जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए उज़्मा कलाम की कहानी ‘आधा अधूरा’। कहानी पहले ‘हंस’ में प्रकाशित हो चुकी है लेकिन कहानी का परिवेश, विषय, भाषा सब इतनी अलग है कि लगा इसको साझा करना चाहिये-

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आख़िरकार फ़रख़न्दा को उठना ही पड़ा। जब तक वे सब मिलकर सिर दर्द की नसों को झकझोर ना दे, मानती ही नहीं। सिर दर्द से फट पड़ा और वह दुपट्टा सिर पर बाँधे हुए ड्योढ़ी लांघकर उसके घर में घुसी। ‘कोई तो करम ख़राब किये होंगे, जो आज यहां फिर रही हूँ। इन्होंने थोड़े बुलाया था। अपनी मर्ज़ी की मालिक हूँ, खुद ही आयी थी। अब इसमें भला इनकी क्या ग़लती, जो मैं ठीकरा इनके सिर फोड़ूं।’

अम्मी अब्बू और यहाँ तक की उसके ख़ानदान के हर ऐरे-ग़ैरे ने समझाया था। यह भी कोई काम है। लेकिन उस वक़्त का जोश, आज उसे दिन में तारे दिखा रहा था। सबने कहा, बी.एड. हो गयी है, इज़्ज़तदार काम करो। कहाँ इन फ़ालतू मसलो मे पढ़ रही हो। पर जोश इतना कि संभाले न संभले। ए-वन प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने तो वह लगी थी, लेकिन हर क्रांतिकारी काम में आगे। फ़ेमिनिज़्म तो सिर चढ़ कर बोलता।

क्या देश, क्या विदेश हर जगह वक़्त-बे-वक़्त बराबरी के लिए आंदोलन चलते रहते। और इधर फ़रख़न्दा में जोश भरता रहता। सावित्रीबाई फूले, पंडिता रमाबाई, सरोजिनी नायडू, इंदिरा गाँधी सभी तो उसकी आइडियल थी। मैरी वोलस्टोनक्राफ़्ट से लेकर केट मिलेट और ऐलिस वॉकर सब की तो वह मुरीद। प्राइवेट स्कूल और घर के बीचो-बीच में पड़ने वाली झुग्गी-बस्ती को देखकर उसका दिल कचोट जाता। छोटी-छोटी बच्चियां छोटे भाई-बहन को संभाल रही है, कोई बर्तन मांज रही है, कोई झाड़ू लगा रही है, तो कोई टंकी से पानी भरे लिए जा रही। बस फिर क्या था, सावित्रीबाई ने फ़रख़न्दा के दिमाग़ पर दस्तक दी। और वह रोज़ शाम को वहां पहुँच जाती। बच्चियों को स्कूल भेजने के लिए माँ-बाप को समझाती। औरतों की परेशानियां सुनती और सलाहें देती। बस यहीं से पूरे ख़ानदान ने सलाह देनी शुरू की। यह भी कोई काम है। झुग्गी-बस्तियों में भटकना।

औरतों और लड़कियों के लिए बस टीचर का पेशा बेहतर है। सुबह जाओ दोपहर में घर आकर, घर सम्भालो। बस उसी दिन से उसे टीचर के पेशे से चिढ़ होने लगी जब कई लोगो के मुँह से सुन लिया कि, ‘औरतों के लिए यही पेशा बेहतर है’ और बिना सोचे समझे बिल्कुल क्रांतिकारी पेशे में छलांग मारी। दिल्ली छोड़ा और जिला उन्नाव के गावों में पहुँच गयी।

तरक़्क़ी, बदलाव, सुधार बस बोलने में आसान है, करने में नहीं। चारो तरफ़ ढोल-तासे, बैंड-बाजे के साथ भरभरा कर तरक़्क़ी हो रही है। बस फ़रख़न्दा बेचारी मोतियाबिंद की मारी, आँखें गड़ाए बैठी है। उसे ही कुछ नज़र नहीं आ रहा। रोज़गार रेवड़ियों की तरह बँट रहा है। उस पर देशभक्ति के नारे बेरोज़गार बुलंद कर रहे है। अपनी मर्ज़ी से भूखे रहकर लोग भुखमरी से मरे जा रहे है। लड़कियों के मुक़ाबले में लड़के ज़्यादा पैदा हो रहे है।

वक़्त दस्तावेज़ों, पोस्टरों और तक़रीरों में रोज़-बा-रोज़ बदलता जा रहा है। और फ़रखन्दा इस लय के साथ भागने के चक्कर में हांफ़-हांफ़ कर गिर रही है और बार-बार संभल रही है।

इस सर ज़मीं पर, कई तरह की मख़्लूकों में से एक मख्लूक़ यह भी है, जो तरक़्क़ी, बदलाव और सुधार के लिए बेक़रार सी ऊँट के मुँह में ज़ीरा के माफ़िक़ गली-कूचे, बज्जर गांव, झुग्गी-झोपड़ियों में फिरती रहती है। फ़रख़न्दा अब इसी जमात का हिस्सा है। इस जमात ने बड़े से बड़े कारनामे भी किये है। लेकिन मंज़िलें कांटो भरी रही है। वह अब एक गैर-सरकारी-संस्था में सोशल वर्कर के तौर पर कार्यरत है।

