जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

अविनाश दास द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘इन गलियों में’ पर प्रसिद्ध लेखिका कविता ने यह विस्तृत टिप्पणी की है। उनकी लिखी यह सुंदर टिप्पणी आपसे साझा कर रहा। पढ़ियेगा- मॉडरेटर
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‘इन गलियों में’ फिल्म पर बात करने से पहले कुछ अवांतर लेकिन जरूरी बातें –
हम जब इलाहाबाद के पीवीआर में यह फिल्म देख रहे थे, पर्दे के समानांतर पिक्चरहॉल में हामने एक और फिल्म को भी चलते पाया। इलाहाबाद गंगा-जमुनी सभ्यता और तहज़ीब का शहर है। इस फिल्म की कहानी का नाभि-नाल इस शहर से जुड़ा और इसी में कहीं गड़ा हुआ भी है। इस फिल्म का आधारस्त्रोत दिवंगत ‘वसु मालवीय’ की कहानी – यू शेप वाली गली’ है और वसु के पुत्र और इस फिल्म के पटकथा और कई गीतों के लेखक ‘पुनर्वसु मालवीय’ इसी शहर के हैं। इस फिल्म का शानदार गीत ‘एक चांद ईद का’ के रचयिता ‘यश मालवीय’ भी उसी परिवार से हैं।
हालांकि हॉल में भीड़ बहुत नहीं थी। पर लोग जो थे, वे बड़े रचाव और मनोयोग से फिल्म देख रहे थे। माहौल अन्यान्य मूवियों के विपरीत एकदम घरेलूआना था। सीटी, कहकहे, हंसी-ठहाके सब बेलौस चल रहे थे। सबसे ज्यादा रंग भर रहा था इसमें यश जी का बीच मूवी घूम-घूमकर सबसे दुआ सलाम करना, संवादों पर खुश होना, कहकहे लगाना, गीतों को सुन खुशी से उछलना और झूमकर नाच उठना। मध्यांतर के बाद जैसे फिल्म थोड़ी गंभीर हुई, लोग भी गंभीर हुये थे। पर इतना भी नहीं, कि माहौल पूरी तरह गमगीन हो जाये। गोकि वे अभ भी हॉल में, मौजूद थे, पर इस यश मालवीय के हंसी-ठहाकों की गूंज कम या कहें कि लगभग बंद हो गई थी। हॉल से इकलते हुये सोचा कि उन्हें बधाई दे दी जाये और उन पर अचानक तारी हो आई उनकी इस चुप्पी का कारण भी पूछा जाये।‌ पर जब हम पास पहुंचे उन्हें फूट-फूटकर रोते देखा। वे सीट पर एकदम ढहे से थे… ‘भाई की याद आ रही है…’ वसु मालवीय की मौत एक सड़क-दुर्घटना में मुंबई में ही हुई थी, जहां वे अपने परिवार के साथ उन दिनों शायद फिल्म जगत में अपनी किस्मत आजमाने आये थे।
फिल्म भी दरअस्ल क्या होती है? यही खुशी-दर्द, हंसी-मुस्कान, मिलन-विरह सब का एक मनोवांछित सम्मिश्रण, एक कोलाज। तो समानांतर चलती इस फिल्म में यश जी का गर्व भी शामिल था, गौरव भी, खुशियां भी और उनके गम का वायस वह गहरी उदासी भी…जो इस पर्दे पर चलती हुई फिल्म से कहीं कमतर नहीं थी। इसे आप इस फिल्म की प्रभावोत्पादकता का एक उदाहरण भी मान सकते हैं।
‘इन गलियों में’ को देखते हुये मुझे ‘फैज’ बारहां याद आते रहे। खासकर उनकी ये पंक्तियां, जैसे इस फिल्म का लब्बोलुवाब हों –
‘निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन के जहाँ,
चली है रस्म के कोई ना सर उठा के चले…
यूँ ही हमेशा उलझती रही हैं ज़ुल्म से खल्क,
न उनकी रस्म नई है न अपनी रीत नई ।
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल,
ना उनकी हार नई है ना अपनी जीत नई।’

