जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज 26 नवंबर 2008 मुंबई हमले की 16वीं बरसी है. आजाद भारत के इतिहास में देश पर हुआ यह सबसे बड़े आतंकी हमलों में से एक था. इस हमले में 18 सुरक्षाकर्मियों सहित 166 लोग मारे गए थे और 300 से ज्यादा लोग घायल हुए थे. भारत की आर्थिक राजधानी पर हुए इस हमले की कड़वी स्मृतियां आज भी देश के मन में एक घाव है. एक शहर को बंधक बनाकर उसे दहशत और आतंक के साए में कैद करने के यह काले दिन देश के स्मृति पटल पर भी गहरे घाव की तरह अंकित है. सारंग उपाध्याय न केवल इस आतंकी हमले के दरमिया मुंबई रहे बल्कि बतौर पत्रकार भागते हांफते और डर में सहमे शहर को बहुत करीब से भी देखा. प्रस्तुत कहानी मुंबई में दर्ज उन तारीखों का जीवंत चित्रण है जहां कथा में नायक एक़ शहर है और उसकी स्मृतियां हैं. पढ़िए सारंग उपाध्याय की कहानी-
————————-

तीन रातों की नींद पूरी कर जागा तो कमरे में खिले हुए मौसम की उजास फैली हुई थी. धूप के टुकड़े खिड़की फांदकर यहां-वहां बिखरे थे. आंखों में रौशनी की कतरनें अटक रही थीं. गर्दन घुमाई तो एकाएक उनींदी नजरें बालकनी से झांक रहे नीले आसमान के टुकड़े पर गईं, जहां बादलों के गुच्छे दूर-दूर तक टंगे थे. लगा धुएं का गुबार आंखों में धंसने वाला हो. मैंने दो पल के लिए आंखें बंद कर लीं. भीतर एक तंद्रा थी. नींद की खुमारी, जिसमें देह अलसाई सी पड़ी थी. महसूस हुआ कि थकान अभी गई नहीं थी. शरीर निस्तेज और निढाल लग रहा था, लेकिन देह पर ध्‍यान के बीच एक ख्याल तारी हुआ, इस पस्ती और थकान को तो 13….. से 14 घंटे की गहरी नींद के बाद लौट जाना था, पर अब तक गई नहीं? यहीं शरीर में ही अटकी है.

मैं सोचने लगा कि थकान बेचारी लौटकर जाती भी कहां? या तो शरीर में रहेगी या फिर मन में. शरीर से मन और मन से शरीर, यही आवाजाही है उसकी. ज्‍यादा से ज्‍यादा मन से निकलकर आसपास फैल जाएगी.

थकान भला, कभी कहीं जाती है?

अचानक कागज के फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी. यह आवाज देर रात का तगादा थी. बार-बार की दस्तक. शायद तेज पंखे की आवाज और पसरी हुई गहरी नींद में इस खड़खड़ाहट पर ध्यान ना गया हो. पर अब तो धूप के चिल्कों के बीच यह चुभ रही थी. जैसे बेचैनी आवाज लगा रही हो. यह कैलेंडर था, पंखे की हवा से मानों दीवार छोड़कर, छिटककर उड़ जाना चाहता था. मेरा ध्यान हिलते हुए कैलेंडर पर गया-साल 2008 विदा की तैयारी में था. ग्यारहवां महीना, नवंबर 2008. दिसंबर लगने में एक दिन शेष था फिर चंद दिनों बाद दिसंबर का भी अंत और यह साल खत्म. पृथ्वी अपने हिस्से की जवाबदेही निभाकर दुनिया को जश्न का मौका देने वाली थी. वैसे एक माह बाद तो कैलेंडर भी विदा होने की तैयारी में था, बशर्ते है मैं नये सालों के जश्न मनाने वाले शौकीनों में से एक होता या कि फिर वैसा जिम्मेदार होता कि कमरे का किराया समय पर देता रहूं, कैलेंडर बदलता रहूं या घड़ी के सेल पर ध्यान देता रहूं, लेकिन मैं ऐसा होता तो यहां अलसाया कहां पड़ा रहता? जबकि इधर तो हर बीतते साल में बहुत से रिजोल्यूशन मेरे हाथ लगते रहे हैं- पर ना रिजोल्यूशन कभी लाइफ के रिवोल्यूशन बने हैं और ना कैलेंडर बदलने से साल बदलते रहे हैं, ना सालों के बदलने से बीता हुआ भुलाया-बिसराया जाता रहा है.
बात से आप इत्तेफाक रखें- शायद हां या शायद नहीं .!
मैं नवंबर माह में एक तारीख ढूंढता हूं और यकायक निगाह उस तारीख पर अटक जाती है- 26 नवंबर 2008. मैं पलक फाड़कर, नींद को आंखों के कोरों पर धकेलकर 26 को एकटक देखता हूं. निगाह अटकती है, और अटकी ही रहती है. देर तक, दूर तक. कई बार किसी दृश्य में निगाह का अटकना उतने समय के किसी हिस्से में ठहर जाना होता है, शायद ठिठकना बाहर से ज्यादा भीतर होता है. मैं उस तारीख में उतना ही ठहरा, थमा, फिर एक क्षण में लौटा और उठकर बैठ गया.
औचक..! 
समय और तारीखें अक्सर ऐसे ही उठाती हैं. अचानक..! संभवत: हमारी सभ्यता में तारीखें और समय उठाने और जगाने का काम ही करती रही हैं. बार-बार लगातार, जैसे स्‍मृतियों के जागरण अभियान.  सोचता हूं एक दिन हम उस महास्‍मृति का हिस्‍सा बन जाएंगे जिसमें भारतीय आरपार होते रहते हैं. समय से पार… स्मृतियों में चलता जीवन..!

