जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं पर यह लेख लिखा है कवि शहंशाह आलम ने। आप भी पढ़ सकते है-

घर से लेकर खेत और खेत से लेकर
लाल चोंच वाले पंछी के पीछे लगा हुआ कवि

कुमार अम्बुज कहते हैं, ‘कवि को केवल एक चीज़ चाहिए और वह यह कि हर चीज़ चाहिए। बल्कि जो कुछ दुनिया में अभी नहीं है, वह भी चाहिए। इसलिए उसे स्वप्नशीलता चाहिए। क्योंकि उसका काम एक दुनिया से नहीं चल सकता।’

     ये सारी बातें कवि लक्ष्मीकांत मुकुल के लिए भी कही जा सकती हैं। मुकुल एक आंदोलनकर्ता कवि हैं। मुकुल एक घरेलू कवि हैं। मुकुल एक किसान कवि हैं, जिनकी आजीविका खेतीबारी है और उनकी कविताओं के संदर्भ और प्रसंग भी कृषकलोक समाज से अधिक आते दिखाई देते हैं। पहली बार उनकी कविता से मेरा परिचय जमालपुर, मुंगेर, बिहार से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘शब्द कारख़ाना’ के अंक-17 से हुआ, जो बाद के समय में भी बदस्तूर जारी रहा। इसके बाद तो उनकी कविताएं ‘संभवा’, ‘दस्तावेज़’, ‘कथ्यरूप’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘परिचय’, ‘युद्धरत आम आदमी’ आदि पत्रिकाओं में देखने को मिलती रहीं और प्रगतिशील लेखक संघ के विभिन्न कार्यक्रमों में उनकी सक्रियता भी देखने को मिली। उनकी कविताओं के भाव विचार, अनुभूति और संवेग के तीव्र प्रवाह मुझे आकर्षक लगते हैं, क्योंकि वे गहरे जीवन-राग से संगुंफित हैं और उनका स्वर जनपक्षधर और मनुष्यपक्षधर रहा है। इनकी कविताओं के राग और रंग के विभिन्न आस्वाद के पहलू और दृष्टिकोण अपने सार्थक सरोकारों को व्यक्त करते हैं।

     यह कवि रोहतास और बक्सर जिलों की सीमा बनाती कोचानो (कंचन) नदी के तटवर्ती गांव में रहता है, जहां प्रकृति से परिपूर्ण जीवन शांति और गंभीरता से भरा है। महानगरों या छोटे शहरों की तरह भागमभाग का जीवन वहां नहीं है, परंतु दुनिया भर में हो रहे बदलाव और बाजारीकरण के प्रभाव से वह जगह अछूती भी नहीं है। कवि जिस इलाके का निवासी है, वह अन्न उत्पादन के मामले में देश भर में विख्यात है। पुराने शाहाबाद का ‘भरकी’ का क्षेत्र, जो कृषि परंपरा का जीवंत परिक्षेत्र है, वहां का कृषक समुदाय स्थानीय स्तर पर उदारीकरण और शासन के उदासीन रवैए के कारण बेहाल है। सोवियत लेखक रसूल हमजातोव ने जिस तरह ‘मेरा दाग़िस्तान’ में अपने स्वदेश के लोकसमाज, वहां की जीवनशैली और जुझारूपना को अपनी पुस्तक में व्यक्त किया है; उसी प्रकार लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में ठीक उसी तरह के स्वर प्रस्फुटित होते हैं। कवि अपनी कविताओं में गांव, परिवार, रिश्ते, अनुवांशिक संबंधों के धागे, प्रकृति के उपादान, वृक्ष, नदी, खेत-खलिहान, समाजिक लगाव की बातों को जब कविता की भाषा में प्रकट करता है, तो यह कवि आज के मनुष्य में हो रही छीजन और लुप्तप्रायः होते जा रहे प्राकृतिक और ऐतिहासिक-सामाजिक टूटन पर चिंता भी व्यक्त करता है।