एक तो माँ-बाप ने इसका नाम इतना टेढ़ा रखा कि स्कूल, कॉलेज, मोहल्ले और काम-काजी ज़िन्दगी तक हलक़ से खींचकर कोई अरबी का ख़ नहीं निकाल पाया। फ़रख़न्दा का जाने क्या-क्या बना किसी के लिए वह खाली फर रह गया तो किसी के लिए खंदा। कोई फन्दा भी कह जाए तो बड़ी बात नहीं। जब नाम सही से पुकारा नहीं गया तो उसके मायने के असर भी उसकी पर्सनालिटी पर ना आ सके। यह फ़रख़न्दा है जो आप बीती के किस्से ही बताएगी। कहानी वह क्या बनाये जिसके पास किस्सों की भरमार है। उसने अपना पेशा क्रांति के लिए बदला और क्रांति……………..इस क्रांति ने उसके पास किस्सों का अम्बार लगा दिया। उसके किस्सों की थैली का कोना कुछ यूँ खुला, और एक किस्सा फुदकता हुआ निकला…………….

   1.

उन्नाव जिले के गांव भटौली में मीरा के घर की चारपाई पर एक अदद चाय के प्याले की उम्मीद में निढाल सी वह पसर चुकी थी। उसकी इस हालत से बख़ूबी वाक़िफ़ मीरा, चूल्हे पर चाय चढ़ाकर उसके पास बैठ गयी, “का हुआ बहनजी?” बहनजी और दीदी अब बस यही उसका नाम था। बहनापा भी वह ख़ूब निभाती। अब आपको तो मालूम ही है, उसका नाम तो ऐसा था, कि यहाँ कौन पुकारता। नाम पूछकर आधी से ज़्यादा ज़ुबान ही टेढ़ी नहीं कर पाती और जो थोड़ी-बहुत हिलाती वह हंस-हंस कर लोट-पोट।

“क्या होगा? आज माँ दुर्गा (समूह का नाम) समूह भी टूट गया। हम इन्हे स्वयं-सहायता-समूह में सशक्त बनाने के लिए जोड़ते है, ताकि ये ज़हनी और माली तौर पर आज़ाद महसूस करें। लेकिन ये सुनती सब है, करती अपनी है”

“हम्म……”

“समूह जितने लगन से बनता है, टूटने का ग़म भी उतना ही गहरा होता है। आज के मिलाकर सात टूट गए। अब छोड़ दूँगी यह नौकरी।”

अपने सवाल का हमेशा की तरह वही पुराना जवाब पाकर, मीरा उदास चेहरे के साथ बेटी को गोदी में संभालती हुई, “नौकरी नाहि छोड़ना, आती हो तो सहारा बना रहत।”

उसकी उदासी को भांपकर, “तुझे क्या हुआ?”

“कछु..ना” वह यह दो लफ़्ज़ चेहरे पर इतने गहरे भाव लाकर, कुछ इस अदा में बोली, कि माने ज़रूर वज्रपात हुआ हो।

फ़रख़न्दा ध्यान से आंखों मे प्यार भर के मीरा की तरफ़ देखने लगी, फिर ज़्यादा देर ना लगी दिल की बात ज़ुबां पर आ गयी, “बताओ हम कइसन दिखत हैं, का हम सुन्दर नाहि?”

“क्या हुआ?”

“बताओ ना?”

“अच्छी हो……” इतना कहना काफ़ी था। गेहुंआ रंग, गोल चेहरा, छोटी-छोटी आँखें, लम्बे काले बाल। अच्छा दिखने के लिए इतना काफ़ी है।

“लेकिन… हुआ क्या?”

गोद में लेटी बच्ची की ओर इशारा करते हुए, “इहके पापा दूजी औरत के चक्कर में हैं।”

“ओह…!!” फ़रख़न्दा ने लम्बी सांस खींची। यह लम्बी सांस खींचने का दौर, इस पेशे में आकर ही शुरू हुआ था। औरत का यह ग़म मिटने में जाने कितनी सदियां लगेंगी। वह चुप हो गयी और अब मीरा उम्मीद से उसका मुँह ताक रही थी।

“बहुत ख़ूबसूरत है क्या…?” फ़रख़न्दा ने बस इतना पूछा और मीरा ने पतझड़ की फड़फड़ाती हवा की तरह गहरी साँस छोड़ी और घूरकर देखा, फिर भवें तान अकड़कर “मुँह पर फटकार पड़ रही उहके। हमाये आगे धूल चाटे।”

ज़ोरदार जवाब सुनकर फ़रख़न्दा के दाँत, होंठो को चीरकर बाहर निकल पड़े। मीरा भी फ़ख़्र से मुस्कुराई। मानो पतझड़ को मात देते हुए एक पत्ता अभी खिला हो। कुछ देर बातचीत थम गयी, फ़िज़ां बोझिल होने लगी। बादलो ने भी आज आवाजाही मचा रखी थी। चाय उबल गयी और मीरा ने गिलास लाकर उसके हाथ में थमाया। फ़रखन्दा के कान आगे की दास्तां सुनना चाह रहे थे और आँखें सवाली नज़रो से उसका चेहरा ताक रहीं थी।

“हम पूछे, हम्मे का कमी है?” वह अकड़कर बोली और फ़रख़न्दा के दिमाग़ पर हथोड़ी सी चली। पति के कुकर्मों को परे रख, मीरा घरवाली और बाहरवाली की कम्पेरेटिव स्टडी करना शुरू कर चुकी थी। एक जुमला बोल वह चुप ज़मीन पर हाथ थपथपाते हुए फ़रख़न्दा के अगले सवाल का इंतज़ार करने लगी। हड़बड़ाकर, “फिर क्या बोला?”

