जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आप लोगों से पूछा था कि क्या आप अनुकृति उपाध्याय की नई कहानी पढ़ना चाहेंगे? क़ायदे से आज उनकी कहानी पढ़वानी चाहिये थे। लेकिन आज पढ़िए प्रमोद द्विवेदी की यह कहानी। मेरा मित्र शशिभूषण द्विवेदी कहता था कि कहानी कहने की कला सीखनी हो तो प्रमोद द्विवेदी की कहानियाँ पढ़नी चाहिए। पढ़कर बताइए- प्रभात रंजन

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सावन की दस्तक से पहले आगरा जेल से नफीस भाई की रिहाई के मौके पर मंडी समिति के नासिर भाई सोलंकी ने ठंडी सड़क पर बाबू कुरैशी केलेवाले की पुश्तैनी कोठी पर शानदार जलसे का इंतजाम किया था। खुशी के मौके से ज्यादा पार्टी का मकसद यह बताना था कि लंबी कैद के बावजूद नफीस भाई चुके नहीं हैं।

 दमदार शहरियों को न्योतने का जिम्मा इमरान लाले और बिज्जन पंडित को दिया गया। राजनीतिक संतुलन बनाए रखने के लिए भाजपा सहित सभी दलों के लहकट प्रतिनिधियों को बुला लिया गया था। एवजीदारों के लिए लड़ने वाले ट्रेड यूनियन नेता भी बुलाए गए। दो विधायकों ने शुभकामनाएं प्रेषित करने के साथ बता दिया था कि मीडिया की नजरों से बचकर भी कुछ काम करने चाहिए। उन्होंने चुप्पे से दो बुके नफीस भाई के लिए भिजवा दिए थे। उनका भी सोचना सही था, क्योंकि जिस हाई प्रोफाइल किडनैपिंग मामले में नफीस भाई फंसे थे, उसमें दो नेताओं, एक पत्रकार का नाम भी मीडिया ने उछाला था। इस चक्कर में दोनों नेताओं को पार्टी से नोटिस मिल गया। पत्रकार धरा गया। प्रेस क्लब में भी उसके प्रवेश पर रोक लग गई। पुलिस ने उसके खिलाफ एक दो मामले टप्पेबाजी के भी खोल दिए।

 बहरहाल जलसे में कुछ ऐसे लतमरे भी थे जिनके लिए नाक कटने जैसा कोई धर्मसंकट नहीं था। बल्कि ये ‘नंगा की नाक कटी सवा बित्ता रोज बढ़ी’ वाले दर्शन में चलने वाले जीव थे

सामाजिकता को देखते हुए जलसे में दो वैरायटी के खाने थे। नॉनवेज के लिए पुराने शहर के कारीगर आए थे और हिंदुआने व्यंजनों के लिए हापुड़ वाले पंडित कैटरर के आदमी। कुछ बाभन हिस्ट्रीशीटरों की भावनाओं का ख्याल रखते हुए उनके खाने का इंतजाम भी, मांस-मुर्गे की मेजों से अलग किया गया था। पीने की पोशीदा व्यवस्था में पूरा समतावाद था। जाम के लिए खास बेल्जियम वाले मुरादाबादी कांच के विशेष गिलास आए थे, जिन पर बर्फ पड़ते ही नग्न विलायती सुंदरियां अवतरित होती थीं। उनके प्रगट होने से नशा और भी गहरा जाता। सुरारसी अतिथि गिलास को आंखों के और करीब ले आते और सिसकारी भर लेते…। यह सब थोड़ा छिपकर इसलिए भी था, कि कुछ खानदानी दस नंबरी, शहरबदरू नागरिक अपने परिवार के साथ आए थे। वे नहीं चाहते थे कि उनकी संस्कारी बीवियां और नई नस्ल ऐसे माहौल के दीदार करें। शराबनोशी वाली जगह पर एक चमकीला पर्दा लगा दिया गया था। सोडा, लिमका, कोक, फेंटा, पानी, बर्फ, सलाद मुहैया कराने के लिए एक बेहद प्रशिक्षित इंसान को लगाया गया था, जो गिलास की नंगी तस्वीर के अदृश्य होते ही फट से बर्फ उड़ेल आता, ताकि रंग और नशा कायम रहे।

