जेनेरेटिव एआइ ने समाज के सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रभाव डाला है। चिकित्सा विज्ञान, विधि, फाइनेंस, कला, चलचित्र, मैन्युफैक्चरिंग से लेकर तमाम क्षेत्रों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की शाखा ‘जेनेरेटिव एआइ’ से कई नौकरियाँ गयी हैँ और उत्पादन क्षमता बढ़ी है। जेनेरेटिव एआइ डिजिटल सूचनाओं का पैटर्न और सम्बन्ध समझ कर मशीन लर्निंग और डीप लर्निंग जैसी तकनीक से सृजनात्मकता पर मानव के एकाधिकार को चुनौती दी है। आज जीपीटी के सहायता से लेख सुधारे ही नहीं, बल्कि लिखे भी जा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि जेनेरेटिव एआइ हिन्दी के पठन-पाठन और काव्य आलोचना किस तरह बदल देगा? क्या जेनेरेटिव एआइ तय करेगा कि हमारे समय के सबसे बेहतरीन कवि और कथाकार कौन है?अब समय आ गया है कि हम गम्भीर हो कर इस पर विचार करें कि क्या भारतीय परम्परा और हिन्दी साहित्य इसका किस तरह स्वागत करे। जानकीपुल पर आज पढ़ते हैं आईआईटी दिल्ली के ग्रेजुएट और हिन्दी लेखक प्रचण्ड प्रवीर का आलेख, जिसके मूल में भारतीय दर्शन से भाषा चिन्तन और ध्वनि सिद्धान्त है।
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पिछले दिनोँ किसी आलेख के विमर्श पर एक युवा आलोचिका ने हिन्दी दुर्दशा पर कुछ बातेँ की जिसका सार यह था कि विस्मृति हर गुजरते समय के साथ होती है, हर संस्कृति-देश मेँ होती है। यदि कथ्य के पीछे निहित विचार, वाक़ई अच्छा है तो भाषा से क्या फ़र्क़ पड़ता है। भाषा बस एक माध्यम भर है अपनी बात को संप्रेषित करने के लिए उसे उससे ज़्यादा तवज्जोह नहीँ देनी चाहिए। दर्शन शास्त्र भी बस दर्शन के विद्यार्थियोँ या जिज्ञासुओँ तक सीमित है, लोकवृत्त का हिस्सा नहीँ है। (इस अन्तिम पङ्क्ति की ध्वनि यह है कि अत: काव्यविमर्श मेँ यह अनपेक्षित है।)
मैँ समझता हूँ यही भ्रम बहुत लोग ने पाल रखा है, जिसका खण्डन करना आवश्यक है। एक अन्य लेख मेँ मैँने ‘काव्य मेँ अर्थ नहीँ ढूँढना चाहिए’ की स्थापित प्रस्तावना का खण्डन और विरोध किया है। वह लेख अनुनाद मेँ ‘काव्य आलोचना के बोधात्मक प्रतिमान’ शीर्षक से प्रकाशित अंतरजाल पर उपलब्ध है।
सबसे पहले मैँ सविनय निवेदन करना चाहूँगा कि साहित्य विमर्श मेँ ‘शब्द-अर्थ विमर्श’ यदि अनुपस्थित हैँ, उस स्थिति मेँ वह विमर्श वस्तुत: आधारहीन है। सरल शब्दोँ मेँ ‘बिना पेन्दी का लोटा’ है, जो किसी भी तरह लुढ़क जाए। इसलिए उसके गले पर विचारधारा की जञ्जीर लगानी पड़ रही है कि वह कहीँ छिटक कर दूसरी ओर खिसक न जाए। सम्बन्धित कुछ उदाहरण इस तरह के हैँ कि पति-पत्नी का युग्म मालिक-नौकर के युग्म जैसा है (जबकि हिन्दी मेँ ऐसा युग्म बनाना हो तो मालिक-मालकिन हो सकते हेँ), कन्यादान तुच्छ वस्तु के भिक्षा देने के अर्थ मेँ लिया जाना चाहिए, आदि। ये आपत्तियाँ साधारण शब्द-व्युत्पत्ति के ज्ञान से और पारम्परिक मूल अर्थ विवेचना से नष्ट हो जाती हैँ।
एक आलोचिका ने वरिष्ठ आलोचिका (मैँ स्त्री-आलोचिका कहकर उनका अपमान नहीँ करना चाहूँगा) की सोशल मीडिया पर की गयी टिप्पणी मेँ मनुष्यता शब्द पर आपत्ति जताते हुए लिखा कि – यह एक रुमानी धारणा है कि किसी दूसरे पर प्रहार करने वाला ‘मानव’ नहीँ रहता, मानवता के स्तर से गिर जाता है।“ यहाँ प्रयास है मनुष्यता की अभिधा मेँ अपराधी, शोषक और शोषित सबको समाहित करने की। यह प्रयास वस्तुत: भाषा-व्यवहार विरुद्ध है क्योँकि मनुष्यता की व्यञ्जना आप मनमाने ढङ्ग से निर्धारित नहीँ कर सकते। वह सांस्कृतिक रूप से मनुष्य के सद्गुणोँ और कुछ क्षम्य कमजोरियोँ को ही इङ्गित करती है।
उपरोक्त प्रयास के पीछे देरिदा के ‘विखण्डनवाद’ के सिद्धान्त की शायद दलील दी जा रही है कि शब्द का कोई अर्थ निश्चित नहीँ है। हम मुख्यार्थ को हटा कर लक्ष्यार्थ को स्थापित करने को स्वतन्त्र है और ‘लेखकीय पाठ’ से मुक्त होना चाहते हैँ। द्रष्टव्य है, दी जा रही दलील दरअसल देरिदा के ‘विखण्डनवाद’ का दुरुपयोग है। लेखकीय पाठ से मुक्ति का विचार देरिदा ने श्रेष्ठ साहित्य के पठन-पाठन के लिए कहा है, अर्थ का अनर्थ करने के लिए नहीँ।
रातोरात शब्द की ‘लोकग्राह्य व्यञ्जना’ नहीँ बदली जा सकती जैसे कि हम किसी महिला को यह नहीँ कह सकते कि – ‘मैँ आपको शूर्पणखा जैसी समझता हूँ। आप बुरा न मानिए मेरा आशय उसकी सुन्दरता से था। वाल्मीकि ने अरण्य काण्ड मेँ शूर्पणखा के सुन्दर रूप का विस्तार से बखान किया है। आपको मालूम होना चाहिए शूर्पणखा तात्कालिक फैशन मेँ अपने नाखून लम्बे रखती थी, वह भी सूप के आकार मेँ। आपको यह भी मालूम होना चाहिए कि वह प्राकृतिक उपलब्ध रङ्गोँ से अपने तीखे नाखूनोँ पर नेलपॉलिश भी लगाती थी। राम और लक्ष्मण चूँकि स्त्रीविरोधी थे, उनको शूर्पणखा का फैशनेबल होना, सजना-सँवरना पसन्द न आया। वे शूर्पणखा को परदे मेँ रखने की सलाह दे रहे थे, लेकिन स्त्री जागरण की अग्रदूत शूर्पणखा ने इसका मुखर प्रतिरोध किया। देखिए, उसकी यौनिकता पर हमला किया गया। अत: मैँ अपनी पूरी शुचिता के साथ आपको शूर्पणखा की उपमा देते हुए आपके सौन्दर्य, साहस और आपकी स्त्रीवादी यौनिक प्रतिबद्धता का ही बखान कर रहा हूँ।‘
