जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज प्रस्तुत है गरिमा जोशी पंत की कहानी ‘अनसुनी अनुसूइया’  जिसे हाल में ही डॉ. प्रेम कुमारी नाहटा अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता 2024 में पुरस्कृत किया गया है – अनुरंजनी

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अनसुनी अनुसुइया

नारंगी रोशनी आसमान पर छिटकी हुई थी। एक बड़ी गहरी नारंगी गेंद सा सूरज धीरे धीरे डूब रहा था।

ना जाने कहां डूब जाता होगा सूरज! मैं विज्ञान जानता, समझता हूं। इस पूरी प्रक्रिया को समझता हूं लेकिन डूबता सूरज डूबता हुआ ही दिखता है। उसे डूबता देख मेरे मन में भी जैसे कुछ डूबने लगा।

चाय की आखिरी चुस्की मैंने गले से नीचे उतारते हुए डूबते सूरज से नज़र हटा दूसरी तरफ लगाने की कोशिश की। मैं सूरज को तो डूबने से नहीं रोक सकता था। मैं तो अपने मन को उबारना चाहता था।

दूसरी तरफ़ देख लेने से क्या मन के मंज़र बदल जाते हैं? 

दूसरी तरफ़ नारंगी से सलेटी और फिर स्याह होने को तत्पर आसमान में घर लौटती हुई चिड़ियों की काँय काँय थी। कैसे पता चलता है ये पक्षी घर लौट रहे हैं? हम उनके घर कहां जानते हैं? रास्ते चलते इंसानों को देख भी हम क्या कह सकते हैं कि वे घर से निकले हैं या घर की ओर जा रहे हैं। हमें उनके घर पता नहीं। हमारे परिचित जो हैं, उनके घर पता हैं हमें। उनमें से भी सबके नहीं। ऐसी ही किसी शाम को बालकनी में चाय पीते पीते अनुसुइया ने मुझसे ऐसी ही कोई बात कही थी। कही थी या पूछी थी? बताई थी या मुझसे जानना चाहती थी, कह नहीं सकता। उसने कहा था… पता नहीं क्या कहा था। मैं सच में भूल गया था या भूलने का अभिनय कर रहा था? जो भी हो सलेटी, स्याह होते आसमान की ये आड़ी तिरछी लकीरें मेरे मन को काला रंगने लगीं। अखबार का पन्ना फड़फड़ा रहा था। “जापान में बातें सुनने… नवयुवकों … रोजगार…  ” ये शब्द मुझे फड़फड़ाते अखबार में  दिख रहे थे। मैंने चाय का कप और प्लेट अखबार पर रख जैसे उसका मुंह बंद कर दिया। पर उसका मुंह तेज़ हवा में कहां पूरा बंद हुआ। अंधेरे बढ़ने लगे। मैं डरने लगा। वहीं जैसे जम गया। 

अच्छा हुआ कि फोन बजा। फोन अंदर रखा था। फोन उठाने के बहाने ही उठा तो सही। किसी न किसी बहाने से ध्यान भटक जाने चाहिए। वैसे इस ध्यान भटकाने में सापेक्षता का नियम काम करता है। किसी विद्यार्थी, कलाकार का ध्यान भटकना सही नहीं, लेकिन किसी किसी के लिए यह भटकाव बहुत काम आता है। काश मैं अनुसुइया का ध्यान भटका पाता! 

बहरहाल फोन मेरी छोटी बेटी का था। मेरी दो बेटियां हैं और उनके बीच एक बेटा। तीन बच्चे! तीनों विवाहित। इस शहर से बाहर रहते हैं। मेरी बहुत फिक्र है उन्हें। अपने पास बुलाते हैं पर मैं जाता नहीं। ऐसे दिखाता हूं कि मैं बहुत ठीक हूं और अकेले सब कुछ ठीक से कर पा रहा हूं।

एक बेटी और एक बेटा होने के बाद, एक और बेटी! मेरी उम्र, सामाजिक, आर्थिक ओहदे के व्यक्ति के लिए दो बच्चे होना पर्याप्त है। लड़की भी है, लड़का भी।  फिर तीसरी संतान क्यों, इस पर प्रश्न उठ सकता है। दो लड़कियां हुई होतीं या दो लड़के हुए होते तो एक लड़के या लड़की की चाहत में तीसरे बच्चे का आना एक जायज़ जवाब होता। 

पर जब पता चला था सलोनी होने वाली है, तो मुझे बहुत अजीब लगा था। हां सबसे छोटी वाली का नाम सलोनी है। थोड़ा शर्मसार सा था मैं। 

लेकिन…  तब अनुसुइया ने कहा था… 

नहीं… मैं नहीं बताऊंगा अनुसुइया ने क्या कहा था। उसे पति पत्नी की कुछ निजी बातों को निजी रखने पर बहुत विश्वास था। अपना दामन बचाने के लिए या अपनी कोई सफाई देने के लिए, उन बातों को सार्वजनिक करने पर उसे कभी अच्छा न लगता था।

