जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

‘सूर्य की अन्तिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक’ सुरेन्द्र वर्मा का प्रसिद्ध नाटक है। प्रकाशन के लंबे समय बाद भी यह चर्चा में बना हुआ है। अभी हाल ही, वर्ष 2018 में इसी नाटक पर आधारित फिल्म भी आई थी। यह नाटक स्त्री-पुरुष यौनिकता की बात करता है। हम यौनिकता को भी ‘बाइनरी’ की तरह मानने के अभ्यस्त हैं। एक तो यौनिकता ऐसा विषय है जिस पर लोग बात नहीं करते, उसमें भी स्त्री- यौनिकता की बात हो तो इसे लोग और नज़रअंदाज करते हैं। ऐसी स्थिति में बाक़ी ‘जेंडर’ की यौनिकता और भी नगण्य हो जाती है। इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस नाटक की समीक्षा लिख रही हैं अनामिका झा। अनामिका हैदराबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्नातकोत्तर की छात्रा हैं। आप भी यह समीक्षा पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी

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सुरेंद्र वर्मा ने यह नाटक 1975ई• में लिखा था। नाटक 10वीं शताब्दी ईसा पूर्व पर आधारित है जो रानी शीलवती और राजा ओक्काक के इर्द-गिर्द घूमती है। जैसा कि इस शीर्षक से समझ आ रहा है कि एक रात की बात कही जा रही है। पर वह रात कौन सी है? कैसी है? इसका उत्तर है- नियोग की रात। इसका पता हमें उद्घोषक के उद्घोषणा से चलता है– “राजमहिषी शीलवती.. अपनी इच्छा के अनुसार.. किसी भी नागरिक को.. एक रात के लिए.. सूर्य की अंतिम किरण से.. सूर्य की पहली किरण तक.. उपपति के रूप में चुनेंगी!” नियोग माने किसी विवाहित स्त्री का किसी परपुरुष के साथ संबंध बनाना सिर्फ एक मकसद से– संतान प्राप्ति के लिए, क्योंकि उसका अपना पति इस काम में अक्षम है। जैसे, महाभारत में पाँचो पांडव नियोग से ही जन्मे थे।

प्रस्तुत नाटक में नपुंसकता के कारण दांपत्य जीवन में उत्पन्न होने वाली घुटन-खीझ एवं पति की असहाय अवस्था का सम-सामयिक धरातल पर चित्रण मिलता है। नपुंसक होने के कारण राजा ओक्काक उत्तराधिकारी देने में असमर्थ रहते हैं। तब पति-पत्नी की इच्छा के विरूध्द अमात्य-परिषद राजमहिषी शीलवती को नियोग द्वारा उत्तराधिकारी देने का आदेश देती है। शीलवती आचार्य प्रतोष का वरण करती है और आचार्य प्रतोष के साथ एक रात गुज़ारने के बाद उसका जीवनदर्शन ही बदल जाता है।

नाटक की शुरुआत होती है नियोग की रात की तैयारियों से। शीलवती का श्रृंगार किया जा रहा है और वे जड़ पड़ी हैं, अपने मन को दृढ़ कर रही हैं। वहीं ओक्काक निःसहाय छटपटा रहा है। वह लज्जित है, बेचैन है। शीलवती को भी अपमान, लज्जा, घुटन, और घबराहट की अनुभूति हो रही है। दोनों के लिए ही आज की यह रात चुनौतीपूर्ण है।