इस तरह के कुपाठोँ का उत्तर लङ्काकाण्ड मेँ है जहाँ युद्ध की विभीषिका के समय लङ्कावासी शूर्पणखा के मायावी रूप को याद न करके, उसे मूल रूप मेँ कुरूप वृद्धा, पुरुषलोलुप, हिंसक और अत्याचारी बताते हेँ। बहरहाल काव्य के रूपकोँ को सत्य मान कर ‘ऐसा क्योँ न हुआ, वैसा क्योँ न हुआ, कवि महिलाविरोधी था, शूद्रविरोधी था’ जैसी बहसोँ को मैँ नितान्त निर्रथक मानता हूँ, इसलिए क्योँकि ऐसे रूपक विवेचन और चिन्तन के लिए बीजरूप मेँ बहुत कुछ छोड़ जाते हैँ। उन विचारोँ का सम्यक परिष्कार करना ही पाठक का कर्त्तव्य है। हम वेदव्यास से यह नहीँ कह सकते कि साहब, आपको महाभारत मेँ द्रौपदी के चीर-हरण का प्रसङ्ग नहीँ डालना चाहिए था। जो पाठ हमेँ मिला है, वही हमारी सीमा है। हम केवल उसी पाठ के आधार पर ही विमर्श कर सकते हैँ, और वह विमर्श ‘शब्द-अर्थ’ के सांस्कृतिक रूप से सञ्चालित हो सकता है, हमारी पूर्वाग्रहग्रस्त मान्यताओँ या राजनैतिक प्रतिबद्धताओँ से नहीँ। हाँ, हम हर तरह के खण्डन, मण्डन, विवेचन और विखण्डन के लिए स्वतन्त्र हैँ।
यदि हम तय कर लेँ कि हिन्दी पठन-पाठन मेँ एम.ए. के पाठ्यक्रम मेँ भाषा विज्ञान और काव्यशास्त्र उपेक्षित या कहेँ तिरस्कृत विषय हैँ तब जाकर ही इस आलेख की भूमि प्राप्त होती है, अन्यथा नहीँ।
हर उपक्रम का पहला प्रश्न प्रयोजन का उठता है। हम कुछ भी क्योँ कर रहे हैँ! मैँ कुछ मूलभूत बातेँ स्पष्ट करना चाहूँगा कि ताकि मेरी प्रस्तावनाओँ का खण्डन-मण्डन निम्न आधारभूत विचारोँ से होँ:-
- पठन-पाठन का उद्देश्य – हम विद्यालय या विश्वविद्यालयोँ मेँ क्योँ पढ़ेँ? – इसका उत्तर यह नहीँ है कि हम अच्छे मनुष्य बनेँ। यह एक प्रयोजन भले हो सकता है पर मुख्य प्रयोजन यह नहीँ है। किसी भी तरह के शिक्षण-प्रशिक्षण का उद्देश्य यह होता है कि विद्यार्थी/प्रशिक्षु सर्जक बने, बिना किसी बाह्य उपादन के। यही शिक्षण का उपक्रम है कि कोई आपको कुछ सिखाए, पहले आपका हाथ पकड़ कर, डाँट-डपट कर, प्यार से समझा कर, एक सीमा तक। उसके उपरान्त शिक्षक आपका हाथ छोड़ देता है और आपसे यह आशा की जाती है कि आप स्वतन्त्र रूप से वह कार्य कर सकेँ जिसके लिए आप शिक्षित या प्रशिक्षित किए जा रहे हैँ। समस्त पठन-पाठन का उद्देश्य समाज के तन्त्र मेँ उपादेय बनना है।
- काव्य का प्रयोजन – यहाँ मैँ बारहवीँ सदी के यशस्वी आचार्य मम्मट को उद्धृत करना चाहूँगा कि काव्य का प्रयोजन यश, धन, व्यवहार ज्ञान, अकल्याण का नाश, शीघ्र पराशान्ति और कान्तासम्मित उपदेश है। (कान्ता से ‘प्रेयसी’ अभिधेय है) काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्य: परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥
– द्वितीय कारिका, प्रथम उल्लास, काव्यप्रकाश - प्रस्तुत आलेख का प्रयोजन – इक्कीसवीँ सदी मेँ जेनेरेटिव एआइ से भाषा व्यवहार, पठन-पाठन, साहित्य और काव्य-आलोचना के भविष्य पर विचार करना। कथित उपक्रम के लिए मैँ भारतीय भाषा दर्शन के मुख्य विचारोँ पर, खास कर ‘पूर्व-मीमांसा’ के आचार्य कुमारिल भट्ट तथा उनके शिष्य ‘गुरु प्रभाकर मिश्र’ के विचारोँ की चर्चा करूँगा। शब्द शक्ति और ध्वनि को स्पष्ट करने के लिए मैँ आचार्य आनन्दवर्धन की ‘ध्वन्यालोक’, उस आचार्य अभिनवगुप्त की टीका ‘ध्वन्यालोकलोचन’ और इन दोनोँ से अनुगृहीत आचार्य मम्मट की कालजयी रचना ‘काव्यप्रकाश’ की सहायता लूँगा।
भाषा भाव अथवा विचार का संप्रेषण, या विचार-विनिमय सञ्चार माध्यम मात्र नहीँ है। यह भाषा की मुख्य उपयोगिता है, पर यह भाषा का स्वरूप नहीँ है। यदि आप किसी युवती से उसकी प्रशंसा करते हुए कहते हैँ कि आप सावित्री हैँ, इसका व्यङ्ग्यार्थ है आप मेँ शील है, पतिपरायणता है, पवित्रता है। यह व्यङ्ग्यार्थ मात्र शब्दार्थ से नहीँ प्रकाशित होता अपितु सावित्री-सत्यवान की कथा से यह व्यञ्जित है कि सावित्री के रूपक मेँ वह साहस है, ऐसी बुद्धि है जो यमराज से सत्यवान के प्राण वापस लौटा लाती है। भाषा सांस्कृतिक सन्दर्भोँ से च्युत नहीँ होती। संस्कृति मूल्योँ का अवगाहन करती है। ‘बड़ोँ को प्रणाम, छोटोँ को आशीष, चरणकमलोँ मेँ सादर स्पर्श’ – आदि पत्र-व्यवहार मेँ औपचारिकताएँ इतर भाषाओँ मेँ इसी रूप-महिमा मेँ उपलब्ध हो, आवश्यक नहीँ है। मुहावरे, लोकोक्तियाँ, श्लेष आदि अलङ्कार, व्युत्पत्ति आदि भाषा की विशिष्टताएँ भाषा का स्वरूप बताती है, यह सञ्चार-साधन मात्र नहीँ है। दार्शनिक यशदेव शल्य कहते हैँ कि किसी वस्तु के स्वरूप को पारिभाषित करने का अर्थ है उसके ऐसे गुण-लक्षणोँ को बताना जो उसके सब उदाहरणोँ मेँ पाये जाते होँ और जो उसे अन्य सबसे पृथक् करते होँ। ये उसके अवच्छेदक लक्षण कहे जाते हैँ। हर भाषा का अपना स्वरूप है, जिस कारण वह विशिष्ट है।
इसीलिए भाषा अपने साहित्य से जुड़ता है। अपने मूल्योँ और संस्कृति का वाहक होता है। भाषा इस तरह ज्ञान के उपादान के रूप मेँ प्रस्तुत भी है, जो कि सदियोँ के चिन्तन के उपरान्त हमेँ विरासत मेँ मिलती है। अत: भाषा के बारे मेँ जानने/समझने/सीखने के लिए बोलना, सुनना, लिखना, पढ़ना – चारोँ प्रक्रियाओँ मेँ काव्य आधारभूत रूपेण उपस्थित है और होना भी चाहिए।
इस सन्दर्भ मेँ मैँ वाक् देवता के रूप मेँ स्मृत आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के स्वरूप को प्रकट करना चाहूँगा:-
तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलङ्कृती पुनक्वापि। दोषगुणालङ्कारा वक्ष्यन्ते। क्वापीत्यनेनैतदाह यत् सर्वत्र सालङ्कारौ क्वचित्तु स्फुटलङ्कारविरहेऽपि न काव्यत्वहानि:। (सूत्र १, कारिका ४, काव्यप्रकाश)
