जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

मनुष्य के मनोविज्ञान पर कब कौन सी बात किस तरह असर करती रहती है इसे समझना बेहद जटिल है। तमाम मानसिक बीमारियों में से एक है ‘ड्यूल पर्सनालिटी’ में जीना। इसी को केंद्र में रख कर गरिमा जोशी पंत ने यह कहानी लिखी है, ‘गुठली’। गरिमा का जन्म एवं शिक्षा जयपुर (राजस्थान) में हुई है। उन्हें अध्ययन और लेखन का शौक है।कई ब्लॉग्स, समाचार पत्र (प्रजातंत्र) जानकीपुल में उनकी कविताएँ, कहानी, और लेख प्रकाशित हुए हैं। आज यह कहानी पढ़िए- अनुरंजनी

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गुठली

‘महिला सुरक्षा एवं विकास’ की उस इमारत से बाहर निकल सीमांतिनी सिंह तेजी से पार्किंग में लगी अपनी कार की ओर बढ़ी। दिल्ली के संभ्रांत व्यवसायिक मार्केट में इस आधुनिक ऑफिस कॉम्प्लेक्स में महिला सुरक्षा और विकास नाम की गैर सरकारी संस्था का भी एक ऑफिस है और वहीं की शेरनी है सीमांतिनि सिंह।

ना जाने कितनी औरतों को शोषण से बचाया है उसने, कितनों के हकों की लड़ाई लड़ी है, कितनी टूटी, हताश औरतों का पुनर्स्थापन किया है। जब वह औरतों के हकों की वकालत करती है तो अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती है। लंदन और अमरीका के शीर्ष संस्थानों से प्राप्त शिक्षा और अनुभव से अर्जित ज्ञान का निचोड़ जब वह अपनी दलीलों में डालती है तो बड़े-बड़े वकील भी निरुत्तर हो जाते हैं और फिर इतनी निडर, दबंग आभा विरोधियों की आँखें चुंधिया देती है।

ज्ञान ही उसके दबंग व्यक्तित्व का राज़ है। बाकी तो वह एक सामान्य कद-काठी की गौरवर्णा अधेड़ स्त्री है। चेहरे पर आँखों के पास थोड़ी झाइयाँ और छोटे-छोटे से मस्से हैं। गर्दन तक के नीचे की ओर से तनिक फैले, सीधे कटे बाल जिनमें सफेदी अधिक झाँकती है। एक और विशेषता है, सीमांतिनी आम नहीं खाती। आम को देखते ही उसके चेहरे मोहरे का रंग उड़ जाता है।

अधिकांशतः वह खादी कॉटन की साड़ियाँ पहनती है या फिर ब्लॉक प्रिंट की।  कानों में छोटे-छोटे मोती के टॉप्स और बाएँ हाथ में एक घड़ी, बस।

आज यह दबंग महिला अपनी कार की ओर तेजी से बढ़ने की कोशिश में है लेकिन पैर लड़खड़ा रहे हैं उसके। गर्मी बहुत है लेकिन सीमांतिनी के माथे पर सामान्य से अधिक पसीना है। ऐसा पसीना जो असामान्य रक्तचाप की निशानी है या किसी तनाव की।

और स्वयं सीमांतिनी ही जानती है, इस तनाव का कारण। उस तनाव का नाम है डॉ. आनंद श्रीधर। डॉ. श्रीधर प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और पैरानॉर्मल साइंस का विशेषज्ञ है और अभी भी न्यू यॉर्क में इस क्षेत्र में शोधरत है।

चार दिन पहले ही फोन आया था डॉ. श्रीधर का। “जी मैं आनंद, क्या मैं सीमांतिनी जी से बात कर रहा हूँ?”

“जी कहिए।”

“आपसे एक जरूरी बात डिस्कस करनी थी। शायद आप मेरी कुछ मदद कर पाएँ।” आप कब फ्री हैं और घर पर कब मिल सकती हैं?”

“देखिए, आप जो कोई भी हैं मिस्टर! यह जान लीजिए कि मैं घर पर किसी से नहीं मिलती। आपको जो भी काम है, आप ऑफिस में आकर मिलिए। वैसे काम क्या है आपको और कौन हैं आप?” सीमांतिनी ने कड़कती हुई आवाज़ में पूछा।

सीमांतिनि को इस सब की आदत है। रोज़ उसके पास कई उलजुलूल, धमकी भरे फोन आते हैं।

“ओह सॉरी मैम। गलती मेरी ही है। मैं डॉ. आनंद श्रीधर बोल रहा हूँ।” बड़ी विनम्रता से बात बढ़ाते हुए उसने कहा,” पता नहीं आप मुझे जानती हैं या नहीं लेकिन मैं मनोविज्ञान के क्षेत्र में काम कर रहा हूँ। एक शोध के सिलसिले में आपकी मदद चाहता हूँ। मैं ऑफिस आ जाऊँगा मैम।परसों ठीक रहेगा मैम?

