जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए उज़्मा कलाम की कहानी सिंगार। उज़्मा के पास अपनी भाषा है, परिवेश पर पकड़ है और कहानी कहने की शैली है। जैसे यह कहानी- मॉडरेटर

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खेतो की पगडंडियों को पार करके, गाँव में घुसते ही बला की दहाड़ें मार-मार कर रोने की आवाज़ें सुनाई देने लगी। उफ़्फ़…!! एक दो नहीं झुन्ड का झुन्ड रोने में मशग़ूल था। किसी से पूछने की ज़रुरत ना थी। दूर से ही लुबान और अगरबत्ती की महक ने नाक पर हमला बोल दिया। यह मेरी नाक ने किसी भी तरह की मसनवी महक ना बर्दाश्त करने की क़सम खायी है। बस छींकना शुरू। कोई वक़्त और माहौल का लिहाज़ नहीं।

मर्दों की छिली खोपड़ियाँ चमक रही थी और औरतों ने दहाड़ मार-मारकर आसमान सिर पर उठा रखा था। मिनमिनाते बच्चे भी इसी हुजूम का हिस्सा थे और वह भी किसी न किसी बात पर दहाड़े जा रहे थे। मुर्दा शरीर लुबान और अगरबत्तियों से  घिरा था। चारों तरफ़ साफ़ सुथरे शालीन से मर्द सिर झुकाये चुपचाप बैठे थे।  कुछ आपस में मद्धम आवाज़ों में खुसुर-फुसुर भी कर रहे थे। लेकिन दुखों का पहाड़ सिर्फ़ औरतों पर टूटा था या टूटना ही चाहिए। यह रीति है। औरतों का रोना बेहद ज़रूरी है। वह रोएं न तो पता कैसे चले कि कोई मरा है। बीच-बीच में आवाज़ धीमी होती लेकिन जैसे ही किसी एक नए शख़्स का आगमन होता रोने का सुर लय पकड़ता। फिर कुछ देर में धीमा पड़ता। इस आरोही और अवरोही क्रम की टाइमिंग बख़ूबी सेट थी।   

चाची तो ऐसे पछाड़े मार रही थी, जैसे आज ही मर जाएगी। वैसे उसकी ज़िन्दगी का ज़्यादा वक़्त टीकम चाचा की मार खाकर गुज़रा। पिछले कुछ सालो से वह मारने लायक़ नहीं रहा, खाट पर पड़ा गालियां खूब देता और भला चाची कैसे पीछे रहती। बीच-बीच में घूसे और थप्पड़ के चिन्ह दिखाती रहती। मारने को मार सकती थी पर अब क्यों अपनी मट्टी पलीत करे। स्वर्ग के रास्ते बन चुके थे। अब मिट्टी उँडेलने का क्या फ़ायदा। हूँ…बात भी ठीक है। 

आज वह जितना रो रही थी, कि उसको देखकर मन हुआ…पूछ लूँ, चाची हकीकत में इतनी दुखी हो? छोड़ो….गाँव की सभी औरतें बारी-बारी से सीने से लगा रहीं है। अपने आंचलों से आंसू पोछ रही है। इतना प्यार तो बेचारी को जाने कब मिला हो। बिसरा गया होगा। कुछ घड़ी ही सही, जा जी ले अपनी ज़िन्दगी। 

शादी-ब्याह, व्रत-उपवास, तीज-त्योहार, रस्मे-कस्मे हर चीज़ में आगे रहने वाली चाची अचानक दरकिनार हो गयी। कहने को तो सब कहते अब ज़माना बदल गया है। “काहे का अंधविश्वास” लेकिन इज़्ज़त और मनोहार से कोई न्योता उसके द्वार तक नहीं पहुँचता।   

2

उकड़ू बैठकर चलते-चलते आधे से ज़्यादा खेत तो वह अकेले काटती। एक-आधा किसी की मदद लेती। जाने कौन सी ताकत बदन में थी और कौन सी हिम्मत ज़हन में। जब से बंटवारे में जैसे-तैसे लड़-झगड़ के ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा मिला बस उसी में झोपड़ी डालकर चैन की सांस ली थी।  कम से कम  दस ताने मारने वालो से छुटकारा मिला, हाँ…. एक साथ ही आया। सात जन्मो का साथी। बदन पर लकवा मार गया था, अब सिर्फ ज़ुबान   चलती थी। हाथ-पैर सुन्न थे।