वह (काव्य) ऐसे शब्द और अर्थ को कहते हैँ जिनमेँ दोष न होँ, गुण होँ और फिर कहीँ-कहीँ अलङ्कार न भी होँ।
सूत्र के बाद काव्यप्रकाश मेँ मम्मट शब्द-अर्थ के दार्शनिक पक्ष को, गुण-दोषोँ और अलङ्कारोँ की विस्तृत चर्चा करते हैँ। यह महत्त्वपूर्ण परिभाषा है, जिसकी आलोचना भारतीय परम्परा मेँ ही बहुत हुयी। ‘साहित्य दर्पण’ के रचनाकार पण्डित विश्वनाथ ने कहा कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कविताओँ मेँ कभी-कभार दोष तो निकल ही आता है। और जब दोष निकल आता है तो उसे हम कविता की श्रेणी से थोड़े ही हटा देते हैँ।
यशदेव शल्य सहित बहुत से भारतीय दार्शनिक काव्य के स्वरूप को मम्मट के उपरोक्त सूत्र से नहीँ मानते। मैँ समझता हूँ कि काव्य की परिभाषा अन्तिम होनी कठिन है, किन्तु आचार्य मम्मट का सूत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है खासकर जब जेनेरेटिव एआइ बहुत कुछ बदल देने वाला है।
कुछ छह-सात साल पहले तक मशीनी अनुवाद (गूगल आदि से ट्रांसलेशन) बहुत ख़राब थे जैसे कि ‘मेरा दिल बाग-बाग हो गया” का अनुवाद ‘माय हार्ट हैज बिकम् अ गार्डन’ जैसे होता था। अब मशीनी अनुवाद शुद्ध हो कर ‘माय हार्ट वाज़ फिल्ड विद जॉय’ होने लगा है। इसका कारण यह है कि पहले अनुवाद हर शब्दोँ का उससे जुड़े अर्थोँ का होता था, लेकिन जेनेरेटिव एआइ के बाद बहुत से वाक्योँ की पृष्ठभूमि मेँ हो कर सांस्कृतिक सन्दर्भोँ के साथ होती है।
यह दोनोँ दृष्टिकोणोँ मेँ जो मूलभूत अन्तर है वह पूर्व-मीमांसावादियोँ की दो धाराओँ मेँ मिलती है (जिसकी विवेचना मम्मट ‘काव्यप्रकाश’ के द्वितीय उल्लास मेँ ‘शब्द-अर्थ विमर्श’ के अन्तर्गत करते हैँ) –
- कुमारिल भट्ट का ‘अभिहितान्वयावाद’ (प्रचलित शब्द मेँ भाट्ट मत)
- प्रभाकर मिश्र का ‘अन्वयाभिधानवाद’ (प्रचलित शब्द मेँ प्राभाकार मत)
भारत मेँ जब तक किसी बात को अमरीकी या यूरोपीय ठप्पा नहीँ लगता तब तक उसे ठीक नहीँ समझा जाता। इसलिए मुझे यहाँ पर प्रसिद्ध भाषाविद् नोआम चॉमस्की के प्रसिद्ध कथन ‘कलरलेस ग्रीन आइडियाज़ स्लीप फ्यूरियसली – Colorless green ideas sleep furiously’ को उद्धृत करना पड़ रहा है ताकि आप इस आलेख को कुछ अधिक गम्भीरता से पढ़ेँ। चॉमस्की कहते हैँ कि वाक्य ‘रङ्गहीन हरे विचार उग्रता से सोते हैँ’ की वाक्य संरचना बिल्कुल सही है ( कलरलेस- विशेषण, ग्रीन-विशेषण, आइडियाज़-सञ्ज्ञा, स्लीप- क्रिया, फ्यूरियसली- क्रियाविशेषण; वहीँ हिन्दी मेँ – रङ्गहीन – विशेषण, हरे – विशेषण, विचार- भाववाचक सञ्जा, उग्रता – क्रियाविशेषण, से – कारक, सोते- क्रिया, हैँ- सहायक क्रिया), पर इस वाक्य का कोई अर्थ नहीँ बनता। चॉमस्की वाक्यविन्यास (सिन्टैक्स) और अर्थविज्ञान (सेमाण्टिक्स) मेँ अन्तर करते हुए अपने विचार रखते हैँ। ध्यातव्य है चॉमस्की का योगदान ‘फॉर्मल लैँग्वेज’ के विकास मेँ है, जो व्याकरण मेँ किसी तरह की अस्पष्टता को दूर करने के लिए कटिबद्ध है। ‘फॉर्मल लैँग्वेज’ या ‘औपचारिक भाषा’ की अवधारणा कम्प्यूटर के विकास मेँ भी योगदान देती है। चॉमस्की सार्वभौमिक व्याकरण की बात करते हैँ, जहाँ उनका मानना है कि मानव मस्तिष्क में व्याकरण की संरचना विद्यमान रहती है जैसे कि ‘देश-काल’ की अवधारणा के बिना मानव मस्तिष्क कुछ सोच नहीँ सकता। चॉमस्की मॉडल पर आधारित अर्थविज्ञान एआइ (कृत्रिम बुद्धिमता) और ‘एलएलएम’ के विकास मेँ बड़ा योगदान देते हैँ।
वाक्यविन्यास और अर्थ का सम्बन्ध कुमारिल भट्ट ‘अभिहितान्वयावाद’ मेँ कुछ इस तरह कहते हैँ कि पद अभिहित होते हैँ (अर्थात् प्रत्येक शब्द का अर्थ सङ्केतित होता है)। जब सङ्केतित अर्थवाले पद एक साथ मिलते हैँ तब बाद मेँ उनका अन्वय (आपसी सम्बन्ध या तर्कपूर्णक्रम) किया जाता है। इसीलिये इसे ‘अभिहितान्वयवाद’ की सञ्ज्ञा दी जाती है। पदसमूह को वाक्य कहा जाता है किन्तु मनमाने (उपरोक्त चॉमस्की के उदाहरण जैसे) ढङ्ग से मिले हुए पद वाक्य नहीँ बना सकते। पदसमूह के वाक्य बनने के लिए तीन शर्तेँ अपेक्षित होती हैँ – १. आकाङ्क्षा – एक पद के लिए दूसरे पद की आवश्यकता – जैसे ‘घड़ा लाओ’ मेँ ‘लाने’ पद के साथ किसी द्रव्य की आकाङ्क्षा है। २. योग्यता -जिन पदोँ से एक दूसरे से मिलने की योग्यता होती है वे शब्द वाक्य बनते हैँ। जैसे ‘आग से सीँचता है’ मेँ आग को सीँचने की योग्यता नहीँ है। जैसे कि ‘घड़ा खाओ’ वाक्य निर्रथक है। ३. सन्निधि / आसत्ति – शब्दोँ की निकटता -जैसे पर्वत खा लिया अग्निवान् है देवदत्त ने – कोई अर्थ नहीँ बनाता, पर ‘पर्वत अग्निवान् है देवदत्त ने खा लिया है’ अर्थ प्रदान करता है।
उपरोक्त सिद्धान्त मेँ विस्तार है जहाँ भाट्ट मत मेँ ‘तात्पर्य वृत्ति’ का सिद्धान्त है, उसमेँ मैँ अधिक नहीँ जाना चाहूँगा। प्राभाकार मत भाट्ट मत का प्रतिपक्षी है। प्रभाकर मिश्र भाषा की इकाई शब्द को ना मान कर ‘वाक्य’ को मानते हैँ। उनका कहना है कि भाषा व्यवहार वाक्योँ का ही होता है, शब्दोँ का नहीँ। अन्वित (अन्वय से समन्वित) पदार्थोँ (पद के अर्थ) से अभिधान (कथन) होता है। अत: प्राभाकर मत ‘अन्विताभिधानवादी’ कहलाता है।
ये मत पुनर्प्रकाशित इसलिए करना पड़ रहा है कि इसका प्रतिफलन हम जेनेरेटिव एआइ मेँ हम देख रहे हैँ। जेनेरेटिव एआइ पूर्ववर्ती सिद्धान्तोँ को पीछे छोड़ कर भाषा मेँ बहुत कुछ नया कर रहा है।
इस विवेचना मेँ ध्वनि का क्या काम?