“ज… जी” बस इतना ही कह पाई फिर सीमांतिनी।

सीमांतिनी श्रीधर का पूरा नाम सुनकर ही सुन्न हो गई।

श्रीधर को कौन नहीं जानता। टीवी पर कितनी बार उसको देखा सुना है, अखबारों में पढ़ा है।

अतीत की जिस घटना को वह अपने काम और दबंग कार्यसेवा से ढकना चाहती है वह क्यों उसके सामने आना चाहती है। और श्रीधर को कैसे पता। क्यों न हो, वह शोधार्थी है। शोध करने वाले कहाँ-कहाँ नहीं पहुँच जाते।अपने ही विचार मंथन में लगी है सीमांतिनी। “क्या पता वह उत्पीड़न की शिकार महिलाओं की मनोदशा पर शोध कर रहा हो! उसमें साम्य खोज रहा हो! पर क्या पता वह उस रात की घटना के बारे में पूछना चाहता हो।नहीं नहीं मैं बेकार इतना सोच रही हूँ।”

उस रात की घटना। उफ्फ।

सीमांतिनी ने पूरे वॉल्यूम पर हनुमान चालीसा चला दी।

पर उस दिन से ही वह तनाव में है। उसी दिन से जबसे श्रीधर का फोन आया है।

“क्या जवाब देगी वह अगर कहीं उसने उस रात के बारे में पूछ ही लिया। पिप्पली गांव की वह भयावह रात और उस रात की घटना जिसकी वह इकलौती जीवित प्रत्यक्षदर्शी थी।

एक पढ़ी लिखी दबंग औरत, जो धाराप्रवाह हिंदी-अंग्रेजी में स्त्रियों के अधिकार की वकालत कर अच्छे-अच्छों की छुट्टी कर देती है, उसके मुँह से ऐसी असंभव बातें, एक खौफनाक रात की बातें, उस से उपजे डर की बातें…. लोग खिल्ली उड़ाएँगे। भूत-प्रेत, आत्मा-परमात्मा की बातें पढ़े-लिखे नामी गिरामी लोग सार्वजनिक रूप में करते हैं कभी? 

पढ़े-लिखे समाज के जिम्मेदार लोगों के मुँह से ऐसी अवैज्ञानिक बातें …

ओह!

“मैम आप सोई नहीं अब तक” सीमा ने पूछा। सीमा पेइंग गेस्ट के तौर पर सीमांतिनी के साथ रहती है।

यह दबंग औरत रात को कमरे की सारी लाइट्स जला के सोती है। बड़े से इस पुश्तैनी बंगले में सीमांतिनी को अकेले रहने में डर लगता है। दिन भर अकेली जिंदा भूतों से लोहा लेने वाली निडर सीमांतिनी को रात में कौन सा भूत सताता है। क्यों इतनी सारी युवा लड़कियाँ पेइंग गेस्ट रहती हैं उसके साथ। बंगले की सारी लाइट्स जला के वह क्यों बिजली बर्बाद करती है।

“मैम!”

सीमा ने फिर पूछा तो सीमांतिनी चौंक गई।

“आपकी तबियत तो ठीक है ना मैम? कॉफी पिएँगी?”

“नहीं बेटा थैंक्स। पर आज तुम लोग मेरे रूम के बाहर वाले लिविंग रूम में ही सो जाओ तो अच्छा होगा। मैं दरवाज़ा खुला रखूँगी। वो आज थोड़ा बीपी फ्लक्चुएट कर रहा है… तो…  होप यू डोंट माइंड….”

“अरे कैसी बात कर रही हैं मैम। लिविंग रूम तो बहुत बड़ा और कंफर्टेबल है। दीक्षा, शांभवी , गुंजन और मैं वहीं सो जायेंगे। ज्योति और मीशा के तो एग्जाम्स हैं, वे बगल वाले रूम में रात भर पढ़ेंगी। आप बेफिक्र रहिए। और किसी भी चीज की ज़रूरत हो तो प्लीज उठा दीजिएगा मैम।”

“थैंक्स बेटा। थैंक यू सो मच।” कहकर सीमांतिनी सो गई। आश्वस्त थी। नींद भी आ गई।

सुबह लड़कियों ने चाय-नाश्ता सब कमरे में ही ला दिया। अपनी युवा बिंदास बातों और चुहलबाजियों से सीमांतिनी का मन भी गुदगुदा दिया। उनकी उन बातों ने जहाँ गुदगुदाया उसे वहीं फिर से उस रात की एक झीनी सी याद दिला दी। याद दिला दी उस अल्हड़ युवती की जिससे वह जीते जी मिली ही कहाँ थी। उसने ध्यान फिर से लड़कियों पर लगा दिया।