मैं फिर आंखें फाड़कर तारीख पढ़ता हूं, लेकिन आज तो 26 तारीख नहीं है. 26 तारीख तीन दिन पहले ही बीत गई है. लेकिन 27-28 और 29 तारीखें भी तो बीत गई हैं, तो फिर जो बीत गया है उसे मैं याद क्यों कर रहा हूं? कुछ तो है जो अब भी मौजूद है, कहां? शायद मेरे अंदर या फिर इस जगह में, पृथ्‍वी के इस भूगोल में, इस शहर में जहां मैं हूं.  

मैं उठा और पंखे की बटन पर एक झटके से उंगली रख दी फिर नीचे रखे टेबल से पेन उठाकर हवा से फड़फड़ाते हुए कैलेंडर पर एक हाथ रख उस तारीख पर काली स्याही का घेरा बना दिया. 26 नवंबर 2008. लेकिन हाथ रुके नहीं, 27-28 और 29 सारी तारीखों को भी मैंने गिरफ्त में ले लिया. अब घेरे तीन थे- तीन तारीखें और सुर्ख काली स्याही के तीन घेरे. लगा मैंने दुनिया के समय का एक हिस्‍सा अपने पास रख लिया. पूरे 48 घंटे अब मेरी गिरफ्त में थे जैसे एक अतीत अंदर जज्ब कर लिया. लेकिन इन घेरों की पतली दीवारों से मैं संतुष्‍ट नहीं था, मैंने उन तारीखों की कैद को मजबूत करने के लिए हर घेरे पर दो बार फिर से पेन घुमाया और हर घेरे को और स्याह कर दिया. एकदम गाढ़ा, जैसे किसी चीज को चिह्नित कर लिया गया हो, यह घटे हुए की निशानदेही थी. छूटे हुए के अवशेष की बरामदगी या फिर जैसे समय के हिस्से में आवाजाही के लिए मैंने एक कोस मीनार ही बना ली. कोस मीनार. यह शब्द फिर भीतर गूंजा. लगा हमारी स्‍मृतियों में भी तो कुछ कोस मीनारें हैं जैसे 26 नवंबर 2008 एक कोस मीनार ही तो है..!.

पंखा बंद हो चुका था. कैलेंडर खामोश था. कमरे में एक नीरव शांति छा गई थी. मैंने खिड़की के दरवाजे उढ़का दिए, जिससे धूप के टुकड़े एक क्षण में लौट गए. एक छांव जैसे कमरे में छाई फिर मेरे मन पर फैल गई. बालकनी के दरवाजे अधखुले छोड़ने के लिए बढ़ा तो नजरें फिर सामने ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों से ऊपर पसरे आसमान पर टिक गईं. मुंबई के आकाश में सर्दियों के दिन यहां-वहां बिखरे हुए थे. धूप के साथ खेलते, दूर-दूर तक फैले. मुंबई में ठंड ऐसे ही पड़ती है, बिखरी-बिखरी, फीकी-फीकी, शरमाई सी और थोड़ी सी रंगहीन. यहां आप गुलाबी ठंड की उम्मीद नहीं पाल सकते. यह शहर नमकीन है, समुंदर की हवाओं ने इसके हर कोने में जिंदगी का नमक भर दिया है. यहां सर्दी की ठिठुरन भी तेज बारिश में भीगने पर ही लगती है, वह भी तब, जब बारिश के साथ हवाएं मेहरबान हों.

मैं बालकनी तक गया और वहां अनमने ढंग से झांककर कमरे के अंदर आ गया. पीछे कबूतरों की फड़फड़ाहट और कौओं की कांव-कांव चली आई और धीरे-धीरे कमरे में पसरकर कहीं गुम हो गई.

मैं उस खामोश कैलेंडर में एक बार फिर उन तीन तारीखों को देखता हूं. काली स्याही के सुर्ख घेरे में कैद तीन अंक, जैसे किसी रिवॉल्वर से निकली गोलियां जो समय के एक हिस्‍से को भेदकर लौट गईं. तीन घेरे, जैसे इतिहास के सबसे लहूलुहान टुकड़े- मायूसी, शोक और उदासी से भरे मनहूस दिनों के गुच्छे, घायल और खौफ में डूबी बेचैन रातों के सबसे काले पहर, अफसोस से भरी रातें जिनकी कोई सुबह नहीं थी.

26-27-28-29 नवंबर 2008, मौत के घात लगाकर शिकार करने वाले दिन. 

मैं महज 4 दिन पुरानी चंद तारीखों के अतीत में यात्रा कर रहा था, जबकि उस कमरे की खिड़की से बाहर एक पूरा शहर उन्हीं तारीख के आसपास अपने हिस्से का इतिहास समेट रहा था.

कुछ आवाजें मेरे कानों में गूंजती हैं. कुछ ध्वनियां जैसे आकार लेकर सामने आ खड़ी होती हैं. मैं पैरों की भगदड़ सुनता हूं. दहशत में डूबे गलियारे की धौंकनी सी चलती सांसे महसूस करता हूं, डर को चीखते और घबराहट को दिल में उतरते देखता हूं. मेरे कानों में बाहर ना निकलने की हिदायतें फड़फडा़ती हैं, दिमाग में आवारा अफवाहें सांयSSसाय घुसती हैं, दिल डूबता जाता है एक अंतहीन अंधेरे में..!

मैं न्यूज रूम में दर्ज हूं- मुंबई अंधेरी पश्चिम उपनगर के एक बेहद चमचमाते इलाके में. एक तारीख में कैद और जल्‍द ही चंद और तारीखों में कैद होने के लिए मजबूर. मैं लौटने से पहले ठिठके कदमों के बीच हूं..