ध्वनि का अर्थ है शब्द की अभिधा वृत्ति से परे जो अर्थ निकल रहा हो (शब्द और उससे जुड़े मुख्य अर्थ को गौण कर के नया अर्थ) वही ध्वनि है। आनन्दवर्धन ने लिखा है –
यत्रार्थ: शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृत स्वार्थौ।
व्यक्त: काव्यविशेष स ध्वनिरिति सूरिभि: कथित:।
जहाँ अर्थ स्वयं को तथा शब्द अपने अभिधेय अर्थ को गौण करके प्रतीयमान अर्थ को प्रकाशित करते हैँ, उस काव्यविशेष को विद्वानोँ ने ध्वनि कहा है।
ऐसा कब होता है कि मूल अर्थ को छोड़ कर नया अर्थ निकले? बहुत होता है जैसे कि हम कहेँ ‘रमेश गधा है’। यह लक्षणा वृत्ति है, जिसका तात्पर्य है कि रमेश भोँदू है। जब हम दफ्तर मेँ बैठे अपने सहकर्मी से कहेँ कि ‘मैँ जा रहा हूँ’, इसका अर्थ यह भी है कि अब दफ्तर का बाकी काम तुम्हारे जिम्मे है। यह व्यञ्जना वृत्ति का उदाहरण है, जो अन्य अर्थ का सङ्केत करती है। शब्दशक्ति (अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना) की मूलभूत बातेँ सभी पाठकोँ को पता होगी, यह मान कर आगे बढ़ते हैँ।
ध्वनि से ‘वाच्यार्थ’ और ‘व्यङ्ग्यार्थ’ नाम के दो अर्थ निकलते हैँ। ध्वनि सिद्धान्त से हम वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ मेँ भेद करते हैँ। भेद के प्रकार कितने शास्त्रीय हैँ, यह विचारने योग्य है। हम टीकाकार के मतोँ को शास्त्रज्ञान मेँ नहीँ गिनते। ‘ध्वन्यालोकलोचन’ के टीकाकार मेँ वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ मेँ भेद इस तरह बताते हैँ :–
१. स्वरूप भेद (कहीँ वाच्यार्थ विधिपरक होता है, किन्तु व्यङ्ग्यार्थ निषेधपरक। जैसे कि हम किसी से कहेँ कि ‘आपने बहुत उपकार किया हम पर। आप सुख से सौ साल जिएँ।‘ सम्भव है कि वाच्यार्थ मेँ जो शुभकामना है, वहीँ व्यङ्ग्यार्थ मेँ हम सामने वाले को कोस रहे होँ।)
२. काल भेद – वाच्यार्थ कारण रूप है और व्यङ्यार्थ कार्य रूप। वाच्यार्थ पहले आता है, व्यङ्ग्यार्थ बाद मेँ।
३. आश्रय भेद – वाच्यार्थ केवल वाक्य और शब्द का होता है, किन्तु व्यङ्ग्यार्थ का आश्रय शब्द, पद, पदांश, वर्ण, रचना इत्यादि कोई भी हो सकता है। यदि हम किसी से कहे ‘तुम सुन्दर और सौष्ठव शरीर के स्वामी विश्वामित्र लग रहे हो।’ यहाँ ‘विश्वामित्र’ व्यङ्ग्यार्थ का आश्रय है जो उनकी कठोरता और दृढ़सङ्कल्पता की ओर सङ्केत करता है।
४. निमित्त भेद – वाच्यार्थ केवल शब्दानुशासन (शब्दकोश के ज्ञान) से चल सकता है किन्तु व्यङ्ग्यार्थ इसके अतिरिक्त प्रकरण और प्रतिभा की निर्मलता से गृहीत होता है। जैसे यदि कोई कुछ कह कर अपनी बात का समाहार इस पङ्क्ति से करे – ‘कवि कह गया है’। इसका अर्थ ‘हताशा’, ‘दुर्बलता’ वही ले सकेगा जिसने निराला की कविता पढ़ी होगी।
५. कार्य अथवा प्रभाव भेद – वाच्यार्थ केवल प्रतीति का उत्पादक है, वहीँ व्यङ्ग्यार्थ चमत्कार को भी उत्पन्न कर सकता है। उदाहरण के लिए ‘बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले’ – इसमेँ सहृदय ही हताशा के चमत्कार को समझ सकता है।
६. सङ्ख्या भेद – प्रकरण के अनुसार व्यङ्ग्य के बहुल अर्थोँ का होना, जैसे ‘सूर्यास्त हो गया है’ का अर्थ श्रमिक यह लेगा कि ‘काम बन्द करना है’, गृहिणी यह ले सकती है कि ‘रात का खाना बनाना है’, बच्चे यह ले सकते हैँ कि ‘खेल बन्द करना है’, आदि-आदि।
७. विषय भेद – व्यङ्ग्यार्थ विषय भेद से अलग हो जाता है, जैसे कि ‘छुप जाना चाहिए’ का अर्थ प्रेम-प्रकरण से लेकर चोरी का माल छुपाने तक मेँ भिन्न हो सकता है।
इतना ही नहीँ, ध्वनि सिद्धान्त और काव्य समालोचना को आगे बढ़ाते हुए मम्मट स्थापना करते हैँ कि काव्य तीन ही तरह के हो सकते हैँ :–
१. ध्वनिकाव्य (जहाँ व्यङ्ग्यार्थ प्रधान हो, वाच्यार्थ नहीँ)
२. गुणीभूतव्यङ्ग्य (जहाँ वाच्यार्थ प्रधान हो, व्यङ्ग्यार्थ नहीँ), और
३. चित्रकाव्य (जहाँ वाच्यार्थ हो, व्यङ्ग्यार्थ हो ही नहीँ)
मम्मट ध्वनिकाव्य को उत्तम, गुणीभूत व्यङ्ग्य को मध्यम और चित्रकाव्य को ‘अधम’ काव्य कहते हैँ।
एलएलएम मॉडल मेँ जेनेरेटिव एआइ के आने से पहले ‘चित्रकाव्य’ आसानी से सृजित किए जा सकते थे। (यह बात और है की बीसवीँ सदी का उत्तरार्ध और इक्कीसवीँ सदी की हिन्दी कविता चित्रकाव्य से अधिक कुछ नहीँ।) जहाँ तक शब्द-अर्थ का सम्बन्ध वाच्यार्थ तक सम्बन्धित हो, तब तक मशीन यह काम सङ्केत और सङ्केतित के सम्बन्ध से जान सकता है। सम्बन्धित एक उदाहरण अमरीकी वैज्ञानिक गल्प फिल्म ‘अराइवल’ (Arrival -2016) मेँ देखने को मिलता है। फिल्म के कथा मेँ अंतरिक्षनिवासी बारह अंतरिक्षयान विश्व के विभिन्न जगहोँ पर भेजते हैँ। वस्तुत: वे मानवोँ से बातचीत करना चाहते हैँ, पर उनकी भाषा दूसरी है। इसके लिए मानव भाषाविद् उनके सङ्केतोँ के कूटार्थोँ को समझ कर उनकी बात दुनिया मेँ सभी को बताते हैँ।
जब तक शब्द केवल ‘सङ्केत’, ‘सङ्केतित’ तथा ‘सङ्केत-सङ्केतित’ सम्बन्ध तक सीमित है, तब तक बात कुछ आसान है। किन्तु भाषा यहाँ तक नहीँ रुकती। काव्य मेँ व्यङ्ग्यार्थ तक बात जाती है, जहाँ चीजेँ अधिक जटिल हो जाती है। लेकिन ‘जेनेरेटिव एआइ’ इसमेँ भी हस्तक्षेप कर रहे हैँ।
जेनेरेटिव एआइ के बारे मेँ मेरा जो अल्पज्ञान है, वह कुछ इस तरह से है :-
जननशील कृत्रिम बुद्धिमता (जेनेरेटिव एआइ) कृत्रिम बुद्धिमता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस – कृत्रिम बुद्धिमता) का अङ्ग है जिसमेँ ‘जेनेरेटिव मॉडल’ की सहायता से हम टेक्स्ट (पाठ्य), चित्र, वीडियो और कुछ अन्य तरह के डेटा बना सकते हैँ। जो ‘जेनेरेटिव मॉडल’ ट्रेनिंग डेटा से उसके आन्तरिक आवृत्ति (पैटर्न) और संरचना (स्ट्रक्चर) के बारे मेँ निश्चयात्मक अवधारणा बना कर नया ‘डेटा’ बना सकता है जब कोई उपयोगकर्ता उसे शब्दोँ से प्रेरित करे या तकनीकी शब्दवली मेँ ‘प्रॉम्प्ट’ से कुछ ‘कमॉण्ड’ दे। यह ‘प्रॉम्प्ट’ सरल नैसर्गिक शब्दोँ मेँ हो सकते हैँ ताकि जो सॉफ्टवेयर की तकनीकी जानकारी न भी रखता हो तब भी उसका सरलतापूर्वक प्रयोग कर सके।
जेनेरेटिव एआइ के हिन्दी रूपान्तरण हेतु मैँ ‘जननशील कृत्रिम बुद्धिमता’ करूँगा। अङ्ग्रेजी शब्द ‘जेनेरेशन’, ‘क्रिएशन’, ‘प्रोडक्शन’ के समानार्थी शब्द ‘जनन’, ‘सृजन’ और ‘उत्पादन’ मेँ अन्तर है। जनन शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘जन’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है जन्म देना। सृजन शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के ‘सृज’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है रचना करना। उत्पादन शब्द का अर्थ है ‘उत्पन्न होना’। यह शब्द ‘उत्’(ऊपर) और पाद (पैर) से बना है। इसका अर्थ किसी प्रक्रिया से प्राप्त ‘वस्तु’ के अर्थ मेँ लिया जाता है। यहाँ इन शब्दोँ के अर्थोँ को देने का कारण यह है कि एआइ किसी तरह के सृजन (क्रिएशन) का दावा नहीँ कर रहा है। वह ‘जनक’ की तरह काम कर रहा है। अब जन्मने की प्रक्रिया यह है कि जनक के स्वरूप से साम्य रखता हुआ, कुछ नूतन का प्रकाट्य जो स्वतन्त्र अस्तित्व वाला है और अपने जनक के स्वरूप से मेल खाता है। जैसे भारतीय परम्परा मेँ ‘व्यक्ति’ शब्द का मूल अर्थ है, जो पहले से विद्यमान हो उसको प्रकाशित मात्र करना। भारतीय अवधारणा मेँ सब कुछ सदैव है, वह केवल अभिव्यक्त होती है या प्रकाशित होती है। हम व्यक्ति का अर्थ अङ्ग्रेजी मेँ ‘पर्सन’ या ‘मनुष्य’ के अर्थ मेँ लेते हैँ, परन्तु हिन्दी भाषा व्यवहार इसी अवधारणा से प्रेरित है।
नोआम चॉमस्की ने सन् २०२४ मेँ कहा था कि जेनेरेटिव एआइ और ‘एलएलएम’ नकल करने के सॉफ्टवेयर हैँ जो कि ढ़ेर सारी नकल करके कुछ बनाते हैँ। यह कॉपीराइट अधिकारोँ से बचने के लिए बनाया गया है। नोआम चॉमस्की जब जेनेरेटिव एआइ को ‘नकलची’ कह कर उसकी घोर आलोचना करते हैँ, तब उनका उत्तर यही दिया जाना चाहिए कि जेनेरेटिव एआइ मेँ किसी सृजन का दावा नहीँ किया जा रहा है, बल्कि जनन की उद्धोषणा की जा रही है। वह क्या जन्म दे रहा है? वही जन्म दे सकता है जो कि सूचना रूप मेँ उसके पास उपलब्ध हो, उससे कुछ मिलता-जुलता किन्तु स्वतन्त्र अस्तित्व वाला। अब कोई यह पूछ सकता है कि मशीनी सृजन और मशीनी जनन मेँ भेद कैसा है? इस पर यह कहना है कि सृजन का अर्थ बिना किसी उपादान के अपूर्व देने की क्षमता है। उदाहरण के लिए मोनेट और वैन गॉग की कलाकृतियाँ कि उसकी आन्तरिक आवृत्तियाँ और संरचना अपूर्व हैँ। अब हमेँ पता है कि जेनेरेटिव एआइ ने अपूर्व सङ्गीत भी दिया है। हम इसे जनन कहेँगे, सृजन नहीँ। क्योँ?