पहले अंक में अमात्य परिषद सारे कार्य-व्यापार पर काबू पाए हैं। वे इस मामले में पूर्णतः स्पष्ट हैं कि नियोग केवल और केवल राज्य को उत्तराधिकारी देने के लिए ही अपनाया जा रहा है और इसमें कुछ गलत नहीं है। वे लोग राजा और रानी दोनों को ही समझाते हैं। महामात्य ओक्काक को नियोग के लिए समझाते हुए कहते हैं कि इस कमी पर किसी आदमी का कोई वश नहीं अतः इसके लिए किसी आदमी पर दोषारोपण करना उचित नहीं, तब वह कुंठित हो कर कहता है– “यह कमी सबसे कोमल मर्म बिंदु से जुड़ी है। लेकिन आप नहीं समझेंगे– आप लोग पुरुष हैं न.. सम्पूर्ण पुरुष।” इससे ओक्काक के मन की टीस का साफ पता चलता है। समाज द्वारा व्याख्यायित संपूर्ण पुरुष न होने की ग्लानि और कुंठा है उसके मन में। उद्घोषक की यह उद्घोषणा कि “राजमहिषी शीलवती.. अपनी इच्छा के अनुसार.. किसी भी नागरिक को.. एक रात के लिए.. सूर्य की अंतिम किरण से.. सूर्य की पहली किरण तक.. उपपति के रूप में चुनेंगी!” ओक्काक के मन मस्तिष्क में बैठ गया है। यह उद्घोषणा उसकी चेतना में समा चुका है– कुछ इस प्रकार कि रह-रह कर उसे यही सुनाई दे रहा है। इसी के बारे में सोचते हुए वह शीलवती से ‘नागरिक’ शब्द पर ज़ोर डालते हुए कहता है “नागरिक! नागरिक तो शिखंडी भी था। यहाँ होना चाहिए किसी भी पुरुष को चुनेंगी.. (ठिठक कर) नहीं पुरुष तो मैं भी हूँ। (शीलवती की ओर देखते हुए घुटे हुए क्रोध से) सही होगा– सम्पूर्ण पुरुष.. पुंसत्व वाला पुरुष।” इससे ओक्काक की मनोदशा का साफ पता चलता है।

जब बहुत समझाने के पश्चात भी महामात्य ओक्काक को ग्लानि और कुंठा से नहीं निकाल पाते तो फिर वे उन्हें एक राजा के दायित्व का बोध कराते हुए कहते हैं कि उत्तराधिकारी की घोषणा सही मानों में स्थायित्व की घोषणा है, एक परंपरा के बने रहने की घोषणा है।

वहीं शीलवती को लज्जा, अपमान और घबराहट से मुक्त करने के लिए समझाते हुए वे शीलवती को एक स्त्री और रानी के धर्म तथा दायित्व का बोध कराते हैं। वे कहते हैं कि नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में ही है। वे शीलवती से मछली की आँख का उदाहरण देते हुए आग्रह करते हैं कि मातृत्व की लक्ष्य की ओर अपनी दृष्टि रखें तथा अपने मन को पक्का कर के इस (मातृत्व के) अभाव को दूर करने का प्रयास करें। अमात्य परिषद के लिए यह केवल एक रात की बात है। उनके लिए स्त्री का शरीर केवल साधन–मात्र है।

पहले अंक में शीलवती आत्मविश्वास से वंचित नज़र आती है, कम बोलती है, ओक्काक बोलता है और वह सुनती है। वहीं तीसरे अंक में ओक्काक शब्द रहित है। पहले अंक में अमात्य परिषद जैसे सारे कार्य व्यापार पर काबू पाए है। वहीं तीसरे अंक में इनकी स्थिति बिल्कुल हास्यास्पद हो जाती है।

शीलवती, जो रात से पहले तक कुँवारी थी, उसने पहली बार काम तृप्ति का अनुभव किया था। उसने जाना कि शरीर कितना सुख दे सकता है। अभी तक वह संस्कार, मूल्य और मर्यादा से बँधी थी। अब उसके मन की कुंठा फूट पड़ती है। वह ओक्काक की खूब भर्त्सना करते हुए कहती है “तुम चाहो तो भी नहीं जान सकते… लेकिन तुम्हारे साथ मैं भी इस जानकारी से वंचित रहूँ? क्यों? किसलिए?” इसपर ओक्काक उसे वैवाहिक बंधन की मर्यादा याद दिलाने की कोशिश करता है तो वह आवेश में आ कर कहती है “निभाई है मैंने.. और पाँच वर्ष तक मर्यादा निभाने में उतना संतोष नहीं मिला जितनी तृप्ति इस एक रात में मिली है।” अब वह न तो धर्म के पालन के लिए न ही दायित्व निभाने के लिए, बल्कि वह यौन संबंध इसलिए बनाना चाहती है क्योंकि उसे संभोग के सुख का अनुभव करना है। वह इस वैधानिक जाल में से निकलने की एक वैधानिक चाल ढूँढ निकालती है। वह अमात्य परिषद को उनके नियोग के 3 अवसर देने के निर्णय की बात याद दिलाती हुई राज्य में फिर से नियोग की घोषणा कर देने को कहती है। इसपर महामात्य कहते हैं कि वह रात तक परिणाम की प्रतीक्षा कर लें तब वह उन्हें बताती है कि आर्य प्रतोष ने उसे निरोधक औषधि दे दी थी और वह अगली बार भी दे देगा। और इस प्रकार वह दो बार और काम सुख प्राप्त कर सकती है। जब तक शीलवती राजनीति के लिए अपने शरीर को वस्तु की तरह उन्हें सौंप देती है तब तक यह मर्यादित कृत्य था। पर जैसे ही वह अपने सुख के लिए संभोग करना चाहती है तो ये मर्यादा और शीलता के विरुद्ध हो गया।

