जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज प्रस्तुत है ‘मुंबई नाइट्स’ के लेखक संजीव पालीवाल से बातचीत। संजीव जी से बातचीत करने में बहुत आनंद इसलिए भी आता है क्योंकि वे क्राइम फ़िक्शन विधा के न केवल अच्छे लेखक हैं बल्कि इस विधा के साहित्य के बहुत जानकार भी हैं। वे गंभीर और लोकप्रिय साहित्य के विभाजन में विश्वास नहीं करते हैं। बहुत तैयारी से लिखते हैं और हिन्दी की लुप्त होती क्राइम फ़िक्शन विधा में उन्होंने जैसे फिर से जान फूंक दी है। उन्होंने बहुत से सवालों के जवाब दिये। और हाँ, इस बात का भी कि वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक में बड़ा लेखक कौन है। आप पूरी बातचीत पढ़िए- प्रभात रंजन

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  1. सबसे पहला सवाल यही कि जो बहुत समय से मेरे दिमाग में था- आपने उपन्यास लेखन की शुरुआत ‘नैना’ जैसे उपन्यास से की जो मर्डर मिस्ट्री विधा में ताज़ा हवा के झोंके की तरह था। टीवी पत्रकारिता की दुनिया का परिवेश, समकालीन जीवन के दांव-पेंच, बहुत सशक्त शैली। अगला उपन्यास ‘पिशाच’ भी उसी की अगली कड़ी थी। लेकिन, आपका तीसरा उपन्यास ‘ये इश्क नहीं आसां’ पहले के दो उपन्यासों से भिन्न विधा में था। अब ‘मुंबई नाइट्स’ से वापस आपने जासूसी शैली में लिखा है। क्या कारण था कि आपने मर्डर मिस्ट्री विधा से एक बार दूरी बनाई?

जवाब – दरअसल, मेरे पहले दो उपन्यास क्राइम फिक्शन हैं ‘नैना’ और ‘पिशाच’। ‘नैना’ पूरी तरह अपराध कथा है जिसका परिवेश न्यूज़रूम है। और ‘पिशाच’ भी न्यूज़रूम बेस्ड ही है लेकिन उसका विस्तार हमें साहित्य की दुनिया में ले जाता है, जहां एक बड़े साहित्यकार और उसके सहयोगी प्रकाशक की हत्या होती है। और अंत में उपन्यास न्यूज़रूम में वापस लौटता और नैना के हत्यारे को सज़ा मिलती है।

नैना और पिशाच, दोनों एक ही धागे मे पिरोये गये हैं। वो है न्यूज़रूम और अपराध। नैना 2020 में आया और पिशाच 2021 में। अब ‘मुंबई नाइट्स’ 2024 में। तो ये बात सही है कि मेरा क्राइम फिक्शन तीन साल के बाद आया है। बीच में रोमांटिक नॉवेल ‘ये इश्क नहीं आसां’ पिछले साल 2023 में आया।

तो लिख मैं लगातार रहा हूं, बस 2022 में कुछ छपा नहीं। लेकिन अब वो गैप भी नहीं आयेगा। ये वादा मैं आपसे करता हूं। आपको लगातार मेरे उपन्यास नियमित अंतराल पर मिलते रहेंगे। और क्राइम फिक्शन ही होंगे। पर कभी-कभी मैं उससे भटक सकता हूँ। उसकी वजह सिर्फ यही होगी कि कोई किरदार मुझे आ कर छू ले और मेरे दिल से वो निकल ना पाये। मैं उसे लिखने के लिये मजबूर हो जाऊं।   