लेकिन जलसे का मुख्य आकर्षण था- याकूत गंज के पास से आईं गुणवंती, सुंदर पतुरिया, जिन्हें सभी ताजातरीन गाने कंठस्थ थे। खास मेहमानों के सूचनार्थ बताया गया कि इनकी बुकिंग तो चार महीने पहले करनी पड़ती है, लेकिन विधायक बउवन सिंह बघेल के प्रेशर में अरजेंट बुकिंग हो गई। बांकी, फुर्तीली, चमकीली पतुरियों ने महफिल में चार चांद  लगा दिए। रसिकों की फरमाइश पर ‘इश्क की गली विच नो एंट्री’ और ‘तैनू काला चश्मा …’ जैसे जनप्रिय गीत पर नाच प्रस्तुति हुई। होठों पर नोट फंसाकर फरमाइश करने वालों को साफ बता दिया गया कि यह डेकोरम और तहजीब के खिलाफ है, जिसे नोट-गड्डी लुटाना हो पास जाकर लुटाए या निछावर करे, क्योंकि कलाकारों का भी सम्मान करना आना चाहिए।

सब कुछ व्यवस्थित था। ऐसी सुरक्षा व्यवस्था थी कि पुलिस भी आकर सीख सके। वैसे कुछ दरोगा और चौकी इंचार्ज भी सादे कपड़ों में आए थे। ज्यादा बड़े अधिकारियों को नासिर भाई ने बुलाया भी नहीं।

इस हसीन शाम की शान  नफीस भाई ने सफेद सफारी सूट पहन रखा था जिसे माल रोड के अनामिका टेलर्स ने अर्जेंट सिला था। उनके साथ विधायक सलीम सीतापुरी के अलावा, दिनेश भट्ठेवाला, नमन पंडित, वासुदेव यादव, जावेद बमबाज, भूरा बच्चा विराजे थे। नफीस भाई ने विस्तार से आगरा जेल के अनुभव साझा किए और बताया कि फरीदाबाद के जूता व्यापारी संपत बिजलानी की किडनैपिंग के मामले में उन्हें क्लीन चिट मिल गई है। बाकी केस सुलटाने के लिए फर्रूखाबाद के एक सपा नेता को सेट कर लिए हैं। सार रूप में नफीस भाई ने यह भी बताया कि दुनिया में सुख शांति से बड़ी कोई चीज नही है। सभी बदमाश नागरिकों ने उनकी इस बात का समर्थन किया। गिरजा भाई ने तो एक कदम आगे जाकर कहा कि ‘हम तो इस माहौल से लौंडों को दूर रखने के लिए देहरादून भेजने वाले हैं।’

कुल मिलाकर सांप्रदायिक सद्भाव की नजीर पेश करते इस जलसे से ऐसा लगा कि बदमाशों के भी दिल होते हैं। दूसरी बात यह कि अचानक कुछ एनकाउंटर होने से दबंगों का हौसला कचक गया था। सत्तारूढ़ दल में जाने से इतना तो फायदा था ही कि जान बचने की गारंटी मिल जाती थी। दो-चार दिन अखबार वाले फोटो छापकर सरकार की, पार्टी की आलोचना करते, फिर सब लोग भूल जाते कि नेताजी भी कभी मोस्ट वांटेड थे।  

