युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने विश्व सिनेमा पर यह श्रृंखला शुरू की है. विश्व सिनेमा को समझने-समझाने की कोशिश में. मुझे नहीं लगता कि इस तरह से विश्व सिनेमा के ऊपर हिंदी में कभी लिखा गया है. सिनेमा के अध्येताओं और उसके आस्वादकों के लिए समान रूप से महत्व का. एक जरूरी लेख- मॉडरेटर.
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औद्योगिक क्राँति के बहुत बाद तकनीक ने बीसवीं सदी के शुरुआत में आश्चर्यजनक परिणाम दिखाने शुरू किये थे जैसे कि बिना घोड़े की लीद की गंदगी की चिंता किये धुयें उड़ाती फर्राटेदार चमचमाती कारें, महीनों की दूरी कम कर के महज कुछ दिन में दुनिया के दूसरे कोने में पहुँचाने वाले हवाई जहाज, बसा बसाया नगर मटियामेट कर देने वाले बड़े विध्वंसकारी बम। उसी समय फिल्में मानवता के लिये व्यापार, बौद्धिक विमर्श, और कला के अद्भुत संगम की तरह उभर कर आयी। समाज के साथ–साथ बड़े कलाकारों ने भी उसे अपनाया, नये नजरियों से देखा, औरनई बातें कहीं। वह चीजें जो मोटी महंगी किताबों और किस्सों में तैरा करती थी, आम जन के लिये चंद सिक्कों में उपलब्ध होने लगी। नाचने–गाने वाले जिन्हें दुनिया भर में हेय समझा जाता था, विभिन्न समाजों में चर्चा और ईर्ष्या का विषय बन गये। आज से करीब सौ साल पहले चार्ली चैप्लिन एक फिल्म कंपनी से सप्ताह भर का पारिश्रमिक ‘दस हजार डॉलर‘ लिया करते थे। उस समय वह पूरी दुनिया में सबसे अधिक पहचाने जाने वाले व्यक्ति हुआ करते थे। उन दिनों फिल्में रंग और भाषा में नहीं बँटी थी।
इस लेख की शृंखला में कला और फिल्म इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण फिल्मों की चर्चा करते हुये, हम फिल्मों के पीछे विचारों की चर्चा करेंगे। फिल्में देखने के लिये बनायी गयीं हैं। कोई भी लेख या चर्चा किसी दर्शक के अनुभव की जगह नहीं ले सकता। फिर भी ऐसा विचार-विमर्श कलाकार की मनोवृत्ति और उद्देश्य को बताने के लिए सहायक होती है। आज के दौर में जब सारी फिल्में इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, फिर अच्छी फिल्मों की कमी का रोना रोना बेमानी है। साहित्य के विपुल अजर अमर निधि की तरह ही फिल्मों का वृहद संसार इतना बड़ा हो गया है कि अगर कोई हर रोज एक नयी अच्छी फिल्म भी देखे तो भी अगले दस साल तक वह दुनिया के सारी बहुचर्चित और प्रसिद्ध फिल्म नहीं देख सकता। शर्त यह है कि दर्शक अच्छी फिल्में देखने के लिये तैयार हो और सबटाइटल्स के साथ विभिन्न भाषाओँ की फिल्में देखने से परहेज न करता हो। मूक और श्वेत–श्याम में बनी महान फिल्में के लिये पूर्वाग्रह न रखता हो। जिन्हें ऐसी फिल्मों से परहेज हो, वे पहले थोड़ी मेहनत कर के चार्ली चैप्लिन की The Kid (1921) या City Lights (1931) देखें। शायद यह मेहनत उनके सारे पूर्वाग्रह तोड़ने के लिए काफी हो।
फिल्में क्यों महत्वपूर्ण हैं? उन्नीसवीं सदी में नीत्शे और रिचर्ड वैग्नर जैसे दार्शनिकों और कलाकारों की यह परिकल्पना थी कि नाटक और ओपरा के विकास की अंतिम परिणति फिल्म जैसी चलती–फिरती तस्वीरें ही कर सकती हैं। 