कल श्री गिरिराज किराडू ने हमारी भाषा के वरिष्ठ कवि-आलोचक-संपादक श्री अशोक वाजपेयी को उनकी बातों के सन्दर्भ में स्पष्टीकरण देते हुए पत्र लिखा था. आज अशोक जी ने उस पत्र का जवाब देते हुए बहुत गरिमापूर्ण ढंग से अपनी बातों को रखा है, लेकिन इस छोटे से पत्र में उन्होंने कुछ गंभीर सवाल उठाये हैं जिनके सन्दर्भ में समकालीन बहसों को एक बार फिर देखा जाना चाहिए, कम से कम मुझे ऐसा लगता है. अशोक जी के इस पत्र के बाद मुझे नहीं लगता है इस बहस को आगे चलाये रखने का कोई औचित्य रह गया है. आपके लिए अशोक वाजपेयी का वह पत्र- प्रभात रंजन
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प्रिय श्री किराडू,
आपके पत्र के लिए आभारी हूं।बात ब्योरों की नहीं है — मुद्दे की बात यह है कि आपको रज़ा फाउंडेशन से सहायता लेने या सहयोग करने में संकोच नहीं रहा है। आपने इसकी पुष्टि भी कर दी है। फ़ेसबुक पर न होने और उसमें रुचि न रखने के कारण मैं पूरे प्रवाद–विवाद को नहीं जानता। लेकिन कुछ मित्रों के फोन आदि से पता चला कि इसमें रज़ा फाउंडेशन को घसीटा जा रहा है। आप उससे सहयोग करें तो यह उचित है, व्योमेश शुक्ल को अगर वही फाउण्डेशन श्रीकांत वर्मा पर एक पुस्तक लिखने के लिए फेलोशिप दे तो यह उनका अवसरवाद है! कैसे और क्यों? अधिक से अधिक यह आरोप है और वह लगाने मात्र से तथ्य नहीं हो जाता।
इसी तरह से कमलेशजी के एक वक्तव्य को उनके सत्तर पृष्ठ लंबे इंटरव्यू से निकालकर उसे संदर्भच्युत कर उन्हें सीआइए का समर्थक और मानव–विरोधी तक घोषित करना अनैतिक और बौद्धिक रूप से दयनीय है। हम लेखक हैं: हम अपने साहित्य के बल पर जियेंगे–मरेंगे। अज्ञेय पर जिस ‘प्रहार‘ का आपने जिक्र किया है, वह उनकी कविता के विश्लेषण से किया गया था, उनके किसी वक्तव्य के आधार पर नहीं! विचारधारा प्रतिभा को पुष्ट–सशक्त कर सकती है, उसे नष्ट भी। उसका उपयोग अगर दूसरों को पीटने के लिए मनमाने ढंग से, बिना साहित्य का साक्ष्य जुटाए, किया जाता है तो यह अनैतिक हैः वह साहित्य के साथ ही नहीं विचारधारा के साथ भी अन्याय है। विचारधारा नैतिक संसक्ति मांगती है।
इसके पहले कि यह पढ़कर आपके समर्थक और मित्र खौखियाएं, यह याद दिला दूं कि मैंने, विचारधारा–विरोधी होने के बावजूद, उससे सन्नद्ध लेखकों के महत्त्व से कभी इनकार नहीं किया है। मेरी बृहत्त्रयी में चार दशकों से अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध हैं। आगे मैंने नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र और त्रिलोचन की दूसरी त्रयी भी प्रस्तावित की। फिर रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और विनोद कुमार शुक्ल की तीसरी त्रयी। आपको पुरस्कार देने का उल्लेख मैंने इस बात को रेखांकित भर करने के लिए किया था कि मेरी अल्पबुद्धि कभी भी न्यायबुद्धि से विरत नहीं हुई है। कम से कम जानबूझकर। आप क्या सभी को हक है कि वे मेरे साहित्य और कृतित्व को जांचे–परखें
15 Comments
Gutbazi ko lekar hindi sahitya ke itihas ki tarah hi kaal-vibhajan kiya ja sakta hai- bhartendu yug, dwivedi yug, shukla yug, shuklottar athwa adhunik yug….bade research ka vishay hai yah-:).
