जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

काव्यात्मक समीक्षा के लिए यतीश कुमार को किताबें चुनती रही हैं। इस बार उनको चुना है जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान से सम्मानित लेखिका दिव्या विजय की डायरी \’दराज़ों में बंद ज़िंदगी\’ ने। आप भी पढ़ सकते हैं-

=========================================

बौराहट की छाजन लिए वे शशोंपंज जो किसी और से सीधे साझा न हो पा रहा हो, जिसे टोंचने में तकलीफ़ हो, ऐसी स्थिति में अपनी अनावृत आत्मा की उलीच को लिख देना सबसे अच्छा माध्यम है और दिव्या ने भी यही किया।मन के गुंजलकों की कुलाँचों को पढ़ते हुए जो भी भाव उभरे उसे यहाँ बस पिरोया गया है ।

1.

अभीप्सा से जुगुप्सा के बीच
कहानी नहीं बदलती
हाँ किरदार बदलते रहते हैं

इन किरदारों के बीच
ख़ुद को ढूँढने निकली लड़की
चुपके से गुनते हुए रचती है

“चोटिल मन पर प्रहार नहीं किया जाता
उसे बस सुना जाता है।”

समय के साथ बहते हुए उसने जाना
कि भीतर के संशय और डगमग को
संतुलित रखने के लिए
भीतर का पानी उलीचना पड़ता है !

2.

ससीम में असीम को बाँधने का यत्न
डगमग नाव में बैठना है
जहाँ ज़िंदगी की छपाक में
निमिष की झपकी मिली होती है

इन झपकियों से मिलती है
यादों की तुहिन फ़ुहार
जिसमें शोलों को हवा देने की लत छिपी है ।

इन यादों के डगाल भी
बिन बताए उग आते हैं

आज कुछ ओस की बूँदे
उस डार पर उग आयी हैं

पर उस डार पर जो बैठा है
वो मुझ सा है तो सही
पर वो मैं नहीं हूँ

3.

लहरों से ख़ाली नदी
भीतर हिंडोल लिये बहती है
जबकि हिल्लोल अदीठ है
जिसे दीठ बनाती हैं उजास पंक्तियाँ

पढ़ते हुए बातों को थोड़ा उलट- पलट कर देखता हूँ
तब अर्थ झपकी लेती हुई
निमिष आँखों से ताकता है
और कहता है
“अपने एकाकीपन से प्रेम
उदासी के पलों को ख़ुशियों की छाया देना ही तो है “

एक अबूझा शग़ल है
मन का लाक्षागृह
ख़ुद धू-धू होते देखना

किसी ने बताया
लेखकों को मोहता है अबूझा शग़ल

ख़राब तस्वीरों में अच्छी दुनिया देखना
आदत है उनकी

इस अच्छी दुनिया की यात्रा का रोमहर्ष लिये
अंतरयात्रा करना
कवि को सीखना है अभी

4.

बाहर से नहीं बदली
और भीतर का बदलना
उसने देखा नहीं

उसी की इस पंक्ति पर
दिल अटक गया

“ बात जो पैर के सो जाने पर
ज़बरदस्ती उठ कर चलने की कोशिश करती है “
पर उसकी लँगड़ाहट नहीं छिपती
जबकि इसे पढ़ते हुए भी
मन की ज़ुबान लड़खड़ा गयी
तब पता चला!
झील में पाल सा
हलराने का मन लिए
सब्र की डिबिया
सौंपनी बाकी है अभी

तब सोचा
कि क्या
ब्यालू का कलेवा से भी रिश्ता है ?

वो तो रेत के ढूह लिए चलती है
जहाँ- जहाँ से निकलती है
कुछ उसका छूटता जाता है

रेत होना
मिट्टी को सुंदर बनाना भी हो सकता है
यह बात उसने मिट्टी होते हुए जाना !

5.

तिरस्कार और अपमान को भी
रेत में मिट्टी मिलाते देखा है
लगा, ज़रूर भीतर कुछ
मरम्मत की ज़रूरत रही होगी

प्रेम जब नया कर रहा होता है
तब परत छिल रही होती है
या चढ़ रही होती है
पता नहीं चलता

नया तो दोनों के नसीब में है …

नया होने की कोशिश में
तोष संतोष की ओर बढ़ चले
तो लगता है
साथ होने का यही सही मतलब है

6.