“कछु ना।”

भरे पूरे परिवार में उसकी सास बेटे पर कम बहु पर ज़्यादा भड़कती। अक्सर उससे कहती ‘तू जादा हु-हल्ला ना मचाया कर। सुधर जावेगा। तेरे में लक्षन ना है पति को बाँध कर रक्खे के। गोबर मिट्टी में सनी औरत किस मरद को पसंद आवेगी।’ बस फिर वह सज-संवरकर रहने की कोशिश करके भी देख चुकी थी। और पति महोदय उसकी कोशिश को बेकार ना जाने देते। साथ ही मिट्टी और गोबर से सनी औरतों पर भी रिझे रहते। सास के इस टोटके को आज़माकर उसने दरकिनार कर दिया था।

 “अच्छे नंबर से दसवीं पास करे रहे हम” मीरा इस अंदाज़ में बोली मानो एक ज़माना…गुज़र गया हो। वैसे उसकी यह ज़माने पुरानी कहानी फ़रख़न्दा सुन चुकी थी। आज फिर सही, इतना सब्र उसमे आ गया था। लेकिन अभी भी सब्र से बेसब्री कई फ़ीसदी ज़्यादा थी।  उसे एक गिलास कड़क चाय मिल गयी। सिर दर्द कुछ-कुछ थम गया। दिल से आवाज़ उठी, ‘बेचारी अबला नारी अपना दिल हल्का करना चाहती है, कोई नहीं, फिर सुन लेंगे। हम तो हैं ही सोशल वर्कर। ज़हनी तनाव दूर करना बड़ा काम है। जब दिल-दिमाग में सुक़ून होगा, तभी तरक़्क़ी की राह निकलेगी।’

मीरा जब शुरू होती, तब उसके चेहरे के भाव और आवाज़ की गहराई से ऐसा महसूस होता, मानो सदियों पुरानी दास्तां हो। एक दौर गुज़र चुका हो। अब हिसाब करने बैठो तो ऐसे भी कोई पेपर पेन की ज़रूरत ना पड़ने वाली। उसकी ख़ुद की ज़िन्दगी ही छिटाक भर थी। तेइसवां पूरा किया ही होगा। हद से हद पाँच-छह साल गुज़रे होंगे।

“बहनजी, हमाई मास्टरनी बोली थी, पढ़ाई नाहि छोड़ना” थोड़ा थमी, “नाते-रिस्तेदार उधम मचाये लगे, लड़की सयानी हुई गई। कहीं कोई ऊँच-नीच ना हुई जाए। तो बाबा..हूँ ब्याह की जल्दी करन लगे। ऐ बहनजी, अगर ये नाते रिस्तेदार न होवे, तभे सायद जिंदगी थोड़ी सरल हुई जाए…. बोलो? सबहिं ऊँच-नीच तो लड़कियन के सिर माथे। अब ब्याह के हम दुखी है तो कऊ ना पूछत, सब आराम से बइठे।” ऐसी बातें सुनकर फ़रख़न्दा के दिल से हुंकार उठती, ‘मीरा तुम हो…असली फ़ेमिनिस्ट। कैसे बारीक़-बारीक़ घरेलू बुराइयों को सामने रखती हो। औरत अपनों के बीच इस तरह फँसी है कि, कहाँ पढ़ाई, नौकरी में बराबरी मांगने खड़ी हो। प्रेग्नन्सी लीव, चाइल्ड केयर लीव, पीरियड्स लीव का तो इनसे दूर-दूर का वास्ता नहीं।’

“हम बाबा से कहें रहे, हमें बारहवीं तक पढ़ लेन दो, पर नाहि माने। बाद में कहन लगे, हम तुहरे ससुराल वालो से बात कर लिये, आगे वहीँ पढ़ना। हमउ खुस हो गए। बुद्धि तो थी नाहि। ब्याह के बाद जीवन सरल ना होत।” मीरा अपनी ऊँगली से मिट्टी और गोबर से लिपे आँगन की ज़मीन को कुरेदने लगी, “इहाँ आये तो इहके पापा बहुत चाहते रहे” बोलते ही उसके चेहरे पर मुस्कान और गालो पर लाली आ गयी “प्राइवेट स्कूल में दाखिला करा दिहिन। तीन महीने ना गुजरे पेट मा बच्चा पड़ गवा। फिर तबियत ही ठीक न रहत, पढ़ते का। पहली लड़की भई, कि तुरन्त ही दूजी …..। अब तो पढ़ा लिखा कछु याद ना।”

“हम्म….बच्चे जल्दी-जल्दी हो गए तेरे” मुस्कुराकर, “पति की ज़्यादा चाहत का नतीजा था…क्या?”