रात की नींद के बाद सीमांतिनी अच्छा महसूस कर रही थी। ऊर्जावान।

आज वह डॉ. श्रीधर से खुद ही मिलेगी। कब तक और क्यों मुँह छिपाए। उसने ठान लिया।

“बच्चे लोग अब तुम फ्री हो। थैंक्यू सो मच। तुमने कल बहुत ध्यान रखा मेरा। अब अपने काम पर जाओ बेटा। आई एम फाइन।”

“मैम आज गुंजन, शांभवी और मैंने तो छुट्टी ली है। हम तो आज फ्री हैं।”

“सीमा, अगर छुट्टी मेरे लिए ली है तो मैं तो ऑफिस जा रही हूँ। तुम लोग मूवी या मॉल जाना चाहो तो अपना प्लान बना लेना। मेरी तरफ से निश्चिंत रहो।”

लड़कियों के आँखों में शरारती सी चमक आ गई।

यह चमक बहुत भाती है सीमांतिनी को। पर कुछ लोग इस चमक को रौंद कर अँधियारा कर देना चाहते हैं। यह शरारती चमक उन्हें खुला नग्न आमंत्रण लगती है कि आओ शोषित करो हमें, हमने नजरें उठा ली हैं। उनमें भर ली है शरारत।

सीमांतिनी ने इन विचारों को झटक दिया।

लड़कियाँ चली गईं।

सीमांतिनी ने श्रीधर को फोन किया।

” सॉरी कल मेरी तबियत थोड़ी खराब हो गई थी। आपसे मिल नहीं पाई। आप आज आ जाएँ। मेरे ऑफिस के बाहर ही एक कैफेटेरिया है, ‘रोज़वुड’! वहाँ लंच पर बातें हों, क्या ये आपके लिए कंफर्टेबल होगा? “

“जी”

“तो करीब डेढ़ पौने दो के करीब मिलते हैं।”

“ओके थैंक्स सीमांतिनी जी। मैं पहुँच जाऊँगा। बट पहले आपके ऑफिस आना चाहता हूँ। कैफेटेरिया साथ में चलेंगे।”

“नो प्रॉब्लम डॉ. श्रीधर, मैं वहीं होऊँगी पर हो सकता है थोड़ा बिजी होऊँ।”

सीमांतिनी निकल पड़ी। आज उसने ड्राइवर को भी छुट्टी दे दी थी। आज बहुत दिनों बाद वह खुद ड्राइव कर ऑफिस जा रही थी। वह अपने पर अपना विश्वास लाना चाहती थी।

गाड़ी चलाते हुए उसे फिर से उसी खौफनाक रात ने घेर लिया था एक पल को पर वह उस अँधेरे को चीर गई। ऑफिस पहुँचना था। कितनी मजबूर महिलाओं का विश्वास है वह।

पर क्या वह हमेशा से ऐसी थी।हाँ थी, लंदन से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आई थी। रईस पुश्तों के इतिहास को अपनी मेधा से उसने और भी निखार दिया था। पिता बड़े अफसर थे।अपनी पुश्तैनी रईसी और रुतबे के कारण उनकी साख बहुत थी समाज में।

अफसरी बंगला, गाड़ी, ड्राइवर, बगीचा, माली, नौकर-चाकर, अंग्रेजी रहन-सहन। संभ्रांत सुंदर पत्नी। बड़े-बड़े लोगों में उठना-बैठना था।ऐसे परिवार की उच्च शिक्षित इकलौती बेटी विदेश से लिंग समानता की शिक्षा लेकर लौटी थी। भारत देश में तब कौन जानता था यह विषय, “जेंडर इक्वाल्टी”!

पर बड़े घर, बड़े बाप की बेटी यह सब पढ़ कर आई तो बड़ी-बड़ी रईस पार्टियों में फैशन परस्त महिलाएँ हाथों में ताश के पत्तों का पंखा बनाए, भवें चढ़ा ,  लिपस्टिक रंजित लाल होठों को नजाकत से गोल बना कहती “जेंडर इक्वाल्टी? साउंड्स इंटरेस्टिंग” और सीमांतिनी के मन में एक बगूला सा उठता। मन में कुछ करवट लेता।

पुरुष ग्लासों में विदेशी शराब के घूँट पीते कहते, “इट हेज़ स्कोप इन सोशल सर्विस( इसका समाज सेवा में स्कोप है)।आप इसका खुद का एक एनजीओ क्यों नहीं खुलवा देते। शी केन देन अर्न मनी टू, यू नो।” फिर वही बगूला!
मन में कुछ करवट लेता है। तब भी जब सौरभ सीमांतिनी को गुठली की कहानी सुनाता है ।

      और ऐसी किसी पार्टी में सीमांतिनी से मिला था विजेंद्र सिंह। उसकी नीली भूरी आँखों, भूरे बालों और गुलाबी रंग पर रीझ गई थी युवा अल्हड़ पढ़ी-लिखी, बेबाक सीमांतिनी।