 बहरहाल इस जलसे में हमारा जाना इसलिए हुआ कि हाल में नगर रत्न से सम्मानित हुए कवींद्र भाईसाहब उर्फ नाटे गुरु भी इसमें बाइज्जत न्योते गए थे। कवींद्र भाई की शोहरत का कारण बताते चलें कि- थे तो वे एक गुटका अखबार गगन टाइम्स के मालिक-संपादक-संवाददता, पर शहर के सारे बदमाश उन्हें अपना नगरपिता मानते थे। जमानत लेने से लेकर, फर्जी गवाही और थाने-चौकी में बिचवानी का काम पूरे समर्पण भाव से करते थे। डोबरमैन, जर्मन शेफर्ड पालने के शौकीन थे, जिनके पिल्ले नजराने के तौर पर हाकिमों को भेंट किए जाते थे। किसी को इनकार करना उनके स्वभाव में नहीं था। ऐसे कवींद्र भाई को नासिर भाई कैसे भूल जाते।

फिर ऐसे कवींद्र भाई अकेले कैसे जलसे में जाते। उनका बुलावा हमारे पास आ गया और प्रोग्राम की महत्ता बताई। मैंने बताया भी कि मियांओं की महफिल में ले जा रहे हैं। भरत भइया सुनेंगे तो भिनभिनाएंगे। भरत भइया यानी हमारे बड़े भाई नगर गोरक्षक समिति के कमांडर भरत यादव का साफ कहना था कि तुरकों के यहां हमेशा संभल कर जाना और कुछ खाना तो बिल्कुल नहीं। भइया राष्ट्रीय गोसेवा संघ से भी जुड़े थे और एक गो तस्कर जमील चिक्कन की हत्या के प्रयास के आरोप में दो साल सजा काट चुके थे। गवाह टूट जाने के कारण हाईकोर्ट से वे बरी हो गए। लेकिन इलाके के मियांओं के दिमाग में उनका नाम गहरे छप गया। सपा वालों ने बड़ा प्रयास किया कि उन्हें जिला अध्यक्ष जैसा पद देकर अपनी ओर किया जाए। पर भइया सपा नेताओं के रवैये से नाखुश थे कि जमील मामले ने सपाइयों ने भी गोरक्षकों के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया था। भइया का यादव होना सपा वालों के किसी काम का नहीं था। वे राममंदिर आंदोलन से भी जुड़े थे और मुलायम सिंह के समय हुए गोलीकांड में वे भी कारसेवक बन कर गए थे।

ऐसे में हमारा कवींद्र भाई के साथ जाना रिस्की तो था, पर उनका आग्रह टालना मुश्किल था।

विशिष्ट मेहमानों की कतार में हम भी शामिल हुए और कवींद्र भाई के साथ हमने भी वे मदभरे, दर्शनीय कांच के गिलास अपने हाथ में थामे। कवींद्र भाई ने महक से बचने के लिए जिन ली और हमने आरसी। मयकशी की ऐसी महफिल पहली बार देखी। गिलास का पहला पैग खत्म होते ही हमने कवींद्र जी के कान में कहा, ‘भाईसाहब मियां तो शराब को हराम कहते हैं, फिर ये कैसे पार्टी कर दिए…।’ कवींद्र भाई ने कबीराना शैली में कहा, ‘घंटा हराम है…गालिब चूतिया रहे जो कह गए-जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर…।’

हमने कहा कि ‘यह तो शायरी की बाते हैं…वैसे अमूमन दारू की पार्टी करते नहीं…ये लोग।’

कवींद्र भाई चिढ़ गए, ‘अबे अभी एकै पैग में बकछंद शुरू कर दिए…राजा मौज ल्यो और अंडर कंट्रोल रहो और घर पहुंचों…तुम्हारी पहुंचाने की व्यवस्था भी करनी है।’ फिर आदतन उन्होंने एक घटिया शेर सुनाया-

‘गिलसिया मा विस्की भरी, प्लेट मा धरी नमकीन

पियव और खावो धांसि के कहि गए मातादीन’