शाम की पारी कभी खत्म नहीं होती..! 3 तारीखों की अंतहीन शिफ्ट.
खबरों की गोलियों सी रफ्तार बौछार..!
असंख्य आवाजें- “26 नवंबर 2008 मुंबई में आतंकी हमला”, “मुंबईवरील सर्वात मोठा दहशतवादी हल्ला”
अनगिनत शब्द- “26/11 भारत पर थोपा गया युद्ध”, “IT’S WAR ON MUMBAI, 
कभी ना खामोश होने वाला शोर- “CITY AT GUNPOINT”
और बिलखती हुई स्मृतियां- “मुंबई 26/11 हमला, खून-खौफ के 60 घंटे”,
मेरे अतीत में एक शहर को तीन दिन बंधक बनाने की दास्तां दर्ज है-
3 दिन, 3 तारीखें, सैंकड़ो लाशें और कई जगहें..!

जगहें जिनके धड़कते दिल अचानक टूटे और भरभराकर गिर गए-
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, ओबेरॉय ट्राइडेंट, ताज पैलेस एंड टॉवर,लियोपोल्ड कैफे,  
जगहें जो पत्थर बन गईं- कामा हॉस्पिटल, नरीमन हाउस, मेट्रो सिनेमा,
जगहें जो सबसे खौफनाक मृत्यु का शिलालेख रहीं-
टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग, सेंट जेवियर कॉलेज एक मायूस गली,
जगहें, जिनके हिस्से आया एक घायल इतिहास.. अंधाधुंध फायरिंग, खून की बौछारें और असंख्य अमिट चीखती हुई काली स्मृतियां..!
सबकुछ बिखरा, टूटा और धुआं..धुआं.
एक शहर पर जैसे मौत ने झपट्टा मारा हो, मौत ने खौफ का जाल फेंका हो, अफरा-तफरी, भगदड़, चीख पुकार, गोलियों की आवाजें, प्लेटफॉर्म पर लाशों के ढेर, छलनी होते दिल, रोते-बिलखते लोग..!

हफ्ता भर भी नहीं हुआ इन तारीखों को बीते और यह तारीखें, यह महीना और सब इतिहास बन गए. 26 नवंबर 2008. हादसे की दस्तक. हर मन में अंधेरा भरने वाली तारीखें.

मैं तारीखों के बारे में सोचता हूं. हर तारीख अपने भीतर कितना कुछ अपरिमित और असंभावित इतिहास लिए बैठी रहती हैं, जिस दिन जो घटा, सुख-दुख, घटना-दुर्घटना, हादसे, सब चंद दिनों में दर्ज. मैं सोचता हूं तारीखें स्मृतियों का संदूक है. आवाजाही के निशान. समय के भीतर यात्राओं के कोस मीनार. घटे हुए की निशानदेही, हम तारीखों में रहते हैं और एक दिन तारीखों में ही विदा हो जाते हैं..!

सोचता हूं- दुनिया का इतिहास तारीखें हैं, चंद दिनों का लेखा-जोखा. महीनों के भीतर दिनों का हिसाब-किताब. जैसे हिरोशिमा, नागासाकी, जैसे बंटवारा, जैसे भोपाल गैस कांड, जैसे अकाल, बाढ़, भूकंप और हादसों, आपदाओं की तारीखें, जैसे असंख्य अनगिनत आमनवीय युद्धों की तारीखें, जैसे 9/11 जैसे 26/11..! सब एक इतिहास है, कभी ना विस्‍मृत होने वाला.

भरोसे का अपहरण और एक घायल शहर
आज 1 दिसंबर 2008 है. मैं 4 मंजिला उस इमारत के दूसरे माले के फ्लैट में अपने कमरे को एक सहमी हई खामोशी के हवाले छोड़ बाहर आ गया. मैं एक घायल शहर में दाखिल होता हूं. डरे, सहमे और खौफ खाए नागरिकों के समूह में. हर एक की आंखों में शक है, दहशत का गुबार जो शायद घर पहुंचकर गायब हो..! मैं पशोपेश में हूं, एक छोटे से फैसले की बड़ी सी उहापोह, मन कई शंकाओं में डूबता-उतरता है, अपने ही संदेह के घेरों में उलझता है..!

क्या डर ऐसा ही होता है? खुदके ही भरोसे का अपहरण कर लेने वाला?

अंधेरी स्टेशन पर हूं. समझ नहीं पा रहा, चर्चगेट जाऊं या सीएसटी? कहीं जाने का फैसला भी स्‍टेशन पर खड़े हर शख्‍स के चेहरे पर ढूंढ रहा हूं. वही बताएगा कि कहां जाना महफूज होगा? दहशत हर चेहरे पर पसरी है. खामोशी सबकी आंखों में तैर रही है?

मैं हर आदमी के मन की टोह लेता हूं.
टेन चर्च गेट जा रही है?
वीटी में सिक्योरिटी ज्यादा टाइट है क्या?
ट्रेन खाली है न?
लोगों ने जाना बंद कर दिया क्या उधर?

फिर टिकट विंडों पर पूछ बैठा- “क्‍यो भाई साहब ये चर्च गेट और सीएसटी के कितने टिकट बिके होंगे” जवाब संभलकर आता है- यह बिगाड़ से पहले का ही संभलना है, पिछले चार दिनों से जमे शक को धीरे से सरकाते हुए वो बोलता है- “तकरीबन 15 से 20 फीसदी ही रह गए हैं”.