     बदलाव और सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन तो संसार का नैसर्गिक नियम है। एक मूल्य की टूटने पर नए सामाजिक मूल्य उस ख़ालीपन के स्थान को भरते हैं, परंतु इससे सदियों से बनाए, स्मृतियों में सहेजे और पीढ़ियों द्वारा संजोये रिश्तों में ह्रास तो होता ही है। ऐसा होने से मानवीय सरोकार के ताने-बाने बिखरते हैं। मुकुल अपने रचना-संसार में प्रमुखता से इस टूटन, इस बिखराव और इस ह्रास को अपनी कविताओं में रेखांकित करते हैं। कवि को पुराने और जड़ हो चुके मूल्य स्वीकार नहीं हैं, क्योंकि मुकुल अतीतजीवी नहीं हैं, न वह अतीत का शिकार होना चाहते हैं। वह वर्तमानजीवी होना चाहते हैं। वह बदलते ग्रामीण परिवेश में मनुष्यता और प्रेमराग के बोध के साथ जीवन के बहाव को समृद्ध करना चाहते हैं। यही वजह है, मुकुल की कविताएं, घटाटोप अंधियारे के विरुद्ध उजास की पहचान की ओर बढ़ते क़दम की तरह हैं। उनकी कविताओं की तीक्ष्ण भाषाशैली, कविताओं को बरतने का उनका विशिष्ट ढंग आदि सूत्र और बीजमंत्र की तरह हैं, जैसे भादों की भकसावन अंधेरी रात में जलती हुई ढिबरी अथवा जाड़े में पुआल जलने की चूक से बरती दियासलाई की भांति।

     मुकुल के ‘लाल चोंच वाले पंछी’ तथा ‘घिस रहा है धान का कटोरा’ संग्रह में संगृहीत और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं में स्थानीय संदर्भ में छिपी व्यापक विश्व दृष्टि की बुनियाद प्रकट होती आई है। कवि ग्रामीण समाज के विवरणों को लेकर अपनी कविताओं में अस्मिता से जुड़े गंभीरतम सत्यों को उद्घाटित करता है। वह जानता है कि यह संक्रांति का दौर है। विकास की चकाचौंध में ग्रामीण लोक जीवनधारा के कठोर कगार भी कटाव के शिकार हो रहे हैं। वह उसे पहचानता है और कविता में नए मुहावरे गढ़ता है, ‘गांव तक सड़क आ गई / गांव वाले शहर चले गए’। कवि यहां प्रेसिडेंसी शहरों द्वारा सुदूर गांव तक संपर्क पथ के निर्माण के बाद ग्रामीण जीवनधारा का शहरीकरण से प्रभावित होकर खो जाने की बात करता है और अत्याधुनिक सुविधाओं की हवस में गांव से शहरों की तरफ पलायन की ओर इंगित करता है। इस हालत में गांव उजड़ते जा रहे हैं। कविता में सूत्र-संकेतों के माध्यम से कवि कहता है, ‘कुलधरा की तरह शाप के भय से नहीं / कुछ पेशे बस कुछ शौक से / छोड़ दिए घर-गांव / खो गए दूर-सुदूर शहरों के कंक्रीटो के जंगल में / छूटे घर गोसाले मिलते गए मिट्टी की ढेर में / पुरखों के संचित खेतों की आय से बनती गईं उनकी शहरी संरचनाएं / उन वंशवृक्षों की टहनियां फूल पत्ते लहराते गए महानगरों के सीमांतों में।’

     कवि के पास कविता-सृजन हेतु विषयवस्तुओं की कमी नहीं है। मुकुल कविता के विषय बहुत ही सतर्कता और बारीकी से चुनते रहे हैं। शब्द-चयन में बरती गई सावधानी और बोध के साथ तरंगित अंतर लय इनके काव्यतत्वों के विशेष गुण है, जो पाठकों को सहजता के साथ आकर्षित करते हैं। लक्ष्मीकांत मुकुल की काव्य-भाषा में स्थानीय बोली भोजपुरी का गहरा प्रभाव है, इनकी कविताओं में प्रयुक्त देशज और ठेठ देहाती शब्द इनकी कविताओं के अर्थबोध को बढ़ाते हैं, जिसका पठन और वाचन करते हुए वे शब्द ध्वनियों में घुलकर दिल की गहराई तक उतर जाते हैं। इनकी कविताएं मानव-श्रम की भदेसी उपज हैं, जिसका रसास्वादन करते हुए पाठक कविता के शब्दबोध के सहारे अर्थानुगूंज तक सहजता के साथ पहुंच जाता है। कवि की कविताओं में आत्मसंघर्ष आत्मबोध के रसायन द्वारा संचालित हुआ है।