मैं भीतर आ गया था। भीतर तो मैं तब ही आ गया था जब सलोनी का फोन आया था। थोड़ा और भीतर आ गया। अपने भीतर। मैंने दीया बाती की। बैठक में लगा लैंप जलाया। यंत्रवत सा वही सब करता जा रहा था जो अनुसुइया करती थी। वह कोई मंत्र भी पढ़ती थी। मुझे नहीं पता क्या मंत्र थे। मैंने जानने की कभी कोशिश भी नहीं की। वह हर मंत्र, हर बात की एक तार्किक विवेचना करती थी। लेकिन मेरी उस सब में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

प्रेम विवाह हुआ था हमारा। उसकी सुंदरता पर रीझ उसके घर के, कॉलेज के चक्कर काटा करता था मैं। 

बहुत सुंदर थी वह उस समय। विवाह कम उम्र में हो गया था हमारा। फिर बच्चे भी जल्दी हो गए। जल्दी पढ़ लिख लिए। जीवन साथी उन्होंने खुद ढूंढ लिए थे। हमारी ओर से कोई विरोध न था। 

यह सब इसलिए बता रहा हूं कि पता नहीं लोग मुझे कितना बूढ़ा समझते हों। इतना बूढ़ा हूं नहीं मैं। 

वैसे बुढ़ापे पर भी सापेक्षता का नियम काम करता है। कोई पचास को बूढ़ा समझ ले और किसी को व्यक्ति की चुस्ती फुर्ती देख साठ, पैंसठ भी सिर्फ एक संख्या लगे। 

बच्चों की उम्र, विवाह से भी लोग आप को बूढ़ा या जवान मान सकते हैं। 

लैंप जलाते हुए मेरी नज़र उसके नीचे रखी गणपति जी की मूर्ति और बप्पा के बगल में रखे प्लास्टिक के फूलों पर पड़ी। 

कुछ बताया तो था अनुसुइया ने उन फूलों के बारे में। वह बहुत पछताई थी उन्हें खरीद कर। फिर भी उसने उन्हें सजाया। 

जब उससे विवाह किया था, तब उसके रूप के साथ उसका उच्च शिक्षित होना मेरी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने जैसा था। लेकिन वह बौद्धिक रूप से बहुत ही सुंदर थी। शिक्षित तो बहुत लोग होते हैं। मैं भी हूं। पर उसकी शिक्षा, उसका ज्ञान पुस्तकों के बाहर इधर उधर चहुं ओर फैला हुआ था। उसे पर्यावरण की सचमुच फिक्र थी। छोटे छोटे गमलों में उसने पूरा गुलशन खिला दिया था। 

खिड़की के बाहर वो पीले फूल खिल रहे थे जो अंधेरे में भी चमक रहे थे। उनका नाम बताया तो था अनुसुइया पर मुझे याद नहीं। मैंने कोई तवज्जो कभी दी ही नहीं।

किसी स्पेशल चिल्ड्रंस स्कूल से उसे एक बार बुलाया गया था और जो उसने उन्हें सिखाया, जैसे पढ़ाया, आज तक स्कूल वाले उसे याद करते हैं। वे बच्चे भी। बार बार बुलाते थे। कभी कभी जाती थी। घर परिवार के लिए उसने नौकरी नहीं की। 

उम्र के साथ, गर्भावस्था के दौरान और उसके बाद उसके चेहरे पर थोड़ी झाइयां आ गई थीं। कमर तक लटकते घने काले, लंबे बाल टूट कर पूंछ से हो गए थे। उसकी  ढलती बाह्य सुंदरता को कोसते हुए मैंने कभी आईने में खुद पर गौर नहीं किया।  नाक नक्श कहां बदले थे उसके। वह बाद तक भी बहुत सुंदर थी। इस पर जब तक मेरा ध्यान जाता तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसकी बौद्धिक सुंदरता पर तो मैंने कभी गौर ही नहीं किया। वो गाती थी। मैंने नहीं सुना। चित्रकारी करती थी,  उसके रंगों की आवाज़ की तरंगें मुझ तक नहीं पहुंची। वह कविता लिखती थी पर उनके भाव मेरे कानों में नहीं पड़े। अब तो लगता है ,वह पशु पक्षियों की बोलियां भी समझ जाती थी। मैं उसकी सीधी सादी बोली भी नहीं समझा।

वह तो टैगोर की, शरत की नायिका बनने लायक थी। मुझ से प्रेम कर बैठी।

मैंने टेढ़ी मेढी दो रोटियां सेक लीं। दूध में भिगो कर खा लूंगा। मुझे उसके बनाए खाने की खुशबू का अहसास होने लगा।  

मिथ्या अहसास है। मैं इस अहसास को झटकना चाहता हूं पर झटक नहीं पाता।

मैं, जिसे स्त्री को धुरी कहना, धरती सी धैर्यवान कहना एक ढकोसला लगता था, आज उसे यह सब सच लगने लगा है।

