जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अम्बर पाण्डेय का उपन्यास ‘मतलब हिंदू’ जब से प्रकाशित हुआ है तभी से इसको लेकर चर्चा हो रही है। कोई इस भाषा पर मुग्ध है कोई कथानक पर, कोई कह रहा है कि इसका टोन हिन्दुवादी है तो कोई कह रहा है इसमें हिंदू धर्म की आलोचना अधिक हो गई है। कोई कह रहा है इस उपन्यास में महात्मा गांधी हैं तो लेकिन महज एक पुतले की तरह तो कोई कह रहा है कि यह गांधी और उनके वाद से क्षमा माँगता उपन्यास है। आइये आज पढ़ते हैं वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास कवि-लेखक यतीश कुमार की टिप्पणी- मॉडरेटर 

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कुछ किताबें पहले पन्ने से खुलती हैं, कुछ थोड़ी देर से। इस किताब के शुरुआती पन्नों को पढ़ते हुए लगा जैसे स्लो मोशन में खिलते फूल को देख रहा हूँ। शुरुआत में ही पढ़ते हुए `शुद्धता’ और `स्वच्छता’ के शाब्दिक गणित में उलझ गया हूँ, पर आगे बढ़ते ही इसका आशय खुलता जाता है।

भाषा आपको समय के उस देस में ले जाती है, जिसकी पृष्ठभूमि में यह उपन्यास बुना गया है। यहाँ इस उपन्यास का फलक 1893 से 1915 यानी इक्कीस साल का है। मतलब गाँधी के साउथ अफ्रीका जाने और उनके लौटने के बीच की गाथा है यह, परन्तु इस त्रयी उपन्यास के पहले खंड का नायक गाँधी नहीं गोवर्धन है। 

समय को दर्ज करते हुए इतिहास की बहुत ज़्यादा व्याख्या ना करते हुए भी समय को पकड़ कर रखा गया है। पढ़ते हुए आप महसूस करेंगे यहाँ दर्शन के बोल हर दो-तीन पन्नों के बाद बार-बार तीव्र हो उठते हैं, जिसे पढ़ते हुए थोड़ी बहुत ‘कितने पाकिस्तान’ की याद आ जाती है। बीच-बीच में अप्रत्याशित रूपक और उपमाएँ भी ऐसी आती हैं, जो आपको आश्चर्य से भर देगी, जैसे ‘आँखों का मूतना’ या कुमुद के स्पर्श को ‘वर्षा के पश्चात् चट्टान की भाँति शीतल लगने’ जैसा बताना। यहाँ किसी के आने और जाने का विवरण भी बहुत सूक्ष्म विश्लेषण के तौर पर मिलेगा। यहाँ तक कि रसोइया महाराज जब बारिस्टर के जाने की बात करते हुए सीढ़ियों से उतर रहा है, तो उसकी धोती की छोर कितनी पंकिल है, उसे भी दर्ज किया गया है। अब आप कल्पना कर सकते हैं बाकी अहम किरदारों के आने-जाने का विवरण कैसा होगा। वृतांत की बारीकी का ऐसा ख़्याल रखा गया है कि बुआ के आचमन विधि को पढ़कर उस विधि को गूगल में ढूँढने का मन करने लगा।

इस किताब में चाय भी एक किरदार की तरह ही है। भारत में कैसे चाय पीने का संस्कार व्याप्त हुआ, यहाँ तक कि बा के द्वारा चाय के मसाले के प्रयोग और फिर उसके उपयोग पर चर्चा तक है। बुखार में दूध की पट्टी रखने का रिवाज़ पहली बार जान रहा हूँ इसे पढ़ते हुए। समय को पकड़ कर प्रस्तुत करने के लिए बातचीत के माध्यम से कई संदर्भ समानांतर चलते रहते हैं, चाहे आचार्य जदुनाथ ब्रजरतन जी महाराज का ही संदर्भ हो या करसन दास का, जिनके ऊपर हाल में ही नेटफ़्लिक्स पर `महाराज’ फ़िल्म आयी थी। इस किताब को पढ़ते हुए आप क्लासिक किताबों की एक लंबी फ़ेहरिस्त बना सकते हैं, जिसके छोटे-छोटे विवरण आपको साथ-साथ पढ़ने को मिलेंगे। इस किताब में रह-रह कर की गयी दार्शनिक बातों की पंक्तियों को अलग से लिख कर सहेजा जा सकता है, जो इस किताब का एक महत्वपूर्ण और उपयोगी पक्ष है। 