‘नैना’ और ‘पिशाच’ लिखने के बाद मैंने खुद से एक सवाल किया था। वो ये कि क्या मैं अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर निकल सकता हूं। वो कम्फर्ट ज़ोन न्यूज़रूम है। जहां मैं 35 साल से काम कर रहा हूं। जहां मैं किसी भी चीज़ की पैडिंग कर लेता हूं। सहारा ले लेता हूं। रिसर्च नहीं करनी होती। ऐसे में मेरे लिये ये एक चैलेंज था कि क्या मुझे कुछ और लिखना आता है? क्या मुझमें चैलेंज लेने की हिम्मत है? तो पहली कोशिश मैंने ‘ये इश्क नही आसां’ जैसा रोमांटिक नॉवेल लिख कर की। वो नॉवेल भी लोगों को पसंद आया।

इसके बाद मेरे सामने ये चैलेंज था कि क्या मैं न्यूज़ रूम से बाहर निकल कर क्राइम थ्रिलर लिख सकता हूं। तब मैंने मुंबई की दुनिया में जाने का फैसला किया। जहां मैं पिछले 20 साल में सिर्फ एक-एक दिन के लिये दो बार गया हूं। यहां मुझे मेहनत करनी पड़ी। बहुत मेहनत करनी पड़ी। बहुत इंटरव्यू करने पड़े। फिल्में देखनी पड़ीं। डॉक्यूमेंटरी देखनी पड़ी। इसलिये इस किताब को पूरा करने में मुझे चार साल से ज़्यादा का वक्त लगा।

‘मुंबई नाइट्स’ मैंने ‘पिशाच’ खत्म करने के अगले हफ्ते ही शुरू कर दी थी यानी 2020 में ही। ‘पिशाच’ कोरोना की वजह से लेट हुई वो पूरी जुलाई 2020 में ही हो गयी थी लेकिन रिलीज़ अगस्त 2021 में हुई। समझिये ‘मुंबई नाइट्स’ 2020 में शुरू होकर 2024 में आयी। पूरे चार साल लगे इसे लिखने में। ये मेरे लिये भी एक चैलेंज रहा। ‘मुंबई नाइट्स’ को लेकर आ रही प्रतिक्रिया बता रही है कि ये चैलेंज सुखद ही रहा है।          

  1. मैं जासूसी उपन्यासों का घनघोर पाठक रहा हूँ। हिन्दी ही नहीं अंग्रेज़ी के उपन्यासों का भी। आपको पढ़ते हुए यह बार बार लगता है कि आप इस विधा के न केवल समर्थ लेखक हैं बल्कि इस विधा की किताबों का आपने अच्छा अध्ययन भी किया है। पाठकों को यह बतायेंगे कि इस विधा में किन लेखकों को पढ़ना चाहिए। एसेंशियल किताबें और लेखक आपकी नज़र में कौन कौन हैं? हिन्दी में और ख़ासकर हिन्दी के बाहर भी।

जवाब – ये सवाल बेहद कठिन है। मैंने अपना पहला नॉवेल 55 साल की उम्र में लिखा। तो मेरे पास पढ़ने का एक लंबा अनुभव है। एस सी बेदी और रायज़ादा से शुरू होकर, कुशवाहा कांत से होते हुए ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा औऱ फिर सुरेंद्र मोहन पाठक। अपनी ज़िंदगी में अगर मैं किसी का दीवाना हुआ तो वो सुरेंद्र मोहन पाठक साहब हैं। वो ना होते तो मैं पत्रकार ही ना बनता। वो सुनील कुमार चक्रवर्ती का किरदार ना लिखते तो संजीव पालीवाल नाम के पत्रकार को कोई जानता भी नहीं।

