लिपिका भूषण एक अनुभवी मार्केटिङ् विशेषज्ञ हैँ, जिन्होंने प्रकाशन उद्योग मेँ अठारह साल से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने 2013 में ‘मार्केट माई बुक’ नामक डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी की स्थापना की, जो लेखकों और प्रकाशकों के लिए सेवाएँ प्रदान करती है। वे ‘पेंगुइन रैंडम हाउस’ के साथ भी समय-समय पर बतौर सलाहकार सेवाएँ देती रहीं हैं इससे पहले, लिपिका हार्पर कॉलिन्स मेँ वरिष्ठ मार्केटिङ् प्रबन्धक के रूप में कार्यरत थीँ। उनकी विशेषज्ञता के कारण, उन्होंने कई लेखकोँ के साथ सफलतापूर्वक काम किया है, जिससे वे प्रकाशन क्षेत्र मे एक सम्मानित नाम बन गई हैँ। इन दिनोँ उनका पॉडकास्ट ‘द इण्डिक पेन’ चर्चा मेँ है। वे कई साहित्य समारोह से जुड़ी हुई हैँ। उनसे यह बातचीत की है लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने- मॉडरेटर
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प्रश्न १: लिपिका जी, आपने अच्छी शिक्षा दीक्षा के उपरान्त किताबोँ की दुनिया क्योँ चुनीँ? क्या यह आपका सोचा समझा फैसला था? साहित्य के प्रति आपके प्रेम की वजह क्या रही है? क्या आप बचपन से साहित्य पढ़ती रहीँ? कैसी किताबेँ आप पढ़ती थीँ?
लिपिका: थोड़ा विचित्र प्रश्न है! पढ़ने लिखने वालों की दुनिया में अच्छी जगह से पढ़ाई किये लोग होने चाहिए मगर अब सोचूं तो पब्लिशिंग की मार्केटिंग में आपका पूछा प्रश्न विचार करने लायक है।
बहरहाल, मैंने किताबों की दुनिया को नहीं, किताबों की दुनिया ने मुझे चुना। मुझे २००७ में मार्केटिंग हेड के साक्षात्कार के लिए कहीं और जाना था और मैं गलती से HarperCollins के दफ्तर पहुँच गयी। और ऐसी पहुँची की आज तक इस दुनिया से निकल नहीं पायी हूँ।
मेरा आना भले ही सोचा समझा फैसला न हो पर टिके रहना सोचा समझा फैसला है।
मेरे साहित्य के प्रति प्रेम की वजह मेरे पिता थे। घर में किताबें पढ़ने का वातावरण था। मैंने हमेशा अपने पिता को किसी किताब या अखबार के साथ ही देखा। और सिर्फ किताबें पढ़ना ही नहीं उस पर तर्क-वितर्क करने के लिए शाम की चाय का समय निर्धारित था।
एक वातावरण का व्यक्ति के बौद्धिक विकास में एक बड़ा योगदान होता है और किताबों की दुनिया के बुद्धिजीवियों के सान्निध्य से न सिर्फ मेरी बौद्धिक चेतना का विकास हुआ है पर आज के पब्लिशिंग के परिवेश में आपको शायद थोड़ा आश्चर्य हो, आध्यात्मिक चेतना एवं धार्मिक चेतना का भी विकास हुआ है।
छुटपन में अंग्रेजी में आर्थर कैनन डॉयल की ‘शर्लाक होम्स’, एनिड ब्लीटॉन, अगाथा क्रिस्टी से लेकर डिकेन्स, शेकस्पेअर, ट्वेन और ऑस्टेन और हिंदी में प्रेमचंद, रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा, निराला, टैगोर और कालिदास भी मेरी पढ़ने की सूची में थे। आध्यात्मिक चेतना के लिए छोटी उम्र में ही मेरे पिताजी ने ‘श्रीमद् भगवद गीता’, ‘रामायण’ और ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी’ जैसी पुस्तकों से भी मेरा परिचय करवाया।
आज मुझे आउट ऑफ़ प्रोफेशनल compulsion बहुत सी किताबें पढ़नी पड़ती हैं तो leisure रीडिंग के लिए समय कम मिल पता है पर आज भी मुझे समय मिले तो थ्रिलर्स और हिस्ट्री शैली की किताबें ज़्यादा आकर्षित करती हैं।
प्रश्न २: आपने बुकर प्राइज विनर ‘द ह्वाइट टाइगर’ की मार्केटिंग की थी। इसके लिए शायद आप पुरस्कृत भी हुयी थीँ। मार्केटिंग के दुनिया के अपने कुछ अनुभवोँ के बारे मेँ बताइए। निश्चित रूप से आप बड़े और प्रसिद्ध व्यक्तित्वोँ से मिली होँगी। कोई ऐसी घटना जो आपके व्यावसायिक जीवन से जुड़ी हो, जिसे आप पाठकोँ से साझा करना चाहेँगी?