फिर वह ठेठ मुंबइया में पलटता है- आपको क्या मांगता है? किधर जाने का है वो बोलो.
मैं कहता हूं- चर्चगेट..!
लोकल ट्रेन के गेट पर खड़ा हूं. हवा के थपेड़े ऐसे लग रहे हैं मानों गोलियां चल रही हों. शहर स्तब्ध सा लग रहा है. अपने में ही चौंका हुआ. बाहर दूर-दूर तक एक खालीपन समाया है. मैं मन के खालीपन को बार-बार भरने की कोशिश करता हूं लेकिन यही खालीपन बाहर सन्नाटा बनकर पसरा है, ट्रेन में भी यही खालीपन है. लोकल ट्रेन की खाली पड़ी सीटों पर भी, डिब्बे में चंद लोग हैं, लेकिन उनके साथ ना बैठने की इच्‍छा हुई ना कुछ पूछने की. लग रहा है हर आदमी को दूसरे आदमी पर शक है. हर सांस शक की. विश्वास दूर-दूर तक नहीं. चेहरे जाने-पहचाने, लेकिन अजीब सी अजनबियत, ऐसा लगता है मानों इनमें से कोई एक उठेगा और सभी को गोली मार देगा.

मैं सरपट भागी जा रही ट्रेन के गेट पर खड़ा होकर दूर-दूर तक देखता हूं. बाहर रफ्तार में शून्य फैल रहा है.! दादर में भीड़ नहीं चढ़ी, लोअर परेल में चंद लोग उतरे, महालक्ष्मी में फिर कुछ लोग उतरे, ट्रेन खिसक रही है..! मरीन लाइंस की आहट है. समंदर की हवाएं ठंडक दे रही हैं, सागर दूर-दूर तक फैला है, लहरों को ढोता हुआ. बिल्डिंगें अलसाई सी मौन खड़ी हैं, हमेशा भागती हुई चमकती कारों से अटी पड़ी. मरीन ड्राइव इतनी खामोश और अकेली कभी नहीं दिखी. आज वहां प्रेम में कोई दुपट्टा नहीं लहरा रहा. मुलाकातें चुप्पियों में दर्ज हैं, कोई कसमें नहीं कोई वादे नहीं, कहीं कोई सपना नहीं, सारी आंखें सूनी हैं और सारा खालीपन पथराया है.

ट्रेन स्‍टेशन छोड़ रही है, फिर गति पकड़ रही है. मैं चौंकता हूं एकाएक, सामने की ओर मरीन ड्राइव की वह सड़क मुड़ती है, हां थोड़ा सा और आगे, कसाब वह आतंकी, अजमल आमिर कसाब, वही पाकिस्तानी लड़का पकड़ा गया था.. मैं याद करता हूं..! ट्रेन दौड़ी जा रही है. भागती ट्रेन में मैं उतने ही दृश्य समेट लेता हूं जितने हिस्से आ जाएं और वह सबकुछ याद कर लेता हूं जितना मेरे अंदर बीते तीन दिनों में समा गया है.
गोलियां, जगहें, धमाके, अफरा-तफरी, डर और दहशत.  
चर्चगेट स्‍टेशन आ गया है. एक अजीब सी शांति फैली है. भीड़ की आवाजों के बीच अजगर सी पसरती खामोशी..! अचानक असंख्‍य पदचापों और फुसफुसाहट के बीच एक झटके से टनSSटनाहट की आवाज होती है. एक मच्‍छी वाले का स्‍टील का बर्तन जमीन से जा टकराया, मैं अंदर तक सिंहर गया हूं. लोगों का एक रैला पलटकर देखता है, कई लोग सहम उठते हैं. मेरे दिलो-दिमाग में एक दहशत दौड़ती है. ऐसी खामोशी में इस आवाज के लिए कोई तैयार नहीं था.

चर्चगेट पर उतरा तो वीटी याद आ गया- वहां जाने की तो हिम्मत ही नहीं हुई, सोचता हूं, किसी ने गोली मार दी तो..! पर वहां जाया भी तो जा सकता है..! नहीं जाने के बारे में सोचता हूं फिर जाने की संभावना तलाशता हूं फिर अचानक से कदम आगे बढ़ा देता हूं.

तारीखों से गुजरने के बाद जो बचा रहता है..!
चर्चगेट स्‍टेशन से बाहर आ गया हूं. दूर निकल आया हूं. पैर धीमे-धीमे सरक रहे हैं. मैं दक्षिण मुंबई में हूं- साउथ मुंबई. नई और पुरानी बिल्‍डिंगों का बड़ा सा जंगल, आसमान छूती इमारतें, दूर तक फैले बंगले, साफ चिकनी गुलमोहर के पेड़ों की छाया से लबरेज काली सड़कें, उड़ते कबूतर, अलसाए से कुत्‍ते, निढाल पड़ी बिल्‍लियां, उछलकूद मचाते कौए, उंघते टैक्‍सी ड्राइवर, अखबारों में गड़ी हुईं असंख्‍य आंखें, ऊंचे फ्लैट की खिड़कियों से झांकती नजरें, कुछ शक में डूबीं तो कुछ घूरती हुईं, अलसाए, अनमने कदमताल करते लोग, बेवजह खामोश बैठे लोग, ढेर सारे लोग और इक्का-दुक्का लोग, लोग ही लोग जिनके होने का अर्थ है भी नहीं भी, मचलती, बिखरती ट्रैफिक की कतरनें, आसमान में हौले से गुजरते हवाई जहाज और उन्‍हें देखने मचलती अनगिनत दृष्‍टियां, वहां टिकी हुई मेरी भी एक नजर है, जो क्षण में जमीन की ओर लौटती है, मैं भी चला जा रहा हूं, कहां जा रहा हूं वहीं, उन्‍हीं तारीखों में अपने हिस्‍से की स्‍मृतियां समेटने..।

मेरे दाहिनी ओर कुछ ही दूरी पर हिलोरे खाता अरब सागर है. हवाएं जैसे एक-एक लहर के शोर के साथ उठ रही हैं और धूप के साथ मिलकर भीतर समा जा रही हो. हर लहर और हवा का हर झोंका जैसे इतिहास समेट रहा है. मैं देखता हूं, समय हवाओं से धुल रहा है, जानों समय ऐसे ही धोया जाता है. हम समय को कभी मिटा नहीं सकते, समय को समय ही मिटाता है या मौसम या प्रकृति या कि बदलती ऋतुएं. समय एक चक्र से दूसरे चक्र में बीतता रहता है, घटनाएं पिघलती रहती हैं और जीवन से बाहर होती रहती हैं.