मैं 1993 में दिल्ली आ गया। तब तक मैं अंग्रेज़ी में क्राइम फिक्शन की दुनिया से वाकिफ नहीं था। दिल्ली ने मेरे लिये एक नयी दुनिया के दरवाज़े खोल दिये। शुरुआत में तो ज़्यादा नॉवेल नहीं पढ़े लेकिन 2005 के बाद मैंने लगातार पढ़ना शुरू किया। किताब थी The Girl with a dragon tattoo .. इस सीरीज़ की तीनों किताबें मैंने पढ़ीं। इसके तुरंत बाद मुझे एक किताब मिली Colour Of Law . इसके लेखक हैं Mark Gimenez . इस किताब ने मुझे बेहद प्रभावित किया। फिर मैंने उनकी ‘Accused’, ‘The Abduction’ भी पढ़ी। ये सब पढ़ते-पढ़ते मेरा क्राइम फिक्शन के प्रति प्रेम फिर जाग गया। अब मुझे जो भी मिलता गया वो पढ़ना शुरू कर दिया। इन किताबों ने मेरी आखें खोल दीं। David Baldacci, Jo Nesbo, Michael Connolly , Tom Clancy, Lee Child, Daniel Silva, Ian Rankin, Dan Brown, James Patterson, John Grisham, Robert Crais, Vince Flynn, Sue Grafton, Lisa Jewel, Carol Wyer.. ये वो नाम हैं जिनके काफी उपन्यास मैंने पढ़े हैं, या पढ़ता रहता हूं। इसके अलावा भई बहुत हैं। बहुत बड़ा संसार है।

मैं यह तो नहीं कहूंगा कि पाठकों को क्या पढ़ना चाहिए। सबकी अपनी-अपनी पसंद है। लेकिन अगर आप अंग्रेज़ी में क्राइम फिक्शन पढ़ना चाहते हैं तो ऊपर के नामों से आप निराश नहीं होंगे। मजा आएगा। एक बात मैं और बता दूं कि मैं Contemporary fiction पढ़ना पसंद करता हूं। और लिखता भी वहीं हूं। ये सभी नाम मुझे पसंद है। आज की तारीख में हिन्दी में अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुकाबले का कोई क्राइम फिक्शन लेखक नहीं है। मनोज राजन त्रिपाठी ने दो उपन्यास लिखे हैं। सत्य व्यास ने एक थ्रिलर – क्राइम फिक्शन लिखा है। मैं तीन लिख चुका हूँ। अभी हम पहचान बनाने में संघर्ष ही कर रहे है। कर्नल गौतम राजऋषि का पहला क्राइम फिक्शन आने वाला है। यही चार नाम अभी मैं ले सकता हूँ।       

 

  1. आपकी पिछली मर्डर मिस्ट्री टीवी की दुनिया को लेकर थी। एक एंकर की हत्या की गुत्थी को लेकर थी। वह आपका जाना-पहचाना परिवेश था। लेकिन इस बार एकदम अलग परिवेश है। अलग कहानी है और अलग तरह के पेंच हैं। ऐसा लगता है कि आपने बहुत शोध किया है क्योंकि सब कुछ बहुत विश्वसनीय लगता है। कहीं अतिरेक नहीं। जबकि हिन्दी में इस विधा के अधिकतर लेखकों का लेखन कई बार लाउड हो जाता है। आप कहीं से लाउड नहीं हुए। यह शैली आपने कैसे सीखी? क्या आपने स्वयं से ईजाद की?

जवाब – आज के दौर में एक लेखक का मुकाबला सिर्फ किताबों और लेखकों से नहीं है। उसका मुकाबला ओटीटी पर आ रही सीराज़ से है। फिर ओटीटी पर राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही तरह की सीरीज मौजूद हैं। दर्शक के पास पूरी दुनिया का कंटेंट मौजूद है। हर तरह का थ्रिलर है। फिक्शन है। साइंस फिक्शन है। तिलस्मी दुनिया है। वो सब जानता है। आप पाठक को बेवकूफ नहीं बना सकते। शब्दों के माया जाल में कुछ देर तो वो फंसा रह सकता है पर अंत में वो पूछेगा कि ‘कहना क्या चाह रहे हो?’ ऐसे में उसे वो कहानी देनी होगी जो विश्वसनीय हो। उसे अपनी जैसी लगे। उसे लगे हां यार ये संभव है। ऐसा होता है। अविश्वसनीय होते हुए विश्वसनीय हो। ये काम बेहद चुनौतिपूर्ण है लेकिन आज के दौर के क्राइम फिक्शन लेखक की सबसे बड़ी चुनौती यही है।