सीमांतिनी के पिता के एक मित्र के बेटे सौरभ का दोस्त था विजेंद्र। सौरभ और सीमांतिनी बचपन के दोस्त थे।

धीरे-धीरे सीमांतिनी विजेंद्र के आकर्षण में बंधती चली गई। वह भी विदेश से पढ़ा-लिखा सुंदर युवा था। अपने माता-पिता की इकलौती संतान। एक बेटा।

“गलत मत समझना सिम्मों लेकिन विजेंद्र एक भ्रम है।” सौरभ ने आगाह किया अपनी बचपन की दोस्त को। 

“अच्छा लड़का नहीं है। अपने माँ-बाप की बिगड़ैल संतान। ही इस ए ब्लडी वॉमेनाइजर। भोली-भाली लड़कियों को जाल में फँसाता है। शोषण करता है उनका। जानती हो उसने… “

“मैं सिर्फ इतना जानती हूँ कि वह तुम्हारा दोस्त है। और उसने ही मुझे बताया है कि उसके पहले भी अफेयर्स रहे हैं लेकिन दिस टाइम ही इस सीरियस. बल्कि वह तो यह भी कह रहा था कि शायद सौरभ तुम्हे पसंद करता है सिम्मी। उसे तुम्हारी फिक्र है सौरभ। तुम्हारे जज्बातों की फिक्र है और तुम…

कैसे दोस्त हो यार…”

सीमांतिनी के सिर पर उस समय विजेंद्र का जादू सवार था।

“तुम गलत समझ रही हो सिम्मो।”

पर सीमांतिनी कहाँ सुनने वाली थी। वो तो तिनके सी बह रही थी विजेंद्र के प्रेम के निर्झर में जो मरीचिका से अतिरिक्त कुछ था भी कि नहीं, पता नहीं।

अपनी साख शान के अनुसार विजेंद्र को लड़की मिल गई थी इसलिए अब तक जो लड़कियों की भावनाओं के साथ खेलता आया था वह सब सीमांतिनी के साथ तो वह नहीं करता। उसे अपने बगल में अपने अनुरूप एक बीवी चाहिए थी। उसने शादी का प्रस्ताव सीमांतिनी के सामने रख दिया।

“देखा सौरभ। ही इज प्रिटी सीरियस अबाउट अवर रिलेशनशिप। वांट्स टू मैरी मी। (वह हमारे रिश्ते को लेकर गंभीर है। शादी करना चाहता है मुझसे)”, सीमांतिनी फूली नहीं समा रही थी।

सौरभ निराश हो गया। अपनी बचपन की दोस्त को वह विजेंद्र का गिरा हुआ चरित्र नहीं समझा पाया।

पिता तो यह प्रस्ताव सुन नाराज हो गए।

“क्या देखा तुमने उसमें। माना बड़े ठाकुर हैं। इज्जत है, रुतबा है। पर एक छोटे से गाँव भर में। जानती भी हो, सुना भी है, पिप्पली गाँव का नाम। अनपढ़ लोग हैं। गाँव के जमींदार।एक हवेली है और जमीनें, खेती, गाय भैंस। कैसे रहोगी वहाँ। स्कूल नहीं, अस्पताल नहीं, होटल, पार्टी कुछ नहीं। हमारे स्टैंडर्ड से कुछ मेल नहीं खाता और विजेंद्र पैसे के दम पर विदेश की कोई डिग्री ले आया, फर्जी ही न हो।”

पर बेटी तो प्यार में अंधी थी। अन्न-जल त्याग के बैठ गई। बाप को प्यार का दुश्मन समझ बैठी ।

माँ ने पिता को समझाया, ” कर दीजिए शादी। लड़की ने कोई गलत कदम उठा लिया तो थू-थू होगी। कह देना, गाँव में ‘सोशल वर्क’ के लिए सेटल होना चाहती है।

फिर बाद में इस लड़के को घर जवाई बना लेंगे। आई एम श्योर, वो मान जायेगा।”

इकलौती बेटी की ज़िद के आगे माँ-बाप हार गए।

शादी पक्की हो गई।

हरियाणा और राजस्थान की सीमा पर झुंझुनूं जिले के पास एक छोटा सा गाँव है, “पिप्पली”

जात-पात, अंधविश्वास, शोषण से ग्रसित।

राघवेंद्र सिंह वहाँ के जमींदार थे। ग़रीब और छोटी जाति वालों को अपने जूते की नोक पर रखने वाले। वे ही सरपंच भी।तरक्की के नाम पर बस उनकी तरक्की हुई और उनकी दौलत की। गरीबों की जमीनें हड़पी उन्होंने। गाँव भर को निरक्षर रख अपने बेटे विजेंद्र को विदेश भेजा। उनकी पत्नी प्रेमा भी थी। भले ही अनपढ़ पत्नी, झूठी ठसक के अभिमान से भरी रहती।जात-पात, रुपए-पैसे का बहुत गुमान था उसे।