मीरा थोड़ा शरमाई और खिखिलाकर हँस दी, “तुम भी ना बहनजी, कछुं बोलत हो” बातों का सिलसिला हर बैठक की तरह चलता रहा।

“सास-ससुरों का रोज का ताना।”

“क्यों भला..?”

“एक हम लड़कियन पइदा किहे, अऊर घर गिरस्ती का कामो-काज अच्छा नाहि कर पाते। दिन-रात कायें-कायें” जब भी वह बात करती तो दुःख भरी लम्बी साँस खींचने या हँसने के लिए थमती। इस ज़मीनी हक़ीक़त को देखते सुनते इसी तरह की आदत फ़रख़न्दा को भी लग गयी थी। ज़ाहिर है ग़म और संजीदगी के सहारे ज़िंदगियाँ नहीं चला करती।

अक्सर मीरा दर्जनों सवाल के साथ उसके सामने होती “एक बात बताओ बहनजी, सबहूँ को लड़का ही काहे चाहि। ऐसा कऊन सा महल खड़ा कर देत है इह लड़के। जिनके इंहा लड़का पइदा हुई जावे, वह इतराती फिरत है।” उसकी बात सुनते ही अचानक कैफ़ी आज़मी ने फ़रख़न्दा के दिमाग़ पर दस्तक दी और दिल पुकार उठा……………….

‘उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे

जिस में जलती हूँ उसी आग में जलना है तुझे

तेरी नज़रों पे है तहज़ीब ओ तरक़्क़ी का मदार’

मीरा… फ़रख़न्दा के दिल की हूक को अपनी ज़ुबां से परोसती। दकियानूसी सोंच बदलने की राह पर फ़रखन्दा उसे अपना हमनवां पाती।

“जी घबरा गवा, बच्चन, पति, सास-ससुर सबहिं से” मीरा गुस्से और उदासी के मिलेजुले संवादों में “रात को आवें तो मारत अऊर है जरा-जरा सी बात पर।”

काफ़ी देर से इस लिबरल फ़ेमिनिस्ट की बात सुनते हुए, फ़रख़न्दा जाने कितने गहरे विचारो में खोयी हुई थी, कि मारने की बात सुनते ही अचानक गुस्सा आया, “ओह….!!” और उधर मीरा की गाय ने रम्भाना शुरू किया। चाय का गिलास एक तरफ़ रख उसने आस्तीन ऊपर चढ़ाई। जैसे अभी कम्बख़त को धर दबोचेगी और मीरा पर पड़े एक-एक थप्पड़ का हिसाब ले लेगी। मीरा ने फ़रख़न्दा के एग्रेसिव पॉस्चर को देखकर चाय की तरफ़ इशारा किया, “ठंडी हो जावेगी।” नज़रे झुंकी, चाय से उठने वाली भाप की लहरे धीमी पड़ रही थी, उसने सोशल वर्कर के जज़्बातों को कण्ट्रोल किया और चाय का गिलास थाम लिया। उधर मीरा गाय की पीठ और गर्दन सहलाते हुए, “एहि हमरा दर्द समझे।”

पास खड़ी चाची जो अभी-अभी चूल्हे से राख लेने आयी थी। बिना इनविटेशन के चर्चा में कूद पड़ी, “अरे इह चिल्लवती बहुत है। एक-आध थप्पड़ मार दें तो का जरूरत है इत्ता चिल्लावे की। जित्ता चिल्लावेगी उत्ता मरिहे। चुप हो जाए तो काहे मारे भला। का आदमी पागल भय। हम कहे……..” चाची की बात को बीच में काटते हुए मीरा तिलमिलाकर, “वाह..! चोट लग्गे तो चिल्लावें ना…? अब मार तो सकिन नाहि। तो का जीभों ना चलाएं। कल्लओ ना चीरे। सिर झुकाये खा ले जूते । बोलो चाची….?” अब तो मीरा में रैडिकल फ़ेमिनिस्ट पर्दा हटाकर झांकती नज़र आयी। फ़रख़न्दा के दिल में ठंडक सी उतर गयी।

“हैं….!! तू का पति को मरिहे। नरक में जलिहे सात जनम तक।”

“सात जनम तक इहि पति पाने से अच्छा है कि नरक में जल ले।”

“हे भगवान् कलजुग है।”

फ़रख़न्दा वहां बैठी थी और दो औरतें ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा कर रही थी और उसका कोई रोल नहीं। अचानक ही उसने अपने रेवोलुशनरी सोशल वर्कर होने पर लानत भेजी और चाय का आखिरी घूँट खींचकर गिलास किनारे रखा। फिर बड़े डिसेंट अंदाज़ से चर्चा में शामिल होने के लिए कूदी, “मारना तो बहुत ग़लत बात है।”

उसके कूदते ही चाची ने उसे घूरकर देखा और कुछ भुनभुनाती हुई फ़ौरन उठकर चल दी। चाची की नज़र में तो वह वैसे ही काना दज्जाल थी। चाची को उसकी बात फ़िज़ूल लगी। मर्द का औरत पर हाथ उठाना, कोई नयी या इतनी बड़ी बात भी नहीं, जिस पर बहस करके चाची अपना वक़्त बर्बाद करे।

मीरा में फ़रखन्दा को क्रांतिकारी औरत की सारी खूबियां दिखती। उसे उम्मीद थी कि अगर कोई सही सा मौका मिला तो यह अपने साथ कितनो की सोच-समझ बदल देगी। बदलाव का सबसे पहला पायदान प्रोग्रेसिव थिंकिंग ही होती हैं।

2.