दो लोगों भर का वह भरपूर कमा लेती। खेत खलिहान, नरेगा और शादी-ब्याहो, जश्नों में बढ़-चढ़ कर मेहनत करके रोज़ी-रोटी के साथ दवा इलाज सब कर लेती।

“ऐ ला धर हमारी पीठ पर चढ़ा दूँ ऊपर कोठरी में। पांच-दस किलो लेकर ऊपर नीचे करेगी, मिनटों  का काम घंटो में।”

“ऐ चाची तुम्हारी तरह दूध, घी न खाये है।”

“दूध घी से ताक़त ना आती। शहरन में बड़े-बड़े घरां में देख लो। बढ़िया-बढ़िया खाये और मुटाये और जो जरा हाथ छुवा देव तो टुटा जाए, अंदर से बिल्कुल फुस-फुसे।”

“फिर कहाँ से ताक़त आयी भला?”

बस मूड में थी, वह सख़्त जान लगी बयां करने अपनी बहादुरी के किस्से, बलवान देह पाने के किस्से, “अरे यूँ चोटी पकड़कर लुटा दे जमीन मे और वह धमक के घूसा पीठ पे धर  दे। पहल-पहल तो लगी अब मरी की तब मरी, फिर हमरी देह मजबूत होती गयी और उह्की कमजोर।“ किस्से चलते रहे और अनाज ऊपर वाली कोठरी में पहुँच गया। कुछ मेहनताना हाथ में दबाये वह अपने द्वारे पहुंची। 

दरवाज़े की आहट कान मे पड़ते ही, खाट पर पड़े टीकमचंद की ज़ुबान से ज़हर की तरह गालियां बरसने लगी। वह तुरंत खाट के पास पहुंचकर उसको उलट-पुलटकर गीला बिछौना हटाकर सूखा बिछाती है, फिर हाथ मुँह धोकर चूल्हे के पास बैठती है। गालियां चालू रहती है तो वह भी चूल्हे के पास से एक दो गालियां उसकी तरफ़ उछाल देती । बीच-बीच में घूँसों और थप्पड़ों के इशारे भी कर देती।

पिछले बीस-इक्कीस साल से, इनका ऐसा ही रिश्ता था। गांव में आयी नई बहुओं ने, इन्हे ऐसे ही देखा था। यह सैंतालिस साल की रमा सबकी चाची थी। पिछले छह-सात साल से सुकून था। टीकमचंद ने खाट पकड़ ली थी और रमा ने बखूबी ज़िम्मेदारियाँ।

“चाची कहाँ से इतना जिगरा लायी हो?  गू-मूत करो, फिर गाली सुनो”

“कोख हमारी है ऊसर, बात तो सुननी पड़ेगी बहुरिया।” वह लम्बी सांस खींचकर जवाब देती “किसको दोस दे भगवान् को या भाग्य को। जो है वह भुगतन तो पड़ी।”  

3

वह दिन था और चांदनी रात, जब रमा की डोली टीकमचन्द के घर उतरी थी। दुल्हन क्या चाँद का टुकड़ा। ऊपर से उसका साज-सिंगार। गांव अजगैन ही नहीं… आस-पास के आधा दर्जन गांव तक चर्चा थी, उसके रूप की। गांव भर की औरतें उसे देखती, फिर घर आकर आईने में अपना रूप निहारती और मन ही मन ईश्वर को गाली देती। 

टीकम दीवाना था। साल-दो साल ख़ुशी-ख़ुशी बीते। फिर खुसर-फुसर शुरू हो गयी।

“अरे पूनम की बहू के चौथा महीना लगा। पांच ही महीने तो हुए ब्याह को।”

“टीकम के साथ ही तो ब्याह हुआ था रूपचंद की बिटिया का। कल आयी है मायके दूसरी जचगी के लिए।”   