हमारा समाज परंपरा को ही सबसे अधिक महत्त्व देता है। परंपरा के नाम पर, रीति रिवाज़ के नाम पर हम लोग न जाने आज भी कितनी ही रूढ़िवादी मान्यताओं का पालन करते हैं। जब तक अमात्य परिषद एक स्त्री के शरीर का उपयोग राजनीति के लिए कर रहे थे तब तक उन्हें सब सही लग रहा था और जब शीलवती अपने व्यक्तिगत सुख का सोचने लगी तब वह उनके लिए बेशर्म हो गई। राजा और रानी की इच्छा के विरुद्ध नियोग की प्रथा का पालन कराना, केवल राजनीति के लिए, यह उनके लिए गलत नहीं था। पर जहाँ शीलवती ने अपनी खुशी से यह निर्णय लिया, यह मर्यादा के विरुद्ध हो गया। नियोग का पालन उनके लिए इसलिए ज़रूरी है क्योंकि राजा राज्य को उत्तराधिकारी देने में अक्षम हैं। महामात्य उत्तराधिकारी की घोषणा को इसलिए महत्वपूर्ण मानते हैं कि उत्तराधिकारी की घोषणा स्थायित्व की घोषणा होगी, एक परंपरा के बने रहने की घोषणा होगी। परंपरा के ही नाम पर दोनों की इच्छा के विरुद्ध दोनों को नियोग की प्रथा से गुज़रना पड़ता है। परंपरावादी लोग बदलाव को हेय की दृष्टि से देखते हैं। वे परंपरा को समय के साथ बदलना नहीं चाहते। परंपरावादी लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि केवल परिवर्तन ही स्थायी है।

परंपरा के अनुसार समाज द्वारा निर्धारित परिवार की संरचना कई स्तर पर जेंडर्ड (gendered) है। जो  पारंपरिक परिवार की संरचना का ढांचा है उसके मुताबिक परिवार में एक पति (यानी आदमी), एक पत्नी (यानी औरत) और शादी के बाद उनके समागम से हुए उनके वैध बच्चे शामिल होते हैं। जब भी हम जेंडर की बात करते हैं तो हम केवल औरत और आदमी की बात करते हैं। जेंडर को हमने ‘बाइनरी’ शब्द बना दिया है। हम बाकी के जेंडर आइडेंटिटी को इसमें शामिल नहीं करते। जबकि हमारी जेंडर आइडेंटिटी एक बाइनरी तक ही सीमित नहीं है। औरत और आदमी के अलावा और भी जेंडर आइडेंटिटी इसमें शामिल हैं। पर हम उन्हें मान्यता नहीं देते, हम उन्हें स्वीकार नहीं करते। इसलिए हमारे पारंपरिक परिवार की संरचना जेंडर्ड (gendered) है। इसके लिए एलजीबीटी++ समुदाय के लोग लड़ाई भी लड़ रहे हैं ताकि उन्हें भी बुनियादी मानवाधिकार मिले और वे लोग भी बतौर युगल साथ रह सकें एक परिवार की तरह। दूसरा यह कि आदमी और औरत का विवाहित होना यह भी बहुत ज़रूरी है। और विवाह अपने आप में ही एक जेंडर्ड (gendered) संस्था है। तीसरा यह कि अगर वैवाहिक बंधन से बाहर कोई बच्चा हो तो उसके लिए “अवैध” जैसी भद्दी शब्दावली निर्धारित कर रखी है हमारे समाज ने।