वक़्त, क्या कभी रुकता है। वह वजह बे-वजह अपनी रफ़्तार में चलता रहता है। फ़रख़न्दा इस पेशे में सिर्फ़ बतियाने नहीं आयी थी। स्ट्रक्चरल-वे में प्लानिंग और टारगेट के साथ काम में जुटी थी। वह दो सौ स्वयं-सहायता-समूह बनाने के टारगेट को अचीव करने की भरपूर कोशिश में लगी थी। घंटो अपने दिमाग़ की धज्जियाँ उड़ा रही थी। मीरा भी इस रफ़्तार में चल नहीं बल्कि दौड़ रहीं थी। बेचारी क्या करती। तीसरी लड़की पैदा कर दी।

“ऑपरेशन क्यों नहीं करा लेती?”

“डर लगत है, बहनजी। सरकारी अस्पताल के कैंप लगे है। बिना बेहोस किये आपरेसन कर देत है। बहुते दर्द होवत है। चीखत हैं औरतें।”

“तो अपने पति से कह दे, वही ऑपरेशन करा लें”

“ऐ बहनजी…तुम अऊर आफत कराई देओगी” मीरा के हाव-भाव ऐसे हो गए जैसे कुछ अनहोनी सुन ली हो।

मीरा के पति का आशिक़ाना मिजाज़ जस का तस था। सबकुछ जानते हुए भी अब वह बोल जाती, “मरन देओ। का अब ईहीं सोच-सोच जिंदगी बर्बाद कर लेवें।” मीरा के समझदारी भरा जवाब फ़रख़न्दा का मन मोह लेता, “आदत हो गयी तेरी। गुस्सा नहीं आता?”

“का कर लेंवेंगे गुस्साई के। रहना तो इहि पड़ेगा। माँ-बाप सारी उम्र रखेंगे नाहि। जावेंगे कहाँ…..? कभऊं कछु काबिल बने तब निबट लेंवेंगे।” कुछ दिन पहले ही मीरा ने फ़रख़न्दा से अपने लिए मनरेगा में मेट का फ़ॉर्म भरवाया था। फ़ॉर्म पर सिग्नेचर करके ही वह बहुत ख़ुश थी। और दूसरी तरफ़ उसके सास-ससुर गांव भर में अपने आप को दुखियारा साबित करके, खेत में कमरा बनाकर अलग रहने लगे। और वह कुटिल मुस्कान के साथ बस इतना बोलती, “बढ़िया भवा। रोज साम-सवेरे की कायें-कायें ख़त्म। बहुते सान्ति मिली।” छोटी छोटी ख़ुशियाँ उसके दरवाज़े पर दस्तक देने लगी थी।

3.

फ़रख़न्दा ने क्रांति के लिए स्कूल की नौकरी छोड़ी थी और क्रांति…..क्या हँसी-खेल है। बड़े-बड़े फ़ना हो गए क्रांति की एक चिंगारी सुलगाने में। जिस जोश से वह इस पेशे में उतरी थी, उस जोश की लौ अब फड़-फड़ा रही थी। समूह टूट रहे थे। औरतें मज़बूत बनना ही नहीं चाह रहीं थी। अपनी सहायता स्वयं करना ही नहीं चाह रहीं थी। उसने भी क़सम खा रखी थी, कि इनको सशक्त बनाकर ही छोड़ेगी। दो औरतों को बचत खाते से लोन दिया। एक को परचून की दुकान खोलने के लिए और दूसरी को भैंस खरीदने के लिए। बढ़िया रिपोर्ट बनी, एक दूध बेचकर माली तौर पर मज़बूत होगी और दूसरी परचून की दुकान से मुनाफ़ा कमाएगी।

दोनों काम पेपर पर लिखे गए।  एक ने लड़की के ब्याह पर पैसे लगा दिए, दूसरी ने पोते की पैदाइश का जश्न मना लिया। अब कहाँ से लौटाए पैसा। कहीं कोई मुनाफ़ा नहीं। बस मुनाफ़ा यही था, कि बेटी दूसरे महीने ही गर्भवती हो गयी। पोता बकैयां चलने लगा। समूह में जिन औरतों के इसी तरह के काम लोन ना मिलने की वजह से अटक गए उन्होंने गालियों की बौछार की और मीटिंग रजिस्टर फेक-फेक कर मारे। ग्रुप स्वाहा हुआ। संस्था के फ़ैसले से गाँव में काम बंद हो गया।  वह हेड ऑफिस में एक अदद लैपटॉप के सामने विराजमान हुई।