रमा के कान थक रहे थे। जेठ-जेठानी, सास-ननद सबका रवैय्या बदल रहा था।  टीकम के साथ कई बार माता के मन्दिर पर मन्नत मांग आयी थी, पर कोख अंकुरित होने का नाम नहीं ले रही थी।  चिंता और आस में रमा का रूप फीका पड़ने लगा। टीकम भी बदलने लगा। बात-बात में चीखना चिल्लाना और फिर हाथ उठा।  धीरे-धीरे यह रमा की दिनचर्या का हिस्सा हो गया। वह भी इन सब में रम गयी। माँ न बनने के दुःख से बड़ा अब कोई दुःख नहीं था उसके लिए। गांव भर में किसी बहु-बेटी को औलाद होती चार बात उसे सुनने को मिल जाती। इस कमतरी के अहसास में टीकम के लात-घूसे खा लेती। दुनिया के व्रत उपवास करती। करवा चौथ का व्रत क्या धूम से करती। गांव भर की बहुएं उससे जानकारियां इकठ्ठा करती और उसी तरह व्रत करती।   

ऐसे ही चल रहा था कि टीकम को लकवा मार गया। अब उसकी ज़िन्दगी और अधर में आ गयी। ससुराल वाले उसे निकालने पर तुल गए। वह सबके ख़िलाफ़ खड़ी हुई, “बच्चा न है पर हम तो जिन्दा है। अभी न जाने कितना जीवन पड़ा है। सड़क पे भीख तो न मांगेंगे”  लड़ाई झगड़े होते-होते आखिरकार करीब आधा बीघा खेत देकर ससुराल वालो ने किसी तरह उससे किनारा किया। वह भी सब्र करके कुछ ही सही लेकर निकल गयी।   

4

भूरी कुतिया भी उसके साथ गयी। वह उसी की ममता में पली थी। इन जानवरों को बचपना छोड़ जवान होते वक़्त नहीं लगता। दो साल में ही कार्तिक के महीने में हीट में आयी और फिर पेट फुलाये रमा के आगे पीछे घूमती रहती। वह कई बार झिड़कती, “का जरुरत थी इतनी जल्दी।” अक्सर चिचिड़ाते हुए, वह भूल जाती कि यह जानवर है। दो ढाई महीने में छह गुदगुदे पिल्ले उसके घर के पिछवाड़े पैदा हुए। वह उनकी देखभाल में डूब गयी। सास-ससुर का गुस्सा झेलती। सबकी बातें, गालियां सुनकर वह भूरी पर चिड़चिड़ाती, “हमरे एक ना हुआ, तूने छह पैदा करके रख दिए। अब इतने जाड़ो में कैसे पलेंगे।” पूस की रातो में बिस्तर-बिछौने, घास-पात में रखने के बावजूद पांच मर गए। इन जानवरो कि तो ऐसी ही दुनिया है। सोचकर उसने सब्र किया।

भूरी और उसका पैदा लाडू उसके साथ ही नई झोपडी में रहने आये। दोनों ने घर और खेत की रखवाली की ज़िम्मेदारी बिना किसी के कहे अपने कन्धों पर ले ली। इन दोनों के रहते रमा अकेली नहीं थी।

खरीफ़ की फ़सल कट चुकी थी खेत खाली थे। इस बार चावल, उड़द और अरहर अच्छा फला था। बारिश अच्छी हुई थी। रमा के खेत में अरहर की बुआई थी। रबी की फ़सल कटने से पहले टीकमचंद चल बसा था। रबी की फ़सल अच्छी नहीं हुई थी लेकिन खरीफ़ में रमा ने हर साल की तरह मेहनत की थी। लाडू और भूरी ने रातो को भौंक-भौंककर नील गायों को खेत में घुसने नहीं दिया था। फसल पर मौसम और मेहनत का रंग खूब निखरा। रमा के हाथ में ठीक-ठाक पैसे थे। दवा का खर्च भी अब बंद हो गया था।

त्योहारों के स्वागत में कसबे का बाज़ार जगमगा रहा था। लाल, हरे, पीले, गुलाबी रंग से बाजार रंगीन था। औरतों की खनखनाती हंसी खुनकी लिए मौसम के साथ बिखरी थी। तरह-तरह की साड़ियों पर सुनहरे गोटे लच्छे का काम बाजार की चमक को और नायाब किये हुए था।