पारिवारिक संरचना में एक आदमी और एक औरत के होने पर इतना ज़ोर इसलिए है कि यही लोग प्रजनन कर सकते हैं। किसी दंपति का निःसंतान होना यह भी समाज की नज़रों में खराब ही होता है। निःसंतान दंपति समाज की नज़रों में कभी पूर्ण नहीं होता। निःसंतान दंपति भले एक दूसरे के साथ बहुत खुश हों लेकिन समाज की नज़रों में वे दुखी ही रहेंगे। समाज कभी ऐसे परिवार को सम्पूर्ण परिवार नहीं मानता है। वह हमेशा ऐसे दंपति को ऐसा महसूस कराता है जैसे उनका जीवन अपूर्ण है, अभावपूर्ण है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि पारंपरिक जो परिवार की संरचना है वह कैसे विभिन्न स्तरों पर जेंडर्ड (gendered) है।

नाटक में भी हम देखेंगे कि संतान का न होना यह अमात्य परिषद को अभाव की तरह लगता है। अमात्य परिषद समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो तोड़–मरोड़ कर अपने फायदे के लिए नियम बनाता है और फिर परंपरा के नाम पर ही ऐसी दकियानूसी रूढ़ियों को आगे बढ़ाता है और इन परंपराओं को ही अंतिम सत्य बता कर सब पर थोपता है।

समाज ने न केवल परिवार की संरचना को निर्धारित कर रखा है बल्कि समाज में एक सम्पूर्ण पुरुष और एक सम्पूर्ण स्त्री की अवधारणा भी पूर्व निर्धारित है। नाटक के हवाले से कहें तो समाज में मर्द की मर्दानगी का पैमाना उसकी यौनिक क्षमता (sexual performance) से भी जुड़ा है। आए दिन हमें दीवारों पर गुप्त रोग के इलाज के इश्तेहार देखने को मिलते हैं जिससे पता चलता है कि काम(sex )के मामले में पुरुषों पर अत्यधिक दबाव है। वे इससे बहुत जूझ रहे हैं।  इस नाटक में राजा ओक्काक नपुंसक है। समाज के तय मर्दानगी के पैमाने के अनुकूल नहीं होने का दंश वह झेल रहा है। उसे इस बात की बेहद झुंझलाहट है कि वह एक ‘सम्पूर्ण पुरुष’ नहीं है। वह बात–बात पर यह बात दोहराता है। अमात्य परिषद से भी कहता है कि वे लोग सम्पूर्ण पुरुष हैं वे लोग उसकी अनुभूति को कभी नहीं समझ सकते। उसके नपुंसक होने की बात उसके राज्य का बच्चा–बच्चा जान चुका है, यह बात गोपनीय नहीं रही। इस बात से वह बेहद लज्जित है, डरा हुआ है। जैसे उसे सबके सामने नंगा खड़ा कर दिया हो और सब उसे हेय की दृष्टि से देख रहे हों। उसकी खीझ, उसका घुटन, उसकी झुंझलाहट यह बताती है कि वह अपने आप को बिलकुल बेकार समझता है। वह खुद को समाज पर बोझ से अधिक कुछ नहीं समझता। वह सोचता होगा कि वह लोगों के बीच केवल मज़ाक का पात्र बन कर रह गया है। वह इतना कुछ सह रहा है केवल इसलिए कि वह समाज द्वारा निर्धारित मर्द की