मैं महसूस कर रहा हूं समुंदर से उठी हवाएं सुनहरी धूप में मिलकर और चमकदार हो रही हैं, एक खूनी इतिहास अब भी हवा में है और वह हवाओं से ही विदा हो रहा है. वह डर और खौफ भी, जो काली स्‍याह सड़कों पर हमारे होने की आहट में मौजूद है. सामने कुछ रेहड़ी वाले, टैक्सी वाले, चंद अखबार मैगजीन वाले, कुछ विदेशी टूरिस्ट जो लौटना चाहते हैं, उनकी आंखों में एक बार ताज को देखने की इच्छा है, खुशकिस्मती उनके चेहरे से टपकती है कि अच्छा हुआ वे होटल ताज में नहीं थे, वे लियोपोर्ट कैफे में भी नहीं थे, वे वीटी में भी नहीं थे, वे वहां-वहां नहीं थे, जहां-जहां उन्हें नहीं होना था, कई बार होने से ज्यादा अच्छा होता है नहीं होना..!

कबूतरों के फड़फड़ाने की आवाज आसमान में ऊंची उठती है और कहीं दूर खो जाती है..!

रिज़र्व बैंक की बिल्डिंग खामोश है. बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज की इमारत दूर से दिखाई पड़ती है, यहीं कहीं मुंबई हाईकोर्ट खड़ी है, दूर एक वीटी थर्राया सा है. एक प्लेटफॉर्म गोलियों की आवाज में कहीं खो गया है, यहां असंख्य बिल्डिंगें हैं, अनगिनत कॉन्क्रीट के ढांचे.
मैं बढ़ता चला जाता हूं.
सामने मुंबई युनिवर्सिटी के उंचे बेखौफ कंगूरे, और उसके आंगन में दिनों बाद निकले महफूज सूरज में क्रिकेट खेलते लोग. मैं सोचता हूं- यह सूरज महफूज है, लेकिन उन तारीखों का सूरज एक धुंध में लिपटा था, एक काले अंधेरे में..! यह उजले और साफ दिनों की फेरहिस्त है जिसमें मैं हूं, और जिसके आसपास मै हूं, सभी कुछ सुरक्षित और दहशत के बीच उससे पार दिखता है. मेरे बढ़ते कदमों में एक आत्मविश्वास तैरता है..!

सामने मैदान है. गेट खोलकर अंदर की पगडंडी पर कदम रखता हूं. निगाहें पूरे मैदान पर फैल जाती हैं. दूर-दूर तक क्रिकेट खेलते हुए लोग, कुछ यहां-वहां घूम रहे हैं, कुछ उदास हैं तो कुछ हंसना चाहते हैं, लेकिन वे हंसने और नहीं हंसने के बीच कहीं हैं, पर अनमने नहीं हैं, कुत्ते और कौए एक दूसरे से खीजे हुए हैं, एक चिढ़ता है, दूसरे चिढ़ाते हैं, उनमें एक खींचतान है. कबूतरों का झुंड अपने ही पंखों के फड़फड़ाने की आवाज में घूम रहा है. वे मुग्ध हैं और बिखरे हुए भी.

कुछ लोग अकेले हैं, जैसे कहीं अटके हैं, अपने होने के भीतर. सभी उन तारीखों की छाया में लिपटे दिखाई पड़ते हैं, जो बीतते हुए भी बीत नहीं रहीं, जैसे वो तारीखें मेरे भीतर तैर रही हैं, मैं महसूस करता हूं एक काली अंधियारी रात, दूर कहीं अपने अंधेरे के साथ लौटी नहीं है, वह थोड़ी-थोड़ी शेष है. मैं सभी की आंखों में डर की कतरनें और उन तारीखों को देखता हूं जो स्मृतियां बन गई हैं, यह एक देश के लोग हैं और यह तारीखें एक देश की स्मृतियां हैं..!

हम सबलोग थोड़ा अभी और थोड़ा कहीं और हैं..!
मैं उन तारीखों से बाहर आना चाहता हूं. उन स्मृतियों से भी जो एक देश की स्मृतियां हैं. एक नागरिक की स्मृतियां उसके देश की स्मृतियां होती हैं. मैं उस अतीत से बाहर आ जाता हूं और कुछ और सोचता हूं- मैं यह सोचने के लिए सोचता हूं कि इस पसरे, डर से बाहर आते हुए इस दिन में इस जगह के बारे में क्या सोचा जाए?

अचानक मैं फिल्म याद करता हूं- “आस्‍था”- रेखा, ओमपुरी, नवीन निश्‍चल, बड़ी धुंधली याद है. दूर देखता हूं मैदान में, यही वो जगह है जहां वो चलता है. ओमपुरी प्रोफेसर है, प्रगतिशील, दूसरे आदमी के बारे में दिमाग पर जोर डालता हूं, लेकिन नाम याद नहीं आता. फिर दिमाग पर जोर डालता हूं पर नहीं याद आता.

मैं साउथ मुंबई की चकाचौंध के बारे में सोचता हूं. उन खूबसूरत लड़कियों के बारे में जिन्हें यहां स्वच्छंद घूमते मैंने पहली बार देखा था, उस पहली बार को याद करता हूं जब यहां भारत की सबसे अमीर और समृद्ध जगह पर मैंने पैर रखे थे..!

मैं बस सोचता हूं और वह सबकुछ याद करने की कोशिश करता हूं जो सुख के रूप में मेरे भीतर दर्ज है. लेकिन जैसे स्मृतियों की रील कहीं अटकी सी है, रुक पड़ती है और अपने आसपास को देखते ही भीतर कहीं गुम हो जाती हैं. 