‘इन गलियों मे़ं’ की दोनों गलियां (‘रहमान गली’ और ‘हनुमान गली’) हमारे बचपन के गली मुहल्लो जैसी ही हैं बिलकुल, जो इसे देखते वक्त हमारे भीतर एकबारगी धड़कने और सांसें लेने लगती हैं। हम पुनर्नवा होकर उनमें फिर से जीने-विचरने लगते हैं। साझा खुशियों और गमों की उन पुरानी यादों के फिर से रहनवासी होने लगते हैं, और इस फिल्म को देखते हुए ये बार बार सोचते हैं -‘उस शहर को देखकर क्यों हूक उठे है/ उस शहर में तो कोई भी अपना नहीं रहता।’ यहां मैं ‘उस शहर’ की जगह ‘इस गली’ शब्द को चस्पां कर देना चाहूंगी।
कहानी एक शहर के पुराने इलाके की उन गलियों की है जिसके एक हिस्से में हिन्दू रहते हैं और दूसरे हिस्से में मुसलमान, और इसी के एक छोर पर रहते हैं, दोनों कड़ियों को जोड़ने वाले ‘मिर्ज़ा’ (जावेद जाफ़री)। यहीं रहता है प्रेमी हरिया (विवान शाह) और यहीं रहती है उसकी प्रिय शब्बो यानी शबनम (अवंतिका दसानी)। एक मुस्लिम लड़की और हिन्दू लड़के के प्यार और उनकी ख़ुद्दारी में डूबी इस इश्क़ की इस दास्तान में बहुत कुछ ऐसा है, जिसे हम आज अपने आसपास लगातार घटित होते देख रहे हैं। दोनों के इश्क की इस दास्तान के बीच राजनीति और समाज के स्याह-सफ़ेद रंग और उनकी तमाम ख्वारियां भी हैं। धर्म और उन्माद के रंग भी। और जीतते-जीतते इंसानी एका के आगे उनका हार जाना भी। हार जाने का यह कमाल इसलिए संभव हो पाता है कि यू शेप वाली इस गली के मुहाने पर एक मिर्जा हुआ करते हैं और हुआ करती है उनकी सर्वधर्म समोन्वेशी चाय की दुकान- ‘अरे हद है! नफ़रती लोग एक हो रहे हैं और हम प्यार करने वाले लोग टुकड़ो में बंट रहे हैं।’ जैसे जरूरी सलाहों और तीखे सवालों के साथ।
ये गलियां बहुत हद तक हमारे शहर, हमारे देश का प्रतीक हैं। ये गलियां सांझे त्योहारों, सुख-दुख और छोह-विछोह वाली गलियां हैं, जहां धर्म बसते तो हैं और धार्मिक भी रहते हैं, पर यह धर्म भी उनके जीवन में उतना ही जरूरी है, जितना खाने में नमक और कहीं कभी चीनी का स्वाद। जो स्वाद भरता है, बढ़ाता है, पर जिंदगी के स्वाद और रस-रंग को बेस्वाद और बदमजा कभी नहीं करता। लोगों को बांटने का काम भी नहीं करता।
इस फिल्म के लिए लगातार यह कहा जा रहा- यह बेटे पुनर्वसु के द्वारा अपने पिता वसु मालवीय को दी गयी श्रद्धांजलि है।’ मैं इसे नये और पुराने का सम्मिश्रण कहना चाहूंगी। बीसवीं सदी की एक कहानी में मोबाईल, रील और तमाम नयी और तकनीकी चीजों के समावेश के द्वारा नये अर्थ और संदर्भों को जोड़ते जाना उसमें समकालीनता का समावेश करते जाना है। इसके साथ जो दूसरी जरूरी बात कहना है वो ये कि यह स्मरणांजलि, आदरांजलि याकि भावांजलि परवर्ती पीढ़ी द्वारा अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी को है। यह सिर्फ पुनर्वसु की तरफ से नहीं, सबकी तरफ से है। वो चाहे जावेद जाफरी हों, पुनर्वसु हों, या फिर विवान-अवंतिका। पिछली पीढ़ी के अमूर्त और अपूर्ण सपनों को आगे ले जाने का, उसे मूर्त करने का काम उन्होंने इस फिल्म के माध्यम से किया है।
