कल ही गगन गिल को साहित्य अकादमी सम्मान दिये जाने की घोषणा हुई है। पढ़िए कवयित्री अनामिका अनु की उनसे बातचीत-
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1.अनामिका अनु:आपकी पसंद की पंक्तियाँ?
गगन गिल :‘हाथों में पता नहीं रबड़ है कि पेंसिल है
जितना भी लिखता हूँ उतना ही मिटता है’
2.अनामिका अनु:एक प्रश्न जो आप स्वयं से पूछना चाहती हों?
‘ऐसा कब तक चलेगा?’
3.अनामिका अनु:समुद्र की लहरों को उमड़ते देखकर मन में क्या आता है?
गगन गिल : ‘मछली मछली कितना पानी?’
4.अनामिका अनु :आपकी प्रिय नदी जिसके तट पर आप लंबे समय तक बैठना चाहती हों?
गगन गिल :अब हमारे भाग्य में ये सुख कहाँ! मगर कुछ बरस पहले ओंकारेश्वर में नर्मदा देखी थी। उसके बाद कभी बासवन्ना की समाधि के पास कृष्णा और मालाप्रभा नदी का संगम। आज भी वे दोनों दृश्य आँखों के सामने नाच उठते हैं। ऐसा जल!
5.अनामिका अनु:आपको दिन का आसमान ज्यादा पसंद है या रात का आसमान?
गगन गिल:रात का आसमान। अगर दिखे तो! दिखता कहाँ है? हम बत्तियाँ जला कर, खिड़कियों पर पर्दे डाल कर बैठे रहते हैं। हमने रात के तिलिस्म को खो दिया है।
6.अनामिका अनु: एक रेल जो दुनिया नाप ले ।उस यात्रा की दो टिकटें आपके पास हो , आपको दो आरामदायक सीटें और ढेर सारी किताबें मिल जाएं तो किस एक व्यक्ति के साथ आप वह यात्रा पूरी करना चाहेंगी?
गगन गिल: यदि उस टिकट पर कोई देवदूत यात्रा कर सकता हो, तो उसके साथ! उस दूर दुनिया से आए हुए मेहमान को मैं सब दिखाना चाहूँगी जो हमारी दुनिया में है!
7.अनामिका अनु:पहली किताब जिसे पढ़कर आप रोईं?
गगन गिल : साउल बेलो की किताब ‘सीज़ द डे’ पढ़ कर। अमेरिका में पूरे एक दिन की कहानी है।क़र्ज़ में डूबे नायक को उसकी पत्नी ने छोड़ने का अल्टीमेटम डे दिया है। नायक वसूली करने वालों से बचता फिरता अपने धनी पिता से मिलने जाता है, इस उम्मीद में कि वह कोई मदद कर देगा। पिता उसकी अवहेलना करता है और मदद भी नहीं करता। सुबह से शाम हो रही है। समय विकराल होता जा रहा है।विमूढ़ नायक चलता जा रहा है कि वह देखता है, अनजाने में वह किसी शव यात्रा के पीछे चला जा रहा है। जब मुर्दा दफ़नाने लगते हैं तो वह फूट-फूट कर रोता है। लोग हैरान होते हैं। ये कौन है जो मरने वाले के इतना क़रीब था?
उसका रोना अब भी मेरे आगे आ जाता है।कुल सौ सवा सौ पन्नों का उपन्यास था वह।
8.अनामिका अनु:कोई देशी या विदेशी संगीतकार जिन्हें सुनना आप पसंद करती हैं?
गगन गिल:बहुत लोग हैं। अलग-अलग दिनों के लिए अलग-अलग संगीत। पंडित जसराज, मालिनी राजुर्कर, राम नारायण, पठाना खान, हरिप्रसाद चौरसिया, भाई निर्मल सिंह, भाई अनंतवीर सिंह, भाई बलबीर सिंह, सुचित्रा मित्र, कारायान, बाख़, बर्नसटाईन, माइल्स डेविस, बिली हॉलिडे, जेसुआलडो, बॉब मार्ली।
9.अनामिका अनु :पढ़ना, लिखना जीवन में जो कमियाँ हैं उनका प्रतिरोध है।क्या यह सच है?
गगन गिल:नहीं, प्रतिरोध नहीं, उसका प्रतिस्थापन है जो जीवन में नहीं है। इसलिए भी कि जीवन में अधिकांश हम यथार्थ से घिरे होते हैं जबकि लिखना पढ़ना हमें उस दुनिया से संवाद करने का मौक़ा देता है जो मुखर रूप से, मगर अदृश्य रूप में हमारे भीतर लगभग हर समय चल रही होती है। हर व्यक्ति में हर समय एकालाप चल रहा होता है, वह उसके प्रति सजग हो या न हो। साहित्य सिर्फ़ उस आंतरिक अनुभव का सत्यापन करता है जिसे हमारा सोया मन पहले से ही जानता है। आंतरिक अनुभव के इस सत्यापन के लिए ही हम कलाओं के पास जाते हैं।
10.अनामिका अनु:विवाह में गाया जाने वाला कोई एक लोकगीत जो आपको याद हो?