नदी ने सिखाया नदी बनना
हवा ने सुगंधों को समेटना
रास्तों ने आहटों को सुनना
और सुनकर सदियों को सहेजना

सहेजना पेड़ में पत्तियाँ उगाना है
पर्णरहित सुंदर पेड़ हूँ मैं
बस लगता है
कोई पत्ती उगाता जाये

इस भागती दुनिया में
जीवन की खतौनी को परे रखकर
कोई आये
और इस देह को पार कर ले

7.

आँखों में बसने से पहले
रोशनी भी पलकें बंद कर देती है

शशक मन अँधेरे में घबराता है
जहाँ स्मृतियों की जुहार
निमीलन में क़ैद है

आकाश का आरंभ है जहाँ
उस क्षितिज से मिलना है उसे
निमीलन अब अवस्था है उसकी

हम्द का लोबान उठता है
कहता है, बस अंतस से बिना निखुटे
ख़िरामाँ -ख़िरामाँ चलता आये कोई
और सी-सॉ की तरह प्रेम कर ले

पर सच यह है
कि शुरुआत में बस प्रेम होता है
प्रेम होने का अनुभव नहीं होता

हीलियम वाला ग़ुब्बारा- सा मन
कच्चे धागे संग तिरता रहता है
अना का एक बयार काफ़ी है
इसे हत्थे से उखाड़ने के लिये

8.

रास्ते और पड़ाव
शब्द और मौन
चरबाँक और निमुँहा
विकर्षण से आकर्षण

इन पहेलियों के पीछे
भागती ज़िंदगी यह सिखाती है
कि सपने टाँचने के लिए
दुःख अगोरे जाते हैं

मन करता है उड़ूँ
बयाबाँ को पीछे धकेलते हुए
सपनों से मिलते हुए
बादलों के खेत पर चलूँ

पर कोई है जो चुपके से कान में कहता है
ईप्सा असल में जिजीविषा के बीज ही तो हैं

सृजन दबाव में संभव है
बस इसे सहते और सेते जाओ…

9.

चोट को ओट देते हुए
किसी और के भीतर
वजूद का वजूद तक उतरना
ईश्वर के कदम को चूमने जैसा है

निस्बत को यूँ चखना
और फिर सोते हुए आदमी की
पेशानी पर आये बल पर अपना चुंबन धरना
मंदिर पर आकर दुनिया भूलने जैसा ही तो है

अगर ऐसा हो
तो हलहल लिए कल-कल जीवन
जलप्रपात बन जाता है

भीतर का अमृतफल
नारियल की तरफ़ फूटता है
और फिर जीवन में सब मीठा…और मीठा…

10.

घास से सुंदर कुछ ढूँढने की कोशिश में हूँ
जिसे देखने के लिए आँखों की ज़रूरत न पड़े
जो नसेबों के विरुद्ध बहे
और न भी रहे फिर भी उसकी फुरहरी तो ज़िंदा रहे

मन ने कहा
इस समंदर के सूखने से पहले
इसमें डूबना है

डूबने से पहले मन ने फिर कहा
पहले खुली धूप को बयार की तरह प्रेम तो कर लो
और तभी एक ज़िद और पाल ली
कि बयार को बादल बनाना है

पर देखा
बादल बनने से पहले
उसकी छाया
आँखों में जल रही है

फिर लगा
उन दो आँखों के भीतर
भभकती लौ को शांत करने के लिए
उसे बस दो बूँद नीर चाहिए

अंत में इतना समझा
कि सूरज को चंद्रमा बनने में
बस इतना ही तो फ़ासला है

11.

भटकती हुई लापरवाही एक हिल्लोल है
जिसकी ढुगडुगी पर नाचता है जीवन

यह समझना भी ज़रूरी है
कि ट्रांस की खोज में
आत्मा पर पेट्रोल छिड़का जा रहा है
या फिर शीत

चिनगी फूटे यह अच्छा संकेत है
पर उसे बुझाना
अच्छा है या बुरा
यह समझ में भी आना चाहिए

12.

मृत्यु की गंध होती है
क्या यह गंध मृत्यु से पहले नहीं मिल सकती

जब प्रेम के पंजे गड़ते हैं
तब ढलने से पहले
दोस्ती चिचियाती है

इस चिचियाने में
स्वर किसी का भी हो
पर हूक स्त्री की ही उठती है

अंत और आरंभ
सौतेले भाई हैं
साथ नहीं रहते
हाँ उनकी यादें साथ रहती हैं

इन्हीं यादों के बीच
इतना समझ में आया
\’कि अगर मुक्ति के प्रति आकांक्षाहीन हो जाओ
तो समझो मुक्ति तुम्हारे भीतर समा गई …\’

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version