जावेद जाफरी के चरित्र ‘मिर्जा’ को यह फिल्म एक चायवाले के साथ एक शायर और कबीर के अनुयायी के रूप में प्रस्तुत करती है, जोकि दोनों मोहल्ले और पूरी फ़िल्म का केंद्रबिंदु है। वो पहले अपने बेटे को खो चुके हैं धर्म और साम्प्रदायिकता के इन्हीं आंधियों के बगूलों में। दोष उसका ये था कि उसने दूसरे धर्म की लड़की से प्रेम किया था। फिर भी वे हरिया और शब्बो के प्रेम के रक्षक हैं। उन्हें आगे बढ़ने और हार न मानने की सलाह देते हैं। वही हैं, जो जीते जी तो दोनों मुहल्लों की एकता संभाले और सहेजे रहते हैं, मरकर भी वो इन्हें टुकड़ो में बंटने नहीं देते। उनके इस कैरेक्टर को देखते हुये वसीम बरेलवी साहब के शेर की यह पंक्तियां जैसे जीवित हो उठती हैं-‘जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा/किसी चराग़ का अपना मकाँ नहीं होता।’
इस समर्थ अभिनेता को जैसे उसके जीवन का मुंहमांगा रोल मिल गया हो, मिर्जा के रूप में। और इसे जीने में वो अपने अभिनय और अनुभव की तमाम पूंजी खर्च कर देना चाहता है; तनिक भी बचाकर रखना नहीं जिसे। जावेद जाफरी की पहली फिल्म थी ‘मेरी जंग’ जो स्कूल से भागकर मैंने और मेरी दो सहेलियों ने एक साथ देखी थी। हीरो अनिल कपूर बहुत फीके लगे थें‌ तब, जावेद के शक्लो-सूरत, चरित्र और उनके उस अभिनय के आगे। अपने चेहरे-मोहरे, अपने अभिनय और डांस के कैलिबर से उन्होनें जैसे उसे जीवंत ही कर दिया था। खासकर अपनी नृत्यक्षमता के कारण। लड़कियां दीवानी थीं उनकी। चारों और गूंज रहा था- ‘बोल बेबी बोल…रॉक एंड रोल…’ लोग-बाग हैरत में थे कि ऐसा अभिनेता एक कॉमेडियन (जगदीप जी) का बेटा है या हो सकता है। उनकी आंखों में जैसे कोई सपना था, पिता का देखा अधूरा सपना। नायक होने का सपना। नायकत्व का सपना। लेकिन बाद दिनों में वे जावेद जाफरी खो गये कहीं कॉमेडी, डांस, टीवी शोज और फिल्मों के छुटभैये रोलों में। या फिर यह कि उन्हें उनके कद का कोई रोल ही न मिला। जावेद के इस हश्र को देखकर बाद वक्त यही लगता था कि जगदीप की अभिनय-क्षमता को भी इसी तरह बांध दिया गया होगा; उनके चेहरे-मोहरे और कद-काठी के कारण, मसखरे की रोल में और वो उसमें बंधकर रह गये बस। पेट की खातिर, परिवार की खातिर और तमाम जरूरी-गैरजरूरी रवायत की खातिर। जगदीप अभी जिंदा होते तो उन्हें जावेद को मिर्जा की भूमिका में देखकर अभूतपूर्व खुशी होती।
मिर्जा के होने और गली-हित में मर जाने के बावजूद मेरे लिए इस फिल्म के असली हीरो इश्तियाक ख़ान हैं। मिर्जा का चरित्र, चरित्र भूमिकाओं की पराकाष्ठा हो सकता है, नायकत्व की नहीं। वहां तो ‘भारत की खोज’ की अपील के साथ, लगातार असली भारत को खोजता ‘भंगा’ ही खड़ा दिखाई देता है। जो अंततः इस तलाश को लिए कहीं गुम हो जाता है। भंगा का ये चरित्र अभिनेता प्राण के उपकार के रोल की याद दिलाता हैं, कहीं-कहीं से। जो नकल नहीं, प्रभाव भी नहीं, बस एक मीठी स्मृति-सा उभरता है कहीं भीतर। साहसी, अपने मन की कहनेवाला और अपनी रौ में बहनेवाला मलंग मनमौजी भंगा; जिसे देश से सबसे ज़्यादा प्यार है, अपने शानदार अभिनय और संवाद अदायगी द्वारा इस फिल्म में सबसे गहरी और अमिट छाप छोड़ जाता है, तो इसके पीछे इश्तियाक की वर्षों की अनथक मेहनत, अभिनय यात्रा और रंग यात्रा शामिल है। इश्तियाक जानते थे कि कद काठी के कारण उनकी तुलना रघुबीर यादव से हो सकती है और की भी जा रही थी, पर उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विधालय के दिनों से ही यह तय कर लिया था कि वे उनकी इस छाया के तले अपना जीवन नहीं गुजारेंगे। उन्हें अभिनेता बनना था, हास्य कलाकार नहीं। और इश्तियाक की यह फिल्म ही नहीं, उनकी तमाम फिल्में इस बात की तस्दीक करती हैं।