छह महीने यूं ही पेपर, पेन, कीबोर्ड पर हाथ घुमाते और उनसे खेलते गुज़रे। मीरा अक्सर ख्यालो में आती लेकिन उससे राब्ता नहीं हो पाया। मीरा कभी समूह की मेंबर नहीं बन सकी थी। उसके हाथ में पैसे नहीं होते जिसे वह किश्त में जमा कर सके। वह बेचारी किसी न किसी समूह की मीटिंग में हो रही चर्चा में शामिल होती और अपने फ़ेमेनिज़्म को जमकर सबके सामने रखती। उसकी सास ज़रूर सुदामा समूह में खजांची के पद पर थी।

फ़रख़न्दा को झुग्गी-झोपड़ियों और गली-कूचो में घूमने की इस क़दर आदत हो गयी थी, कि लैपटॉप लेकर एयर कंडीशन कमरे में बैठकर रिपोर्ट बनाने में उसका दम घुटता। बदलाव या तरक़्क़ी कोई सीधी लकीर तो है नहीं जो फट से खींच दी और चिल्ला-चिल्लाकर ढिंढोरा पीट दिया…..विकास आया..विकास आया। इस पेशे में डूबी मख्लूक़ जी जान से कोशिश करती और ऊँच-नीच के साथ कुछ बदलाव की चमक दिखती भी रहती। लेकिन रातो-रात करिश्मा कहीं नहीं होता। वैसे बदलाव और तरक़्क़ी, तक़रीर में इस्तेमाल करने के लिए अच्छे लफ़्ज़ है। लेकिन इसे ज़मीन पर उतारकर हक़ीक़त की शक्ल देने में ज़िंदगियाँ भी क़ुर्बान हो जाए तो कम है।

4.

टेबल पर रखा फ़ोन बज पड़ा। हड़बड़ाकर जल्दी से रिसीव किया। ऑफ़िस के पीसफ़ुल एनवायरनमेंट में बस उसका ही फ़ोन बेढंगा सा बज पड़ता। अपने-अपने डेस्कटॉप पर नज़र गड़ाए बैठे प्रोफेशनल और डिसेंट लोग तीख़ी सी स्माइल देते हुए उसे देखते। वह क्या करे, हर वक़्त ख़ुद को झुग्गी-बस्तियों और गली-कूंचो में घूमता महसूस करती। औरतों की चाऊँ-चाऊँ के बीच तो यह घंटी भी सुनाई नहीं देती थी। हैलो कहते ही, उधर से चहकती हुई आवाज़ आयी, “ऐ बहनजी, मीरा बोल रहे।”

उसकी आवाज़ सुनकर मुस्कराहट फ़रख़न्दा के चेहरे पर तैर गयी। अपने तेज़ आवाज़ में बात करने के तरीके की वजह से वह कमरे से निकलकर लॉबी में आ गयी, “बोल..कैसी है?”

“बढ़िया…..हमा नाम आ गवा मेट में। ड्यूटी लगी है” आवाज़ ख़ुशी से खनक रहीं थी।

“हम कइयो दिन से कह रहे इनसे। बहनजी से बात करनी है । नंबर लगाये दो। सुनते ही नाहि”

“तुम्हारे पास भी तो मोबाइल था…?”

“नाहि बहनजी, हमा मोबाइल ना था। ये कभऊं दे दें। कभऊं ले लें” बिना रुके वह बोलती रही, “बहनजी, आठ हजार रूपये मिलेंगे, इस महीने।” आठ हज़ार रूपये जो उसकी पहली कमाई थी। बोलते हुए उसकी ज़ुबान ख़ुशी से लड़खड़ाई। रूपये मिलने से पहले ही उनकी खनक, उसकी आवाज़ में बिखर रही थी। “अपने पइसे से मोबाइल खरीदेंगे, whatsapp वाला।”

“अब whatsapp चलाऊगी तुम।”

“हाँ बहनजी….सब चलावे। उसमें विडिओ पर बात भी होये। जइसन आमने-सामने बइठे हों। वइसन मोबाइल खरीदेंगे फिरौं देख के बात करेंगे तुमसे।” वह जल्दी-जल्दी बोल रही थी मानो अपने अंदर उमड़ रही ख़ुशी को फ़रख़न्दा के साथ बाँट लेना चाहती हो।

आस-पास से तगारी, फावड़े और लोगो की आवाज़ सुनकर, “अभी कहाँ हो।”

“ड्यूटी पे” मैडम मीरा…! की आवाज़ में से स्वाभिमान और आत्मविश्वास छलक गया, “तालाब के गड्ढे खुद रहें। मज़दूरों को देखन पड़ता है, कइसन काम कर रहें। बार-बार टोकना पड़े।”

इतनी डिटेल सुनकर, “तुम संभाल लेती हो…!”

“ना बहनजी, सबहिं गाँव के हैं। रिस्ते में जेठ, देवर लगे हमाये। नाम ही ना बताते, रजिस्टर में चढ़ाने को। जइसन नाम पूछो, घुर्राने लगते”

“फिर कैसे ….?”