कवींद्र भाई का कहना था कि उनके पिताजी मातादीन बुधौलिया रमई काका के समकालीन थे और दोनों ने साथ-साथ कविताई शुरू की। पर रमई काका ने गजब का नाम कमाया और मातादीन की कविताएं रजिस्टर में लिखी रह गईं। कवींद्र भाई की शायद यही एक कमजोरी थी कि सुरूर सवार होते ही उन पर गीत और संगीत सवार होने लगता था। अगर यह सम्मनित बदमाशों का जलसा ना होता तो वे कुछ जरूर सुनाते। अब हम ही बचे थे श्रोता के रूप में। तीसरे पैग की ओर उन्होंने तेजी से छलांग लगाई। हम अभी डेढ़ के आसपास थे। गिलास पर प्रगट होती छवियां देखने के चक्कर में मैं स्लो ही रहना चाह रहा था। कवींद्र भाई अब आंखों से इशारा करने लगे थे- कि स्पीड बढाओ…। मैंने ध्यान नहीं दिया तो उनकी आवाज निकली – ‘जफर भाई थोड़ा जल्दी…।’

मैंने चौंककर धीरे से कहा, ‘गुरुदेव आप बहक रह हो…जफर भाई कहां से आ गए…?’ वे शरारत से मुस्काए, और बोले, ‘बकरही दाढ़ी में जफर भाई लगते हो…एकदम …मूंछें भी मुसवा छाप…।’

मैं खिसिया गया, ‘भाईसाहब जैकी रहने दो हमको…जैकी यादव…।’

कवींद्र भाई तो जैसे हरकत पर आमादा थे, ‘बेटा आज तो जफर भाई ही कहेंगे।’ उन्होंने तीन चार बार हमें जफर भाई तो कहा तो बगल के आढ़ती टाइप के कलूटे आदमी ने भी बोल दिया, ‘जफर भाई, जरा बाटली इधर सरका दीजिए…।’

मैं तो जैसे ट्रैप हो गया। तीसरा पैग शुरू होने से पहले ही मुझे लगने लगा कि सारी महफिल मुझे जफर भाई समझने लगी है। बस जाली वाली एक सफेद टोपी की जरूरत थी। मन ही मन पछता रहा था कि कवींद्र भाई की बात क्यों मान ली। अब चुप रहने में ही भलाई थी। तनाव में तो था, पर नशे का आनंद भी। मछली की पकौड़ी भी खा गया। कवींद्र भाई इस बात को ताड़कर मुस्काए भी…। अक्सर मैं नानवेज की बात पर उनसे भिड़ जाता था। पर आज मैं वाकई कवींद्र भाई का जफर बन गया था।

  जलसा शबाब पर दस बजे के करीब आया। पतुरियों ने रात को पुरबहार कर दिया था। झलक आए पसीने ने उनके माथों पर भारी मशक्कत की इबारत लिख दी थी। नोटों से बिछावन का असली रंग छिपता जा रहा था। जो जितना नशे में था, उतना ही दिलदार, पर क्या मजाल  कवींद्र भाई ने दस रुपया भी निछावर किया हो। फिर एलान हुआ कि ‘आप लोग डिनर लेते रहे…प्रोग्राम चलता रहेगा…।’

 मैंने कवींद्र भाई से कहा, ‘गुरुवर खा-पी लिए हैं। अब चला जाए। आपका तो रूट अलग है। हमारी व्यवस्था करा दीजिए।’

कवींद्र भाई ने नासिर भाई को टेर लगाई। वह भागता हुआ आया। दो पैकेट उसके हाथ में हमारे लिए थे। कवींद्र भाई ने उसके कंधे पर वजन डालते हुए कहा, ‘कउनो चेलवा है जो जफर भाई को रास्ते में छोड़ता चला जाए…।’

‘वाई नॉट…’ कहते हुए नासिर भाई ने किसी शाहिद को आवाज दी। भूरे वालों वाला शाहिद भागता हुआ आया। उसकी सूरत ही बता रही थी कि गुंडई में उसे बड़ी चोट मिली हैं।  

नासिर भाई ने पहले तो उसकी मानसिक दशा का जायजा लिया, फिर अधिकार भाव से बोले, ‘बाइक है ना…?’