मुझे अतिरेक पसंद नहीं है। मैं कंटम्परेरी फिक्शन लिखता हूं। कंटम्परेरी का मतलब है विश्वसनीय और समकालीन, जो इस वक्त हमारे आसपास घट रहा है उसे दर्ज करते चलो। ‘नैना’ और ‘पिशाच’ में आज के दौर का न्यूज़ टेलीविजन और उसकी हरकतें, कामकाज, राजनीति, हर अच्छाई और बुराई दर्ज है। बस उसका माध्यम बनी हैं आपराधिक घटनायें। इसलिये वो क्राइम फिक्शन कहलाया। लेकिन क्या वो स्तरीय है, हां है। क्या वो विश्वस्नीय है, हां है। मैं दावे से कह सकता हूं कि भारतीय इतिहास में न्यूज़ टेलीविजन को इतने विश्वसनीय तरीके से आजतक किसी ने नहीं लिखा।

रही बात ‘मुंबई नाइट्स’ की, तो मैंने बहुत दिन इस बारे में पढ़ा। जाना कि मुंबई में स्ट्रगलर की ज़िंदगी क्या होती है। स्टार्स की लाइफ क्या है। कौन लोग हैं जिनकी अहमियत है। किस तरह के ग्रुप बने हैं। इनको कौन कंट्रोल करता है। बहुत सारी डॉक्यूमेंट्री देखीं. लोगों से बात की। मेरे दोस्त हैं जो फिल्में प्रोडयूस करते हैं। रिपोर्टर हैं। साथी हैं। सबसे बातचीत की घंटो। और तब इस उपन्यास की रचना हुई।

उपन्यास लिखने का ये तरीका मुझे अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ कर ही आया। ये समझ आया कि उपन्यास सिर्फ मनोरंजन के लिये ही नहीं होते। वो हमारे लिये एक नयी दुनिया के रास्ते खोलते हैं। ऐसी अनजानी जगहों पर ले जाते हैं जहां हम आसानी से नहीं जा सकते। हर उपन्यास पाठक को समृद्ध करके खत्म हो और पाठक के भीतर कुछ दिन के लिये ठहर जाये। बस वही सच्चा उपन्यास है। विधा कोई भी हो, मेरी कोशिश यही रहती है। पाठक के तौर पर जो मेरा मानना है,  लेखक के तौर पर भी मैंने उसी को अपनाया। उपन्यास जिस परिवेश पर आधारित हो पाठक उससे पूरी तरह वाकिफ हो जाये। उसे अपने समय, समाज के सच के साथ दुनिया, जहान के बारे में भी मालूम चले। शहर और जरायम पेशा, पुलिस और जासूस… सबकी दुनिया खुले उसके सामने। वह केवल पाठक भर न हो, हालातों से सीखे भी। आखिर मनोरंजन के साथ सूचना और सजगता भी तो जरूरी है।

 

  1. उपन्यास में लेखक का सच है। लेखक का यह सच कितना सच है?

जवाब – सच और झूठ आख़िर क्या है? यह तो अपना-अपना परसेप्शन है। लेखक जब अपने आसपास से, अपने समाज और अनुभवों से कुछ रच रहा होता है, तो उसमें उसकी कल्पना की, लेखन कौशल की मिलावट न हो तो वह शुष्क इतिहास नहीं हो जाएगा?  लेकिन यह भी सच है कि उपन्यास में लेखक का सच होता है लेकिन वह मिलावटी है। बहुत ज़्यादा मिलावटी है। बतौर लेखक हम सभी अपने अनुभव से ही लिखते हैं। कभी अपने माहौल से, कभी अपने आसपास से, कभी अपने पाठ से, तो कभी रोजमर्रा की घटनाओं से। मैं समझता हूं कि दुनिया की सभी किताबें सच और कल्पना का, यहां तक कि जीवनियों में भी यह घालमेल चलता है। हां, इनका प्रतिशत अलग-अलग हो सकता है, होता भी है।        