मगर यह सब प्रेम के तीर से बिंधी सीमांतिनी कहां देख पाई थी उस वक्त।

सौरभ ने जो कहानी टुकड़े टुकड़े सुनाई थी वही थी गुठली की कहानी। वो कहानी जो सीमांतिनी ने समझने में बहुत देर कर दी।

ऑफिस के रास्ते भर सीमांतिनी के स्मृति पटल पर ये बातें कौंधती रहीं।

सीमांतिनी ऑफिस पहुँच गई।

सीमांतिनी चाहती थी आज ज्यादा काम हो। वह खुद के उस खौफनाक अतीत को भूलना चाहती थी।

पर आज कोई केस नहीं था।

वह श्रीधर का बेसब्री से इंतजार करने लगी।

आज वह सब गुबार निकाल देना चाहती थी। दूर फेंक देना चाहती थी उस गुठली को जो इसके हलक में अटक उसके सीने पर भी बोझ बन गई थी।

पिप्पली गाँव पहाड़ियों से घिरा एक छोटा सुंदर गाँव था तब। महादेव के मंदिर और पीपल के पेड़। शायद इसीलिए इस गाँव का नाम पिप्पली पड़ा।गाँव के अधिकतर लोग थे खेतिहर मजदूर या कास्तकार।

गाँव के बीच से थोड़ी दाईं तरफ थी ठाकुर की हवेली।जहाँ मजदूरी के नाम पर बेगारी होती।

हवेली से थोड़ी दूर पर ही पहाड़ियों में एक दर्रा था और उसके पास ही एक झील। झील को लोग फूली झील कहते। हवेली चारों ओर से आम के पेड़ों से आच्छादित थी। और उसके बाद थीं ऊँची-ऊँची दीवारें। कभी जो गांव के बच्चे गलती से शरारत और लालच लिए एक आम भी तोड़ ले तो ठाकुर के लठैत कहर बरपा देते।

आमों से लदे पेड़, मजदूरों की मेहनत, हवेली का वैभव लेकिन इतनी कृपणता कि हाथ से एक आम ना झड़ता था। पर लाठियों की बौछार इतनी उदारता से होती कि बच्चों और उनके माँ-बापों की हड्डियाँ चरमरा जाती।साथ में गालियाँ और मिलती मुफ्त में।गाँव वाले इन आमों को दबी जबान में खौफी आम की बाड़ी कहते।

इसी दर्रे और झील के पास थी आदिवासियों की बस्ती। वे इसी गाँव के थे बस दर्रे से थोड़े बँटे हुए। ठाकुर की बेगारी उनके नसीब में भी थी लेकिन जंगली फलों, शहद, जड़ी बूटियों से अपने में ही मस्त भी रहते।

विजेंद्र सिंह जब विदेश से पढ़कर लौटा तो हाथ में बंदूक लिए शहर से आए अपने दोस्त सौरभ के साथ छोटे-मोटे शिकार के लिए झील से सटे जंगल में गया था।

तभी दिखी थी उसे वह अल्हड़ किशोरी। गहरे मेहरून रंग के घाघरे चोली में वह एक पत्थर पर बैठी थी। उसकी बकरियाँ आस-पास चर रही थीं और वह मगन हो एक आम चूस रही थी।

मेहरून रंग की चोली से उसके गोरे हाथ सुनहरे चमक रहे थे। और वैसे ही उसके पैर।

बचपन और यौवन की पतली पगडंडी पर थी यह लड़की।

बाल सीधे और कंधों से थोड़े नीचे तक खुले थे। उनकी धूल से भूरी लटें उसके गोरे चेहरे को चूम रही थीं।

एकदम अनछुआ, सरल लेकिन अदम्य रूप था।

विजेंद्र ने देखा और सौरभ को देख आंख मारते हुए कहा, “ये शिकार चाहिए। पर इसके लिए जाल बिछाना पड़ेगा।”

सौरभ विजेंद्र का यह लंपट रूप देख थोड़ा पीछे को खिसक गया। कॉलेज में भी उसने कई लड़कियों को जाल में फांसा था पर वे सब शहरी, पढ़ी-लिखी लड़कियाँ थीं। अपनी सोच रखती थीं।

ये तो बहुत छोटी गाँव की सीधी सादी लड़की थी।

“क्या कह रहा है विज्जू? ऐसी गाँव की गँवार को गर्लफ्रेंड बनाएगा। और देख कितनी छोटी सी है वह।”

अरे ऐसी सीधी लड़की तो फँसती है। देख उसे गौर से। इतनी छोटी भी नहीं है। और गर्लफ्रेंड, माय फुट। ये तो रसीला आम है जिसको चूस हम ठाकुर लोग गुठली फेंक देते हैं।” तभी तो देख हमारी हवेली में कितने आम लगते हैं। सब की सब चूसी हुई गुठलियों से उपजे।” कहकर विजेंद्र जोर से हँसा।