शाहिद ने कहा, ‘जी बड़े भाई…बुलेट है अपनी।’

‘तो सुनो, जफर भाई को घर के नगीचे छोड़कर चंदनगरी निकल जाना…कोई दिक्कत…?’

शाहिद ने कहा, ‘आपका हुकुम बड़े भाई…आइए जफर भाई…।’

मैं फिर चौंका। कहना चाहता था कि कवींद्र भाई यह क्या कर दिया आपने…जफर भाई बना ही दिए।

 मैं ज्यादा कुछ बोले बिन् बाइक पर बैठ गया। कवींद्र भाई ने चिढ़ाने के लिए और जोर से कहा, ‘सब्बाखैर जफर भाई…।’

मैंने अनमने भाव से कहा, ‘गुड नाइट…।’ फिर मुड़कर नहीं देखा। समझ गया कि शाहिद नाम का यह शख्स मुझ जैकी यादव को जफर भाई के रूप में इतने अपनापे से ले जा रहा है।

    

 रास्ते में शाहिद भाई ने एक गुमटी में रोककर सिगरेट खरीदी, दो जोड़ा पान पैक कराए और दुकानदार को ज्ञान दिया कि पानमसाले से कैंसर होता है…। हमने भी आसमान की तरफ धुंआ फेंकते हुए कुछ छल्ले बनाए और अपने को उस हीरो के टक्कर का माना जो विल्स के विज्ञापन में सिगरेट को मरदों की पहचान बताता था।

 सिगरेट पीकर, तुलसी तंबाखू वाला एक जोड़ा पान खाकर शाहिद भाई ने बुलेट स्टार्ट की। खामोश रात में थर्राहट पैदा करने वाली बुलेट की आवाज सुनने का भी आनंद था। दुग-दुग करते हुए बुलेट चली जा रही थी। हम दोनों खामोश थे। वजह यह भी थी कि शाहिद भाई के मुंह में जगन्नाथी पान का पूरा कब्जा था। उन्होंने जगन्नाथी पान और तुलसी के रस को तरजीही माना। इसी चक्कर में मौन को काफी जगह मिल गई। फिर अचानक बुलेट धीमी हुई और शाहिद भाई ने बड़े पेशेवराना अंदाज में दीर्घ पीक सड़क के किनारे की ओर प्रक्षेपित की। क्या मजाल धार में एक भी दरार आई हो। बड़े सलीके और अभ्यास से पीक की पिचकारी धरती में जा मिली। मुंह उनका आजाद हुआ। सुपाड़ी का एक टुकड़ा भी उन्होंने ‘फू’ करके रवाना कर दिया और फिर हल्की- सी गर्दन बांकी करके बोले, ‘जफर भाई देवा शरीफ मेले के लिए कुछ कंट्रीब्यूट करवाइए अपने आसपास से…।’

मैं डर गया कि यह क्या मुसीबत आ पड़ी। फिर धीरे से कहा, ‘पर्सनली कुछ कर देंगे। बताइएगा कहां देना है।’

अभी पीछा कहां छूटना था।

उनका नया सवाल और भी धर्मसंकट में डालने वाला था-‘ जफर भाई जुमे वाले दिन कौन सी मस्जिद में जाते हैं…। कभी हमारी तरफ बादामी मसजिद की तरफ आइए….।’

मैंने गोलमोल होकर, आगामी सवाल से बचने के लिए कहा, ‘ग्यारह नंबर गेट के पास है ना…पर हम नहीं जाते…। घर से कोई भी नहीं जाता।’

उसने ‘हूं’ कहकर आगे सवाल कर दिया, ‘सेंट्रल पार्क में तब्लीग के सालाना प्रोग्राम में तो गए होंगे…?’