समस्त भारतीय दर्शन मेँ कारणकार्यवाद पर विचार होता है। ‘पुनर्जन्म’, ‘योगसृष्टि’, ‘योगदृष्टि’ और ‘कर्मफलवाद’ की तरह ‘कारणकार्यवाद’ भारतीय दर्शन का मौलिक प्रत्यय है। जहाँ चार्वाक को छोड़ कर सभी भारतीय दर्शन ‘पुनर्जन्म’, ‘योगसृष्टि’ और कर्मफलवाद पर सभी एकमत हैँ, वहीँ ‘कारणकार्यवाद’ की अवधारणा मेँ सभी भारतीय दर्शनोँ मेँ मतभेद है।
कारणकार्य सम्बन्ध मेँ मूलभूत बात यह है कि कुछ कारण होता है और कुछ कार्य होता है। कारण पूर्व मेँ है और कार्य उत्तर मेँ है। बौद्धोँ नेँ ‘कारणकार्य’ प्रत्यय को अस्वीकार कर दिया। उनका कहना है कि कारण और कार्य सम्बन्ध नहीँ होते, यह प्रतीति एक साथ उत्पन्न होती है। आग सूखे पत्ते मेँ लगाई और पत्ता जल उठा, ऐसा देखा जाता है। लेकिन आग सूखे पत्ते के जलने का कारण है, ऐसा बौद्ध नहीँ मानते। वे कहते हैँ कि यह प्रतीत्यसमुत्पाद है। बौद्ध ‘काल’ के प्रत्यय को परमार्थिक रूप से नहीँ मानते। उनके लिए ‘क्षण’ सत्ता का प्रत्यय है। बौद्ध कहेँगे कि व्यवहार मेँ कारणकार्यभाव जैसा लगता है, उसका ग्रहण अनुमान से होता है, जिसके दो घटक हैँ -१. तदुत्पत्ति २. तादात्म्य। बीज से पेड़ बना यह तदुत्पत्ति है। वृक्ष और पत्तियोँ मेँ तादात्म्य है। हमने देखा कि आग सूखे पत्ते मेँ लगने से पत्ता जल रहा है। यह आग की तदुत्पत्ति है।
अभिनवभारती मेँ आचार्य अभिनवगुप्त कहते हैँ कि इस जगत के सभी पौर्वापर्य सम्बन्ध तीन तरह की सम्बन्ध श्रेणियोँ मेँ विश्रान्त हो सकते हेँ:-
१. ज्ञेयज्ञाता सम्बन्ध – जिससे जानना हो (ज्ञेय) और जो जानने वाला हो (ज्ञाता), उनमेँ ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञेय ज्ञान के पूर्व भी विद्यमान है और ज्ञान के उपरान्त भी। कारण (ज्ञेय) पहले भी विद्यमान था और अब भी विद्यमान है। ज्ञान (कार्य) उपादानोँ से (प्रमाणोँ से) केवल उसे (ज्ञेय को) प्रकाशित कर रहा है।
२. कारणकार्य सम्बन्ध – जो पहले कार्य विद्यमान न हो, बाद मेँ विद्यमान हो जाए। जैसे कि मिट्टी, पानी और चाक की सहायता से कुम्हार घड़ा बनाता है, यहाँ मिट्टी, पानी और चाक – उपादान कारण हैँ। वहीँ कुम्हार घड़े का निमित्त कारण है और घड़ा कार्य है। एक बार कारण समाप्त हो जाए या हट भी जाए, तब भी कार्य विद्यमान रहता है।
३. आस्वाद-आस्वादक सम्बन्ध – जहाँ प्रक्रिया मेँ जब तक कारण उपस्थित होँ तभी तक कार्य उपस्थित हो। इसका उदाहरण वे रस सिद्धान्त से देते हैँ कि बिना विभाव, अनुभाव और सञ्चारी भाव के संयोग से रस की ‘निष्पत्ति’ नहीँ होती और उनके हट जाने के बिना एकदम नहीँ होती। यानी जब तक कारण विद्यमान हैँ तब तक ही कार्य विद्यमान है।
मैँ कहना चाहूँगा कि पहला सम्बन्ध ‘ज्ञापन’ है, दूसरा ‘उत्पादन’ है और तीसरा ‘आस्वादन’ है। जेनेरेटिव एआइ ‘जनन’ कर रही है, जो उत्पादन के करीब है पर यह सृजन नहीँ। एक दृष्टि से कवि और काव्य का सृजनात्मक सम्बन्ध ‘उत्पादन’ मेँ विश्रान्त हो सकता है। मैँ आगे स्पष्ट करूँगा कि मैँ सृजन को अलग क्योँ कह रहा हूँ।
जेनेरेटिव एआइ से पहले ‘नैचुरल लैग्वेज प्रोसेसिंग’ की मुख्य उपयोगिताएँ इस प्रकार थी :-
१. आप्टिकल कैरेक्टर रिक्गनिशन – प्रिंट या छायाचित्र मेँ शब्दोँ को पहचान का कम्प्यूटर के पास शब्दोँ मेँ बदलना
२. स्पीच रिक्गनिशन – मानव के आवाज को पहचान कर कम्प्यूटर के शब्दोँ मेँ बदल देना
३. टेक्स्ट से स्पीच – शब्दोँ को मशीनी आवाज़ मेँ उच्चारण करना।
४. शब्दोँ का टोकेनाइजेशन (टोकनीकरण) – शब्दोँ को भिन्न टोकेनोँ मेँ बदल देना। जैसे वाक्य के भाग को सञ्ज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, क्रिया विशेषण, कारक आदि शब्द-भेदोँ मेँ पृथक् करना। कई बार यह केवल शब्द ही नहीँ, शब्द के भाग को विभाजित करता है जैसे अधिग्रहण को ‘अधि’ और ‘ग्रहण’ के टोकेन मेँ बाँटना। इसके आधार पर जब आप जब कोई वाक्य लिख रहे होते हैँ तो उस वाक्य को पूरा करने का सुझाव (प्रिडिक्शन) ‘नैचुरल लैँग्वेज प्रोसेसिंग’ की ही देन है, जो कि नियत सम्बन्धोँ पर आधारित पूर्वानुमान है। यह ‘मार्कोव चेन’ पर आधारित है।
अब मशीन की भाषा-प्रक्रिया के सिद्धान्त को समझते हैँ। जैसे शब्दकोश मेँ हम शब्द और उसके सम्बन्धित अर्थ की सारणी देखते हैँ, भले वह कितनी भी मोटी हो कम्प्यूटर के लिए ऐसी विस्तृत सारणी बहुत ही कम जगह लेती है। हम ध्यान से शब्दकोश को देखेँ तो उसमेँ कई जानकारियाँ होती हैँ जैसे कि शब्द का लिङ्ग (पुल्लिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग), उत्पत्ति प्रकार (तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज), वचन (एकवचन, बहुवचन) , शब्द-भेद (सञ्ज्ञा, सर्वनाम, क्रिया, विशेषण आदि) आदि। यदि हम इसी तरह की सारणी मेँ शब्द-शक्ति जोड़ते जाएँ तो हमारे पास शब्द और शब्द-युग्मोँ के लिए ध्वनि सिद्धान्त के अनुसार अभिधा (मुख्य अर्थ), लक्षणा (मुख्यार्थ बाध, मुख्यार्थसम्बन्ध और रूढ़िप्रयोजनान्यतर से निष्पन्न अर्थ) और व्यञ्जना आदि सम्बन्ध-सूची भी बनेगी। इतना ही नहीँ हम हर वाक्य के लिए व्यञ्जना सम्बन्ध बना सकते हैँ, भले ही वह अभिनवगुप्त के शब्दोँ मेँ व्यञ्जना शब्द के अनन्त अर्थोँ के अनुसन्धान की प्रक्रिया क्योँ न बन जाए! क्लाउड के जमाने मेँ कम्प्यूटर मेमोरी और प्रोसेसिंग दोनोँ की क्षमता मेँ कोई कमी नहीँ है।