सौरभ को घिन हो आई। ऐसी सोच, ऐसी परवरिश। छी।

उसने विजेंद्र को रोकने की कोशिश की पर विजेंद्र आगे बढ़ गया था। लड़की जो अब तक आम चूस रही थी एकदम से ठिठक गई। आम का रस उसकी ठोड़ी से होते हुए बे शऊरी से उसकी लंबी पतली गर्दन पर बह रहा था।

विजेंद्र बुदबुदाया, “कितनी रसीली है”

सौरभ ने मुँह फेर लिया।

“सुनो दोस्ती करोगी मुझसे? गोरे चेहरे और विलायती कपड़ों में नीली भूरी आँखों वाला ये लड़का कितनी विनम्रता से दोस्ती का हाथ बढ़ा रहा था। लड़की हाथ से अपनी ठोड़ी और गर्दन पौंछ जाने को हुई।

“अरे सुनो, मैं छोटा ठाकुर। विजेंद्र नाम है मेरा। तुम्हारा क्या नाम है?”

लड़की ठाकुर नाम सुन और डर गई।

वो भागने को थी। विजेंद्र ने चपलता से भाग उसका रास्ता रोक दिया। डर क्यों गई? गूंगी हो क्या, बोलती नहीं।”

लड़की और डर गई। आप तो ठाकुर हो… आप …

“अरे अब तो ज़माना बदल गया है। मैं पढ़ा लिखा हूँ। अब तो सब समान हैं। कोई छोटा बड़ा नहीं। करोगी ना दोस्ती?”

लड़की यौवन की फिसलन भरी दहलीज पर खड़ी थी और शिकारी सलोना चतुर था।

उसने शरमा के सिर हिला दिया।

फिर वह भाग खड़ी हुई अपनी बकरियाँ बुलाती हुई।

“नाम दो बता दो मेरी दोस्त”

कल फिर आना यहीं इसी समय, मैं इंतजार करूंगा। आओगी ना?

लड़की हँस पड़ी।

“नाम तो बता दो”

“गुठली” उसने शरमा के और इतरा के कहा। और फिर भाग खड़ी हुई।

किला फतह करने के अंदाज में आया विजेंद्र। गर्व से बोला, “फंस गई मछली। नाम सुना? गुठली”

एक दिन चूस के फेंकना ही है इसे, इस झील में, वह कुटिलता से हँसा।

“सौरभ की ठंडी प्रतिक्रिया देख, विजेंद्र बोला, “तू भी बाँटना चाहे तो बाँट ले, निराश क्यों होता है”

सौरभ सिहर गया।

उसने ठान लिया था उसे अब वापस जाना है अपने शहर।

सौरभ ने सोच लिया था उसके बाद विजेंद्र से कोई वास्ता नहीं रखना। लेकिन विजेंद्र जब भी शहर जाता सौरभ को ढूंढ ही लेता और जबरदस्ती चेप हो जाता।

ऐसे ही एक दिन वह सीमांतिनी से मिला था।

सौरभ जानता था विजेंद्र की सच्चाई। इसलिए सीमांतिनी को आगाह करता रहा। लेकिन पढ़ी लिखी सीमांतिनी ही विजेंद्र के जाल में जब फँस गई तो बिचारी भोली-भाली गुठली की क्या बिसात?

उधर गुठली और विजेंद्र रोज घने जंगलों में छिपते-छिपाते मिलते रहे। विजेंद्र के शरीर से आती मस्क, यू डी कोलोन की परफ्यूम की महक भोली सी गुठली को बेचैन कर देती। कसमें-वादों की आड़ में बहुत सीमाएँ पार हो गईं।

और एक दिन विजेंद्र का मन भर गया गुठली से ।

वो शहर चला गया। सीमांतिनी भा गई उसके रसिक दिल को वहाँ। उसे फाँसने के मंसूबे बनाने लगा विजेंद्र।

यहाँ गांव में एक दिन गुठली को ले गरीब माँ-बाप ठाकुर हवेली आ गए।

“सरकार आपका अंश, छोटे ठाकुर का अंश पल रहा है गुठली की कोख में। बावली कहती है, प्रेम करता है छोटा ठाकुर मुझसे। मेरी इज्जत बचा लो सरकार। छोटे मुँह बड़ी बात पर गुठली को अपना लो।”

ठाकुर साब आगबबूला हो गए। एक लात गुठली के बाप को मारते हुए बोले-

“बदजात हमसे रिश्ता बनाएगा?औकात में रह”

ठकुराइन की आँखें भी आग उगल रही थीं।

“तेरी छोरी को बांध के रख। ना जाने कहाँ का पाप कहाँ मढ़ने आ रही। बड़े पर निकल रहे।”