“अरे…ये आवें है…..। एही हुकुम चला रहें सब पे”

“लेकिन यह तो तुम्हारा काम है। तुम्हे करना चाहिए” फिर सलाह।

“अब निकले हैं घर से, हुकुमो चलाना सीख जावेंगे” गहरी तसल्ली के साथ ।

“यानि तुम बिगड़ जाओगी” वह बेधड़क हँस दी।

“हाँ……… अब तो बिगड़ब” मीरा ने ख़ुशी से एक आज़ाद जवाब दिया।

फ़रख़न्दा के जिस्म में सुक़ून भरी लहरे हिलकोरे खाने लगी। इतने दिन औरतों को उनका हक़ पहचनवाने का फ़ायदा दिख रहा था।

5.

वक़्त….फ़रख़न्दा की मुट्ठी से रेत की तरह फिसल रहा था। क्रांति का सफ़र थमा हुआ था। ज़हनी और जिस्मानी सुस्ती बढ़ रही थी। दिन भर तरह-तरह की रंग बिरंगी रिपोर्ट्स बनाती प्रोजेक्ट लिखती । ग्यारह बजे चाय, एक बजे लंच, पाँच बजे छुट्टी। उफ़्फ़………आख़िर क्रांति एयर कंडिशन्ड रूम में बैठकर नहीं हो सकती। बस इसी बीच फन्डर्स को एक प्रोजेक्ट पसंद आया और फिर  फीमेल एम्पावरमेंट के एक नए प्रोजेक्ट के लिए फण्ड मिल गया। गाँव भटौली फिर चुना गया। ज़िम्मेदारी उसको मिली। उसने फ़ौरन कमर कस ली। ऑफिस का पीसफ़ुल एन्वॉयरमेंट उसे सूट नहीं कर रहा था। उसने क्रांति के लिए घर छोड़ा था ना कि सुस्ताने के लिए।

गाँव में घुसते ही उसने सबसे पहले मीरा से मिलने का इरादा किया। गाँव के बाहर की तरफ़ ही दो अलग-अलग जगह पर मनरेगा का काम चल रहा था। सामने से बकरी चराती हुई एक औरत आ रही थी। उसके पास आकर रुक गयी ।

“किस्से मिलिहो मैडम…?”

“यह मीरा नाम की मेट किधर मिलेगी?

“मीरा….!! दो मिस्टोल (मास्टर रोल) चल रही, ऐ सुरेंदर की, उह विजय की” उसने ऊँगली से इशारा किया।

उसका माथा ठनका। सुरेंदर तो मीरा का पति है, माने अब वह……बेचैन सी वह उसी तरफ़ बड़ी। सुरेंदर से नज़र मिली, “तुम मेट बन गए….? वह औरत बोली कि यहाँ तुम्हारा काम चल रहा है।”

“नाहि मैडम” वह मुस्कुराया “इहां अइसन ही बोलत है। मेट मीरा है। घरे जाओ मिल लो।”  ”

घर पर मीरा तीसरी लड़की को नहला धुला रही थी । उसे देखते ही भाग कर उससे लिपट गयी।

“फिर…!!”

“का……?”

“यह..!!”

वह शर्माती सी मुस्कुराई।

“अब क्यों…!! तीन बच्चे तो थे। नौकरी से हटा देंगे तुझे”

“लिक्खे नाहि..सब। कागज में इह दूजा होवेगा” चालाकी की चमक उसकी आँखों में तैर गयी।

फ़रख़न्दा बेचैन सी, “यह किसने सिखाया”

मुस्कुराते हुए, “इहि बताइन”

उधर कोने में छप्पर के नीचे बैठी उसकी गाय आराम से पगुरा रही थी। फ़रख़न्दा ने एक बार मीरा को और एक बार गाय को देखा। फिर लम्बी सांस खींचकर, “काम पर क्यों नहीं जाती?”

“जाऊँ हूँ। जब कउनो अफसर आन वाला होत। तुरंत ही ले जात है। सिग्नेचर हमाये चलते” चहक कर बोली। फ़रख़न्दा के अंदर गुस्साई सी लहर हिचकोले खाने लगी जिसका मद्धम सा अक़्स चेहरे पर भी उभरा। चेहरे के बदलते रंग देखकर, “बस इह आखिरी, इहके बाद आपरेसन।”

“क्यों…..और कर लेना। सिग्नेचर तो कर ही लेगी”

“अरे एक लड़का हुई जावे बस”

“ओहो…! यानि तू लड़के के इंतज़ार में….”

“नाहि बहनजी…..अइसन सोच ना है हमाई, पर इह बहुते प्यार से समझाइन तो हम मान गए” उस प्यार की चमक उसके चेहरे पर छलक गई, “कहन लगे, हमाई चिता को अग्नि कौन देवेगा। नरक में सड़ेंगे हम”

“और जो ना हुआ.. तो?”