दृश्यों की तरह हर पैराग्राफ रचा गया है और हर दृश्य की समुचित व्याख्या है, कुछ भी ऐसा नहीं लिखा गया है, जिसमें जल्दीबाजी की छाँव प्रतीत हो, उल्टा समय ठहरा हुआ ही प्रतीत होता है। दृश्यों और परिदृश्यों की बारीकी को यूँ रचा गया है कि पाठक को लगे जैसे यह उसके सामने ही घट रहा है। इसी संदर्भ में गाँधी जी का सीढ़ी चढ़ते समय असंतुलित होकर गिरने का दृश्य है, जिसमें आप ढीले जूते को उड़ते देखेंगे और फिर टोपी, स्वर्ण घड़ी सब कुछ इनके शरीर के लहराने के साथ-साथ लहराते हुए दिखेंगे। चुहिया की भाँति गठिया कुतरना या चलते हुए वो ऐसे लँगड़ा रहे थे जैसे जूता काट रहा हो, जैसी व्याख्याएँ दृश्यों को सजीव करने में मदद करती हैं।

किसी मोड़ पर अटके समय के बादल के फाहों को शब्दों की टहनी के इशारे से उड़ाना आसान नहीं। लेखक की यह कोशिश सराहनीय है। वह उन बादलों से वैसी ही आकृति पैदा कर रहा है, जो समय की अनुगूँज में दबी रह गयी थी, जो अब वह इस उपन्यास के माध्यम से चलचित्र बन कर उभर रही है। पलंग की सुंदर विस्तृत संस्मरणीय व्याख्या करते हुए अचानक अन्नपूर्णा के देहांत का अप्रत्याशित जिक्र बिजली के झटके से कम नहीं । आगे चलकर एक बार फिर महाराज के बुखार और दूध की पट्टी का ज़िक्र करते हुए अचानक फिर गोबरगौरी यानी अन्नपूर्णा की मृत्यु की बात होती है तो मन खटकता है, पठनीयता में थोड़ी बेचैनी घुल जाती है। एक पाठक सोचने लगता है ऐसे विषयांतर करना कितना सही है, पर खैर अभी मैं विशुद्ध पाठक ही बने रहना चाहता हूँ। आलोचना का भी समय आयेगा। यह संशय आगे जाकर प्लेग फैलने के विवरण पर ख़त्म होता है।

कुछ पंक्तियाँ ऐसी आती हैं, जो धूप की किरणों के समान प्रतीत होती हैं, जो विघ्नता रूपी बादल को पठनीयता के राह से उड़ा देती हैं। उदाहरण के तौर पर इस अंश को लीजिए:-

“समय जो घटनाओं की फाँक पर फाँक रखता जाता और कन्धे जिसके भार से झुकते जाते हैं, गोबरगौरी की मृत्यु से वह फाँके बिखर गयीं। मेरा कालबोध नष्ट हो गया।” ऐसी पंक्तियाँ पठनीयता में आये विघ्न पर मलहम से कम नहीं। फिर थोड़ी देर में यह पढ़ना कि “कागज़ के अलावा मृत्यु का अर्थ मुझे कहीं प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि केवल काग़ज़ पर मृत्यु शब्द लिख देने से मृत्यु भी उतनी ही वायवीय लगती है, जितना लिखा हुआ प्रेम या पवन”। इन पंक्तियों को पढ़ते ही लेखक का नेपथ्य में छिपा कवि पक्ष सामने आ जाता है और किताब का सबसे सुंदर पक्ष, जो है ‘दर्शन’, प्रबल हो उठता है। पढ़ते हुए अचानक मुझे अरुण देव के काव्य संग्रह`मृत्यु‘ की भी याद आ जाती है। पढ़ते हुए एक पाठक को महसूस होता है कि दीवार पर मृत्यु के पश्चात पहिया बना देने के प्रचलन के पीछे भी छिपा संदेश “जीवन चलने का नाम” ही तो है। 