 

  1. हिन्दी के तथाकथित गंभीर साहित्य की दुनिया को आप किस तरह से देखते हैं? पाठकों से उनकी दूरी का क्या कारण लगता है आपको?

जवाब – लेखन के क्षेत्र में सबकी अपनी अहमियत है। साहित्य अपनी जगह है और लोकप्रिय लेखन अपनी जगह। पर मेरी समझ से यह बंटवारा ही गलत है। यह तो वही बात हुई कि कला का कोई छात्र कहे कि विज्ञान विषय की अहमियत नहीं, या विज्ञान वाला कला और समाज विज्ञान को तुच्छ समझे। गंभीर साहित्य की अपनी अहमियत है, होनी भी चाहिए, लेकिन लोक से कटकर लिखा जाएगा, या केवल बौद्धिक जुगाली के लिए कोई साहित्य रचा जाएगा, तो आम जन के लिए उसकी कोई अहमियत नहीं है। लोक से जुड़े होने के चलते ही रामायण, महाभारत, रामचरित मानस जैसी कृतियां सैकड़ों साल बाद भी जिंदा और लोकप्रिय हैं, पर क्या वर्तमान में लिखी जाने वाली कोई कृति उस लोकप्रियता का दावा कर सकती है? मुझे लगता है कि पाठकों से दूरी का सवाल हिंदी साहित्य के झंडाबरदारों और आलोचकों से पूछा जाना चाहिए, कि रामायण, महाभारत तो दूर वे तो ‘गुनाहों का देवता’ के इर्द-गिर्द भी नहीं पहुंच पा रहे। मुझे लगता है कि लेखन को साहित्य और लोकप्रिय ही क्यों, महिला और दलित लेखन के खांचे में बांटना ही गलत है। हिंदी का बड़ा पाठकवर्ग इससे भ्रमित होता है, जिसका सीधा असर किताबों की बिक्री पर पड़ता है।

  1. आप हिन्दी एक सबसे वरिष्ठ थ्रिलर लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक का बतौर लेखक बहुत सम्मान करते हैं। एक बात बताइए कि बतौर लेखक उनसे क्या सीखा जा सकता है?

जवाब- पाठक साहब से जितना सीखा जाये कम है। सबसे पहले तो लेखन के प्रति समर्पण, फिर लिखने की ललक और अनुशासन। उनके जैसा नियमित लिखने वाला इंसान मेरी नजर में कोई और नहीं है। लगातार 65 साल से लिखना और तकरीबन 350-400 किताबें लिखना असाधारण अनुशासन मांगता है। एक और बात, वो खुद को कभी कम नहीं आंकते। सौदा खरा करते हैं। हिसाब किताब के पक्के हैं। ये वो क्वालिटी है जिन्हें हम गंभीरता से नहीं लेते। और लेखक तो इन चीज़ों के प्रति कतई गंभीर नहीं होते। यही खूबी पाठक साहब को भीड़ से अलग करती है।

और सबसे बढ़ कर पाठक साहब एक बेहतरीन इंसान हैं। यही बात एक बेहतरीन लेखक को महान लेखक बनाती है। आज की पीढ़ी भले ही भुला रही हो, पर तथ्य यही है कि आने वाली पीढ़िया याद करेंगी कि एक लेखक इस देश में ऐसा भी था जिसके उपन्यास पढ़ने के लिये लोग किताब की दुकानों के हर हफ्ते चक्कर लगाय़ा करते थे कि पाठक साहब का कोई नया नॉवेल आया क्या। प्रकाशक जिसको मुंहमांगी कीमत देने को तैयार रहा करते थे।     

  1. एक बात बताइये कि मर्डर मिस्ट्री विधा का लेखन सबसे अधिक लोकप्रिय स्वीडन-नॉर्वे जैसे स्कैंडेनेवियन देशों में है जहां अपराध कम होते हैं। भारत में वह उतनी लोकप्रिय विधा नहीं है। इसके कारण के रूप में आप क्या देखते हैं?