सुखद स्मृतियां पटल पर नहीं आ रहीं, क्यों नहीं आ रही, पता नहीं क्यों? मैंने सोचना ही छोड़ दिया है, बहुत सोचने की अब गुंजाइश भी नहीं है- मेरा दिमाग उन तीन तारीखों में बंधक है जो इस देश के मन पर छाई हैं -26-27-28 और 29. मैं तारीखों में अटकी एक घायल स्मृति हूं. उन तारीखों ने मुझे अपने वर्तमान से खींचकर अतीत के उस कोस मीनार में बंधक बना लिया है, जहां एक शहर, एक देश अपने समय के साथ बंधक है…!
देश-दुनिया अक्सर ऐसी तारीखों और सालों में अटक जाती हैं. मैं भी उन तारीखों में रुक गया हूं.  मैं कैद हूं और मेरे साथ एक पूरा इतिहास थमा हुआ है..! लेकिन यह देश समय के उस टुकड़े से कैसे मुक्त होगा? क्या उन तारीखों को हम भूल पाएंगे? 

क्या भूलना इतना जरूरी है और याद करना?
अन्यमनस्क हूं. अक्सर ऐसा हो जाता हूं. कई लोगों ने उस अन्यमनस्कता को तोड़ा क्योंकि यह कई बार बेवजह रही. आज एक वजह है, लेकिन उसे भूलना चाहते हैं- 1 दिसंबर 2008 की इस ढलती सुबह में जबकि हवाएं और तेज हो रही हैं. मैं भूल जाने और याद करने के बारे में सोचता हूं. मैं इस आतंकी हमले में मारे गए लोगों के परिजन के बारे में सोचता हूं.  मैं सोचता हूं कि रोज घर पहुंचने वाले की आखिरी सूरत और उसकी याद दिलों के किन कोनों में जाकर धंसी होगी? 

मैं एक पत्नी, बेटी, मां भाई, दोस्त के हिस्से की उस याद के बारे में सोचता हूं जिसे वे भूलने की कोशिश में होंगे? उन यादों को महसूस करता हूं जिसे वे जितना भूल रहे होंगे उतना ही दुख और पीड़ा से गुजर रहे होंगे. उन स्मृतियों के बारे में सोचता हूं जो सर्वाधिक प्रेम, अपनत्व और प्रगाढ़ मोह में डूबी होंगी और उन परिजनों को उन्हें किसी भी सूरत में विस्मृत करना होगा ताकि वे स्मृतियों में लिपटे अपने अनंत दुखों से निजात पा सकें.

दुख और पीड़ा से मुक्ति का रास्ता, स्मृति और विस्मृति का ही तो होगा..!

भूलने और भूलते जाने में बहुत दर्द है. अजीब सी दुविधा, बेचैनी और संघर्ष. किसी की यादों को हटाने के लिए खुदको तैयार करना, फिर भूलना और फिर एक दिन उन यादों के हर एक उस हिस्से से बाहर आ जाना जैसे कुछ था ही नहीं.

क्या याद करने का दर्द, नहीं रहने वाले से ज्यादा उन लोगों के हिस्से नहीं आता होगा जिन्हें ना चाहकर भी बहुत कुछ याद करना है?

मैं उन यादों को भूलना चाहता हूं, जो मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरी स्मृतियों का हिस्सा हैं, और जिन्हें विस्मृत करना भी मेरे हाथ नहीं.

क्या इस दुनिया में हम दुखों की स्मृतियों को विस्मृत कर पाएंगे? देखिए ना महीना, तारीखें और साल मेरे लिए कभी ना भूलने वाली याद है और भूल जाने के बाद विस्मृति का सबसे आखिरी कोना, जहां यह तारीखें दोबारा याद करने के लिए तैयार बैठी हैं.

मैं सोचता हूं, छूटी हुई चीजों की विस्मृति के बाद के हिस्से में क्या होता होगा? कम्बख्त भूलना ही तो याददाश्त की सबसे बड़ी खामी है, जिसे भूलना होता है वह सबसे ज्यादा याद में बना रहता है और जिसे दिमाग के सबसे आखिरी हिस्से में छोड़ना है वह दिल में छाया रहता है.

जो नहीं है उसे स्वीकार करने की तैयारी दुख है, और जो दुख है उसे भूलने के लिए स्मृति को तैयार करना भी दुख है.

सुख और दुख दोनों स्मृतियों में रहते हैं.

मैं एक बार सिर उठाकर दूर देखता हूं, सामने मुंबई यूनिवर्सिटी है. अपने में ठिठकी और चुप जैसे किसी के इंतजार में खड़ी है. मेरी निगाह कुछ देर टिकती है फिर सामने समुंदर में डूबने जा रही सूरज की रौशनी से चुंधियाकर नीचे लौट आती हैं. गर्मी तेज है, बदन पर पसीने के रेले बह रहे हैं और समंदर से उठती हवाओं के झोंकों से सूख भी जाते हैं.

मैं आगे बढ़ता हूं.

चिड़ियों की चहचहाट, कबूतरों की गुटर-गूं, कौओं की टूटती-बिखरती पुकारें और दूर गन्‍ने के मशीन की घर्रSSघर्र की आवाजें सब जैसे धीरे-धीरे अंदर उतर रही हैं. प्यास से मेरा गला सूख रहा है, आंखों में पसरा गर्म सन्नाटा गहरे में चुभ रहा है. मैं एक ग्लास गन्ने के रस से गला तर करता हूं,  ठहरता हूं और दाहिनी ओर मुड़ जाता हूं.

सामने गोल चौराहा है, पुलिस वाले तैनात हैं, इक्‍का-दुक्‍का आदमी और आदमी के अंदर अतीत की राख का कालापन. मैं खुदको इराक में पाता हूं. एक गुमठी के नीचे खड़ा हूं तो आसपास की भीड़ में खुदको काबुल के किसी बाजार में खड़ा पाता हूं. अपने कभी भी खत्‍म होने का शक थूक की तरह निगलता हूं, थूक का वह थक्का पेट में पहुंचता है और खौफ में तब्‍दील हो जाता है.