गुठली बिना रोए, निर्विकार बोली, “एक बार छोटे ठाकुर से मिलवा दो। उनसे पूछ लो।मेरे दोस्त हैं वो बैफरेंड(ब्वॉयफ्रेंड)।”

ठकुराइन हँसी जोर से,”ओह हो! अंग्रेजी मेमसाब। चल भाग यहाँ से। छोटे ठाकुर से मिलवा दो। शहर गया है वो अपनी होने वाली दुल्हन से मिलने।”

“नहीं ऐसा न करेंगे मेरे छोटे ठाकुर। वादा किए थे हमें तो एक होना ही है। मुझे विदेश ले जाएँगे।”

बड़े ठाकुर ने इशारा किया। लठैत आगे बढ़े।

माँ-बाप लोगों की तीक्ष्ण नजरों से बचते बचाते गुठली को ले जाने लगे। पर गुठली जाने को कहाँ तैयार थी। उसके पैर जमे थे। बड़ी मुश्किल से ठेल-ठाल के माँ-बाप ले गए इस कलंक को।

“गुठली रोज घर से भाग हवेली के आगे खड़ी हो मनुहार करती, छोटे ठाकुर से मिलवा दो एक बार।”

रोज ठाकुर के आदमी उसे घसीट ले जाते।

वह ढीठ फिर भाग आती ।

और एक दिन छोटा ठाकुर शहर से आया।

गुठली को देख अचकचा गया।

ठकुराइन बोली,”ये क्या फफूंद पाली रे तूने।” पगली रोज आती है। कहती है, तेरा अंश पल रहा इसकी कोख में। जानता है ना आजकल सरकार बहुत सख्त हो गई है। तेरे बाबा सरपंच हैं। कोई तमाशा हुआ न तो फिर सब ऐशो आराम खतम। फिर हाथ से शहरी दुल्हन भी जाएगी।”

विजेंद्र दूसरे दिन गुठली से मिलने गया। झील के पास बैठा। उसे पुचकारा। उसके आँसू पौंछे। चुम्बन लिए उसके। फिर बोला, “जानती है हम ठाकुर हैं। बड़े लोग। और तू है गुठली। गुठली चूस के फेंक देते हैं हम लोग। तेरी औकात क्या है बे!” और मासूम सी गुठली एकदम से जैसे बड़ी हो गई। जब तक वह समझ पाती, उसे बालों से खींच के विजेंद्र ने उसे झील के गहरे पानी में धकेल दिया।

डूब गई गुठली। अगले दिन फुल्ली झील में गुठली की फूली हुई लाश तैरती दिखाई दी। बाल नुचे हुए। गोल मटोल सी। जगह जगह मछलियों से काटी हुई वह बिल्कुल चूसी हुई आम की गुठली लग रही थी।

पता ही नहीं चला ठाकुर के आदमियों ने लाश कहाँ गायब की। सबको चुप कर दिया गया। गरीब माँ-बाप का कलंक डूब गया था पर बेटी भी तो डूब गई थी।

और कुछ दिन में विजेंद्र के प्रेम में अंधी सीमांतिनी दुल्हन बन गाजे बाजे के साथ ठाकुर हवेली आ गई।

सौरभ ने गुठली की कहानी सुनाने की विफल कोशिश की थी। पर प्यार में इंसान अंधा, बहरा और पागल हो जाता है।

डेढ़ बज गया था। डॉ. श्रीधर आ गया। अपने को संयत कर उसे साथ ले सीमांतिनी कैफेटेरिया चली गई।

चुप्पी रही थोड़ी देर। पास्ता, सैंडविच और कॉफी ऑर्डर कर दी गई।

यह अजब सी चुप्पी थी।

डॉ. श्रीधर ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “मैम कॉफी ठंडी हो रही है।”

गला खंखार के डॉ. श्रीधर ने फिर से थोड़ा हकला के कहा,” मैम आपके पास एक रात का … “

” जी हाँ डॉ. श्रीधर मेरे पास ही है उस खौफनाक रात का खौफनाक राज़।

मैं जो आज औरतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ती हूँ मैने ही उस दिन सौरभ को कहा था,

“सौरभ ये भोली-भाली दिखने वाली गाँव की लड़कियाँ अमीर लड़कों को फाँसने में लगी रहती हैं। तुम नहीं जानते।मैं जानती हूँ। रोज पाला पड़ता है मेरा ऐसी औरतों से।”

     और उस रात का खौफनाक माजरा जानना चाहते हैं न तो सुनिए,  उस दिन बहुत बारिश थी बहुत, बिजली की कड़क के साथ। मैं अपने सपनों के राजकुमार के साथ थी। एक नई नवेली दुल्हन। मुझे खुश होना था। यह रोमांस का परफेक्ट पल था। पर उस बारिश की रात में मेरा मन डर रहा था। एक अजीब सी मनहूसियत थी। अचानक सन्नाटा सा हुआ। फिर टपाटप बारिश। धुआंधार। और फिर अचानक माँ के चीखने की आवाज आई। हमने देखा नीचे झाँक के। हवेली में पानी भर गया था। और उसमें असंख्य एक सी लाशें तैर रही थीं