     कवि अपनी काव्य-भाषा के निर्माण में रूपकों, संकेतों, जन-अभिप्रायों का प्रयोग करता हुआ एक जटिल तंत्र के सहारे काव्य-शिल्प और अंतर्वस्तु के भाव-तत्वों पर समान रूप से सजग दृष्टिकोण अपनाता है। इनकी कविताओं में मनुष्यता के बचाव के प्रति दृष्टिकोण प्रमुखता से दिखता है, जिसमें जीवन के विधेयात्मक तत्वों की जरूरत अधिक मूल्यवान मानी जाती है। इनकी कविताएं भाषा, शिल्प, अंतर्वस्तु, कहन और कथन के लिहाज से सरल और सहज है, परंतु अर्थ की दृष्टि से विशेषकर अर्थानुगूंज के लिहाज से आवश्यक है कि इनकी कविताओं का पाठ धीरे-धीरे किया जाए ताकि इन कविताओं की समझ मन-मस्तिष्क के स्तर पर छा सके; क्योंकि ये कविताएं एक नई कलात्मक एवम् प्रत्यक्ष की संवेदनात्मक पर्युत्सुकता जागृत करती है और आंचलिक कविताओं के गुण धर्म के प्रति आश्वस्ति भी प्रदान करती हैं। कवि कहता है, “नवंबर के ढलते दिन की / सर्दियों की कोख से / चले आते हैं ये पंछी / शुरू हो जाती है जब धन की कटनी / वे नदी किनारे आलाप भर रहे होते हैं / लाल चोंच वाला उनका रंग / अटक गया है बबूल की पत्ती पर / सांझ उतरते ही / वे दौड़ते हैं आकाश की ओर / उनकी चिल्लाहट से / गूंज उठता है बधर / और लाल रंग उड़कर चला आता है / हमारे सूख चुके कपड़ों में / चुन रहे खेतों की बालियां / तैरते हुए पानी की तेज धार में / पहचान चुके होते हैं अनचिन्ही पगडंडियां / स्याह होता गांव / और सतफोड़वा पोखरे के मिठास भरे पानी में / चमकती हैं उनकी चोंच / जैसे दहक रहा हो टेसू का जंगल / मानो ललाई ले रहा हो पूरब का भाल / झुटपुटा छाते ही जैसे चिड़ीदह में पंछियों के / टूट पड़ते ही / लाल रंगों के रेले से उमड़ आता है घोंसला।”

     लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं के उत्स में वैचारिक दृष्टि स्पष्टता के साथ दृष्टिगोचर होती है। वामपंथी विचारों से लैस इनकी कविताएं प्रगतिशील और जनवादी समझ के साथ विकसित होकर जमीनी हकीकत के साथ सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। यहीं से इनकी कविता की समझ का प्रस्थानबिंदु शुरू होता है। चाहे किसान-मजदूर-भूमिहीन की धरातल से जुड़ी समस्या हो या सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवादी एकध्रुवीय विश्व के उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों और प्रयोगों से उलझी दुनिया में आमजन और भारत के गांवों पर तेजी से पड़ते उसके प्रभाव को कवि ने स्थानीय स्तर पर एक नई विश्वदृष्टि के साथ संवेदनात्मकता के सहारे आत्मसात किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन और उसके कार्यों के बढ़ते प्रभाव को कवि ने गांव की बदलते गुणधर्म को समझ-बूझ के साथ इसके व्यापक प्रभाव का आकलन इस प्रकार किया है, “यह कौन-सी साजिश है कि किसानों की उत्पादित लीची को फेकवाया जा रहा है गड्ढे में / और डिब्बाबंद लीचीयों को दिया जा रहा है बढ़ावा / शातिराना दिमाग़ वाले जल्लाद हड़प लेना चाहते हैं सुरसा की तरह / हमारी खेतिहर व्यवस्थाएं