1929 से पहले मूक फिल्मों के प्रदर्शन के साथ थियेटर में संगीत के दिशा निर्देश जारी किये जाते थे, जिसे फिल्म के बदलते मूड के साथ बजाया जाता था। फिल्मों से मनोरंजन का सर्वजन सुलभ माध्यम तैयार हो गया। दुनिया भर में कहीं की कहानियों, चलती फिरती तस्वीरों की तरह दिखायी जाने लगीं। लेकिन बात यहाँ तक आ कर नहीं रुकी। महान चित्रकारों, दार्शनिकों, पत्रकारों ने इसके माध्यम से कई प्रयोग किये। महान चित्रकार सल्वाडोर डाली ने लुइ बुनुएल के साथ मिल कर Un Chien Andalou (1929)1 जैसे अचंभित कर देने वाली 21 मिनट की फिल्म बनायी जिसमें आँख को चाकू से काटता दिखाया जाता है। भारत में भी मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने Through the Eyes of a Painter (1967)2 जैसी 15 मिनट की छोटी फिल्म बनायी, जिसको बर्लिन फिल्म फेस्टीवल में ‘गोल्डन बीयर‘ जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला। साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता महान लेखक सैमुएल बेकेट ने Film (1965)3नाम की 24 मिनट की छोटी सी फिल्म बनायी थीं, जिसमें मूक फिल्मों के महान अभिनेता ‘बस्टर कीटन‘ ने अभिनय किया था। इस फिल्म को महान फ्रांसिसी दार्शनिक जिल डेलोज़ (1925-1995) ने दुनिया की महानतम फिल्म करार दी थी। सर्गेई पाराजनोव की कवि सैयत नोवा के जीवन पर बनी फिल्म The Color of Pomegranates (1968)4 ने अंतोनियोनी, स्कोरसीज, तारकोवस्की जैसे महान फिल्म निर्देशकों की सराहना पायी। पर ये सारी फिल्में बड़ी मुश्किल से आम दर्शकों को समझ में आती है।
कई फिल्में अपने नयेपन की कारण प्रख्यात बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित करती है। महान अर्जेटीनी लेखक बोर्हेज़ (1899- 1986) ने ऑरसन वेल्स की
Citizen Kane(1941) की तारीफ में कसीदे जड़े। Greed (1924) जैसी महान जर्मन फिल्म के निर्देशक इरिक फौन स्ट्रोहाइम (1885-1957), द्वितीय विश्वयुद्ध में सिंगापुर में फँसे जापानी निर्देशक यासुजिरो ओजु (1903- 1963) ने इस फिल्म में इस्तेमाल हुए नए तरीकों और कलात्मक नज़रिए की दिल खोल कर प्रशंसा की। ऐसा ही एक उल्लेखनीय वाकया नोबल पुरस्कार विजेता, दार्शनिक, और लेखक जौं पॉल सार्त्र (1905- 1980) का तारकोवस्की की Ivan’s Childhood (1962)5को मिले गोल्डन लायन पुरस्कार पर कुछ इतालवी आपत्तियों को ख़ारिज करते हुए युद्ध की विभीषिका जाहिर करते हुए उनके प्रसिद्ध लेख का था।इस तरह हर ज्ञान के विषय की तरह ऐसी फिल्मों ने सौंदर्यशास्त्र के नये प्रयोगों से कई बौद्धिकता के नये आयाम जोड़ दिये। फिल्मों में नियत समय में बहुत सी बातें कलात्मक ढंग से कही जा सकती है, जो केवल शब्दों, चित्रों, नृत्य और संगीत में कहना बहुत मुश्किल है। जिस तरह हर विषय की अपनी कठिनाईयाँ होती हैं, विकास और उत्कृष्टता के अपने मानक होते हैं, उसी तरह फिल्मों के अपने मानक हैं, जिन्हें कठिन फिल्मों का अध्ययन कर के ही समझा जा सकता है। प्रसिद्ध फ्रांसिसी फिल्म निर्देशक ज़ौ लुक गोदार्द (1930- ) पहले फिल्मों के पेशेवर आलोचक थे, और एक दिन तत्कालीन फिल्मों के खिलाफ़ लगभग विद्रोह करते हुये नई तरह की फिल्में बनाने में जुट गये। आज वह विश्व के महानतम निर्देशकों मे गिने जाते हैं। फिल्म निर्देशक क्वेनटिन टारान्टिनो ने अपनी फिल्म कंपनी का नाम उनकी फिल्म Bande a Part (1964)6 के नाम पर रखा है। गत सदी के तीसरे दशक में दो महत्वपूर्ण रूसी फिल्में – दावजेन्को की Earth (1930)7 और आइजेंस्टीन की Battleship Potemkin (1925)8 राजनैतिक चेतना के स्वर में रंगी आज फिल्म कला के बेहतरीन नमूने के लिये याद की जाती हैं। ये एक तरह से उस समय के बदलते दौर का महत्वपूर्ण कलात्मक दस्तावेज है। भारत में सत्यजीत राय ने पण्डित रविशंकर के शास्त्रीय संगीत का प्रयोग कर के अपनी पाथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956), अपूर संसार (1959) संवारा था, जिसे अकिरा कुरोसावा (1910-1988) ने उन्हें फिल्मों के दुनिया के चाँद और सूरज की उपमा दी थी। वी. शांताराम (1901-1990) ने गोपीशंकर जैसे महान नर्तक को ले कर ‘झनक झनक पायल बाजे‘ (1955) बनायी। फिल्में इस तरह कई कलाकारों के विचार और मेहनत का सामूहिक नतीजा बन कर उभर कर आयीं। तमाम आर्थिक कठिनाईयों के बावजूद निर्देशक ऑरसन वेल्स (1915-1985) ताउम्र महान फिल्म बनाते रहें और स्टूडियो–फिल्म कंपनियों से दुत्कारे जाते रहे। कला के स्तर पर उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। प्रश्न यह है कि ऐसी फिल्मों की चर्चा क्यों करें? बहुत सी फिल्में जो लाखों–करोड़ो की कमाई करती है, जो लोकप्रिय रहती हैं – उनकी चर्चा क्यों न करें? इसलिये कि बहुत कम लोकप्रिय फिल्मों में देश औऱ काल को जीतने की क्षमता होती है। कालजयी होना मानवता के लिये महत्वपूर्ण इसलिये है कि आने वाली पीढियों से कलाकार के न होने के बावजूद अपनी बात पहुँचायी जा सके। हिन्दी साहित्य की स्मृति में सिनेमा को आदर्शहीन कहते हुये प्रेमचंद ने हिन्दी सिनेमा को जिस तरह दुत्कारा, वह आज तक साहित्य में सम्मानीय नहीं हो पाया है। वहीं उर्दू साहित्य के तमाम शायरों ने (कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी वगैरह) उसे अपनाया और उसी के जरिये इस नये माध्यम में अपनी बात आम जनता तक कही। यह बात और है कि हिन्दी सिनेमा में विश्व स्तर की कृति के रूप में गिनी–चुनी उपलब्धियाँ हैं।
बहुत से लोगों का मानना है कि वैश्वीकरण खतरनाक है, पर तमाम सूचना क्रांति और फिल्मों के सुलभ होने के बावजूद सौ साल में कथा-क्रम को बहुधा तोड़ती, नाच-गानों, मार-धाड़ और बेतुकी कहानियों से भरी महान पारिवारिक हिन्दी फिल्मों का न तो पश्चिमीकरण, न ही वैश्वीकरण हो पाया। कभी अमेरिकी फिल्मों जैसी तकनीक रूप से समृद्ध फिल्में बनाने के लिए कभी बजट नहीं जुटा। तमाम राजनैतिक वैचारिक गतिरोधों के बावजूद खालिस देसी क्रांतिकारी शायद ही कभी बंदूकों से ऊपर उठ कर फिल्मों के स्तर पर पहुँच पाये। यह बात भी है की कभी-कभी फिल्मों का स्वयम्भू संगठनों द्वारा ऐसा विरोध होता कि फ़िल्म डब्बे में बंद रह जाती है। लेकिन विश्व सिनेमा इतिहास में सेर्गेई आइजेंस्टीन, दावजेन्को, और पराजनोव के नाम दर्ज हैं, जो कि सोवियत सरकार से प्रताड़ित रहे, बहुत ही कम बजट में महान फिल्में बनाते रहे। सेर्गेई पराजनोव ने बलात्कार, रिश्वत, समलैंगिकता के आरोप पांच साल की सजा में चार साल जेल में काटे, और अंतर्राष्ट्रीय दवाब के कारण एक साल पहले छोड़े गए। लेकिन यह भी तभी संभव था जब उनकी कला ने जनता और फिल्मकारों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। सोवियत सरकार ने पराजनोव को Ashik Kerib (1988) बनाने के लिए बस इतनी रील दी कि एक रिटेक में ही फाइनल कट मिल जाये (मतलब ज्यादा रिटेक भी न लिया जा सके)। फिर भी यह निर्देशक की महानता रही कि दुनिया के सारे बच्चों को ऐसी यादगार सौगात दे गए।