गोल मटोल, खाई हुई, नोची हुई, चूसी हुई गुठली सी लाशें।

विजेंद्र का रंग सफेद पड़ गया था। तभी एक लाश उठी और उसने बड़े ठाकुर को बालों से खींच उसका खून चूस लिया जैसे कोई आम चूसता है और टांग दिया उसे आम के पेड़ पर। और फिर राघवेंद्र सिंह की असंख्य लाशें पानी में तैर रही थीं और असंख्य आमों के पेड़ों पर बालों  से बँधी झूल रही थीं।

विजेंद्र और उसकी माँ बदहवास से थे। फिर वही लाशें उठीं और यही हाल ठकुराइन का कर दिया। फिर लाश उठी ऊपर की मंजिल तक और विजेंद्र को बालों से खींच ले गई गहरे पानी में। मैं नई नवेली दुल्हन देखती रह गई। अपने ही सामने अपने सपनों के राजकुमार को नुचते हुए। एक रक्त पिपासु खून पीती रही उसका। मगर वह मरा नहीं। अपनी जान की  भीख मांगता रहा। लाश जोर से हँस कर बोली- “गुठली चूसना मुझे भी आता है। फेंक देती हूँ मैं गुठली चूस के और कुछ को लटका देती हूँ पेड़ पर। ऐसे।”

और फिर उसने लटका दिया विजेंद्र को अधमरा कर उसी पेड़ पर। वीभत्स अट्टहास। और मैं अकेली नई नवेली दुल्हन उस दिन लाशों के बीच खड़ी थी।  

मैं रो भी नहीं पाई। काठ हो गई थी।

फिर वह मेरे पास आई। “देखेगी मेरा असली रूप। ले देख।” उसका रूपसी तेज दप्प से जला और फिर दप्प से बुझ गया।

फिर जैसे वह मेरे अंदर घुस गई।

सीमांतिनी इतना धीरे बोल रही थी कि उसे सुन सिर्फ़ श्रीधर पा रहा था। कैफेटेरिया में बैठे बाकी लोग अनभिज्ञ थे।

अचानक सीमांतिनी की आवाज बदल गई। धीमी लेकिन गहरी आवाज़।

श्रीधर ने देखा अधेड़ सीमांतिनी के चेहरे पर एक युवा लावण्यमयी लड़की का चेहरा।

 “डॉक्टर मुक्त कर दे अब इसको मुझ से।

और मुझे इस से। सौरभ को भी मार डाला हमने। डरपोक था ना वो।

जला अपना लाइटर, मैं कूद जाती हूँ उस आग में। और देख पिप्पली गाँव ना जाना। जान ले वह हवेली मेरी है जिसमें सिर्फ गुठली सी लाशें बिछी हैं। चूसी हुई गुठली सी।

जला लाइटर, कब तक इसमें बैठ औरतों के अधिकारों की जिरह करती रहूंगी।”

यंत्रवत हो श्रीधर ने लाइटर जला लिया।

सीमांतिनी को लगा कोई उसमें कूदा और धुआँ-धुआँ हो गया।

सीमांतिनी ने पूछा, “हाँ तो डॉक्टर श्रीधर आप क्या पूछने जानने आए थे?”

“कुछ नहीं, यही कि एक सी प्रताड़नाओं से गुजरी औरतों की मनोदशा भी क्या एक सी होती है?”

एक राहत की साँस ली सीमांतिनी ने। फिर वह तथ्य समझाने लगी। कोई धुआँ जैसे कैफेटेरिया से बाहर निकल गया।   

अगली सुबह अपने होटल के कमरे में श्रीधर ने अखबार खोला। फ्रंट पेज न्यूज थी, “नारी अधिकारों की हर जंग जीतने वाली शेरनी सीमांतिनी सिंह दिल के दौरे से हारी। बासठ साल की उम्र में निधन।” एक औचक आए दुख की गहरी साँस में एक बारीक सी साँस राहत की भी महसूस की श्रीधर ने। आखिर रात भर उसे इसी ऊहापोह में नींद नहीं आई थी कि सीमांतिनी के गुठली की आड़ में किए अपराधों को छिपाए रखे या एक जिम्मेदार नागरिक की भाँति उन पर से पर्दा हटा दे।  

श्रीधर आज शाम की फ्लाइट से वापस यूएसए जा रहा है। उसका काम हो गया। एक दिन सीमांतिनी के फोन से गुठली ने उस से मदद मांगी थी। अपने हलक में अटकी गुठली को मुक्त कर सीमांतिनी भी मुक्त हो गई थी। आखिर मुक्ति का अधिकार सबको है।

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