इस 13 मई को प्रसिद्ध लेखिका एलिस मुनरो ने दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके बारे में बात कर रही हैं विजय शर्मा[highlight color=\”yellow\”]एलिस[/highlight]
नहीं रहीं कहानीकार एलिस मुनरो
जब एलिस मुनरो से पूछा जाता, ‘उनकी लिखने की प्रक्रिया क्या है?’ उनका उत्तर होता, ‘उनके लिए लिखने की प्रक्रिया अक्सर बहुत कठिन होती है। वे धीरे-धीरे मगर लगातार काम करती हैं।’
बीस साल की उम्र से अंत-अंत तक वे बराबर लिखती रहीं पर अंतिम 12 साल स्मृतिलोप का शिकार रहीं। कई बार पुनर्लेखन करने वाली को प्रकाशन के बाद भी कहानी में कुछ शब्द जोड़े जा सकने की गुंजाइश लगती है। समयाभाव के कारण वे उपन्यास न लिख कर सदा कहानियाँ लिखीं। अपनी लंबी कहानियों के साथ न केवल स्वीकृत हो गईं बल्कि 2013 का साहित्य का नोबेल पुरस्कार उनकी झोली में आया।
एलिस मुनरो का जन्म कनाडा के साउथवेस्ट के एक छोटे-से शहर ओन्टारिओ में 10 जुलाई 1931 को हुआ। पिता रॉबर्ट एरिक लैडलॉ ऊन के लिए सिल्वर लोमड़ी पालन का व्यवसाय करते थे, जीवन के अंतिम हिस्से में उन्होंने ‘द मैक्ग्रेगर’ नाम से एक उपन्यास लिखा। माँ एन चमनी लैडलॉ स्कूल शिक्षिका थीं। एलिस ने 20 साल की उम्र में 22 साल के जेम्स आर्मस्ट्रॉन्ग मुनरो से विवाह किया, 1976 में उनका तलाक हो गया। दूसरे पति जियोग्राफ़र जेरॉल्ड फ़्रेमलिन उनके कॉलेज के मित्र थे।
1968 में ‘डॉन्स ऑफ़ द हैप्पी सेड्स’, 1971 में ‘लाइफ़्स ऑफ़ गर्ल्स एंड वीमेन’, 1974 में ‘समथिंग आईहैव बीन मीनिंग टू टेल यू’, 1978 में ‘हू डू यू थिंक यू आर?’ 1982 में ‘द मून्स ऑफ़ जूपिटर’, 1986 में ‘द प्रोग्रस ऑफ़ लव’, 1990 में आए ‘फ़्रैंड ऑफ़ माई यूथ’, 1998 में ‘द लव ऑफ़ अ गुड वूमन’ (नेशनल बुक क्रिटिक सर्किल अवार्ड), 2001 में ‘हेटशिप, फ़्रैंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरेज’, 2004 में अगला कहानी संग्रह ‘रनअवे’, 2005 में ‘द व्यू फ़्रॉम केसल रॉक’, 2009 में ‘टू मच हैप्पीनेस’ (मैन बूकर इंटरनेशनल पुरस्कार) कहानी संग्रह प्रकाशित हुए।
‘कहानी जीवन के अनोखेपन का चित्रण करती है। अधिकतर पुरुषों में यह प्रवृति नहीं होती है, उन्हें जीवन बहुत अनोखा नहीं लगता है।’ कहने वाली एलिस ने 2012 ‘डीयर लाइफ़’ कहानी संग्रह के प्रकाशन के साथ लेखन से सन्यास लेने की बात कही पर लिखती रहीं।
स्त्रियों में जीवन को वाचिक रूप में रूपांतरित करने की प्रवृति होती है। उनकी कहानियों में लोककथाएँ आती हैं, वे लोगों की बातें सुनती रहती हैं, बातों की लय पकड़, उसे लेखन में अपने तरीके से पिरोने का प्रयास करती हैं। उन्हें लोगों के साथ काम करना, उनसे बातें करना अच्छा लगता है। लोगों का आश्चर्य पसंद आता है। उनकी एक कहानी ‘रनअवे’ में एक स्त्री अपने कठिन वैवाहिक जीवन से परेशान हो कर पति छोड़ने का निश्चय करती है और इसके लिए एक खूब तार्किक उम्र दराज स्त्री से बढ़ावा मिलता है। जब समय आता है, भाग नहीं पाती है, अनुभव करती है कि भाग नहीं सकती है। वह जानती है कि यह सही कदम है, भागने का कारण भी है, मगर भागती नहीं है। उनके यहाँ थीम की बार-बार आवृति होती है। कहानी ‘ट्रेन’ में जैक्सन एक पुरुष पात्र है। जब वक्त आता है, वह अपने परिवेश से नहीं निकल पाता है। इसी तरह उनके यहाँ सेक्सुअल तत्व भी बराबर मिलते हैं।