“उनके शवों को किसी वाटिका में रखकर उन्हें एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तित होते भी मैं उन्हें उतने ही प्रेम से देख सकता हूँ जितने प्रेम से मैंने गोबरगौरी को किशोर से युवा या पिता जी को युवा से प्रौढ़ होते देखा था“। पेज नंबर 55 पर लिखी ये बातें जैसे घोर एकांत में मोक्ष और जीवन के बीच टहलते साधु के मन की बातें हों। जीवन और मृत्यु की एकमयता में दिव्यता ढूँढने को निकला लेखक, ऐसी पंक्तियाँ लिख देता है, जिसमें अध्यात्म और दर्शन दोनों हैं। किताब यहाँ पर आपसे थोड़े विश्राम, चिंतन और मनन की माँग करती है और मैंने ऐसा ही किया।

उपन्यास, संसार, संसार में प्रेम और मृत्यु के बाद भी प्रेम की अमरता पर अपनी बात रखता है। पत्नी अन्नपूर्णा की मृत्यु के उपरांत देह और आत्मा के बीच के संवाद आपके पढ़ने की गति को और धीमा कर देंगे और फिर पंक्तियों में विद्यमान भाव की गहनता की पकड़ आप पर हावी होने लगेगी। उन आत्मसंवादों में जीवन दर्शन का प्रवाह इतना गहरा है कि उन्हें पकड़ने के लिए आत्मचिंतन की लंबी डुबकी लगानी पड़ती है और फिर पाठक ख़ुद को कहीं दूर समंदर में आप्लावित पाते हैं। हाथ में कितना आ पाता है इस पर भी चिंतन करना जरूर है। उदाहरण के तौर पर इसे पढ़िए

 “ बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु दूसरी पर निर्भर है। यदि मैं बत्ती बना लूँ, तेल भर दूँ, और अच्छी-सी चिमनी की भाँति पिता जी और गोबरगौरी के संसारों का पुनर्निर्माण कर दूँ तब उनकी चेतना की ज्योति क्यों नहीं इसमें आलोकित होगी!” या फिर “कोलाहल जीवन को पकड़े रखने की रस्सी है जिससे हम जीवन भर लटके रहते हैं, कोई मर जाता है तो जोर-जोर से रोते-चीखते हैं जब तक मनुष्य रहता है तब तक कोलाहल करता रहता है”। ये सारी पक्तियाँ आप के चिंतन का दाना पानी ही तो हैं।

कई किताबों का जिक्र है जो विषयानुसार सोच विचार कर डाला गया है। यह लेखक की स्वयं की पठनीयता और रेंज को भी दर्शाता है। एक जगह टॉमस हार्डी का उपन्यास ‘जूड द अब्स्क्यर’ के जिक्र में किताब का दाम से लेकर उसे किस एहतियात के साथ भारत लाया गया इत्यादि को भी बताया गया है। इन किताबों में दरअसल नायक ख़ुद को ढूँढता रहता है और उसी ढूँढ़ की कहानी है यह उपन्यास।

शादी के बाद गोवर्धन का यह मानना कि उसकी पत्नी अन्नपूर्णा उसे परमेश्वर माने परिवेश के उस असर को दर्शा रहा है जो मानुष के भीतर पुरुष तत्त्व की बढ़ोतरी करता है। गोवर्धन और गोबरगौरी के बीच पुरुष तत्व का राक्षसी रूप और स्त्री तत्व की मौन ढाल का जो मर्दन करते हुए किया गया सारा विवरण है, वह कम शब्दों में कितना कुछ कहता है। इन दो तत्वों के घर्षण में स्मृतियाँ सर्पों के हज़ारों लहराते सिर की तरह रह-रह कर फन फैला लेती हैं। अंत में मनोदशा और मनोविज्ञान दोनों का विवरण और चित्रण आपको और चिंता और फिर चिंतन की स्थित में डाल देता है।