“होवेगा” क़रीब आकर वह कान में फुसफुसाई, “ऐ साथ ले गए, चेक करा लिया” अचानक ही मीरा के बोल, फ़रख़न्दा के पाँव के नीचे से ज़मीन खींच ले गए। वह लड़खड़ा गयी। सनसनी पूरे जिस्म में दौड़ गयी। इतने दिनों से बनती ईमारत भरभरा के ढह गयी। फ़ेमेनिज़्म पर घने काले बादलो की तरह, एक अदद पति छा चुका था।

उधर गाय ने चारा हज़म करके लम्बी डकार ली….. और अपने कान पे बैठी मक्खियां उड़ाने लगी। मीरा एक बाल्टी पानी लेकर गाय की तरफ़ बड़ी, गाय के सामने बाल्टी रख वही बैठ गयी। फिर बड़ी संजीदगी से, “बहनजी तुम नाराज हुई गई लेकिन जरा सोचो, इहमे गलत का? लड़का हुई जावे तो वंशो आगे चले। लड़कियन तो सभें ब्याह के चली जावेंगी।” फ़रख़न्दा भवें सिकोड़कर उसके एक-एक बोल को अपने कान में ज़हर की तरह उंडलता हुआ महसूस करती रही। चेहरे के हाव-भाव बदलते रहे और ज़हन बोलता रहा, ‘हाँ क्यों नहीं, महाराणा प्रताप का वंश तुम्ही पर आकर तो ठहरा है या मुग़ल बादशाह अक़बर जन्नत में बैठे तरसती आँखों से तुम्हारे घर की तरफ़ तो देख रहे है कि कहीं उनकी नस्ल निस्तनाबूद ना हो जाए।’

फ़रख़न्दा ने एक ठंडी साँस खींचकर फिर हिम्मत जुटाई, “और यह तेरा काम, जिसके लिए तू इतनी ख़ुश थी।”

“उह तो अब भी है। समय से पइसे हमाये खाते में आते। काम उह संभाल लेते। अब कउनो औरत की तरफ आँख उठाकर नहीं देखत। बहुते प्यार क…..…..” चेहरे पर आयी मुस्कराहट के साथ लफ़्ज़ उसके मुँह में अटक गए, “कहत है तू मति जाया कर धूप में मिस्टोल पे। रंग काला हो जावेगा मेरी रानी” मीरा के गालो पर शर्म की लाली बिखर गयी और फ़रख़न्दा की आँखों में गुस्से का खून तैर गया। उसका मन हुआ कुएं में कूद कर मर जाए। गली के उस पार बने कुएं में छपाक से किसी ने बाल्टी डाली और उसने अपने जज़्बातो को काबू में किया।

मीरा के अंदर चिंगारी फूंकने की एक बार फिर नाक़ाम कोशिश की, “मास्टर रोल भी तेरे नाम से नहीं जानी जाती तेरे पति के नाम से जानी जाती है।”

“हाँ…तो का? हमउ उन्हीं के है। उह मालिक है हमाये।” आख़िरकार फ़रख़न्दा ने नीम के पेड़ के नीचे बिछी चारपाई पर बैठे हुए ज़ोरदार सांस खींची और अपने फेफड़ो को ऑक्सीजन से भर लिया, ‘चलो ठीक है, पति माने मालिक ही होता है। वैसे मेट बनने से मीरा फ़ायदे में है। अब उसका पति किसी दूसरी औरत की तरफ़ नहीं देखता। यही उसका बहुत बड़ा दुःख था। उसके पास पैसे रहते है। दायरा भले ही घर की चारदीवारी ही हो। तरक़्क़ी तो ऐसे ही होती है।’ धरती पर करिश्मे नहीं हुआ करते। पिया दीवानी मीरा गाय को सहला रही थी। गाय सिर हिला रही थी और मीरा मुस्कुरा रही थी।

फ़रख़न्दा की खोपड़ी भन्ना रही थी, ‘वाक़ई शौहर भी ख़ुदा का करिश्मा है। जो चाहे कर ले। सौ-सौ चूहे खा कर हज पर निकले और पहले दर्जे में हज क़ुबूल। सवाब के तौर पर हुक़ुम मानने वाली बीवी। जाने कौन सी घुट्टी पिलाते है यह बीवियों को, कि अच्छी ख़ासी खोपड़ी वाली भी इनके कदमो में न्योछावर। यह राज़ समझने के लिए तो इस गड्ढे में उतरना ही पड़ेगा।’ ढाक के वही तीन पात । आधा अधूरा एम्पावरमेंट सिर उठाकर, आँखें मचकाकर देख रहा था।

अभी फ़िल्हाल उसके करने के लिए कुछ नहीं बचा। वह उठी और चल दी। दोपहर के खाने का वक़्त हो चला था। मनरेगा के मज़दूर खाना खाकर आराम कर रहे थे। एक मज़दूर के लोकल एंड्राइड फ़ोन पर एक गाना बज रहा था “भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है” मज़दूर औरतें गाना सुनने में लीन थी। दो-तीन की आँखों में आंसू चमक रहे थे।

फ़रख़न्दा ने खादी का थैला अपने कंधे से उतारकर गर्दन पे टांग लिया। अचानक उसके कान में ख़ानदान के समझदार लोगो के दो बोल ख़नक गए। नाउम्मीदी कुफ़्र है और ख़ुदकुशी ग़ुनाह। बेसब्री के फ़ीसद में थोड़ी और कमी करके सब्र के फ़ीसद में बढ़ोतरी करनी की कोशिश के साथ, वह फिर आगे बड़ी।

अगला किस्सा कुछ यूँ है………………………………………………………………………………………………………..

उज़्मा कलाम

9468971014

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