कल वे हवा बांध देंगे / कि हमारे धान गेहूं के अनाजों से निकल रहे हैं कीड़े / कल वे शोर मचाएंगे कि दलहन-तिलहन के दानों से आ रही है दुर्गंध / हमारे अमरूद / हमारी बेर के फलों को विषाक्त करार देंगे / हमारे लिसोध की फलियों से उसे आएगी बदबू / बाजार व्यवस्था की पीठ पर पालथी मारे बैठे हैं जल्लाद।”

     इनकी कविताओं में किसानों के दु:ख-दैन्य, अभावग्रस्त जीवन और ग्रामीण स्तर पर उभरते नव सामंतवाद का अच्छा खासा चित्रण हुआ है। ये कविताएं कृषकों के कष्टों और विभीषिकाओं का दोटुक व हृदय विदारक चित्रण हैं। किसान जहां दिन-रात खटकर, सर्दी-गर्मी-बारिश के झंझावातों को सहता हुआ अन्न उपजाता है, परंतु उसके उत्पन्न अनाज को समुचित उत्पादित मूल्य नहीं मिल पाता। उसकी परिश्रमशीलता और विवशता का यथार्थ और मार्मिक वर्णन इनकी कविताओं में प्राप्त होता है। इनकी कविताओं में खेती-किसानी, उत्पादन की बदलते औजार, साधन और खेती बदलते तरीके और कृषक समुदाय द्वारा उत्पादित अन्न के दाने की बाज़ार में हो रही उपेक्षा का सटीक चित्रण भी मिलता है। किसान सदियों से अन्नदाता माना जा रहा है, परंतु नई कृषि नीतियों ने उसे अन्य विक्रेता बना दिया है। दाता से जबरन विक्रेता बना किसान आज भ्रमित है, उसके द्वारा उठाए गए प्राणमूलक अन्न उपेक्षित होते जा रहे हैं। कवि किसान कर्म की इस पीड़ा को अपनी कविताओं में दर्ज करता है। कहते हैं कि लोहे के स्वाद को लोहार जानता है या लोहा निर्माण करने वाला कारखाना का मालिक? लोहा का असल स्वाद तो असल में वह घोड़ा जानता है, जिसके मुख में लगाम लगा है।

     लक्ष्मीकांत मुकुल स्वयं एक किसान हैं। ख़ुद खेतों में फ़सलों को बोते, पटाते और धान काटकर खेतों से ढोकर खलिहान तक लाते और  दवनी-ओसवनी और पशुओं को चारा-पानी देने वाले कृषक मजदूर हैं। वे उनकी खुशी और दर्द को बेहतर तरीके से जानते हैं। गांव और उसकी सोंधी मिट्टी पर दूर से नज़र रखने वाले शहरी ग्राम्य प्रेमी ग्रामीणों के संघर्ष को ठीक से कहां समझ पाते हैं। गांव से सुविधाओं के लिए शहर पलायन कर गए लोगों को गांव की मिट्टी और पशुओं के गोबर से छूछुंदर के सड़ने की गंध आती है और वे गांव को आदि मानव संग्रहालय की तरह अपने दिमाग में संजोकर रखना चाहते हैं। कवि की कविताएं ग्रामीण जीवन के अनुभव की प्रयोगशाला में निर्मित हुए हुई हैं, “देखना,

कभी मनुष्य के श्रम की गंध से / विलग हो जाएगा यह धान का कटोरा / हवाई जहाज़ से होगी धन रोपनी / गैस फिल्टर से निकाई / स्मार्टफोन / रेडियल तरंगों से कीट पतंगों की सफाई / कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर से सिंचाई।”

