग को बढ़ावा देने के उद्देश्य से राज्य स्तर पर हिंदी प्रगति समिति का गठन किया। समिति का एकमात्र उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सभी सरकारी कार्यालयों और निजी प्रतिष्ठानों में हिंदी का सार्थक प्रयोग हो और इसकी भी जाँच हो कि राजभाषा अधिनियम का उचित अनुपालन हो रहा है या नहीं। कर्पूरी के प्रयासों के परिणामस्वरूप राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने वालों की पदोन्नति और वार्षिक वेतन वृद्धि रोक दी गई और यहाँ तक कि जिला मजिस्ट्रेट भी अधिनियम का उल्लंघन करने से डरते थे। राय को याद है कि जब उन्होंने 1971-72 में हिंदी प्रगति
समिति के सदस्य के रूप में सरकारी कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग का निरीक्षण किया तो पूरे कार्यालय में ऊपर से नीचे तक सनसनी फैल गई। सभी कर्मचारी इस डर से अंधाधुंध हिंदी में काम करने लगे कि उनकी पदोन्नति बाधित हो जाएगी।