फिल्मों को अध्ययन एक विचित्र बात है। साहित्य का अध्ययन करने वाला साहित्यकार शायद बन जाए, संगीत और विज्ञान का अध्ययन संगीतज्ञ और वैज्ञानिक बनने के लिए करते हैं। चिकित्सा और कानून की पढाई करने वाले डॉक्टर और वकील बन जाते हैं। पर फिल्मों के सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन करने वाले फिल्मकार नहीं बन सकते। उनकी वैचारिक उपलब्धियां भी बेमानी रह जाती हैं क्योंकि हर मानकों से इसका आम जन पर प्रभाव किसी आलोचक के विचार से बड़ा है। लेकिन यह अच्छी बात है की ऐसी ज्ञान की लालसा किसी पेशे के लिए नहीं, जीविकोपार्जन के लिये नहीं, पुरस्कार या यश की लालसा के लिए नहीं, अपितु केवल ज्ञान हेतु है। ऐसा कामना और ऐसा प्रयास जीवन के जटिल आयामों को जानने में सहायक होता है। यह बहुत अविश्वास की बात नहीं होगी कि अगर अल्फ्रेड हिचकॉक की रहस्यवादी फिल्मों से कोई दर्शक बातचीत करने का सभ्य और विनम्र तरीका सीख ले, और अपनी असहमति जताने का मानवीय तरीका आजमाने लग जाए, जैसा उनकी फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता था।
जिस तरह दर्शन का सम्यक अध्ययन दर्शन के इतिहास का अध्ययन है, जिस तरह रसायन शास्त्र पढने का सही तरीका उसके ऐतिहासिक उपलब्धियों के साथ हुए विकास से होनी चाहिये, उसी तरह से फिल्मों का अध्ययन समय के साथ फ़िल्म के उस्ताद / विशारदों की कलाकृतियों का अध्ययन आवश्यक है। अतः सिनेमा के विस्तृत इतिहास में प्रमुखता से हम विख्यात फिल्म विशारदों और उनकी महान कृतियों पर गौर फरमायेंगे।
यह प्रश्न उठ सकता है कि फिल्म विशारदों का क्या पैमाना है
? कौन से लोग हैं जो विशारद कहलाने लायक हैं? विशारद अपनी कला में ऐसे विद्वान लोग हैं जिन्हें अपनी कृति के रचनाक्रम के कोई संशय नहीं रह जाता। इसके लिए वह किसी आलोचक या किसी दूसरे की सलाह की जरूरत नहीं समझते। अपनी कला के समझ के अलावा जीवन के प्रति उनका अपना दृष्टिकोण होता है, जिससे प्रतिबद्ध हो कर वह अपनी बातें रखते हैं। उदहारण के तौर पर, संगीत के उस्ताद सुनते के साथ सुरों की ऊँच-नीच बता देते हैं। अपनी रचना में भी असंतुष्टि का कारण वह खुद जानते हैं और उसी के अनुसार उसे दुरुस्त करने का तरीका भी जानते हैं। ये अपनी कला को नयी ऊंचाईयों तक ले जाते हैं। फिल्म विशारदों को न केवल कथा कहने की कला में सिद्धहस्त होना चाहिये, बल्कि दृश्य की कल्पनाशीलता, संगीत का साम्य, लोककथा-दंतकथा, आर्थिक और अन्य प्रबंधन, समाज से लड़ने की क्षमता, व्यापारिक बुद्धि, और इतिहास की गहरी संवेदनशीलता होनी चाहिये।इस तरह कालजयी फिल्म बनाने वालों का समूह
, समाज के प्रबुद्ध बुद्धिजीवी और कलाकारों का उत्कृष्ट समूह है जो अपने समय का प्रतिनिधि है। दुनिया में अगर बुराई है, तो कला अच्छाई और बुराई पर अच्छाई की विजय का उद्घोष लिए, ज्ञान का मशाल लिए, सत्य का जयगान लिए कल्याणकारी संगीत है, जो थके-हारों, निराश और उदास लोगों का सहारा है।भारतीय सौंदर्यशास्त्र के प्राचीन सिद्धांतों से अगर फ़िल्म की चर्चा की जाये, इसके लिए हम नाट्यशास्त्र में नाटक के बारे में उद्धृत यह उक्ति फिल्मों पर भी लागू होती है:
“नाटक कर्त्तव्य भूले हुए लोगों को कर्त्तव्य की सिखलाता है, जो प्यार के भूखे होते हैं उसको प्यार मिलने की राह दिखलाता है, जो उद्दण्ड और अशिष्ट हैं उन्हें दण्ड का मार्ग बताता है, जो अनुशासित हैं उन्हें आत्म नियमन सिखाता है, कायरों को साहस देता है, वीरों को ऊर्जा और उत्साह, कम बुद्धि रखने वालों को ज्ञान से प्रबुद्ध करता है, और विद्वानों को बुद्धिमान बनाता है। दुःख से दुखी को स्थिरता, विचलित को संयम, निर्धन को धन प्राप्ति की राह दिखाता है। नाटक लोगों के कर्मों और आचरण का अनुकरण है जो की भावों में सम्पूर्ण और कई तरह की स्थितिय
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