     कहा जाता है कि वामपंथी चेतना से लैस कवि केवल क्रांति और जन विद्रोह की बातें ही अपनी कविताओं में करते हैं , परंतु कार्ल मार्क्स के महान मित्र एंगेल्स ने यह माना था कि क्रांति की केवल कविता लिखने वाला युवा कवि अपनी कविता रूपों में इकहरा चित्र का चित्रण करता है । वास्तविक कवि तो जीवन के द्वंदात्मक भौतिकवाद के तत्वों के सहारे प्रेम कविता लिख कर ही पुष्ट हो सकता हैं। लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी कविताओं में क्रांति, चेतनात्मक संघर्ष और प्रतिरोध के स्वर ही केवल नहीं व्यक्त करते, बल्कि विपुल मात्रा में प्रेम-राग के स्वर भी उनकी कविताओं में प्राप्त होते हैं। कवि केवल अपनी प्रेयसी, जीवनसंगिनी, रिश्ते-नाते, घर-परिवार से ही प्रेम नहीं प्रकट करता, अपितु उसके प्रेम का फैलाव अपने परिवेश के वानस्पतिक दृश्यावलोकों की गहरी अंतरंगता से भी जुड़ता है। खेत, फसल, नदी, पोखर, फल- फूल, वृक्ष-लताएं सभी उनकी काव्य-वस्तु के फ़लक में समाहित हो जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि मुकुल की कविताओं में अनुभवों का अनंत संसार समाहित है। प्राकृतिक अवयवों, जीव-जंतुओं, ग्रामीणों, लोक आचरणों और बंधुत्वता की अनगित कड़ियों में समाहित उनका प्रेमबोध अर्थग्राही और जागृत मानसिक संवेदनात्मक ज्ञानबोधक क्षमता की उपज है। इस कवि ने अपनी प्रेम कविताओं में भी मनुष्यता के बचाव की ख़ातिर अपने भयावह समय को कुशलता प्रकट किया है। कवि अपनी कविता में वर्णन करता है, “डर जाते हो तुम लहकते जेठ में / खेतों से गुज़रते हुए टिटिहरी की टीऽ टीऽ सुनकर / ठीक सामने सड़क पर पार करते हुए सियार को देखकर / हो जाते हो आशंकित / घूमकर बदल लेते हो राह / देर रात गए कुत्तों की रोने की आवाज़ / अंदर तक भयभीत करती है तुम्हें / अंधेरे में नदी का पाट लांघते / याद करने लगते हो हनुमानचालीसा के पाठ / ठिठक जाते हो सुनसान में सुनकर वृक्ष-पातों की खड़खड़ाहटें / छत पर सोते समय / अर्ध रात्रि में निशाचर खग-झुण्डों के पांखों की तेज़ आवाज़ में / खोजने लगते हो चुड़ैलों की ध्वनियां / कुछ देर पहले ही तो / जूझकर लौटा हूं मैं / हत्यारों की ख़ौफ़नाक गलियों से बेधड़क मचलता हुआ / बेहद निडर, बेखरोच, सुरक्षित।”

     हम कह सकते हैं कि कवि की प्रणयानुभूति और प्रेम विषयक अवधारणा उनकी गहन आंतरिक संघर्ष का प्रतिफल है। कवि को प्रेयसी का रूप-विधान प्रकृति के रमणीय सभी रंगों में दिखता है, जैसे पीले रंग के फूलों में पीली चुनरी रंग, रंगों और गतियों के विभिन्न रूपों के प्रतीकों का इन्होंने अपनी बोलचाल की भाषा में कविता में प्रयोग किया है। कविता के शब्दचित्र, कवि की आंतरिक भावनाओं और संवेदनाओं से युग्म में होकर पढ़ने वालों के मन को आद्र कर देते हैं। कवि की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति, अभिनव रचनात्मक गतिशील चित्र-समूहों की प्रस्तुति और वर्णज्ञान से कविता साकार हो जाती है। इनकी कविताओं में प्रेम-राग दांपत्य के बंधनों से युक्त मनुष्यता और मार्मिकता को प्रकट करने वाला है, जिसकी मनोभूमि स्वस्थ गृहस्थ प्रेम है, जिसमें विपुल स्तर पर करुणा का संचार हुआ है। इन कविताओं में जीवनसंगिनी की दीप्त मुस्कान भी है और स्पर्श का अनूठा साहचर्य भी, जिसके कारण मुकुल प्रेमभाव प्रवण और रागात्मक संवेदनाओं से परिपूर्ण दिखाई देते हैं, “शगुन की पीली साड़ी में लिपटी / तुमने देखा था पहली बार तो लगा / जैसे बसंत बहार की टहनियों में भर गए हों फूल / सरसों के फूलों से छा गए हो खेत / भर गई हो बगिया लिली-पुष्पों से / कनेर की लचकती डालियां डुल रही हों धीमी / तुम्हें देखकर पीला रंग उतरता गया / आंखों के सहारे मेरी आत्मा के गहवर में / समय के इस मोड़ पर नदी किनारे खड़ा एक जड़ वृक्ष हूं मैं / तुम कुदरुन की लताओं-सी चढ़ गई हो पुलुई पात पर / हवा के झोंकों से गतिमान है तुम्हारे अंग-प्रत्यंग / तुम्हारे स्पर्श से थिरकता है मेरा निष्कलुश उद्वेग।”

     लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं प्रेम तथा समकालीन समय की विसंगतियों, विडंबनाओं और चुनौतियों से मुठभेड़ करती हैं। इनकी कविताओं में शोषण-दमन-उत्पीड़न और अपसंस्कृति के बढ़ते प्रभाव से सामाजिक मूल्यों में क्षरण जैसे युगीन कठोर सामाजिक यथार्थ भी रेखांकित होते हैं। वैसे तो ये मौन प्रतिरोध की कवि है, परंतु उत्साह और साहस का संचार करती इनकी कविताएं मनुष्यता पर हो रहे लगातार हमले की विरुद्ध मुखर हो जाती हैं। कवि का मानना है कि मनुष्य को कुदरत ने दो अनमोल उपहार दिए हैं – पहला, स्वस्थ लोक व्यवहार साकार करने के लिए मनुष्यता का बोध और दूसरा, सबको बंधुत्व के धागे में एक साथ बांधने के लिए प्रेम की भावना। उनका मानना है कि मनुष्य के पास ये अद्भुत उपहार दुर्लभ निधि के समान है, अक्षय अमृत घट की तरह है। इसी को बचाने से मनुष्य बच पाएगा। मनुष्यता पर आधारित आध्यात्मिक, आभासी और दुनियावी जीवन भी बचा रहेगा। कवि के अनुसार बर्बर और विनाशकारी माहौल में भी गहरी संवेदना और आत्मीयता की दुर्लभ गुणों से इंसानी जीवन-मूल्यों को बचाया जा सकता है। यह कवि मुझ जैसे कवियों में उत्साह भरने के लिए लिखता है, “तुम्हें याद है न बदरुद्दीन मियां / वह अमावस की रात / कैसे बचाने आया था तुम्हारे पास वह पंडित परिवार / जो बांचता था भिनसारे में रामायण-गीता की पोथियां / वह निरामिष तुलसी दल से भोग लगाने वाला / जिसका समाज तुम्हारे इलाक़े को / मलेच्छों  का नर्क मानता और तुम मानते रहे उसे काफ़िर की औलाद।”

     लक्ष्मीकांत मुकुल देशकाल के लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण से व्यथित और संवेदनशील कवि हैं। उनकी कविताएं सहज-सरल भाषा में सत्य को कहने और समाज में व्याप्त दुश्मनों पर प्रहार करने की ताक़त रखती हैं, कवि ने लोकतंत्र के सभी मान्य स्तंभों की जड़ों के खोखला हो जाने, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं के दोगलेपन पर बेलाग, निश्छल और बेबाक अभिव्यक्ति अपनी कविताओं के माध्यम से की है और शोषित-पीड़ित-अभावग्रस्त सामान्य जन समुदाय के दर्द से भीगे आंसुओं को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है। इनकी कविताओं का निष्कर्ष पीड़ित मानवता से मुक्त होने के लिए जन संघर्ष के रास्ते पर चलने का आह्वान भी होता है। इतना ही नहीं, मुकुल की कविताओं का रचना-संसार सर्वथा नए बिंबों और उपमाओं से आच्छादित है और उपमेयों के सहारे आंतरिक व बाह्य सौंदर्यानुभूति को दृश्य लेखों के माध्यम से ठंडक के विरुद्ध गर्माहट भरी ऊष्मा के साथ ताज़गी प्रदान करता है। रूप-रस-गंध-स्पर्श और शब्द ध्वनियों के आधार पर जीवन-संघर्ष और प्रेम-अनुराग से जड़ित अभिव्यक्ति इनकी कविताओं की विशेषताएं हैं। कवि ने अपने आसपास की विषयवस्तुओं पर जो लिखा है, उससे उनकी जनचेतना और लोकानुराग की पुष्टि होती है। बोधा वाला पीपल, गांव की बरसाती नदी, गड़ेरिए की भेड़ें, स्यारों के पीछे दौड़ते शिकारी कुत्तों के साथ सियार बझवे और नदी में मछली मारते मछलीमार, गांव की गलियां, खेतों की पगडंडियां और  मेड़ इनकी कविता की भाषा में चित्रित हुए हैं और दृश्य, श्रव्य,नाद मिश्रित और सरल बिंबों के प्रयोग से इनकी कविताएं समृद्ध हुई हैं। कवि बिम्ब, प्रतीक और मिथकों का उपयोग प्राकृतिक उपादानों, स्थानीय लोकतत्वों और यथार्थ-चित्रण में आधुनिक बोध की अभिव्यक्ति के लिए करता है। कवि के प्रयुक्त ये अद्भुत बिम्ब उसकी आंतरिक अनुभूतियों पर कुशल कारीगर की तरह बुने गए शब्दचित्र कहे जा सकते हैं।