वैसे पेट के अंदर खौफ पाले और चेहरे पर सूखी हुई सांसों के तेज होने और धीमें होने के बीच खुदके मरने का शक काफी होता है..।

सामने एक बड़ा सा बोर्ड है. मुंबई के आतंकी हमलों में शहीदों को भावभीनीं श्रद्धांजलि, तीन फोटो सामने हैं, हेमंत करकरे, अशोक आम्‍टे, और विजय साल्‍स्‍कर.

थोड़ा नजदीक जाकर देखता हूं, मन रुआंसा हो गया. हेमंत करकरे याद आते हैं. याद आती है दो बार की मुलाकात. एक ही जगह अलग-अलग समय. चहरे की सौम्‍यता, शांति और स्थिरता, देखकर नहीं लगता कि कभी पुलिस में होंगे. पेशे से डॉक्‍टर इंजीनियर, और वकील दिखते हैं.

मैं अप्रैल-मई के दरमियां मीडिया टूर्नामेंट की याद करता हूं. याद आता है मरीन लाइन्‍स का मैदान. सामने झूमता हुआ ठंडी हवा के झोके फेंकता संमदर. हल्की धूप, मैच में थोड़ी देर है. मैं इधर-उधर टल्‍लाता वहां पहुंचता हूं जहां मुख्‍य अतिथि के रूप में हेमंत करकरे बैठे हैं. मैं एटीएस चीफ हेमंत करकरे को नहीं जानता. लेकिन उस चेहरे को जानता हूं, जो यहां है बोर्ड पर.

मेरी उनसे नजरें मिलती हैं. मैं हैलो बोलता हूं, वे मुस्कुराते हैं और गर्दन फेर लेते हैं. दूसरी मुलाकात, हमारे मैच होने की शुरूआत में टॉस करवाते वक्‍त होती है. साथी पंकज दलवी टॉस करवाते हुए साथ में हैं. इस बार मैं बहुत करीब हूं, ऊंची, कदकाठी, गोरा, रंग, लंबा और चौड़ा भाल, गाढ़ी मूंछें, बिल्‍कुल सहज, और सामान्‍य परिचय.

मैं बोर्ड को और नजदीक से देखता हूं. शहीद हेमंत करकरे…!

न्‍यूज रूम की अफरा-तफरी महसूस करता हूं. 26 तारीख की रात, दुनिया के हर तरह के शून्‍य को अपने भीतर समेटने वाली रात, चारों ओर एक खौफनाक खालीपन भर देने वाली रात, मुंबई की रौशनी को निगलने वाली रात. न्‍यूज रूम की भाग दौड़ में सुनता हूं-

हेमंत करकरे, आतंकवादी हमले में शहीद, एक आवाज अब भी गूंजती है. अवाक् रह जाता हूं, खुदको देखता हूं, दूसरों को देखता हूं, अपने अंदर दर्ज की गई स्‍मृतियों को अवेरना शुरू करता हूं.

उस बोर्ड को फिर देखता हूं- शहीद अशोक आम्टे और विजय सालस्कर..!

कुछ आवाजें फिर गूंजती हैं. स्मृति के सबसे भूलने वाले हिस्से सबसे ज्यादा याद आते हैं. याद आती एक आवाज..! अशोक आम्‍टे नहीं रहे, विजय सालस्‍कर भी बनें आतंकियों की गोली का शिकार..! परत दर परत रात गहरी होती है, और हर एक खबर रात के सुर्ख काले गहरे अंधरे को भेदती हुए अंदर उतरती है..!

अजीब लगता है.
मैं साध्‍वी मामले को लेकर एटीएस चीफ की रोजाना बाइट लगाता हूं. बुलेटिन स्‍टार्ट होता है. खबर पढता हूं, खबर लिखता हूं. किससे बोलूं हेमंत करकरे के विजुअल्स दो, रिपोर्टर लाया होगा. आज ही तो प्रेस कांफ्रेंस हुई है. मुझे आज का चाहिए, आज का मतलब आज का…।

ओह, अब एक विजुअल गुम हो गया है. कौन सी लाइब्रेरी में मिलेगा. कौन सी लाइब्रेरी में- सच एक विजुअल गुम हो गया है..!

शायद जीवन की लाइब्रेरी से…!

मैं इतिहास में हूं. तारीखों में. उन तारीखों में जिन्हें अपने कमरे की दीवार से सटे कैलेंडर के भीतर मैंने कालीस्याही में कैद किया है. तीन तारीखें और फिलवक्त मैं. समय के भीतर दर्ज हुआ सा,  जिसे याद को भुलाना चाहता था उसी के भीतर प्रवेश कर गया हूं.

स्तब्ध हूं और खामोश भी. 

क्योंकि इतिहास बनाने वाले एक दिन गुम हो जाते हैं-
न्‍यू ताज के पीछे और गेटवे ऑफ इंडिया से बहुत दूर भीड़ के साथ एक घटना के पुराने निशानों को बातों में निगल रहा हूं. पुलिस वालों के रोके हुए हुजुम, बंद पड़े रास्‍तों से इतिहास पानी का रैला बनकर पैरों को गीला करता हुआ अंदर प्रवेश कर रहा है. आत्मा में प्रवेश, जैसे स्मृतियों के भीतर यह तारीखें निशानदेही हैं, मैं एक छोटा सा गवाह हूं और जरा सा कतरा हूं, समय की उस अदालत का जिसकी आंखों में इतिहास का पन्ना दर्ज हुआ है.