‘नहीं मैं किसी काम से झांसी में था। बस सुना है…। कुछ कंट्रोवर्सी भी हुई थी शायद…।’

 अब उसकी आवाज फुसफुसाहट में बदल गई, ‘घंटा कंट्रोवर्सी… सबकी फटी पड़ी है तब से….मालिक ने चाहा तो हमारी ताकत बढ़ेगी। ये भो…वाले जितना अभी चिचिया रहे हैं, सब ठंडे पड़ जहियैं…।’

गाली सुनी तो गुस्से के मारे मेरा धैर्य टूट ही जाता, शायद बुलेट से उतर भी जाता…. कि अचानक रास्ते में बैठी एक काली गाय ने काली बुलेट की रफ्तार धीमी कर दी। शाहिद भाई ने गाय को मधुर मातृ गाली देते हुए सोनाक्षी सिन्हा की नकल करते हुए कहा, ‘साहेब आदमी से नहीं गऊ माता से डर लगता है…।’

एकबारगी तो हमें भी गुस्से के साथ हंसी आ गई कि कैसे यह मियां गऊ का, हम लोगों का मजाक उड़ाए जा रहा है…कारण मैं जफर भाई जो था। वरना इसकी हरकत तो ऐसी थी कि कट्टा होता तो इसकी पीठ में लगाकर लिबलिबी दबा देता…। मन ही मन इस तुरुक को मैंने भरपूर गालियां दीं।

वह कुछ ना कुछ बोलता जा रहा था। मैंने खामोशी बनाए रखी।

अब उसने बुलेट को लहराकर चलाना शुरु कर दिया था और गाए जा रहा था-‘ना पूछो कोई हमें जहर क्यों पी लिया, जहर जो पी लिया तो थोड़ा सा जी लिया…।’

मैंने विषयांतर होने पर राहत महसूस की। उसके गाने की तारीफ भी की।

इस पर वह शुक्रिया कहने के साथ पुरानी धुन पर लौट आया, ‘जफर भाई आप भी कुछ गाते हैं तो सुनाइए…।’

‘मैं नहीं गाता, बस सुनता हूं। मेहदी हसन मेरे फेविरेट हैं।’

शाहिद भाई को तो जैसे एक और बहाना मिल गया, ‘असली मौसीकी तो पाकिस्तान में ही बची है, गुलाम अली, मुन्नीबाई, अताउल्लाह खां…हमारे यहां ले देकर जगजीत सिंह , पंकज उदास…। मतलब सो सो हैं..।’

वह आगे बढ़कर निश्चित ही कुछ जी जलाने वाली बात करता। मैंने कहा, ‘नहीं भाई अपने पास लता, आशा, बेगम अख्तर हैं, जसराज हैं…।’

‘अरे भाई मैं कुछ और ही कह रहा हूं, मेरा मल्लब काफी आर्ट उधर चली गई…।’ नफीस ने सफाई दी।

अब मैं शाहिद भाई से पिंड छुड़ाने के मूड में था। उतर भी जाता, लेकिन रास्ते के कुत्तों के डर से उतरने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी..।

कुछ देर की चुप्पी के बाद उसने फिर सवाल दागा, ‘मोहल्ले में कितने लोग अपने हैं, कितनी फैमिली हैं…।’

मैंने चौंककर कहा, ‘क्या बोले, समझे नहीं…हम।’

‘भाई मेरे जफर साहब…, हमारे पूछने का मतलब है कि आपके मोहल्ले में कितनी फैमिली मोमडन हैं…?’