लिपिका: जी, अरविंद अडिगा की २ किताबों की मार्केटिंग पर मुझे काम करने का मौका मिला उसमे से The White Tiger (जिसे मैन बुकर प्राइज भी मिला), की मार्केटिंग कैंपेन के लिए हमें (यानी हार्परकॉलिन्स इंडिया को) Asian Multimedia Publishing Awards २००९ भी मिला जिसे मैं बैंकाक समाहरोह में प्राप्त करने गयी थी।
अपने १८ वर्षों के पब्लिशिंग कार्यकाल में मुझे १८०० से ज़्यादा लेखक लेखिकाओं के साथ कार्य करने का सौभाग्य मिला है। डॉ कलाम से लेकर सोमनाथ चटर्जी, पाउलो कोएल्हो, जेफरी आर्चर, सुधा मूर्ति , रस्किन बांड, विक्रम संपत जैसे दिग्गजों के साथ कार्य करने का सौभाग्य मिला है। इन १८ वर्षों में अलग-अलग व्यक्तित्व, विचारधारा और सोच के लोगों से मिलकर जीवन में बहुत कुछ सीखा है तो किसी एक घटना को साझा करना बहुत कठिन है। लेकिन आपका वातावरण आपके व्यक्तित्व को आकार देता है और इन सभी बुद्धिजीवियों ने मुझे जीवन में अपने विचारों को पूरी दृढ़ता से व्यक्त करना सिखाया है, जिसके कारण ही मैं आज से १३ साल पहले MarketMyBook की स्थापना कर पायी और आज साथ ही TheIndicPen पॉडकास्ट पर भी काम कर पा रही हूँ।
प्रश्न ३: इतनी किताबोँ के प्रचार-प्रसार से जुड़े रहने के बाद आपने एक पुस्तक – ह्वेन मॉमी वाज़ अ लिटिल गर्ल – मेँ योगदान भी दिया। इस पुस्तक के बारे मेँ कुछ बताएँ।
लिपिका: मेरे पब्लिशिंग के मित्रों को लगता है कि मैं लिख सकती हूँ तो इस पुस्तक में How Mommy Got Saved by A Narrow Squeak कहानी, लिखी जो मेरे बचपन की गर्मियों की छुट्टियों में उत्तरखंड के गांव में बिताए समय से निकली, बच्चों के लिए एक कहानी है। बहुत से बच्चों ने मुझे उस कहानी को पढ़ कर मैसेज और वौइस नोट्स भेजे। हम भी शहर में पैदा हुए पर तब तक फिर भी गांव से एक जुड़ाव था, आज के शहरी बच्चों के लिए एक कंचे रंग की आँखों वाले खूंखार जानवर से आमना-सामना सपने या फिल्मों में ही होता है। आजकल शहरों में पेड़ ही नहीं तो आम के पेड़ पर चढ़ कर कच्चे आम चोरी छुपे तोड़ने का वो सुखद अनुभव तो असोचनीय है। घंटो घंटो बिजली न होने का अनुभव और उस में भी गर्मी न लगना क्योंकि आप खेलने में इतने मगन हो, उस अनुभव की, डिजिटल दुनिया में पैदा होने वाले बच्चे, कभी अनुभूति नहीं करेंगे। वो एक ऐसा समय और एक ऐसा कालखण्ड है जो सिर्फ कहानियों में फंतासी जैसा ही प्रस्तुत हो सकता है। आज के लेखकों के अनुभवों का स्तर ही अलग है। जीवन की कम्प्लेक्सिटीज़ अलग हो गयी हैं। छोटी छोटी खुशियों की परिभाषा भी अलग है