सुशांत सिंह अपने खलनायकीय तेवर में भी अपनी अन्य भूमिकाओं की तरह यहां खूब रचे-जंचे हैं। हरिया की मां भी कमाल करती हैं यहां अपने पल में माशा, पल में तोला रूप के साथ। राजीव ध्यानी रचे बसे से हैं एक आम नागरिक की भूमिका में। डरते, कसमसाते, बुरी स्थितियों को दरकिनार करते, उससे भागते, मुंह छिपाते…कभी अफवाहों के घेरे में फंस जाते और कभी उसके खिलाफ तनकर खड़े हो जाते।
अवंतिका इस फिल्म में कमाल रही हैं; एक निडर, आत्मनिर्भर, साहसी, अकेली पर समझदार लड़की की भूमिका में। जो प्यार करती है, पर उसे स्वीकारना नहीं चाहती; गली, शहर और देश के माहौल के मद्देनजर। उन्हें अभिनय आता है और बखूबी आता है। अगर उन्हें सटीक मौके मिलते रहें, वे अपनी मां से कहीं बहुत अच्छी अभिनेत्री हैं और सिद्ध होंगी। ये दीगर बात है कि उन्हें अपनी मां भाग्यश्री की तरह पहली फिल्म के रूप में कोई ब्लॉकबस्टर नहीं मिला पर उनकी अभिनय क्षमता को हम सब वेव सीरीज ‘मिथ्या’ में देख चुके हैं- एक अति नाटकीय और खलनायकीय भूमिका में, जो संभवतः उनके जीवन की पहली भूमिका थी।
हां, विवान (शाह) अपने अभिनय याकि अभिनय शैली में नसीर और रत्ना शाह के सुपुत्र नहीं लगते। अभी उनके सामने एक लम्बी राह बाकी है, जिसे उन्हें अकेले ही पार लगाना होगा‌। पर कभी नाटकीय, कभी बच्चे तो कभी एक खिलंदड़े युवा-सा लगता ये नायक अपने सड़क छाप प्रेम ,उसके पैंतरों और नोंक-झोंक से फिल्म को कहीं और कभी भी बोझिल नहीं होने देता। गीत-संगीत भी इस फिल्म का मोहक है। अमाल मलिक का संगीत और पुनर्वसु, यश मालवीय, सौरभ खालसी और विमल कश्यप के लिखे गीत इस फ़िल्म को विशेष बनाते हैं।
लेकिन जो इस फिल्म का सबसे बेहतरीन पक्ष है और जिसके बारे में बात किये बिना इस फिल्म पर बात बिलकुल खत्म नहीं की जा सकती, वो है मिर्जा की मौत का चित्रांकन। बल्कि कहें तो उनके कत्ल का दृश्य। घटना भी घटित जैसी थी, मौका भी था और… सो तमाम सांप्रदायिकता भड़काने वाली फिल्मों की तरह इस मौत को विस्तार से फिल्माया जा सकता था। यही नहीं, तड़के की तरह फ्लैश बैक में मिर्जा के बेटे की हत्या को भी फिल्माया जा सकता था। ‘छावा’ की तरह इसमें भी कड़ी-दर-कड़ी वीभत्सता की पराकाष्ठा और दर्शकों को उबकाई आने की हद तक एक-एक घटना को विस्तार से पिक्चराइज किया जा सकता था। जिससे किसी खास वर्ग और धर्म के लोगों का खून खौले उठे, उबाले मारने लगे। पर वे ऐसा नहीं करतें। यहां ऐसा नहीं होता… चेहरा ढके, हथियारबंद लोगों के एक गिरोह का मिर्जा के घर के भीतर जाना, मिर्जा की निडर-निर्भीक आंखें और फिर दरवाजे से अविरल निकलती खून की धार, जैसे कुछ अतिरिक्त न कहकर भी कितना कुछ एक साथ बयान कर जाती है। उनका उद्देश्य प्यार और सौमनस्य बढ़ाना है, नफरत का जहर फैलाना नहीं। हिंसा के अतिरेक और प्रतिहिंसा के महिमामंडन के इस समय में ‘इन गलियों में’ की सहजता, सुंदरता, सौहार्द्र और गैरबनावटी चित्रण; सब सराहनीय और सम्माननीय हैं। और इसके लिए डायरेक्टर अविनाश दास के विजन को सलाम करना चाहिए। ऐसे समय में जब पूरे समाज को बांट देने का कुचक्र रचा जा रहा हो, इस रचनात्मक पहल और संवेदनशील फिल्म को जरूर सराहा जाना चाहिए।