इसका जवाब तो सरल ही था, ‘कोई आठ दस…अपने मंत्री अनीस उस्मानी भी उधर रहते हैं…।’

‘तो इसका मतलब जैसे दांतों तले जीभ रहती है, वैसे ही तुम लोग रहते होगे। हर जगह यही हाल है…। हमारी तरफ शिफ्ट हो जाओ। सब अपने हैं…। पीएसी वालों की भी फटती है गली में घुसने में…।’

मैं समझ गया, यह पूरी तरह लीगी तबीयत वाला है। इस बार सचमुच मैंने उसका जी जलाने के लिए कहा, ‘इधर तो कोई दिक्कत नहीं। सब मिलकर रहते हैं। सारे दोस्त हिंदू हैं। हम तो होली भी मना लेते हैं…। रामलीला देखने भी जाते हैं…।’

बस इसी बात पर शाहिद चिढ़ गया, ‘तुम जैसे लोगों ने ही तो दीन को चौपट कर दिया है…। मरोगे एक दिन। नबीपुर कटरे के दंगे याद हैं। हिंदुओं के मोहल्ले में एक ही सोसाइटी थी आफताब मेंसन। एकदम क्रीम लोगों की सोसाइटी। औरतें जींस पहनती थीं। दंगा हुआ तो फसादियों ने घेरकर फूंक दी। इसलिए भरोसा तो इन भो…वालों पर करना मत..।’

मेरा खून फिर खौला। समझ रहा था कि आज जफर भाई बनकर सारी गालियां सुननी पड़ रही हैं।

पर कहते हैं ना कि कई बार फरेब भी मजा दे जाता है।

मैंने सोचा कि अब नकली नाम को उतार फेंकने में ही सबकी भलाई है।

मेरा इलाका आते ही शाहिद भाई ने एक और नसीहत दी कि ‘हालात खराब होते ही घर जरूर छोड़ देना। गुजरात में तो एक एमपी तक अपनी जान नहीं बचा पाया, तुम लोग क्या झांट बचा पाओगे…। पुलिस वाले खुद दंगाइयों का साथ देते हैं। सरकार वोटर लिस्ट पकड़ा देती है कि चुन-चुनकर मारो…।’

अब तो अति हो रही थी।

शाहिद भाई का नशा उतर रहा था, लेकिन गुस्सा सवार हो रहा था। चेहरा भक्क लाल….!

मुझे और डराने के साथ गाली देते हुए बोला, ‘एक सुअरवा यहीं कहीं रहता है, उसे भी एक दिन चौड़े में ले जाकर टपकाएंगे…। निशाने पर है…।’

मेरा कलेजा कांपा, ‘कौन है…, है कौन…?

‘है साला एक भरतवा गोभक्षक…अहिरवा। अपने एक मियांभाई को शंकरिया मोड़ पर ढोर की तरह काटा था…मरेगा मादर…।’

अब तो कहानी खत्म करनी ही थी।

मैंने चीखकर कहा, अबे रोक यहीं…मादर…तेरी बकवास सुनते-सुनते यहां तक आ गए।

नशा मेरा भी उतर चुका था..।

वह सनाका खाकर देख रहा था, ‘क्या हुआ जफर भाई…आपको कुछ बोले क्या…?’ अब उसके चेहरे पर खौफ था। पास में हमारी गली थी।

मैंने पूरी ताकत लगाकर कहा, ‘अबे कटुल्ले हमारा नाम जफर भाई नहीं जैकी यादव है…भारत यादव बड़े भाई हैं हमरे…समझे …!’

शाहिद भाई का सारा लीगी नशा उतर गया…। ‘भाई गजब का ड्रामा किए… हम तो सच्ची-मुच्ची में जफर भाई समझ कर बतिया रहे थे। अदरवाइज मत लेना भाई जैकी…।’

मैं उसका धर्मसंकट समझ गया था।

इस बार पस्तदम जफर भाई को काली बुलेट स्टार्ट करने के लिए तीन-चार किक मारनी पड़ी।  दुग-दुग हुई और बुलेट मस्त रफ्तार से बढ़ी। लेकिन शाहिद भाई ने मुड़कर देखने की हिम्मत भी नहीं दिखाई।

                             प्रमोद द्विवेदी

                             9667310319

               Pdwivedi.js@gmail.com

                       

        

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