मनीषा कुलश्रेष्ठ अपनी कृति में हमेशा ही किसी नये विचार और विषय को लेकर आने के कारण पाठकों को चौंकाती रहती हैं। हम उनकी लेखनी के विविधताओं और उसके विस्तार से परिचित हैं। केवल साहित्य ही नहीं बल्कि पर्यावरण और जीव-जंतुओं के प्रति सजग रहने वाली लोकप्रिय कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ का नया उपन्यास ‘त्रिमाया‘ भारत के मातृवंशीय समाजों पर केंद्रित है जिसमें आपको पर्यावरण की बदलती स्थिति-परिस्थिति के बहाने जीव-जंतुओं के जीवन की भी झलक मिलेगी। फ़िलहाल आप इस उपन्यास का एक अंश पढ़िए। उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है। – कुमारी रोहिणी
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माया का पीढ़ियों से चलता आया चिकित्सकों का परिवार था। माया को पापा ने बताया था कि टी.एम.सी के शुरुआती सर्जंस में थे उसके दादा जी और जब त्रिवेन्द्रम मेडिकल कॉलेज और अस्पताल का उद्घाटन हुआ तो वे वहीं थे। उद्घाटन करने आये जवाहरलाल नेहरू की उँगली धातु की ग्रिल में फँस गयी थी, जिससे उन्हें चोट लग गयी थी। इस तरह नेहरू अस्पताल के पहले मरीज बने और माया के दादा जी डॉ. पी. सुकुमारन वैद्यन ने उन्हें पट्टी बाँधी थी। माया के परदादा अष्टमुडी के पास एक गाँव में प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे। डॉ. पद्मा ने आज क्लीनिक बन्द रखा था, बस कुछ गम्भीर मरीज़ों को शाम को आने को कहा था। नाश्ते में उन्होंने कितना कुछ उसकी पसन्द का बनवाकर डायनिंग टेबल भर दी थी। नव्या चिड़िया की तरह चहक रही थी। पिता भी जल्दी मेडिकल कॉलेज से घर आ गये थे। माया तो बाहर ही लिपट गयी थी डॉ. चन्द्रवदन वैद्यन से।
“हाथ तो धोने दे… अस्पताल के कपड़े तो बदलने दे, सीधे ओटी से आ रहा हूँ। अब तो एक कड़क सैल्यूट बनता है भई! अब तू क्या साधारण लड़की है? आईएएस है, डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बन जायेगी एक दिन पूरा शहर स्वागत करेगा।”
“मैं आपके लिए मायाकुट्टी ही रहूँगी ना! सुनो! मेरा काडर असम-मेघालय तय है, मैंने भी फिर आपके डाँटने के बाद आगे इसे बदलवाने की कोशिश नहीं की। आप लोग अब अपना काम का फैलाव कम करो ताकि बारी-बारी आप लोग मेरे पास रह सको।”
“हाँ रहेंगे न! रिटायर होकर मैं कोई काम नहीं करूँगा, पूरा नॉर्थ-ईस्ट घूमूँगा।”
“उसमें तो अच्चन अभी सात साल का समय है।” माया डॉ. वैद्यन की बाँह पकड़े-पकड़े डायनिंग रूम में आ गयी जहाँ अम्माँ इन्तज़ार कर रही थी ताज़ा ब्रू की हुई कॉफ़ी के साथ। अगले दिन उसके कोचिंग सेंटर में उसे बुलाया गया था। उसके लिए एक छोटी-सी टॉक और मेंटर्स के साथ चाय-पार्टी का इन्तज़ाम था। वहाँ अन्दर वह संकोच और उत्साह दोनों महसूस कर रही थी। वहाँ कुछ ऐसे मेंटर्स भी थे जिन्होंने उसकी सफलता पर शक किया था, वो भी अभी तो गर्मजोशी से मिल रहे थे। वहाँ ठसा-ठस बैठे नये और उत्सुक चेहरों को देखकर उसे अच्छा लगा और वो दिन याद आ गये जब सब कुछ आभासी था, अनिश्चितता इतनी कि कभी लगता बस हो ही जायेगा सेलेक्शन, कभी लगता था एनशिएंट हिस्ट्री, मिडाइवल हिस्ट्री, मैनेजमेंट सूत्र उसके बस की बात नहीं। दिन के दस अख़बार पढ़कर दिमाग़ पोंगल की खिचड़ी हो जाता था। सोपान सर सहित सबको अपनी सफलता का श्रेय देते हुए बस उसने यहीं से बोलना शुरू किया “एक पल आपको लगेगा कि यह आपके बस की बात नहीं फिर अगले पल लगेगा इसमें क्या यह तो चुटकियों में हो जायेगा, इन दो अतिरेकों के बीच झूलेगा मन लेकिन आपको सन्तुलन बनाना होगा। आप सब ख़ास हैं, आप सब का अपना एक मज़बूत हिस्सा है बस उस पर मेहनत कीजिए और कमज़ोर हिस्सों पर रोज़ का अभ्यास। हिस्ट्री और मैनेजमेंट मेरे कमज़ोर हिस्से थे, आज भी हैं क्योंकि मैं ‘बायो-केमिस्ट्री’ से पोस्टग्रेजुएट थी।” बीस मिनट बोलकर वह गहरी साँस लेकर चुप हो गयी, उसे याद आ गये वो नये सेलेक्ट रैंक होल्डर्स जो बड़े-बड़े उपदेश देकर ख़ुद को महान समझते हुए चले जाते थे। तब वह उस तरफ़ बैठी होती थी आज इस तरफ़ है यह बस संयोग भर है।
“हाँ एक और बात… अपना हंड्रेड परसेंट दें मगर फिर भी क़िस्मत साथ न दे तो सोचें दुनिया में इससे बहुत रोचक करियर्स आपका इन्तज़ार कर रहे हैं। आपके आसपास ही ढेर से नये हाईब्रिड करियर्स हैं जो आपको हॉबी और सक्सेस दोनों की तरह मिलेंगे। ड्रीम जॉब्स तब तक ड्रीम जॉब्स होती हैं जब तक आपको ज़मीनी हक़ीक़त न पता चल जाये। मुझे असम-मेघालय काडर मिला है और मुझे वहाँ की बेहद कठिन परिस्थितियों को आसान बनाने के लिए तमाम सरकारी तंत्र के साथ एक पुर्जा बनकर लगना होगा। अपना घर, अपना स्टेट केरल भूलकर ….