इस महत्वपूर्ण और जरूरी फिल्म को बनाने और सिनेमा घरों तक इसे पहुंचाने के तमाम जद्दोजहद और साहस के लिए अविनाश दास को सचमुच बधाई बनती है। इसलिए भी कि वे अपनी पहली फिल्म से अबतक निरंतर ज्वलंत मुद्दों और मौजूं समस्याओं को फिल्म के विषय के रूप में चुनते रहे हैं। बावजूद इसके यह उनकी उत्कृष्टतम कृति नहीं। सभी कुछ ठीक-ठिकाने पर होने के बावजूद यह फिल्म वह प्रभाव नहीं छोड़ती जिसे इसे छोड़ना था। मिर्जा की मृत्यु के बाद का सारा मामला बहुत हड़बड़-दरबड़ का लगता है। जैसे जबरन और जल्दी इस कहानी को सकारात्मक मोड़ पर पहुंचा देना हो और सचमुच होली से ईद और ईद से चुनाव आते-आते यह कहानी खत्म हो लेती है। अंत में मिर्जा और भंगा जैसे सशक्त चरित्रों का न रह जाना भी अखरता है। सोचने का एक बिंदु यह भी है कि अगर शब्बो हिंदू होती और हरिया मुस्लिम तो भी क्या उनका यह मिलन इतना आसान हुआ होता? ‘लव जेहाद’ को प्रमोट करने के नाम पर इस फिल्म का क्या हिंसक विरोध न किया जाता? क्या फिल्म सेंसरशिप से इतनी आसानी से पास हो पाती? क्या अविनाश दास ने सोच समझकर यह चतुराई की? जिनसे उम्मीदें हों और थोक में हो, सवाल भी उन्हीं से किये जाते हैं और थोड़ी नाउम्मीदियां भी उनसे ही मंजूर की जा सकती हैं।
यह फिल्म बेहद कम शहरों में और उससे भी कम थियेटरों और उससे भी कम शोज में दिखाई पड़ रहा। तो इस फिल्म को जरूर से देखिए, टूटकर देखिए, सपरिवार देखिए, आस पड़ोस के साथ देखिये। आज के दौर में इतनी साफ सुथरी फिल्म बहुत कम देखने को मिलती है, जिसे एक साथ बैठकर देखा जा सके। इस कदर देखिए कि शहर, सिनेमा हॉल और शोज बढाने की जरूरत आन पड़े। फिल्म के एक डायलॉग की तर्ज पर कहें तो ‘नफरत के इस माहौल में मुहब्बत के इस संदेश’ को वायरल कर देने की जरूरत है। इस प्रेम गली से एक बार तो गुजर आना बनता है।
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कविता 

कविता

पिछले ढाई दशकों से कहानी की दुनिया में सतत सक्रिय कविता स्त्री जीवन के बारीक रेशों से बुनी स्वप्न और प्रतिरोध की सकारात्मक कहानियों के लिए जानी जाती हैं।
प्रकाशन
कहानी-संग्रह- ‘मेरी नाप के कपड़े’, ‘उलटबांसी’, ‘नदी जो अब भी बहती है’, ‘आवाज़ों वाली गली’, ‘क से कहानी घ से घर’, ‘उस गोलार्द्ध से’, ‘गौरतलब कहानियां’, ‘मैं और मेरी कहानियां’, ‘माई री’
उपन्यास – ‘मेरा पता कोई और है’, ‘ये दिये रात की ज़रूरत थे’
संपादन
‘मैं हंस नहीं पढ़ता’ (लेख), ‘वह सुबह कभी तो आयेगी’ (लेख), ‘जवाब दो विक्रमादित्य’ (साक्षात्कार), ‘अब वे वहां नहीं रहते’ (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार)
रचनात्मक लेखन के साथ स्त्री विषयक लेख, कथा-समीक्षा, रंग-समीक्षा आदि का निरंतर लेखन।
पुरस्कार/सम्मान – बिहार सरकार द्वारा 1992 का युवा लेखन पुरस्कार, अमृतलाल नागर कहानी पुरस्कार, स्पन्दन कृति सम्मान (2022), बिहार राजभाषा परिषद का विद्यापति पुरस्कार (2023)
अनुवाद
कुछ कहानियां अंग्रेजी, उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित
संपर्क
ईमेल – kavitasonsi@gmail.com
मोबाईल – 7461873419

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