दो दिन बाद करवाचौथ है। गांव की औरतें बाजार की रौनक बढ़ाये थी। पति की लम्बी उम्र की कामना की धूम थी। चारो तरफ बिंदी, झुमके, पाजेब और जाने क्या-क्या सिंगार-पिटार का सामान  ठेलो दुकानों से पुकार रहा था।  हुजूम का हुजूम दुकानों में घुसता मोल भाव करता, खरीदता और आगे बढ़ता। सब कुछ हर साल की तरह था बस एक कमी थी गांव अजगैन से आये झुण्ड में वह नहीं थी।   

कौन..? अरे वही….सबकी चाची एकहैरे बदन की छरहरी सी खड़े नैन नक्श वाली चाची। कभी रंग भी चांदनी की तरह था लेकिन वक़्त की मार से गेहुआं हो गया था। टीकम के मरने के बाद वह बाँझ के साथ विधवा भी थी। ज़माना बदल गया है, इन बातो का अब फ़र्क़ नहीं पड़ता… लोग यह कहते थकते नहीं। 

करवा के व्रत में गांव भर की सुहागने सिंगार करके रंगीन साड़ियों में दमक रही थी। वह अपने दरवाज़े पर खड़ी थी। 

एक बोलती निकल गयी, “अरे आ जाओ चाची, तुम भी संवर के”….दूसरी अधेड़ औरते धमक के बोली, “चुप…यह का अच्छा लगेगा।” सजी-धजी हंसी ठिठोली करती औरतें, “अरे भाभी तुम का सच मे भैय्या की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखे हो?…….तीन दिन पहले तो गाली दे रही थी मरे तो जान छूटे।” “चुप कर.. बहुत जुबान चलती है।”  “तू तो बड़ी सत्यवान की सावित्री है?” एक दूसरे की टांग खिंचाई के साथ औरतें मंदिर की तरफ़ बड़ी जा रही थी।  उनके हंसी मज़ाक में भूख प्यास का नामोनिशान नहीं था।

नए ज़माने का तनिक असर गांव में भी था। अगर सौ में से साठ मर्दो के हाथो मे एंड्राइड फ़ोन चमक रहा था। तो कुछ गिनती के औरतों ने भी इसे थामा था। पच्चीस-छब्बीस झमझमाती इन औरतों के मजमे में एक फ़ोन था जिससे लगातार फोटो ली जा रही थी।

रमा कोठरी में जाकर टीकमचंद की तस्वीर के सामने खड़ी हो गयी। चेहरे की नसे खिंचने लगी, माथे पर बल पड़ गए, आँखों से सूनापन झाँकने लगा, हाथ-पांव  फड़कते रहे। रात भर भूरी कोठरी के दरवाज़े पर बैठी रही। लाडू खेत और घर के चक्कर काटता रहा। आज रमा ने रोटी नहीं खिलाई तो कहीं कचरे के ढेर में मुँह मार आता। कोठरी में दो बल्ब जलते रहे। वह रात भर कोठरी में झूमती रही। भूरी दरवाज़े पर बैठी कुंहूं-कुंहूं की आवाज़ें निकालती रही। बीच-बीच में उठकर दरवाज़े पर ठोकर मारती लेकिन पैरो की थाप और कुछ आवाज़ें सुनकर फिर बैठ जाती।

सुबह सात बजे जब नरेगा की औरतें उसे साथ लेने पहुंची और दरवाज़ा पीटने पर ना खुला तो अपनी ताक़त झोंक दी। वह अंदर बेसुध पड़ी थी। लाल रंग की सुनहरे तारो से कढ़ाई की हुई साड़ी उसके जिस्म पर लिपटी थी। सिंगार पूरा था। जितने भी गहने उसके पास थे कुछ असली और ढेर गिलट के सब उसने पहने थे। क़रीब पिछले साल भर से बदरंग साड़ियों मे सिमटी थी। शुभ रस्मो से बाहर थी। 

कोठरी में बक्सा खुला पड़ा था। सामान बिखरा था। टीकमचंद की तस्वीर नुची हुई फ़र्श पर पड़ी थी। भूरी और लाडू कुंहूं  कुंहूं की आवाज़ निकाल रहे थे।    

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