लोकतांत्रिकता ना निभा पाना मजबूरी होगी, फिर भी काफी हद तक निभाई गई…
गुटबाजी और घटियापन केवल राजनीति में ही नहीं है, साहित्यकारों को भी आजकल अपने पास ये गुण रखने का शौक चर्राया है, हिंदी के कुछ नामी गिरामी लोगों को जब गिरते हुए देखता हूँ, तो आदर्श और प्रतीक छिन्न भिन्न हो जाते हैं|
जिनकी पत्रिकाएं, जिनके अखबार, केवल इसलिए खरीद कर पढ़े गए कि चलो बाकी का क्या है बस सम्पादकीय पढ़ लेंगे , जब ऐसे लोगों का पारस्परिक चरित्र चीर हरण देखने को मिलता है तो कष्ट और खेद का अनुभव होता है,….. भगवान आपकी दिवंगत नैतिकता को शांति दे|
"खौखियाएं" शब्द आज के बाद संसदीय शब्दकोश में शामिल कर लिया जाना चाहिए
मूल मुद्दा ये था कि कवि कमलेश को साक्षात्कार से गलत उदृत कर CIA से जोड़ दिया गया, उनकी और अशोक वाजपेई की फेसबुक पर मौजूदगी न होते हुए भी उन पर छींटाकसी करी गई, कमलेश पर बहस को दूसरे पक्ष (ओम थानवी कुलदीप कुमार) की जानकारी के बगैर सम्पादित और प्रसारित कर दिया गया, अशोक वाजपेई को साम्प्रदायिक मंच पर जाने वाला बताया गया — इनमें से किसी का जवाब गिरिराज किराडू और अशोक पांडे क्यों नहीं दे रहे हैं। रजा से आर्थिक सहायता लेने का प्रस्ताव तथा उसका रिजेक्शन होना भी एक पहलू था जो अब किराडू की चुप्पी से स्पष्ट पुष्ट हो गया, क्या इस रिजेक्शन की वजह से रजा फाउंडेशन, अशोक वाजपेई, रजा फाउंडेशन की पत्रिका समास, जिसके संपादक अशोक वाजपेई के भाई उदयन वाजपेई हैं और जिसमें कमलेश का साक्षात्कार छपा था और खुद सीधा अशोक वाजपेई पर निशाना नहीं साधा गया? इन सब सवालों के जवाब कहाँ है?
ASHOKJI SACHMUCH HI IN SARI TUCHHAIYON AUR MOORKHATAON SE BAHUT UPER HAIN, VE AAJ KE RACHNAKARON KA PRATINIDHITVA KARTE HAIN, UNKE MUKH SE KAVITA SUNANA BIRLA ANUBHAV HOTA HAI, PHIR AISI "GHATIYA" BATON MEIN GHASEET KAR SAMAY KATNA AUR UNHE AAHAT KARNA KAUNSI BUDHIMAANI HAI, GADHON KO YE BAAT KABHI SAMAJH NAHI AA SAKTI.
BAHUT SUNDAR BAAT KAHI HAI AAPNE.
इसमें दो राय नहीं कि अशोक जी से अधिक शिष्ट और सृजनात्मक विवेक से संपन्न लोकतान्त्रिक राजपुरुष की कल्पना नहीं की जा सकती .इसीलिए वे नामवर सिंह जी के बाद राज्याश्रयी परपरा के सबसे महत्वपूर्ण साहित्य के संस्कृति-पुरुष हैं .श्रीकांत वर्मा के निधन के बाद अशोक वाजपेयी की उपस्थिति अपने-आप में हिन्दी साहित्य का अमूल्य धन है उन्होंने समय की सत्ता को जो साहित्यिक विवेक दिया है ,वह दोष-दर्शन ओर इर्ष्य के बावजूद प्रशंसनीय है .वे हिन्दी की अपने ढंग की उपलब्धि हैं .इसे अस्वीकार करना बेईमानी होगी .
"विचारधारा प्रतिभा को पुष्ट-सशक्त कर सकती है, उसे नष्ट भी।" (गोया 'प्रतिभाशाली' व्यक्ति प्लूटो ग्रह से आता हो)
माफ़ करेंगे अशोक जी मुद्दा ये नहीं था कि गिरिराज किराडू को रज़ा फाउंडेशन से सहायता लेने या सहयोग करने में संकोच रहा है या नहीं ….. मुद्दा ये था कि गिरिराज जी ने प्रतिलिपि के थोक खरीदारी का आपसे आग्रह किया जिसे आपके द्वारा इनकार करने पर (बाद में इसे आर्थिक सहयोग की मांग व उससे आपका इनकार कर दिया गया) उन्होंने कमलेश जी के सीआईए वाले बयान की आलोचना की आड़ में आपसे अपनी खुन्नस निकाल रहे थे. जैसा कि आपने भी अपने पहले इ-मेल में इसका जिक्र किया है औ अब ये कहना कि मुद्दा सहायता लेने और सहयोग करने में संकोच का न होना है. क्या ये दोनों बातें एक ही हैं…. वैसे आपको धन्यवाद कि आपके इस पत्र से स्पष्ट हो गया कि जनसत्ता में लगाए गए आरोप बेबुनियाद व तथ्यहीन थे.
यह एकदम सही कहा आदरणीय अशोक जी ने.
इहाँ कुम्हड़ बतियाँ कोऊ नाहीं/ जेहिं तर्जनी देखि जरी जाईं.
वैसे यह 'युवकोचित' अधिक है 🙂
हाँ, इस पत्र से यह तो साबित हो ही गया कि थानवी जो दूर की कौड़ी लाकर पूरी बहस को किसी खिन्नता से उपजी चिढ कह रहे थे, उसकी जड़ ही नहीं थी. जो जड़ वह रोपने की कोशिश कर रहे थे, उसमें आदरणीय अशोक वाजपेयी जी ने ही मट्ठा डाल दिया.
बाकी प्रभात रन्जन जब अब 'आगे बहस के किसी औचित्य' से ही इंकार कर रहे हैं तो ज़ाहिर है कि इससे अधिक 'लोकतांत्रिकता' निभा पाना उनके वश की भी बात नहीं है.
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