वह कुछ अजीब सा बोलने लगी थी। उसके हाथों में कम्पन होता था। कभी कभी व्यवहार बदल जाता था। 

मैं बस अपनी खीझ जाहिर कर देता था। 

बच्चे पढ़ने, नौकरी करने, विवाह के बाद घर बसाने के लिए बहुत पहले घर से निकल गए थे।

वह और मैं ही रह गए थे। उसका बौद्धिक रूप बदल रहा था और मैंने कुछ नहीं जाना। जानना ही कहां चाहता था। 

फिर बहुत दिनों बाद पता चला किसी तंत्रिका तंत्र के असाध्य रोग ने जकड़ लिया था उसे। 

कैसे नहीं समझ पाया मैं। क्या पुरुषत्त्व के दंभ तले दबा था मेरा अस्तित्व।

जब सब कुछ समझा, तब तक उसने बोलना छोड़ दिया था। उसके सिरहाने बैठ उसके बाल सहलाता और वह शून्य में ताकती रहती।

एक दिन ऐसे ही वह शून्य को ताकते हुए शून्य में ही विलीन हो गई थी।

खिड़की के बाहर का धुंधलका गहरे काले में बदल गया था। काले आकाश में असंख्य तारे झिलमिला रहे थे। वह तारों को निहारती थी। अपने बिछुड़े हुओं को खोजती थी उनमें। 

तब मैं हंसता था उस पर।

आज मैंने भी उसे तारों में खोजने की कोशिश की पर कोई तारा उसके जैसा चमकीला दिखा ही नहीं मुझे।

मैं फिर भीतर आ गया। घर में बहुत नीरवता पसरी हुई थी। मेरा ध्यान फिर से उन प्लास्टिक के फूलों पर चला गया। उसने उन्हें क्यों सजा दिया था, कुछ बताया था। पर मुझे बिल्कुल याद नहीं। दुखी मन से कोई अच्छा तर्क ज़रूर दिया था उसने। पर मैंने सुना नहीं।  कभी जो सुनता भी था तो झटक देता था उसके विचारों को हंसी में। मुझे लगता था कि धरती, हवा, संसार को शुद्ध करने का ठेका मैंने तो नहीं ले रखा। मेरे अकेले के करने से क्या हो जायेगा। पर उसके पास इस सबके जवाब थे। जवाब जो मैंने नहीं सुने कभी। सिर्फ प्रश्न दागे। मैंने प्लास्टिक के फूलों पर फिर से नजरें टिका दीं, इस गरज से कि मुझे उसके जवाबों की कोई एक कड़ी, कोई एक शब्द याद आ जाए। 

प्लास्टिक के फूलों में से ऐसे लगा कि अनुसुइया कुछ बुदबुदाई। पर मुझे उस बुदबुदाने से कुछ समझ नहीं आया। अचानक हवा जोर से चलने लगी। दीवार पर टंगी उसकी तस्वीर पर चढ़ी माला और तस्वीर ऐसे हिली जैसे वहां भी अनुसुइया बुदबुदा रही हो। बाहर लगे पीले फूल भी जैसे बुदबुदा रहे थे। और वह लंबे लंबे पत्तों वाला पौधा भी। पता नहीं क्या नाम बताया था अनुसुइया ने उसका। अग्लोनेमा या ड्रेसिना। 

मैं गूगल से पता कर सकता हूं इन सबके जवाब पर उन जवाबों में अनुसुइया के हल्के खुलने वाले होंठ कहां होंगे,उसकी हल्की खराश वाली आवाज़ नदारद होगी। 

घर की हर चीज से अनुसुइया बुदबुदा रही है, पर मुझे समझ नहीं आ रहा। 

मैं वही हूं जिसने मृत्यु पश्चात आत्मा के जीवित रहने के सिद्धांत का हमेशा मखौल बनाया था। मेरे हिसाब से मृत्यु मतलब शरीर का खत्म हो जाना बस! लेकिन आज मैं अमर आत्मा के सिद्धांत पर विश्वास करना चाहता हूं। मुझे लगता है, अनुसुइया की आत्मा घर के हर पौधे, फूल, लैंप, गमले, कटोरी, चम्मच से बुदबुदा रही है। मुझे उसके आस पास होने से आश्वस्ति भी मिलती है और भय भी लगने लगा है। पर वह बुदबुदा क्यों रही है। खुल कर बोलती क्यों नहीं। रोग के भीषण रूप से जकड़ने के अंतिम पड़ाव पर भी वह केवल बुदबुदाती थी। लेकिन रोग तो शरीर को था ना। आत्मा तो मैंने पढ़ा है अजर अमर है। तो फिर इस रोग के प्रभाव आत्मा पर क्यों हैं? उसे तो खुल कर बोलना, हंसना चाहिए। वह बस बोलती रहे। मैं सुनूंगा। सुनता रहूंगा। इस बार जरूर सुनूंगा।

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