लेखक ने व्यंजनों के अनेक प्रकार और उसके साथ ही कई बार उसके बनाने की विधि तक को भी लिखा है। यह उस समय के ख़ान-पान से पाठक का परिचय भी करवाता है, साथ ही लेखक की इस क्षेत्र में रुचि और पकड़ को भी दर्शाता है। बारीकी का आलम यह है कि एक जगह अनारसा में खसखस के न डालने से स्वाद में आए असर तक को यहाँ चिह्नित किया गया है। चन्दन की लकड़ी की विभिन्नता और अलग-अलग सुगंध पर भी बात मिलेगी पढ़ने को। एक जगह जिक्र है गोवर्धन ऑफिस में एक बिधवा को रुपये इस बात के लिए देता था कि कोई निचली जाती का घड़े से पानी न पी ले। यह सिर्फ नायक की मनःस्थिति का विवरण नहीं बल्कि समय की सोच का आईना भी प्रस्तुत करता है। उस समय एक सामान्य जन मानस की विचारधारा में कैसा बदलाव आ रहा था और धार्मिक असहिष्णुता कैसे धीरे-धीरे अलाव की शक्ल ले रही थी,उसे भी समझने-समझाने के लिए यह उपन्यास एक कड़ी का काम कर रहा है। तिलक और गोखले के बारे में  उस समय आम धारणा में कैसी विडमनात्मक सोच थी इन सब पर यहाँ प्रकाश डाला गया है। 

उपन्यास में चिमनी को गैसबत्ती में बदलते हुए देखते समय आपको एहसास होगा कि इसे समय को डेग भरने की तरह देखा जा सकता है और किरदारों में आए बदलाव की तरह भी, जैसे बा का उपन्यास पढ़ने के लिए ख़ुद को तैयार करना। गोवर्धन के भीतर आते बदलाव को भी और बुआ की सोच में आए बदलाव को भी! बुआ का  बिस्किट के प्रति आकृष्ट होने से लेकर मिशनरी अस्पताल में नौकरी करने का कदम जिसके पीछे मानव सेवा भाव रहा, से लेकर अंत में परिस्थितिवश धर्म बदल लेने की घटना, यह सब असल में बदलते समय विचार और परिस्थिति का प्रतिबिंब ही तो है।

बारिस्टर गांधी का छोड़ा हुआ कमरा भी इस उपन्यास का एक किरदार ही है, बारिस्टर यहाँ भाण्ड धोते थे कि पुनरावृत्ति का गुंजन पूरी किताब में चलता है। स्मृतियों के साथ वर्तमान और फिर समय-समय पर होते देह जोत के किस्से जो देखते-देखते मन जोत के किस्से बन जाते हैं, एक अलग अध्याय की तरह है, हालाँकि हिस्से को टुकड़ों में बयान किया गया है। देह और मन की गुत्थम-गुत्थी पुरे उपन्यास में शरीर की नसों की तरह फैली मिलेंगी। उपन्यास इस विषय से साँस लेता नज़र आयेगा। आधे रास्ते पढ़ते हुए रुक गया और सोचने लगा कैसा किरदार है यह गोवर्धन। प्रेम, स्मृति और देह तीनों को छोड़ने को तैयार नहीं। पढ़ते हुए मैं ख़ुद सोचने लग गया कि क्या देह मर्दन भी समय की पहचान है, जिसे समाज के बेहद पेचीदे मसले की तरह रखा गया है, जो बदलते देश की सीमा के साथ भी नहीं बदल रहा है। नैतिकता एकनिष्ठता सब नदी में फूल की तरह बहते दिख रहे हैं। अंगों की व्याख्या पठनीयता के क्रम पर हमला कर रही है। इस किरदार के गिरेबान में झाँकने से भी घबराहट हो रही है, जिसे आप लेखनी के शिल्प का प्रभाव भी कह सकते हैं कि पाठक कथ्य से बींध रहा है। बा घर छोड़ कर चली गई है,बुआ नौकरी कर रही है, नायक के ख़ुद की नौकरी चली गई है तिस पर वो उधार लेकर पिंडदान कर रहा है अपनी माँ का क्यूँकि वो इसे सब जगह दिख रही है।यह विडंबना है, मानसिक शांति का उपाय या दिमाग़ का झोल इसे समझने की कोशिश कर रहा हूँ। महाराज को लेखक आधे उपन्यास के बाद पूरे नाम से संबोधित करना शुरू करता है, रविशंकर महाराज और वो भी बार- बार। सोच रहा हूँ, इसके पीछे लेखक की क्या मंशा रही होगी।इतने पर भी यह किरदार हिंदू मानुष की छवि के लिए व्यथित है। जहाज़ पर इस किरदार के रंगों में इज़ाफ़ा ही होता दिखा। परिस्थिति कैसे मनुष्य के विवेक को बंदी बना लेती है और आदमी मध्यम मार्ग का सबसे विरूपित पक्ष चुनते हुए आगे बढ़ जाता है।