जब तक जेनेरेटिव एआइ न था, तब तक शब्दकोश की विस्तृत सारणी और टोकेनाइजेशन से हम सम्बन्धोँ के आधार पर मोटा-मोटा अर्थ दूसरी भाषा के अनुवाद मेँ कर रहे थे। जैसे कि हम हिन्दी भाषा के विशाल शब्द-सारणी (जिसमेँ शब्दकोश के सारे सम्बन्ध होँ) और चीनी भाषा के विशाल शब्द-सारणी से सम्बन्ध जोड़ेँ कि पानी के लिए चीनी भाषा मेँ क्या शब्द होगा, पीने के लिए कह चीनी भाषा मेँ क्या कहेँगे? ऐसे करते हुए हम अनुवाद मेँ कुछ करीब पहुँच जाते हैँ। इसलिए ‘मेरा दिल बाग बाग हो गया’ का अनुवाद आज भी ‘माय हार्ट हैज बिकम् अ गार्डन” हो जाता है और हाइफन लगाने के बाद ‘मेरा दिल बाग-बाग हो गया’ मेँ ‘बाग-बाग’ का अर्थ दूसरी तरह से सङ्केतित हो कर ‘माय हार्ट वाज़ फिल्ड विद जॉय’ हो जा रहा है।
अब बात आती है लार्ज लैग्वेज मॉडल (एलएलएम) की। यह है क्या? यह एक तरह का ‘मशीन लर्निंग’ मॉडल है जो कि नैचुरल लैग्वेज प्रोसेसिंग के लिए पाठ्य उत्पादन (टेक्स्ट जेनेरेशन) के लिए मुख्यत: उपयोग मेँ लाया जाता है। एलएलएम का मुख्य आरूप है जेनेरेटिव प्रि-ट्रेण्ड ट्रान्सफॉर्मर (जीपीटी) है। जीपीटी अत्यधिक दस्तावेजोँ से गुजर कर सिन्टैक्स (वाक्यविन्यास), सिमैन्टिक्स (अर्थविन्यास), इन्फॉर्मेशन सायंस आण्टोलॉजी (सूचना विज्ञान सन्मीमांसा) मेँ पूर्वप्रशिक्षित (प्री-ट्रेण्ड) है। मोटे तौर पर सूचना विज्ञान सन्मीमांसा से हम सांस्कृतिक सन्दर्भ, दृष्टिकोण, व्यञ्जना, शब्द-अर्थ सारणी, मुहावरा सारणी, लोकोक्ति सारणी के जटिल संरचना समाहित कर सकते हैँ। इस तरह की मॉडल ट्रेनिंग मेँ बहुत खर्च आता है। गूगल ने ‘जेमेनी अल्ट्रा’ को प्रशिक्षित करने के लिए १९१ मिलियन यानी करीबन २० करोड़ डॉलर खर्च किए हैँ।
जेनेरेटिव एआइ ध्वन्याकार और वैयाकरणोँ की तरह केवल पूर्वनिर्धारित कोटियोँ के सम्बन्ध से नहीँ काम करता। बल्कि वह फॉर्मल लॉजिक की अवधारणा से प्रेरित हो कर सम्भाव्यता से चलता है। भाषा की आन्तरिक संरचना के लिए एलएलएम नये सम्बन्धोँ की कोटियाँ बना सकता है, जिसका अर्थ हम शायद न लगा सकेँ, किन्तु मशीन के लिए वह आवृत्ति और जटिल सम्बन्ध एक नए तरह से प्रेरित करता है जोकि सम्भव है कि सही न भी हो।
सन्मीमांसा कुछ और नहीँ सत्+मीमांसा है, यानी जो है उसका अनुसंधान। ध्वनि सिद्धान्त के दो प्रतिदर्श बनाए जाएँ तो अभिहितान्वयवाद के मॉडल मेँ ‘तात्पर्य वृत्ति’ की अलग कोटि बनानी होगी। प्राभाकर मत वाले कहते कि यह प्रतिदर्श (मॉडल) बहुत काम नहीँ कर रहा है। आप वाक्य को इकाई बनाइए, ‘तात्पर्य वृत्ति’ की कोटि की आवश्यकता नहीँ पड़ेगी।
उसी तरह मम्मट के अनुसार हम वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ की कोटियाँ बना सकते हैँ, ध्वनि काव्य और गुणीभूत व्यङ्ग्य की बहुतेरी कोटियाँ बना सकते हैँ। यह सभी ‘सूचना विज्ञान सन्मीमांसा’ का अङ्ग होँगी। किन्तु यह कोटियाँ निरर्थक नहीँ है, अपितु निश्चित अर्थात्मक आधार से बनी है। एलएलएम के लिए यह बाध्यता शायद नहीँ है। वह अपने अनुसार नई-नई कोटियाँ भी बना सकता है जिससे उसका काम आसान हो।
जेनेरेटिव एआइ प्राकृतिक भाषाओँ को लेकर निम्न प्रमुख कार्य करता है, लेकिन वे सभी ‘एलएलएम’ के अन्दर से नहीँ आते: –
१. भाव अनुसंधान (सेण्टिमेण्ट अनालिसिस)- सोशल मीडिया पर लाखोँ टिप्पणियोँ को पढ़ कर ‘अच्छा’, ‘बुरा’ या ‘निष्पक्ष’ जैसी कोटियोँ मेँ डालना। यह काम जेनेरेटिव एआइ करते हैँ लेकिन एलएलएम इसके लिए नहीँ बना है।
२. नाम-उत्पाद पहचान (नेम-इण्टिटी रिक्गनिशन) – सन्दर्भोँ से नाम और सम्बन्धित उत्पाद आदि की जानकारी लेना। यह मार्केटिंग मेँ और डेटा अनालिसिस मेँ प्रयोग की जाती है, पर यह एलएलएल या जीपीटी का काम नहीँ है।
३. सूचनाओँ का सार देना – प्रशिक्षित डेटा पर या अंतरजाल पर उपलब्ध सूचनाओँ का सरल भाषा मेँ सार देना। (यह एलएलएम के जीपीटी का मुख्य कार्य है)
४. निर्देश के अनुसार छायाचित्र या विडियो आदि का उत्पादन – इसके लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित एलएलएम काम लिए जाते हैँ।
५. विषय निर्धारण (टॉपिक मॉडलिंग)- बहुत बड़े दस्तावेज पढ़ कर मुख्य विषयोँ (थीम) का निर्धारण करना। (यह भी जीपीटी का मुख्य कार्य है)
जेनेरेटिव एआइ के एलएलएम का जीपीटी (चैटजीपीटी, डीपसीक, ग्रोक आदि) भाषा-व्यवहार मेँ क्या-क्या कर सकता है?