मैं होटल ताज को देखता हूं. घायल, लहुलहुान, बिखरी, बेतरतीब, स्तब्ध, जैसे खौफ खाई मनुष्यता की आंखें, समय का रोता, उदास, मायूस, बिखरा हुआ टुकड़ा..! एक इमारत जिसका हर कोना दुनिया के सामने रोया, एक अतीत जिसके भीतर 3 तारीखें इस देश की आत्मा पर हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गईं. सारी खबरें, रील-दर-रील घूम रही हैं, चेहरे नजर आ रहे हैं, शब्द, लाइनें, आवाजें और शोर आंखों से पानी बनकर बह रहा है. हथेली पर पसीने की स्‍याही मुठ्ठी में बंद होकर गर्मी चाहती है. मैं रोना चाहता हूं किसी से लिपटकर, मैं उन चीखों, आवाजों, और शोर से दूर आना चाहता हूं जो मेरी आत्मा को घायल कर रही हैं. एक हाथ चाहता हूं जो मुझे थाम ले और इन तारीखों की कैद से बाहर निकालकर आजाद कर दे, उस काली स्याही के घेरे से मुक्त कर दे जिन्हें मैंने मेरे भीतर स्मृतियों के कैलेंडर में जज्ब किया है..!

मैं खामोश हूं. भीतर तक खो चुका सा. चैनलों की आवाजों में कहीं गुम..!

आवाज जो अब भी गूंज रही हैं, शोर जो अब भी उठ रहा है…! अब तक का सबसे बड़ा आतंकी हमला..! अखबारों के शब्‍द सुनाई देते हैं. देढ़ सौ की मौत,. लगातार फायरिंग करते दृश्‍य आंखों में आकार लेते हैं, सुदूर ताज की उंचाई मुझे निहार रही है.

नीले रूईदार बादलों से घिरे आसमान में निहारता ताज पर आंखे गड़ाए हुए है. सब कुछ ध्‍वस्‍त, इतिहास ध्‍वस्‍त पड़ा है. दुनिया देख रही है. हर एक कैमरे की आंख वक्‍त को समेट रही है.

कैमरामेन रिपोर्टर, ओबी वैन, अधिकारियों की भीड़, राजनीति सफेद कपड़ों में काले सच को बांधे चल रही है. मुख्‍यमंत्री आ रहे हैं. बहुत से लोग साथ हैं, सिवाय इतिहास बनाने वालों को छोड़कर. इतिहास मुंख्‍यमंत्री ने झंडे में लपेटकर फहराया है, शाइनिंग, पावरफुल और ग्रोथिंग इंडिया का, लेकिन इतिहास बनाने वाले तारीखों में दफ्न हैं, वे एक स्‍टेशन पर पटरियों में पिसते हैं या फिर चुपचाप किसी खत्म होते साल के आखिरी महीने के कुछ आखिरी दिनों में रात को बिना कुछ कहे सबकुछ छोड़कर सीने पर बारूद खाकर एक खबर बन जाते हैं. इतिहास बनाने वाले गुम हो जाते हैं कुछ घटनाओं की तरह, या फिर सफेद कुर्तों में रुमाल बन जाते हैं शाइंनिंग इंडिया के माथे पर निकला पसीना पोछने के लिए.

मैं कुछ रैपिड एक्‍शन फोर्स और एनएसजी के जवानों को देखता हूं. ऐसा लगता है मानों घने कोहरे और ठंड के बाद किसी ने गुनगुनी धूप में बैठा दिया हो. बड़ा महफूज लगता है, एक भरोसा अंगडाई लेता है. हवा में घुली हुई दहशत हवा के साथ घुल रही है. ताज को देखता हूं, जले हुए कंगूरे, वक्‍त के वक्‍त को दिए गए घाव, इतिहास की तारीखों में दर्ज एक कहानी का घायल कथानक. अतीत के झरोखे से बाहर आई अभी-अभी एक स्‍मृति. सामने कबूतरों को देखता हूं उड़ते हैं, डरते हैं, रुकते हैं, चलते हैं, सहमते हैं फिर उड़ान भरते हैं. मानों फड़फड़ाते पंखों से ताज के गुंबदों को दिलासा दे रहे हैं.

अरब सागर शांत है मानों इंडिया गेट के कोने से सटकर कुछ देखना, सुनना और समझना चाहता है. उस पर सुदूर तक फैली रौशनी देखकर लगता है, जैसे हर एक लहर के साथ एक उजाला आ रहा हो दिनों से छाए अंधरे को लीलने.

मेरी आंखों में सूनापन है. मन में विचार खोजता हूं लेकिन खुदको सुमंदर की आवाज में घुलता हुआ पाता हूं. समुंदर को एक बारगी फिर दूर तक देखता हूं. दूर एक अनंत में आंखों में क्षितिज समेटता हूं तो वह सूरज की किरणों में वापस मुझ तक लौट रहा है. शरीर में धूप उतर रही है. अंदर का घना डर और आतंक का काला अंधेरा जल रहा है और आंखों से पानी बनकर बाहर आ रहा है. कबूतरों का झुंड दूर अरब सागर में ताज के लिए सांसे लेने गया है.

ताज को देखता हूं, दूर गुंबद से धुंआ उठ रहा है. 

मैं उन तारीखों से बाहर आने के लिए कदम बढ़ा रहा हूं, लेकिन वहीं हूं जहां इतिहास मुझे रखना चाहता है. मैं वह सबकुछ भूलना चाहता हूं, जो मेरी याद का हिस्सा नहीं है..! मैं भूलने के दुख और याद करने की पीड़ा से मुक्ति चाहता हूं? लेकिन मेरे भीतर जीवन का एक हिस्सा उन तारीखों में दर्ज हो गया है, जहां मेरी नियति सांसे ले रही है..!
क्या मैं कभी स्मृति और विस्मृति दोनों से पार हो पाऊंगा..!

समाप्त

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version