When Mommy Was a Little Girl के बाद लगभग ढाई तीन वर्षों से मुझे अलग-अलग पब्लिशर्स ने अलग-अलग विषयों पर लिखने को कहा है। एक हिस्टोरिकल पर्सनालिटी पर किताब, एक बच्चों की कहानियाँ और एक कविताओं के संग्रह का वादा है पर दुनिया के सबसे बड़े लेखकों और कवियों के साथ काम करने का सबसे बड़ा नुक्सान यह है कि आपको अपना लिखा कभी अच्छा नहीं लगता और फिर आप लिख नहीं पाते। दूसरा, लिखना एक ऐसा अनुशासन है जो मैं नहीं ला पायी हूँ तो अभी तक, एक कहानी भर तक की यात्रा रह गयी है।
प्रश्न ४: भारत मेँ आप ‘बाल साहित्य’ परिदृश्य की क्या स्थिति देखती हैँ? अंग्रेजी और हिन्दी दोनोँ भाषाओं के सन्दर्भ मेँ कुछ बताएँ।
लिपिका: भारत एक विचित्र साहित्यिक समय से गुज़र रहा है। बच्चों पर हम कम्प्लेक्सिटीज़ थोपने वाला साहित्य लिख रहे हैं। बच्चों की दुनिया को हम खुद ही सुलझा और आसान नहीं रहने दे रहे इसलिए साहित्य भी ऐसा थोपा जा रहा है जो उनके निर्मल दिमाग में उलझनेँ पैदा करे। छोटी सी उम्र में जेंडर फ्लुइडिटी पर किताबें आ रही हैं , ऐज एप्रोप्रियेट कंटेंट की बात हम किताबों में नहीं कर रहे। अंग्रेजी में तो woke कंटेंट की समस्या बढ़ती ही जा रही है।
साहित्य का चरित्र निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान होता था पर अब ऐसे लेखकों को बढ़ावा दिया जा रहा है जिनकी चरित्र की परिभाषा पाश्चात्य सभ्यता पर आधारित है। हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही बच्चों के साहित्य को खंगालने की आवश्यकता है। हमारे भारतीय दृष्टिकोण की बहुत बड़ी कमी है। आप बच्चों में विकृतियां पैदा करने वाला साहित्य फैला रहे हैं। इसलिए क्राइम करने की उम्र घट रही है और क्राइम की वीभत्सता बढ़ रही है। पब्लिशिंग का एक उत्तरदायित्व है, मुझे १८ साल के अपनी पब्लिशिंग के जीवन में बच्चों के साहित्य में इस निष्कपटता की भारी कमी महसूस होती है।
ये एक विवादित मुद्दा है पर एक माँ होने के नाते मुझे यह अखरता है। बच्चों को नवीन भारतीय साहित्य में सिर्फ रस्किन बांड और अब सुधा मूर्ति के अलावा आप कुछ नहीं पढ़ने दे सकते क्योंकि आपको पता नहीं किन पंक्तियों में कुछ हेर-फेर छुपा हो। मुझे अपने बच्चों के लिए कोई भी किताब पढ़ने देने से पहले उसे खुद पढ़ना पड़ता है। अगर Right to Choice एक अबोध उम्र में दिए जाने की बात पूरे विश्व में की जा रही है तो मेरा भी अभिभावक होने के नाते Right to Choice है कि मेरे बच्चे क्या पढेँ?