परिभाषा के अनुकूल नहीं है। महामात्य उसे समझाने के लिए यह तो कहते हैं कि ‘यह ऐसी कमी है जिसपर आदमी का कोई वश नहीं रहता’ लेकिन कहते तो वे भी इसे एक ‘कमी’ ही हैं। सुरेंद्र वर्मा ने बहुत ही बारीकी से ओक्काक के माध्यम से नपुंसक पुरुष की असहायता को चित्रित किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने केवल वर्तमान के ओक्काक की स्थिति का ही चित्रण नहीं किया बल्कि उसके कारणों को भी दिखाया है। बचपन से आज तक ओक्काक का परिवेश, उसका स्वभाव, उसका मनोविज्ञान कैसा रहा इस पर भी सुरेंद्र वर्मा प्रकाश डालते हैं। ओक्काक स्वयं कहता है “मेरा कोई मित्र नहीं, कोई अंतरंग नहीं। राजसिंहासन एक अदृश्य दीवार है, जिसे लाँघ कर न मैं उस ओर जा सकता हूँ, न उस ओर से कोई इस ओर आ सकता है। मैं किसी के अनुभवों से लाभ नहीं उठा सकता, किसी को अपने भेदों का भागीदार नहीं बना सकता, किसी से अपना दुःख नहीं बाँट सकता।” “शायद यह कोई मनोवैज्ञानिक ग्रंथि थी.. बचपन में ही अनाथ हो जाना.. किसी से घुलमिल न पाना.. बहुत अकेला हो जाना.. हमेशा का अंतर्मुख, हमेशा का निर्णय दुर्बल, हमेशा का अनिश्चयी.. बहुत चुप, बहुत संवेदनशील, बहुत भीरू, हर अन्याय, हर अपमान को चुप चाप पी लेना.. आत्मविश्वास की कमी, स्वभाव का ठंडापन, मन की अस्थिरता.. बचपन में एक के बाद एक व्याधियों का आक्रमण”। इससे हमें शारीरिक स्वास्थ्य पर मानसिक स्वास्थ्य के प्रभाव का पता चलता है। नाटककार ने इस ओर हमारा ध्यान खींचा है कि किसी की मानसिक अस्थिरता उसकी शारीरिक अवस्था को कैसे प्रभावित करती है। सुरेंद्र वर्मा ने नाटक के माध्यम से पुरुष के परिप्रेक्ष्य में पितृसत्ता के जाल को उघारा है। पितृसत्ता पुरुषों के लिए भी हानिकारक है। जैसे ओक्काक अपने राजमहल के दीवारों के बीच खुद को अकेला महसूस करता है, अपना दुःख वह किसी से बाँट नहीं सकता, किसी से कुछ साझा नहीं कर सकता– यह सबक उसे पितृसत्ता द्वारा ही दिया गया है। पितृसत्ता ने ही मर्दानगी के ये अवास्तविक और अनुचित मानक गढ़े हैं जिसके कारण पुरुषों को कमज़ोर होने का, अपने आप को अभिव्यक्त करने का, खुल के रोने का, खुद को जैसे वे हैं वैसे ही स्वीकार करने का एक ‘सुरक्षित स्पेस’ नहीं मिलता। उन्हें बचपन से ही सिखाया जाता है कि मर्द कमज़ोर नहीं होता, मर्द को दर्द नहीं होता, मर्द को डर नहीं लगता, मर्द रोता नहीं है, इत्यादि। ऐसी न जाने कितनी ही उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाई जाती है किसी लड़के को छोटी सी उम्र से ही।