हुआंग का रसोइया और गणपति दादा की मानसिकता में समानता, धर्म के प्रति अंध भक्ति को दर्शाता है, जिसका किसी देश काल से कोई मतलब नहीं। पढ़ते हुए लगता है यह भक्ति सर्वव्यापी है और फिर सोचता हूँ देशभक्ति या क्रांति के चश्मे से इसे देखना कितना उचित है।

यह उपन्यास एक लहर ख़त्म करते ही नए लहर पर सवार हो जाता है। हांगकांग में कुमुद का न मिलना ऐसी ही एक लहर है जो एक जापानी लड़की, कुवा तक लेकर जाती है। कुवा का किरदार मुझे बहुत प्रभावित कर गया कि वो लड़की किसी और की बेटी को सीने से चिपटाए रहती है और अपने प्रेम का हाथ नहीं छोड़ती। इसके साथ यह किरदार एक संशय भी छोड़ गया कि क्या वो सचमुच उस विद्रोह में शामिल थी, जो हांगकांग में उस समय रचा जा रहा था। उपन्यास ऐसे अनजाने दरवाज़े की शृंखला है, जिससे गुजरते हुए मुख्य किरदार का एक-एक कर चोला उतरता जाता है, वह भारतीयता से वैश्विक कुटुंब बनने की यात्रा की ओर निकल जाता दिखता है।

‘दीद मूतने’ जैसी उपमा कितनी सार्थक और समय सिद्ध है पता नहीं, पर ऐसे कई प्रयोग चौंकाते जरूर हैं। प्रचलन से बाहर हुए शब्दों और नए शब्दों की बहुलता है यहाँ। पठनीयता में ख़लल की तरह भी है, पर समयानुरूपी और संदर्भप्रद होने से उनका महत्व बन जाता है। बोली और भाषा को आज़ादी के पचास साल पहले महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि को मद्देनजर रख कर लिखने में लेखक ने शोध और अपनी वृहत पठनीयता के आधार पर रचने का साहस कर दिखाया है। इन प्रयोगों में  लेखनी के जोखिम की मात्रा भी प्रचुर है। यहाँ सिर्फ़ भाषायी नहीं बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक परिवेश की बुनाई भी बहुत एहतियात के साथ की गयी है, चाहे बम्बई हो या हांगकांग। इतिहास की बात करूँ तो भारत से ज़्यादा हांगकांग के उस समय की स्थिति का ब्योरा है। कम पन्नों में ही सही पर चीन, जापान और ब्रिटेन के बीच त्रिशंकु हांगकांग की जमीन पर घटती घटनाओं की अंदरूनी तौर पर क्या स्थित रही थी, उसकी एक झलक तो इस किताब में ज़रूर मिलती है। 

अंत में इतना जरूर कहना चाऊँगा कि इस उपन्यास को लिखने में जिस तरह के भाषायी प्रयोग, कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर लेखक ने किया है वह काबिले तारीफ है और जिसके नेपथ्य में लेखक का श्रमसाध्य शोध का आपको पढ़ते हुए अनुभव होता रहेगा। आप थोड़े समृद्ध ज़रूर महसूस करेंगे और साथ ही एक सवाल कि इस किताब का नाम ‘मतलब हिन्दू’ ठीक है या ‘मतलबी हिन्दू’ जिसका उत्तर मैं आप पर छोड़ता हूँ जिसके लिए आपको इसे पढ़ना ही होगा!

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