प्रश्न ५: हिन्दी साहित्य समाज मेँ अभी भी मार्केटिङ् संदेह की निगाह से देखा जाता है। भले ही पुरस्कार प्रायोजित होँ या समाचार पत्रोँ मेँ छपे आलेख, पर आम तौर पर उस पर संशय नहीँ किया जाता। हिन्दी साहित्य के प्रकाशक अपनी मार्केटिङ् को किस तरह देखते हैँ? क्या उन्हेँ अङ्ग्रेजी प्रकाशकोँ से अलग करती हैँ या पिछड़ा बनाती है, क्योँकि ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेजी किताबोँ के पाठक हिन्दी के तुलना मेँ अधिक हैँ। आपकी दृष्टि से हिन्दी के प्रकाशकोँ को किस तरह के कदम शीघ्रता से उठाने चाहिए।
लिपिका: हिंदी साहित्य में मार्केटिंग को लेकर उदासीनता हिंदी साहित्य की धरोहर है। साहित्य को भले ही आप एक समाज को बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल कर लें पर आप ये moral highground लेना पसंद करते हैं की एक लेखक का काम लिखना है और प्रकाशक का छापना, मार्केटिंग की आवश्यकता नहीं है । आज से कुछ दशक पहले यह कहा जाता था कि हिंदी की मार्किट मूल्य संवेदनशील है लेकिन आज आप हिंदी की किताबें उठाइये , उनका मूल्य लगभग अंग्रेजी की किताबों के बराबर ही रहता है। हिंदी की पहुँच और नंबर्स आज भी अधिक हैं लेकिन हम यह भ्रम बनाए रखना चाहते हैं की हिंदी प्रकाशन और साहित्य का जगत फण्ड की कमी से पीड़ित है।
आपके प्रश्न के अनुसार पुरस्कारों का प्रायोजित होना या समाचार पत्रोँ मेँ छपे आलेखों का, सिर्फ हिंदी साहित्यिक जगत की नहीं अंग्रेजी और अन्य भाषाओँ के साहित्यिक जगत की सच्चाई भी है और एक मार्केटिंग के क्षेत्र से होने के नाते मैं इसमें कुछ गलत नहीं मानती। पूरे विश्व में पूंजीवादी अपने प्रोडक्ट और साहित्य के सिलसिले में, विचारधारा को फ़ैलाने के लिए दशकों से यह करते आ रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे । पर हिंदी साहित्य जगत में मार्केटिंग को संदेह की निगाह से इसलिए देखा जाता है क्योंकि वह सबसे आसान तरीका है मार्केटिंग में इन्वेस्ट न करने का। मार्केटिंग एक दीर्घकालिक प्रतिबद्धता है। अंग्रेजी साहित्य में आज से कुछ दशक पहले यह आवश्यकता महसूस हुई क्योंकि उन्हें अपने प्रभाव का क्षेत्र बढ़ाना था। आज अंग्रेजी साहित्य में मार्केटिंग का मानचित्र बदल गया है। अब मार्केटिंग पर्सनल ब्रांडिंग के लिए की जाती है। पर्सनल ब्रांडिंग से पैसा कमाने के कई ज़्यादा रस्ते खुलते हैं। और ये ही कारण है कि हिंदी साहित्य इसके प्रति उदासीन है क्योंकि वे शायद शुद्धतावादी दृटिकोण दिखाना चाहते हैं।
ये ही समय है जब मार्केटिंग से हाथ खींचने की नहीं मार्केटिंग में निवेश करने की आवश्यकता है।
प्रश्न ६: आपने अपने एक आलेख मेँ साहित्यिक समारोह की कटु आलोचना की थी कि दर्शकोँ की सङ्ख्या वक्ता गणोँ की सङ्ख्या से कहीँ अधिक है। क्या आप अब भी ऐसा ही सोचती हैँ? वर्तमान साहित्य समारोह मेँ हिन्दी की उपस्थिति खाना-पूर्ति की तरह ही है। मसलन, जयपुर साहित्य समारोह आदि मेँ हिन्दी की स्थिति हीन ही है। इसी तरह आज तक के साहित्य मेले मेँ न्यूज एंकर और राजनीतिज्ञ बुलाए जाते हेँ, वहीँ हिन्दी के लेखक खानापूर्ति करने और मुफ्त का खाना खाने आए हुए जान पड़ते हैँ। हमारे पाठकोँ के लिए साहित्य समारोह और हिन्दी के अन्तर्सम्बन्धोँ पर कुछ अनुभव और राय साझा कीजिए।
लिपिका: साहित्य समारोह आयोजित करने वालों के लिए अपने ब्रांड और विजिबिलिटी को बढ़ाने और थोड़ा बहुत पैसा कमाने का माध्यम भर बन गया है। हम साहित्य समारोह को फैशनेबल बनाना चाहते हैं साहित्य को नहीं। साहित्य समारोह एक राजनीतिक कथन के रूप में इस्तेमाल होता रहा है और इसलिए हम उसमे अपने दायरे और विचारधारा से मेल खाने वाले लोगों को बुलाते हैं। पैसा कमाने के लिए बदलती राजनीतिक हवाओं के अनुसार सेलिब्रिटी भी बुला लेना ज़रूरी है।