१. आपके लिए बहुत सारी सूचनाओँ का सार सरल भाषा मेँ दे सकता है।
२. आपके निर्देश पर पत्र लिख सकता है।
३. आपके लिए कविता-कहानी लिख सकता है। (बहुत से एलएलएम चित्र और वीडियो बनाने मेँ सिद्धहस्त हैँ। लेकिन जीपीटी का यह मुख्य कार्य नहीँ है।)
४. किसी पाठ्य की अशुद्ध वर्तनियाँ ठीक कर सकता है।
हमेँ याद रखना चाहिए कि एलएलएम की बहुत सी प्रक्रियाएँ ‘नियम आधारित’ न होकर ‘सम्भाव्यता आधारित पूर्वानुमान’ पर चलती हैँ, जैसे कि अधूरा वाक्य पूरा करना। लाखोँ-करोड़ोँ दस्तावेजोँ को ‘क्लाउड’ पर सुरक्षित रखना और उनकी जटिल नेटवर्क (जैसे कि न्यूरल नेटवर्क मॉडल आदि) संरचना से जीपीटी हमेँ बहुत कुछ उँगलियोँ पर दे सकता है। उदाहरण के तौर पर हम इक्कीसवीँ सदी मेँ हिन्दी के मुख्य साहित्यकार और उनकी रचनाओँ का सार पूछ सकते हैँ। हम ‘विनोद कुमार शुक्ल’ की ढेर सारी रचनाओँ को पढ़ कर आन्तरिक आवृत्ति, संरचना और ध्वनि के आधार पर नयी कविता जन सकते हैँ। पूर्व सूचनाओँ के आधार पर हम यह मान सकते हैँ कि विनोद कुमार शुक्ल कभी ‘वीर रस’ की ओजपूर्ण रचना नहीँ करेँगे। न हीँ वे कभी रौद्र रस से भरपूर गाली-गलौज करने वाले हैँ। कुँवर नारायण के साहित्य से वीभत्स अनुपस्थित है, आदि अवधारणाओँ से हम ‘विषय सूची’ निर्धारण कर सकते हैँ। इसी तरह साङ्ख्यिक प्रतिदर्शोँ पर पूर्वानुमान जनित पाठ्य का उत्पादन करते हैँ।
मशीनी साङ्ख्यिक प्रतिदर्श (मॉडल) से जो अनुमानित किया जा रहा है, उसे मैँ पूर्वानुमान कहना चाहूँगा अनुमान नहीँ। भारतीय परम्परा मेँ अनुमान एक तकनीकी शब्द है जो व्याप्ति पर आधारित है।
मैँ यह नहीँ जानता कि सूचना प्रौद्योगिकी सन्मीमांसा मेँ जितने भाषाविद् लगे हैँ, उनमेँ से कितनोँ ने ध्वनि सिद्धान्त पढ़ा है या उसका अनुकरण कर रहे हैँ। लेकिन मैँ यह विचारता हूँ कि यह ध्वनि सिद्धान्त की मुख्य कोटियाँ वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ की अनदेखी नहीँ कर रहा, बल्कि अनजाने मेँ उनकी कोटियोँ और भेदोँ को समृद्ध करता जा रहा है। यह हिन्दी के भाषा वैज्ञानिकोँ के लिए शोध का विषय होना चाहिए।
मूल मेँ ध्वनि सिद्धान्त यही है कि शब्द शक्ति तीन प्रकार की होती है- १. अभिधा २. लक्षणा ३. व्यञ्जना। अभिधा के लिए शब्दकोश पर्याप्त है। लक्षणा के लिए शब्दकोश के साथ-साथ उपलब्ध टेक्स्ट जो कि पद की कोटि (श्रेणी) तय करे या नए तरह के सम्बन्ध और श्रेणियाँ बनाए। व्यञ्जना के लिए सांस्कृतिक सन्दर्भ, शब्द के बहुल अर्थ, कथन सन्दर्भ, दृष्टिकोण, उपलब्ध पाठ्य आदि भी जो कि विपुलता मेँ होँ।
इस तरह शब्द और अर्थ का युग्म वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ की कोटियाँ बनाएगा। वाच्यार्थ और व्यङ्ग्यार्थ की कोटियोँ मेँ प्रधानता और अप्रधानता सम्भाव्यता से निर्धारित की जा सकेगी, पुरानी संरचनाओँ के आधार पर।
हिन्दी अकादमिक जगत के समस्त शोध को, साहित्य पर की गई समस्त प्रकाशित आलोचना को, समस्त पूर्ववर्ती साहित्य को डिजिटाइज कर के हम एलएलएम पर डाल देँ, उस समय हमेँ किसी भी प्रतिष्ठित साहित्यकार की रचना पर पूर्ववर्ती रचना के प्रभाव, भाषा-वर्तनी की शुद्धियाँ, शब्द के उत्पत्तिमूलक भेद से उनकी आवृत्ति, मुख्य विषय, साहित्यकर्म पर की गई आलोचना बिन्दुएँ चुटकियोँ मेँ जान लेँगे। हम तुलसीदास और केशवदास का तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैँ।
विद्यार्थियोँ के शोध जीपीटी से बनेँगे। उसकी जाँच भी जीपीटी से होगी कि नकल कितना है और असल कितना है। विचारणीय यह है कि बच क्या जाएगा? यह निश्चित है कि जीपीटी पढ़ने और सीखने के लिए नहीँ है। वर्तनी, उच्चारण और भाषा के सन्दर्भोँ के अधिगम जब तक चेतना मेँ विश्रान्त न हो, तब तक कैसा ज्ञान? जीपीटी से खतरा पत्रकारोँ, कवियोँ और कथाकारोँ को लग रहा होगा।
मेरा कहना है कि जीपीटी ‘जनन’ या ‘उत्पादन’ ही कर सकता है सृजन नहीँ।
आचार्य मम्मट काव्यप्रकाश मेँ कहते हैँ : –
शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भव॥
(कारिका ३, प्रथम उल्लास, काव्यप्रकाश)
शक्ति, लोकशास्त्र काव्य इत्यादि के अवेक्षण से निपुणता और काव्य के ज्ञाता की शिक्षा के अभ्यास यह उसके उद्भव मेँ हेतु है।
सभी टीकाकारोँ ने शक्ति को प्रतिभा, लोकशास्त्र काव्य से निपुणता को व्युत्पत्ति और अभ्यास – यही तीन हेतु माने हैँ।
मैँ कहना चाहूँगा कि मशीन व्युत्पत्ति और अभ्यास मेँ मनुष्य को बहुत पीछे छोड़ सकता है किन्तु प्रतिभा उसके पास नहीँ है। प्रश्न है कि प्रतिभा या शक्ति से क्या आशय है? काश्मीर शैव दर्शन के ख्यातिलब्ध अध्येता डॉ. नवजीवन रस्तोगी लिखते हैँ आचार्य अभिनवगुप्त ने अभिनवभारती मेँ रस व्यञ्जना, काव्य-सर्जना या अपूर्व अर्थ के निर्माण की शक्ति को प्रतिभा कहा है। प्रतिभा का स्वरूप है – प्रतिभान – भान को प्रतिभासित करना। केवल भासित कर सकने की क्षमता ही नहीँ, भासित को भावन कर सकने की क्षमता भी प्रतिभा है। ‘घड़ा दिखाई पड़ता है’ इसका सम्बन्ध विषय से है, परन्तु यह वाक्य तबतक सार्थकतया बोधगम्य नहीँ होता जब तक कि ‘घड़ा मुझे दीखता है या मुझे भासित होता है’ इस रूप मेँ प्रमातृविश्रान्त हो कर भासित नहीँ होता। काव्यानुभूति के क्षेत्र मेँ प्रतिभा का अर्थ है कि बिना बाह्य उपादान के काव्य-सर्जना और रस-संवेदना का भावन-सामर्थ्य।