गगन गिल:हाँ। बचपन में एक गीत रेडियो पर बजते सुनती थी – ‘अज दी दिहाड़ी रख डोली नी माँ, रहवाँ बाप दी बण के गोली नी माँ’। पार्श्व में बड़ी मार्मिक शहनाई बजती थी और पंजाबी गायिका सुरिंदर कौर इसे गातीं थीं। कई बार मैंने इस पर माँ को रोते हुए देखा, और उन्हें देखकर खुद को रोते भी। ये गीत और माँ मेरी स्मृति में अभिन्न हैं।
11.अनामिका अनु:आपको सृजनात्मक बने रहने के लिए किस चीज़ की आवश्यकता होती है?
गगन गिल:लम्बे मौन की, कभी-कभी लम्बे संगीत की भी। ये छलनियाँ हैं जिनमें स्वयं को ख़ाली करती हूँ, झांक कर देखती हूँ, तलछट में क्या है जो परेशान कर रहा है, गड़ रहा है।
12.अनामिका अनु:अगर आपको बच्चों की कहानियों का कोई एक पात्र बनने का मौका दिया जाए , तो आप क्या बनेंगी?
गगन गिल:सिन्दबाद! तब मैं उन सब जगहों की यात्रा कर सकूँगी जहाँ कभी बौने होंगे कभी दैत्य! कभी वे मुझसे अचंभित होंगे, कभी मैं उनसे!
13.अनामिका अनु:क्या साहित्य यथार्थ को प्रेरित करता है या यथार्थ से साहित्य प्रेरित होता है?
गगन गिल:ज़्यादातर तो साहित्य ही यथार्थ से प्रेरित होता है। जब तक पाँचों इंद्रियाँ सक्षम हैं, सक्रिय हैं, हम यथार्थ से बच नहीं सकते। मगर उसमें से क्या पकड़ें, क्या छोड़ें, यह ज़रूर कर सकते हैं। हम यथार्थ में डूब ही न जाएँ, इसमें जकड़ ही न जाएँ, शायद इसीलिए प्रकृति ने हमारा मन, उसका चेतन, अर्ध चेतन, अवचेतन बनाया हो!
साहित्य भी यथार्थ को प्रभावित तो करता ही है। जो भी हमने कभी पढ़ा या सुना, लोकगीत या लोक कथा तक, उस अर्थ के परोक्ष में रहते ही हैं जो हम यथार्थ से ग्रहण करते हैं।
14.अनामिका अनु:साहित्य मनुष्य को बदल सकता है , साहित्य लिखकर क्या लिखने वाला भी बदल सकता है ?
गगन गिल :ज़रूर। दरअसल आप चाहें तो भी ऐसा हो नहीं सकता, कि आप बदलें नहीं।यह प्रकृति का अटल नियम है। लेखन और पठन ही नहीं, दिन भर में होने वाले अन्य कार्यकलाप भी हमें बदलते रहते हैं। जाने-अनजाने सुबह से शाम तक कितनी चीजों से हमारी मुठभेड़ होती रहती है। मन और शरीर दोनों क्रिया-प्रतिक्रिया में लगे रहते हैं। ऐसे क्षण बहुत कम आते हैं जब उस घटना को, उस ‘बदलने’ को हम ठीक-ठीक पहचान पाते हों। अक्सर तो सब धुंधला रहता है। हैरानी होती है, हम इतना बदल कैसे गए!
15.अनामिका अनु:क्या पाप और पुण्य पर चिंतन सबसे अधिक हमारी अंतरात्मा को प्रभावित करती है।क्या यही वह अनामिका अनु है जिसे हम सबसे अधिक बार स्वयं से पूछते हैं और ज्यादातर हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँचते हैं?
गगन गिल :मैं इसे कुछ अलग तरह से कहना चाहूँगी। हमारी अंतरात्मा में ही कोई कसौटी है जो हमें पाप और पुण्य में भेद करना सिखाती है। हम इसे किसी नैतिक शिक्षा की कक्षा में नहीं सीखते, न क़ानून की किसी किताब से। भीतर कोई है जो चेताता रहता है, ग़लत कुछ हो जाए, तो भटकाता है। आप क़ानून से बच सकते हैं, स्वयं से नहीं। टोल्स्तोय और दोस्तोइवस्की इसी इलाक़े का मार्मिक अन्वेषण करते हैं, महाभारत भी। जिस बुद्धि के कारण हम अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माने जाते हैं, उसी ने हमें सीमा में रखने के लिए यह अदृश्य शक्ति बनाई होगी, जिसे हम अंतरात्मा कहते हैं।
16.अनामिका अनु:साधारण भाषा में असाधारण रच पाना क्या संभव है?
गगन गिल :असाधारण को रचने वाला मन है, प्रज्ञा है, भाषा नहीं। भाषा केवल एक यंत्र है सम्प्रेषण का। उसके अपने स्वभाव में साधारण-असाधारण कुछ भी नहीं। वह अपनी प्रकृति में उतनी ही रंगहीन है जितना जल या पवन। भाषा के जिस जादू से हम मोहित होते हैं, वह शब्दों से नहीं, उनके एक दूसरे से जुड़ने के विन्यास में है। वह विन्यास भाषा में बना ज़रूर है, मगर उसका कर्ता भाषा नहीं, उसे प्रयोग करने वाला है!
17.अनामिका अनु:विस्सावा शिम्बोर्स्का कवियों को भाग्यवान लोगों का समूह मानती हैं और आप …?
गगन गिल:कविता को किसी भाग्यवान की थाती!
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