जिंदगी को रोचकता के साथ देखने वाली एलिस का अपना जीवन कठिनाइयों भरा रहा, पर उन्होंने लिखने के लिए समय निकाला, सफ़लता पाई। खुद को भाग्यवान मानने वाली वे बचपन में खूब शारीरिक काम करती थीं। परिवार खेतिहर था और उनकी माँ काम नहीं कर पाती थीं। वे कल्पना करती थीं कि वे लेखिका बनेंगी। कहती हैं कि यदि वे न्यू यॉर्क के किसी पढ़े-लिखे परिवार में जन्मी होतीं तो शायद लिखने की बात नहीं सोचतीं।
उनका माता-पिता से प्रेम, भय और नापसंदगी का रिश्ता था। इस रिश्ते का वे अपनी कहानी ‘डीयर लाइफ़’ में अन्वेषण करती हैं। माँ से रिश्ते की जटिलता उनकी बीमारी के कारण न थी। वे बीमार न होतीं तो यह रिश्ता और जटिल होता। असल में उनकी माँ एक अच्छी, बात मानने, उलट कर प्रश्न न करने वाली बेटी चाहती थीं, पर ये गुण एलिस में नदारत थे। वैसे उनकी माँ स्त्री के अधिकारों के विषय में जागरुक थीं, उन दिनों बहुत सारी स्त्रियों की तरह शुद्धतावादी थीं। सेक्स के प्रति उनकी माँ का रवैय्या संत्रास भरा था।
उपन्यासकार सिंथिया ओज़िक के अनुसार, ‘वे हमारी चेखव हैं।’ स्त्रियों के जीवन और उनकी प्रेरणा का निरीक्षण उनकी विशिष्टता है। उनके यहाँ पीढ़ियों का संघर्ष, गर्भपात, बेवफ़ाई भी समाहित है। उनके काम की समीक्षा करते हुए जॉन अपडाइक लिखते हैं, एलिस मुनरो नियति को दृढ़ता के साथ बुनती हैं। उनका अपना लेखकीय स्वर साहित्य में वैसे ही फ़ूटता है, जैसे ईश्वर का, जो चुप नहीं रह सकता है।
उनकी कहानियों में माँ शिद्दत से आती है, पिता भी उपस्थित हैं। एलिस की कहानियों के पिता मजबूत, साहसी, मेहनती हैं, कठिनाइयों को हास्य में बदलने का माद्दा रखते हैं। जैसे ‘वॉकर ब्रदर्स काउब्वॉय’ के बेन जोर्डन या ‘द स्टोन इन द फ़ील्ड’ के फ़्लेमिंग हैं। ये पिता बुद्धिमान हैं, इन्हें भाषा से प्रेम है, ‘रॉयल बीटिंग्स’ में रोज का पिता और ‘द मून्स ऑफ़ जूपिटर’ के कथावाचक के पिता को भी देखा जा सकता है। ‘द मून्स ऑफ़ जूपिटर’ का प्रकाशन एलिस के पिता की मृत्यु के बाद हुआ था। वे पारीवारिक जीवन की अच्छी चेतेरी हैं।
वह रचनाकार ही क्या जो अपने लेखन की सीमा का अतिक्रमण न करे। अपने ग्रामीण परिवेश को केंद्र में रख कर लिखने वाली मुनरो यदा-कदा अपने घेरे को तोड़ कर दिखाती हैं। मानो कह रही हों, देखो मैं ऑस्ट्रेलिया, स्कॉटलैंड भी जा सकती हूँ, उन्हें अपने लेखन का स्थान बना सकती हूँ। इसी तरह अपने लेखन का बंधन तोड़ती हुई वे अलबानिया के पर्वतों पर जा पहुँचती हैं, वह भी एक सदी पहले। उन्होंने ‘टू मच हैप्पीनेस’ में उन्नीसवीं सदी की रूसी महिला गणितज्ञ पर पन्ने-पर-पन्ने रचे हैं। लेकिन यह सही है कि वे बार-बार अपनी जन्मभूमि हर्टन काउंटी लौट आती हैं।
जैसे गुंटर ग्रास ने डेंज़िग, जेम्स जॉयस ने डब्लिन, नजीब महफ़ूज़ ने कैरो, ओरहान पामुक ने इस्ताम्बुल को साहित्य में अमर कर दिया, ठीक इसी तरह एलिस मुनरो ने अपने शहर साउथवेस्ट ओन्टारियो को अमरता प्रदान की है। इस शहर को ‘एलिस मुनरो का देश’ नाम से जाना जाता है। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उन्हें यहीं दफ़नाया जाए। 13 मई 2024 क्को उनकी मृत्यु हुई। उन्होंने नोबेल भाषण नहीं दिया था।
‘मैं ब्रिज नहीं खेल सकती। मैं टेनिस नहीं खेलती। वो सारी चीजें जो लोग सीखते हैं, मैं उनकी प्रशंसा करती हूँ, लगता है मेरे पास उनके लिए समय नहीं है। लेकिन खिड़की से बाहर देखने के लिए समय है।’ कहने वाली, खूब साक्षात्कार देने वाली एलिस मुनरो की जीवनी रॉबर्ट थैकर ने ‘एलिस मुनरो, राइटिंग हर लाइफ़’ नाम से लिखी है।
डॉ. विजय शर्मा,
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