यशदेव शल्य जैसे कई दार्शनिक कारयित्री प्रतिभा का अर्थ विना किसी क्रम के सृजनात्मक शक्ति से लेते हैँ। प्रतिभा एक विस्फोट की तरह है जिसमेँ क्या आएगा कहना कठिन है। यहाँ कहना चाहूँगा कि मानवोँ मेँ भावयित्री प्रतिभा अपने भावन-प्रक्रिया के लिए रस सिद्धान्त, ध्वनि सिद्धान्त, अलङ्कार आदि की चर्चा कर सकता है, किन्तु यह कारयित्री प्रतिभा को सञ्चालित कर सके यह कहना मुश्किल है। हम कालिदास की तमाम कृतियोँ को पढ़ कर उन जैसा एक श्लोक लिख देँ यह कठिन है, लेकिन जेनेरेटिव एआइ हमारी प्रतिभा की अवधारणा को चुनौती देता है। वह कहेगा देखो प्रतिभा मेँ भी काल-क्रम है और वह मिलीसेकेण्ड या नैनोसेकेण्ड का है, जैसे कम्प्यूटर की प्रोसिसिंग क्षमता है, उसी तरह का है।
मैँ यहाँ कहना चाहूँगा कि कला (सङ्गीत, स्थापत्य, नृत्य) आदि अर्थ व्यापारोँ मेँ भी मशीन मनुष्योँ से बेहतर अभ्यास कर लेगी, लेकिन मशीन अपूर्व अर्थ नहीँ दे सकती। यहाँ तक कि नए सङ्गीत मेँ भी यह नहीँ हो सकता है। वे पुराने अर्थोँ को लिपटा कर-तोड़ मरोड़ कर पेश कर सकते हैँ पर नया अर्थ उत्पन्न नहीँ हो सकता है। यह विचारणीय है कि क्या वह अर्थ ऐसा होगा कि सूखी लकड़ी मेँ आग की तरह समूचे चित्त व्याप्त हो जाए, जो कि रस की अवधारणा मेँ मौलिक आग्रह है? क्या जेनेरेटिव एआइ भाव की सघनता और मूल्यपरकता दोनोँ एक साथ दे पाएगा? मैँ समझता हूँ यह जड़ात्मक मशीन के लिए सम्भव नहीँ है।
एक प्रमुख उदाहरण हम शेक्सपियर का ले सकते हैँ जहाँ अङ्ग्रेजी भाषा को कई नए शब्द दिए जैसे कि लोनली, क्रिटिक, मैनेजर, फैशनेबल, स्टार क्रॉस्ड लवर आदि। शब्द की रचना ‘पौरुषेय’ है और लोक उसका वृत्त है। जेनेरेटिव एआइ नए शब्द की रचना करके उसे लोक मेँ प्रतिष्ठित कर पाएगा, इसमेँ संदेह है।
थोड़ा और गहरे उतरेँ तो आचार्य अभिनवगुप्त आस्वादगत कलानुभूतिगत सोपान मेँ अन्तिम सोपान ‘परिस्फटुभावनानिष्पत्ति’ मेँ मूल्यबोध आवश्यक मानते हैँ।
अब हमेँ कुछ बातेँ स्पष्ट तौर पर समझनी चाहिए। भारतीय परम्परा मेँ साङ्ख्य आदि धाराओँ मेँ बुद्धि को जड़ ही मानते हैँ। काश्मीर शैवदर्शन के कुछ भी जड़ नहीँ है, हर कुछ चेतना है। उनके अनुसार जो कुछ जड़ है, वह जड़ात्मक समझना चाहिए।
हमारे विमर्श के लिए मशीन जड़ है (या कहेँ जड़ात्मक है) और बुद्धि के निश्चयन का कार्य वह मनुष्य से अपेक्षाकृत बेहतर कर सकता है। किन्तु जड़ात्मक मशीन मेँ संवेदना नहीँ है और मूल्य नहीँ है। मूल्य ही मनुष्य को पशु से अलग करते हैँ। मूल्य का अर्थ है ‘श्रेय की अवधारणा’। हमारी इच्छा कुछ पाने की या कुछ हासिल करने की है, किन्तु विवेक उसे नियन्त्रित करता है। यह नियन्त्रण अनेक स्तरोँ पर काम करता है, जिसे हम मूल्य कहते हैँ। हमारे मूल्य हैँ – १.स्वतंत्रता २. सत्य ३. शान्ति ४. सौहार्द आदि-आदि।
अब कहेँगे तकनीकी प्रौद्योगिकी मेँ ‘टॉपिक मॉडलिंग’ से मूल्योँ का विषय निर्धारण किया जा सकता है। यह कहना ठीक है। बिल्कुल किया जा सकता है। लेकिन कौन से मूल्य श्रेय हैँ और कौन से हेय, क्या प्रिय और क्या अप्रिय है- यह केवल उपलब्ध डेटा पर मॉडल की जा सकती है। इसका तात्त्विक विचार जड़ मेँ नहीँ, चेतन मेँ सम्भव है।
पुरानी सूचना के आधार पर जेनेरेटिव एआइ आपको बचपन मेँ कार्टून, कुछ बड़े होने पर खेल, कुछ और बड़े होने पर रोमांस, कुछ और उम्र के बाद राजनीति और बुढ़ापे मेँ अध्यात्म का मॉडल चला सकता है, आपकी रुचियोँ के अनुसार फिल्मेँ सुझा सकता है, सम्बन्धित नया भी बता सकता है, यह सब कर सकता है लेकिन आपके भीतर के अचानक जागरण को नहीँ पहचान सकता है। स्तम्भन, मोहन, विद्वेषण और उच्चाटन आदि अभिचार भले तंत्र मेँ होँ, परन्तु दैनन्दिन जीवन मेँ हम ऐसा प्रॉम्प्ट नहीँ डालेँगे कि मेरा जी उचट गया है मुझे कोई कविता सुनाओ। ऐसा करने पर बड़ी जल्दी हम ऊब जाएँगे क्योँकि उसका इलाज अयाचित की प्राप्ति यानी ‘मोद’ से है। नैतिक ऊहापोह और किंकर्त्तव्यविमूढ़ की स्थिति का अधिकार केवल और केवल मानव-चेतना को है। श्रेय का निर्णय आत्मपरिष्कार से सम्भव है। यह जड़ात्मक बुद्धि से सम्भव नहीँ है।
आप जीपीटी से यह निर्धारित नहीँ कर सकते कि ‘निराला’ का काव्य श्रेष्ठ है या ‘रघुवीर सहाय’ का। अगर वह बताता भी है तो पूर्व-सूचनाओँ के आधार पर। मेरा मानना है कि किसके लिए क्या मूल्यवान् है, यह निर्णय का अधिकार चेतन तक सीमित है।
जेनेरेटिव एआइ बहुत उपयोगी होगा इसमेँ कोई सन्देह नहीँ। पर यह हमारे काव्य और काव्यानुभूति का स्थान नहीँ ले पाएगा। यह कुछ-कुछ हमारे देवताओँ जैसा है जो मनवाञ्छित फल देँगे, किन्तु उससे अधिक उनकी उपयोगिता नहीँ। हमेँ भोग मेँ लिप्त रखेँगे किन्तु श्रेय का मार्ग नहीँ बताएँगे। मोक्ष के लिए हमेँ चेतन की शरण मेँ जाना पड़ेगा। मम्मट के अनुसार काव्य का प्रयोजन ‘शिवेतरक्षय’, ‘पराशान्ति’, और ‘कान्तासम्मित उपदेश’ जेनेरेटिव एआइ नहीँ सिद्ध कर सकता है। क्योँकि शिवेतर
इसी प्रसङ्ग मेँ नल-दमयन्ती की कथा याद आती है। देवतागण दमयन्ती से विवाह करना चाहते थे, इसलिए नल का रूप धारण कर नल के साथ ही दमयन्ती के स्वयंवर मेँ उपस्थित हो गए। दमयन्ती सोच मेँ पड़ गयी कि वरमाला किसके गले मेँ डाले, कौन उसका प्रिय वास्त्विक नल है। उसे याद आया कि देवता पलक नहीँ झपकाते और वह नल को पहचान का उसके गले मेँ वरमाला डाल देती है।
मम्मट से आचार्य विश्वनाथ का विरोध ठीक ही जान पड़ता है। मानुसिक कवि अपने गुण के साथ अपने दोषोँ से भी पहचान लिए जाएँगे। जेनेरेटिव एआइ गुणों की नकल तो कर लेँ, पर नित नए गुण और नित नए दोष वाले कवियोँ की नकल शायद न कर पाए। यह भी सम्भव है इसका प्रयोग राजनैतिक प्रतिबद्धता के लिए कुछ विशिष्ट प्रकार के मूल्योँ के लिए प्रशिक्षित किया जाए।
अन्तत: मूल्यान्वेषणा चेतन का काम है। जेनेरेटिव एआइ हमारी सहायता कर सकेगा, किन्तु कुछ दूर तक ही।
इति श्री
वैशाख कृष्ण पञ्चमी, संवत् २०८२