साहित्य समारोह के पीछे हमारा उद्देश्य क्या होना चाहिए। पढ़ने को बढ़ावा देना , आने वाली पीढ़ी के पाठकों में पढ़ने के प्रति रूचि पैदा करना। आज के पाठकों को अपने लेखकों के साथ वार्तालाप करने का मौका देना। अगर युवाओं को आकर्षित करने के लिए सेलिब्रिटी चेहरों की ज़रुरत है तो एक मार्केटर होने के नाते उसे में गलत नहीं मानती। साहित्य समारोह के माध्यम से पैसे कमाने को भी गलत नहीं मानना चाहिए क्योंकि दर्जनों लेखकों को बुलाना, उनके रहने और आने-जाने की व्यवस्था करने के लिए धन की आवश्यकता है पर विचारहीन समारोह और विचार रहित सेशंस, लेखकों के साथ और पाठकों के साथ अन्याय है। आजकल लेखक कहते हैं कि हम विपरीत विचार रखने वालों के साथ स्टेज पर नहीं आएंगे बजाए इसके उन्हें यह कहना चाहिए कि बैरंग सीटें और श्रोता शून्य समारोहों में नहीं जाएंगे।
प्रश्न ७: सोशल मीडिया पर हिन्दी साहित्यकार अधिकतर असहिष्णु प्रतीत होते हैँ। वे आमतौर पर शोर-गुल, नारेबाजी और गालियोँ से एक-दूसरे को नवाज़ने मेँ लिप्त पाये जाते हैँ। बहुत से लोग राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ता प्रतीत होते हैँ और इस कारण सम्मानित भी होते हैँ। हिन्दी साहित्य जगत को ले कर आपका अनुभव कैसा रहा है? क्या हिन्दी साहित्यकारोँ का अशालीन होना उन्हेँ साहित्य समारोहोँ से या आम जनता से दूर ले जाता है? क्या हिन्दी साहित्यकारोँ के ब्राण्ड न बने पाने के पीछे प्रकाशकोँ का स्वार्थ और षड्यन्त्र है, या उनके अपनी प्रतिष्ठा या बदलते समाज की साहित्य के प्रति उदासीनता या सभी?
लिपिका: हाहाहाहा! यह सिर्फ हिंदी साहित्यकारों के लिए नहीं अंग्रेजी साहित्यकारों के लिए भी सटीक बैठता है। पर साहित्य हमेशा से राजनीतिक रहा है। कुछ हद तक होना ठीक भी है। पर जहाँ ये मंडली बना कर विरोधी साहित्यिक आवाज़ों को दबाने का कार्य करता है वहां मुझे लगता है प्रजातंत्र की बात करने वाले ही प्रजातंत्र के खिलाफ होते हैं । ये दोगलापन है।
साहित्यकार साहित्यकार है। समान सी अनुभूतियों और विकृतियों का उत्पाद है। समान से ही व्यवहार और व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं से पीड़ित है। मेरा कार्य साहित्यकार के स्वभाव का आंकलन करने का नहीं है उनके साहित्य और साहित्यिक ब्रांड को बढ़ाने का है। और आज के बदलते परिवेश में पर्सनल ब्रांडिंग के चलते जहाँ ज़रुरत होती है वहां व्यक्तिगत धरातल पर व्यवहार जैसा भी हो मेरा कार्य उन्हें क्या दिखाना है उसपर केंद्रित है।
हिंदी साहित्यकारों के लिए ज़्यादा आसान होगा ब्रांड बनना, पर जैसा मैंने कहा ये उनकी उदासीनता है। साहित्य का पोषण कुपोषित लेखक नहीं कर सकते। वो समय अब बहुत पीछे छूट गया है। हम चाहे कितना भी romanticise करें, हिंदी हो, अंग्रेजी हो या कोई भी अन्य भाषा का साहित्य हो, इतनी अधिक मात्रा में किताबें आ रही हैं कि साहित्यकार को या लेखक को या कवि को पोषित रहना ही पड़ेगा, ताकि अपना पर्सनल ब्रांड बढ़ने में संसाधन लगाएँ और आपका लिखा ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचे ।
प्रश्न ८: कुछ अखबार वाले किताबोँ के प्रसार संख्या के आधार पर रैंकिंग जारी करते हैँ पर वे बड़ी चालाकी से कभी भी बिक्री संख्या नहीँ बताते। आप इसका कारण क्या समझती हैँ? क्या अंग्रेजी मेँ भी ऐसी पारदर्शिता नहीँ है? बड़े हिन्दी प्रकाशक कभी दस हजार से अधिक संख्या बोल भी नहीँ पाते (अगर बुकर पुरस्कृत जैसे अपवादोँ को छोड़ दिया जाए तो)। क्या हिन्दी साहित्य संसार मेँ धन की कमी बहुत अधिक है? यदि नहीँ तो हिन्दी प्रकाशक पुस्तकोँ के प्रचार-प्रसार पर अब भी पिछड़े क्योँ हैँ?