जवाब- बदलते वक्त के साथ हमारे देश में साक्षरता तेज़ी से बढ़ी। अखबार गांव गांव में पहुंच गये। फिर 90 के दशक में टीवी आ गया। नयी सदी की शुरुआत में मोबाइल लोगों के हाथ में पहुंच गया और पिछले एक दशक में फ्री डेटा ने लोगों को हाथो को पूरी तरह मोबाइल में उलझा दिया। अब हर कोई रील देख रहा है। उस पढ़ने लिखने से कोई मतलब नहीं है। बस रील देखने में बिज़ी है।

स्कैंडेनेवियन देशों में अपराध ना के बराबर हैं। लेकिन वो ऐसा आपराधिक संसार रचते हैं कि अपराध करने वाले भी शरमा जायें। जिसके पास जो नहीं होता ना वो उसकी तमन्ना करता है। ख्वाहिशमंद रहता है। इन देशों में पढ़ने की परंपरा आज भी कायम है। वहां लेखक और लेखन का सम्मान है। हर विधा को पसंद करने वाले लोग हैं। 

अब हमारे अखबार उठा कर आप देख लीजिये। पन्ने के पन्ने भरे रहते हैं अपराध की खबरों से। जब वास्तविक दुनिया में अपराध बहुतायत में उपलब्ध हैं तब किसी लेखक द्वारा रचित अपराध की क्यूं पढ़ना चाहेंगे। यही हमारे जैसे लेखक का चैलेंज है। ऐसा काम करो, ऐसी दुनिया रचो, ऐसी कहानी सुनाओ कि पाठक मजबूर हो जाये किताब पढ़ने के लिये। आखिरकार वो वेब सीरीज़ तो देख ही रहा है ना। तो इसका मतलब ये है एक लेखक के तौर पर हम कमज़ोर पड़े हैं। हमें लिखना नहीं आता। ये बात हमें स्वीकार करनी पड़ेगी। जब लेखक थे, अच्छा लिखने वाले थे तब लोग पढ़ रहे थे। एक पीढ़ी खत्म हो गयी लेकिन नयी पीढ़ी तैयार नही हुई।

  1. मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री की एक अंधेरी दुनिया दिखाई देती है आपके उपन्यास ‘मुंबई नाइट्स’ में। इस प्रतिसंसार को रचते हुए आपको डर नहीं लगा?

जवाब– डर कैसा। किस से डरना। डर तो कतई नहीं लगा, ना किसी से लगता है। परवरिश ही ऐसी मिली कि खौफ शब्द सिखाया ही नहीं किसी ने। पिता भी मेरे बेहद हिम्मती रहे। फिर जब पत्रकारिता की तब भी बेखौफ ही रहा। कभी लिखते समय सोचना नहीं पड़ा। मैंने 1990-1993 के दौर का आतंकवाद कवर किया है। जब पंजाब आतंकवाद के दौर से गुज़र रहा था तब उत्तर प्रदेश के तराई में भी उसका असर हुआ। बिसालपुर, रुद्रपुर से लेकर पीलीभीत तक के क्षेत्र में आतंकवादी सक्रिय थे। आतंकवादी घटनायें होती थीं। तो काफी कवर किया। खौफ या डर नहीं लगा।