सबसे बड़ी साजिश जो पितृसत्ता पुरुषों के साथ करती है वह है उसको रोने से रोकना, यानी उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति को रोकना। वह रोयेगा नहीं तो अपनी भावनाओं (emotions) को नहीं समझेगा, अपनी भावनाओं को नहीं समझेगा तो ग़ुस्सा आएगा, और फिर बेक़ाबू  हो जाएगा। जो आगे हिंसात्मक मर्दानगी का रूप लेगी। पुरुषों पर, बचपन से ही, एक पूर्ण (perfect) मर्द बनने का नैतिक दबाव डाला जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि या तो वे धीरे–धीरे हिंसात्मक मर्दानगी के मानक को अपना लेते हैं या जब वे उसके अनुकूल नहीं हो पाते तो अपने आप को कमतर मानने लगते हैं, हीनता बोध में जीने लगते हैं। 1972ई. के समय में यौनिक स्वास्थ्य पर और पुरुष के मनोविज्ञान पर बहुत सूक्ष्मता से अपनी बात रखी है सुरेंद्र वर्मा ने।

रानी शीलवती के माध्यम से सुरेंद्र वर्मा ने स्त्री की शारीरिक ज़रूरतों की ओर हमारा  ध्यान खींचा है। हम ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ स्त्री केवल बच्चा पैदा करने की मशीन बन कर रह गई है। अपनी शारीरिक ज़रूरतों के लिए कुछ करना तो दूर उसके बारे में सोचना भी मर्यादा के विरुद्ध देखा जायेगा समाज के द्वारा। शीलवती ने इसी मर्यादा को तोड़ डाला। वह सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ते हुए अपनी शारीरिक ज़रूरतों को महत्व देती है। मर्यादा, धर्म, शील, वैवाहिक बंधन इन सभी को मिथ्या, आडंबर, पुस्तकीय करार देती है और कहती है “मुझे पुस्तक नहीं जीना, जीवन जीना है”। पुरुषों का वर्चस्व और स्त्री के दोयम दर्जे का स्थान बनाए रखने के लिए पितृसत्ता ने विभिन्न संस्थाओं का निर्माण किया है। विवाह संस्था भी ऐसी ही है जिसमें स्त्री एक बार बँध गई तो निकल नहीं पाती। स्त्री का अस्तित्व समाज के लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसका अस्तित्व किसी पुरुष के साथ उसके रिश्ते से ही होता है। इस नाटक में भी हम देखते हैं कि जब राजवैद्य को परीक्षण के पश्चात ओक्काक के रोग का पता चलता है तो वे कहते हैं “हर रोग का निदान ब्याह है। पत्नी से अच्छा उपचार नहीं हो सकता.. वह संगिनी बन कर अकेलापन दूर करेगी, मित्र बन कर कामकाज में सम्मति देगी, माँ की ममता, बहन का स्नेह, प्रेयसि का प्रेम, हर कमी दूर करेगी, सारे अभाव पूरे होंगे.. खोया हुआ आत्मविश्वास मिलेगा”। आज भी लोग यही मानते हैं कि हर रोग का निदान ब्याह है। कोई लड़का काम नहीं करता, शराब पीता है, सिर्फ अय्याशी करता है, घरवालों की बात नहीं मानता– सब समस्या का निदान ब्याह है। सब यही कहते हैं कि बहू सुधार देगी। जैसे बहू बहू नहीं, पुनर्वास केंद्र (rehabilitation centre) है। ऐसा ही कुछ उपाय राजवैद्य ने भी दिया कि ओक्काक के रोग का भी निदान ब्याह से ही होगा। और जड़ी बूटी के रूप में शीलवती को विवाह कर के ले आया गया। एक औरत से हमें कितनी अपेक्षाएं होती हैं ये भी यहाँ रेखांकित हुआ है। औरत पत्नी के रूप में संगिनी भी हो, मित्र भी हो, माँ भी हो, बहन भी हो, प्रेयसी भी हो। एक स्त्री पुरुषों के प्रति पूरी निष्ठा से, समाज द्वारा निर्मित तथा–कथित मर्यादा को तोड़े बिना, इन सभी भूमिकाओं को निभाए- पितृसत्ता इसी व्यवस्था को बनाये रखती है और स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व को कभी बनने नहीं देती। एक स्त्री दूसरों के लिए सब कुछ बने, सब कुछ करे, पर अपने लिए वह न कुछ बने, न करे। औरत के लिए तो घर में अपने पसंद की सब्ज़ी, जो बाकियों को पसंद न हो, बना पाना भी मुश्किल है। ऐसे में अपनी शारीरिक ज़रूरत को कोई स्त्री कैसे अहमियत दे सकती है। यह तो इस समाज को किसी हाल में बर्दाश्त नहीं होगा।