लिपिका: रैंकिंग हमेशा नम्बरों पर आधारित होनी चाहिए। Nielsen ऐसी रिपोर्ट हर हफ्ते निकलता है जो मार्किट से करीब ८०% डाटा लेकर बनायीं जाती है। अमेज़न की अपनी रैंकिंग है जो फिर से नंबरों पर आधारित है। कुछ अखबार अब भी एक बुकस्टोर या एक व्यक्ति के आधार पर रैंकिंग निकलते हैं जिसका सूत्र पारदर्शिता से उन्हें बताना चाहिए और शायद बताते भी हैं।
जब तक आप मार्किट का डाटा कैप्चर नहीं कर रहे संख्या लिख पाना असंभव है। दूसरा कारण यह है कि हो सकता है आज बहुत संख्या में किताबें दुकानों में हैं पर छह महीने बाद काफी मात्रा में वापिस भी आ जाएँ। शायद इसलिए प्रकाशक संख्या नहीं लिखते।
प्रकाशन में धन की कोई कमी नहीं है। सोच की कमी है। दशकों से यह इंडस्ट्री एक ढाँचे में चल रही है और उस ढाँचे से बाहर निकल कर या उसके विस्तार पर कोई प्रकाशक पहल नहीं करना चाहता। इसका कारण यह भी हो सकता है की प्रकाशकों की दुनिया काफी हद तक परिवारों में या एक छोटे समूह में सीमित है।
प्रश्न ९: एक सफल मार्केटिङ् प्रोफेशनल से आपका रुझान पॉडकास्ट के प्रति कैसे हुआ? आपके पॉडकास्ट मेँ किन उल्लेखनीय लोग ने भाग लिया है? क्या आप हिन्दी साहित्यकारोँ को अपने पॉडकास्ट के लिए आमन्त्रित करना चाहेँगी? आमतौर पर पॉडकास्ट को पिछले बेंच की गपशप समझा जाता है। क्या हिन्दी साहित्य समाज पॉडकास्ट से लाभान्वित हो सकता है? क्या हिन्दी पुस्तकोँ पर चर्चा या पुरस्कृत पुस्तकोँ से बातचीत से कोई फर्क पड़ेगा?
लिपिका: पॉडकास्ट का मार्किट बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है और आने वाले समय में इसमें और विस्तार होगा। मेरा बातचीत के प्रति रुझान हमेशा से रहा है और इसलिए चार साल पहले मैंने Between The Lines से किताबों पर चर्चा की शुरुआत की थी। कोरोना काल में यह मुझे मेरे लेखकों से जुड़े रहने के काम आया। लोगों का देखने और सुनने में समय बढ़ गया था तो यह एक अच्छा माध्यम रहा किताबों को लोगों तक पहुँचाने का।
फिर कोरोना के बाद व्यस्तता बढ़ने की वजह से मैंने इसे काफी समय तक विराम दिए रखा। इन सालों में मेरा रुझान किताबों के साथ साथ विचारधाराओं के बढ़ते संघर्ष में बढ़ा। एक किताब लेखक का प्रतिबिम्ब होती है लेकिन एक किताब उसके सम्पूर्ण चरित्र को प्रस्तुत नहीं करती , आवश्यक है कि जो किताब नहीं पढ़ते उन तक उन विचारों को ले जाया जाये। शायद इसी माध्यम से पढ़ने के प्रति रुचि बने और बढे और हम देख भी रहे हैं कि जैसे-जैसे एक लेखक के किये हुए पॉडकास्ट रिलीज़ होते हैं, लेखकों की किताबों की विक्री संख्या में उछाल आता है तो यह एक महत्वपूर्ण मार्केटिंग टूल बन गया है। जहाँ तक रही लोगों की पॉडकास्ट को लेकर सोच की बात तो चाहे इसे वे पिछले बेंच की गपशप समझें देखते और सुनते तो इसे ही हैं। मुख्यधारा के मीडिया से ज़्यादा इसे देखा – सुना जा रहा है तो स्वाभाविक है कि इस क्षेत्र में फोकस बढ़ने वाला है।