     इतना ही नहीं, इस कवि की कविताओं में सौंदर्यबोध भी काफी उमड़कर आया है। सौंदर्यानुभूति कविता का मूल गुण धर्म होता है, जो इंद्रियबोध और अनुभव के सार्थक संयोजन से सुगठित होता है। कवि लक्ष्मीकांत मुकुल को अपने स्थान के विविध वृक्षों, फ़सलों, मिट्टी के प्रकारों, जीव-जंतुओं, पंछियों, स्थानीय घासों, लोकवार्ताओं और लोक-अनुभव का गहरा ज्ञान है। कवि विविधता से भरे अनुभवजन्य ज्ञान को कविता के माध्यम से व्यक्त करता है। इससे आगे जाकर कहें, मुकुल की कविताएं शिल्पगत, भावगत, भाषागत, कल्पनागत होने के साथ-साथ घटनात्मक, परिवेशात्मक और प्रतिकारात्मक सौंदर्यबोधके  अवयवों से पूरित होकर बोधगम्य, सजीव और जीवंत बन जाती हैं।

     मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में प्रसंग आया है कि तत्कालीन राजधानी उज्जैन से कालिदास के पैतृक गांव को देखने और उनकी कविता में वर्णित भूदृश्यों के आधार पर चित्र बनाने वाले कुशल चित्रकार आते हैं। लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं के अवलोकन आधार पर यह कहना उचित होगा कि कवि अपने परिवेश, अपनी धरती और वहां की नैसर्गिक और वानस्पतिक संपदा को अपनी कविताओं के माध्यम से चित्रित करता है, उसके आधार पर कवि की पृष्ठभूमि, उसके कविता के प्रभाव के कारक, कविता की रचनाप्रक्रिया आदि को समझा जा सकता है। इनकी कविताओं में जहां वैचारिक रचनात्मक द्वंद के तंतु प्राप्त होते हैं, वहीं राग और अनुराग का समुच्चयबोध भी मिलता है। वे कविताओं में एक तरफ़ न्याय-योद्धा के रूप में सामने आते हैं और दूसरी तरफ़ प्रेम की मधुरता के चहेता प्रतिरूप में भी। इस प्रकार, लक्ष्मीकान्त मुकुल की कविताएं उन ढेर सारे आदमियों के बारे में हैं, जो अपने जीवन में हाशिए तक पर दिखाई नहीं देते। यह सच ही है, वे लोग यदि अचानक प्रकट होते हैं, तो आपको लगेगा कि यह आपके जीवन का बड़ा मार्मिक अनुभव है। ऐसा इसलिए होता रहता है कि वे लोग अब भी अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर हैं। अंततः लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएँ हमें सुख का अनुभव ही नहीं करातीं बल्कि आंदोलित भी करती हैं, हम सबके गहरे भीतर जाकर।

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  • संपर्क : हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पूरब वाले पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।

ई-मेल : shahanshahalam01@gmail.com

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