एक और बात है वो है काम के प्रति ईमानदारी। अगर हम अपने काम के प्रति ईमानदार हैं तो डर नहीं लगता। मुझ से ‘नैना’ के प्रकाशन के बाद कई लोगों ने एक सवाल किया। वो ये कि मैंने टीवी चैनल में काम करते हुए ‘नैना’ जैसा उपन्यास कैसे लिखा। जिसमें एक एंकर की ज़िंदगी का खुल कर जिक्र है। उसके रिश्ते हैं, कामकाजी जिंदगी है, मैनेजिंग एडिटर है और भी किरदार हैं जिनके बीच मैं इतने साल काम करके आया हूं। कोई नाराज़ तो नहीं हुआ। इन सब को साधते हुए मैं कैसे लिख सका। किसी ने मुझसे कुछ कहा क्या? इतनी हिम्मत कहां से आयी। उस वक्त जो जवाब मैंने दिया था वो जवाब आज भी सही है। वो ये कि मैं एक उपन्यास रच रहा हूं किसी के साथ स्कोर सैटल नहीं कर रहा। बदला नहीं ले रहा। किसी को बदनाम करना मेरा उद्देश्य नहीं रहा है। अगर ये सब नहीं है। आपने अपना काम ईमानदारी से किया तब डर की कोई वजह ही नहीं है।   

 

  1. सर हिन्दी जासूसी उपन्यास की परंपरा में सुरेंद्र मोहन पाठक बनाम वेद प्रकाश शर्मा का द्वंद्व बहुत बड़ा रहा है। इसको आप किस तरह देखते हैं? दोनों में क्या दोनों अलग अलग तरह के लेखक थे या एक दूसरे के पूरक?

जवाब-  इस बनाम वाली परंपरा से मैं इत्तिफाक नहीं रखता। हर लेखक के लिखने की अपनी स्टाइल होती है, उसके अपने किरदार होते हैं और उसका एक मुरीद पाठकवर्ग होता है। इसलिए कायदे से तो सुरेंद्र मोहन पाठक बनाम वेद प्रकाश शर्मा का द्वंद्व होना ही नहीं चाहिए। हो सकता है यह उस समय के प्रकाशकों की व्यावसायिक स्ट्रेटजी का हिस्सा रहा हो।

जहां तक मेरी बात है, मैंने पढ़ा तो सबको लेकिन किरदार और कहानियाँ पाठक साहब की ही दिल और दिमाग़ में रह गयीं। सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल उर्फ़ विमल, सुधीर कोहली या फिर सुनील चक्रवर्ती.. ये आज भी मेरे साथ हैं। चस्पाँ.. दिल में..

वेद प्रकाश शर्मा के साथ मेरा ऐसा रिश्ता कभी नहीं बन पाया। ‘वर्दी वाला गुंडा’ भले ही बहुत मकबूल हुआ हो लेकिन मेरा जुड़ाव पाठक साहब के साथ ही बना। वैसे भी पाठक साहब जहां किरदारों पर फोकस कर रहे थे, वेद प्रकाश शर्मा का फोकस आधुनिकता और विज्ञानी बदलाव से जुड़ी फतांसियों पर था। टिंबकटू उनके पढ़ने वालों के लिए ऐसे ही रहा। शर्मा जी के तो किरदार क्या शहर तक गायब हो सकते थे, जबकि पाठक साहब के जासूस अपने कौशल और दिमागी दाँवपेंच से महारथ हासिल करते थे। दोनों की अपनी लोकप्रियता थी, दोनों का अपना रीडर बेस। दोनों ने ही लोकप्रिय लेखन को उसकी बड़ी पहचान दिलाई।

 

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1 Comment

  1. सुनील पालीवाल जी से बातचीत दिल ले गई।
    मेरी शुभकामनाएं आप दोनों तक पहुंचाएं।

    (पालीवाल जी को अभी पढ़ नहीं पाया हूँ। जल्दी पढ़ना शुरू करूँगा और कुछ लिखना भी तो है न!!)

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