मेरी वार्ता में विचारधाराओं को जगह देने के लिए मैंने TheIndicPen की शुरुआत जून २०२४ में की। पर मेरा आज भी प्रयत्न ये है कि जिन्होंने किताबें लिखी हैं उन्हें ही अलग-अलग विषयों पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित करूँ। जो भारत के बारे में भारतीय नज़रिये से लिख रहे हैं उन्हें बुलाने की इच्छा रहती है। परन्तु चर्चा सिर्फ किताबों पर न रह कर मुद्दों पर होती है। ये मुद्दे इतिहास, कला, साहित्य, राजनीति, अध्यात्म पर होते हैं। ये बौद्धिक चिंतन के मुद्दे हैं तो बुद्धिजीवियों से अच्छा इन पर कौन विचार करने योग्य है। विचारधारा चाहे कुछ भी हो, विचारों पर चर्चा और विवाद होना हमारी भारतीय सभ्यता का एक अभिन्न अंग है जो कहीं हम भूल गए हैं। हम एक ही किसम की विचारधारा को सुनते हैं और सहते हैं। TheIndicPen इसको बदलने का प्रयास है।
इस पॉडकास्ट में हमें अब तक २८ एपिसोड प्रदर्शित किये हैं। इसमें जहाँ विक्रम संपत, अनुज धर, शांतनु गुप्ता, हिंडोल सेनगुप्ता, अभिजीत अय्यर मित्रा जैसे अंग्रेजी भाषा के लेखक आ चुके हैं वहीं हिंदी साहित्य से कमलाकांत त्रिपाठी और सोमवारी लाल उनियाल जैसे लेखक भी इसको अपना समय दे चुके हैं। हम TheIndicPen में अंग्रेजी साहित्यकारों और लेखकों से भी मिश्रित भाषा में वार्तालाप करते हैं तो आपको बहुत से अंग्रेजी भाषा के लेखक हिंदी में वार्ता करते दिखेंगे। अधिक से अधिक हिंदी भाषा के लेखकों को आमंत्रित करने की इच्छा रहेगी और आने वाली शृंखलाओं में आपको यह देखने को मिलेगा भी। मैं तो अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों के विचार भी अपने पॉडकास्ट के निर्धारित मुद्दों पर सुनना चाहूँगी।
प्रश्न १०: क्या डिजिटल मार्केटिंग ने अब AI की सहायता से पर्सनलाइज्ड रूप ले लिया है कि प्रचार कुछ चुनिन्दा लोग तक ही पहुँचे, उन्हेँ वह प्रचार न दिखाई दे जिनके वे इच्छुक नहीँ हैँ। इस दिशा की ओर आप किताबोँ के प्रचार का भविष्य कैसा देखती हैँ?
लिपिका : डिजिटल प्लेटफॉर्म्स ने टारगेट मार्केटिंग का कार्य तो एक दशक पहले से किया हुआ था लेकिन AI का प्रयोग टारगेट मार्केटिंग के लिए नहीं, कंटेंट क्रिएशन के लिए ज़्यादा हो रहा है चाहे वो लिखित कंटेंट हो या visual और भविष्य में भी इसी क्षेत्र में सबसे ज़्यादा उन्नति देखी जा सकती है।
प्रश्न ११: अपनी पुस्तकोँ की मार्केटिंग के लिए हिन्दी के लेखक-लेखिकाएँ या नए प्रकाशक आपसे कैसे जुड़ सकते हैँ? एक प्रोफेशनल के तौर पर कैसी सेवाएँ उन्हेँ हिन्दी के पाठकोँ तक पहुँचा सकती हैँ? क्या छोटे प्रकाशक बिना अधिक राशि खर्च किए आपसे जुड़ सकते हैँ?
लिपिका : आज की मार्केटिंग का स्वरुप बदल गया है। आज सिर्फ किताब तक मार्केटिंग सीमित नहीं रहती, अब यह पर्सनल ब्रांडिंग का स्वरुप ले चुकी है जिसमे लेखन या किताब सिर्फ आपके व्यक्तित्व का एक भाग है। कम पैसों का मापदंड मुझे पता नहीं तो टिप्पणी नहीं कर पाऊँगी पर विजिबिलिटी बढ़ाने, पब्लिसिटी, इन्फ्लुएंसर मार्केटिंग और रेपुटेशन बिल्डिंग और मैनेजमेंट में हम काम में आ सकते हैं। आप मुझे मेरे ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं -lipika@marketmybook.in.