मर्यादा और परंपरा के नाम पर समाज स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करता है। यह निर्धारित करता है कि वह कब, किससे यौन संबंध बनाए और यह भी कि यह संबंध केवल प्रजनन के लिए बने, न कि सुख के लिए। नाटक में अमात्य परिषद राजनीति के लिए शीलवती के शरीर का उपयोग करती है। उनका तर्क यह था कि यह केवल धर्म के लिए है, राज्य को उत्तराधिकारी देने के लिए। रानी इसे अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं बल्कि नारीत्व की सार्थकता, मातृत्व की प्राप्ति के लिए कर रही है। रानी की दृष्टि अर्जुन की तरह मछली कि आँख यानी मातृत्व की प्राप्ति के लक्ष्य पर रहेगी। तीसरे अंक में शीलवती महामात्य के इन विचारों का प्रतिकार करती हुई कहती है “जब आप अपनी पत्नी के साथ सोते हैं.. तो क्या सोचते हैं उन क्षणों में? अमात्य परिषद का चुनाव, सीमाओं की सुरक्षा? राजकोष की कमी?” वह उनकी भर्त्सना करते हुए कहती है “नारीत्व की सार्थकता मातृत्व में नहीं है। है केवल पुरुष से संयोग के इस सुख में, मातृत्व केवल एक गौण उत्पादन है”। सुरेंद्र वर्मा ने शीलवती के माध्यम से यौनिक संतुष्टि, और शारीरिक ज़रूरतों के महत्व को रेखांकित किया है। यौनिक संतुष्टि, या काम-सुख हमारे जीवन के अन्य  पहलुओं/पक्षों पर भी असर डालता है, खास तौर पर मानसिक रूप से। शीलवती शादी के पाँच वर्ष बीतने के पश्चात भी कुँवारी थी। उसने कभी भी कामानुभूति का अनुभव नहीं किया था। वह झुंझलाहट से भर गई थी, कुंठा ग्रस्त हो गई थी। वह कहती है “बिना बात महत्तरिका पर झुंझलाती थी.. बेचारे चक्रवाक को आहार नहीं मिलता था, चित्रालेख फाड़ फाड़ कर फेंकती थी, बेचैन सी शैया पर करवटें बदलती थी और तुम्हारा (ओक्काक का) मुँह नोच लेने का मन होता था।” उसे अपनी कुंठा का कारण कभी समझ नहीं आता था। उसे अपने इस व्यवहार का कारण तब तक समझ नहीं आया जब तक कि उसे कामानुभूति नहीं हुई थी। शीलवती सारी मर्यादाओं को तोड़ते हुए, काम संबंध की स्वाभाविकता और जरूरत पर ज़ोर डालती है। यौन भावना मनुष्य का स्वाभाविक, इंसानी गुण है- चूंकि वह एक यौनिक (sexual) प्राणी है। पर हमारे समाज में अपने आनंद के लिए सेक्स करने की कोई परिकल्पना (concept) ही नहीं है। यह सिर्फ एक सामाजिक दायित्व बन जाता है। कामेच्छा और यौनिकता अब नैसर्गिक नहीं रही चूंकि इसपर अधिकार, नैतिकता और नियंत्रण की परतें चढ़ गई हैं। शीलवती इस बात की वकालत करती है कि किसी से यौन संबंध केवल प्रजनन का दायित्व पूरा करने के लिए नहीं बनता, बल्कि शारीरिक सुख के लिए बनता है, शारिरिक ज़रूरतों के लिए बनता है, जिसका गौण उत्पादन है बच्चा। वह पितृसत्ता को चुनौती देती हुई कहती है “जब शरीर की माँगों से जीती हूँ, तो शरीर की माँगों को कैसे नकार सकती हूँ।” और यह कह कर वह अपने शरीर का नियंत्रण (agency ) अपने हाथ में लेती है। शीलवती अपने नाम के विपरीत शीलता और मर्यादा के बंधन तोड़ती है।

यह नाटक स्त्री और पुरुष की अपूर्णता और अधूरेपन की कहानी है। विवाह से पहले ओक्काक का उसके रोग के विषय में शीलवती को न बता कर उसे अनभिज्ञ रखना गलत था। यद्यपि इससे शीलवती का उससे विवाह करने का कारण नहीं बदल जाता। शीलवती के मनोविज्ञान की निर्मिति कैसे हुई थी यह इस अंश से पता चलता है जिसमें वह प्रातोष से विवाह नहीं करने का कारण बताते हुए कहती है “कभी विषकन्या के बारे में सुना था.. कि कैसे बचपन से ही उसे तनिक– तनिक विष देकर तैयार किया जाता है।.. मैं क्या थी?.. इतना बड़ा परिवार और पिता की सीमित आय.. अभाव.. वंचना.. दरिद्रता.. दुःख.. न पाने की कुढन .. न होने की कड़वाहट.. न मुस्कराने की कचोट.. न हँसने की घुटन.. दूसरों के प्रति आक्रोश, अपनों के लिए क्रोध, स्वयं से घृणा.. मुझे बिल्कुल प्रारंभ से ही नियमित रूप से ये सब मिल रहा था– अब अगर नए घर में भी मुझे केवल चार भित्तियाँ और एक छत और दो जून रूखा–सूखा मिलता, तो क्या मेरी प्रकृति का विषैलापन अपना प्रभाव नहीं दिखलाता?” “राजमहल में जाकर यह विष (आत्मलिप्त सी) सब उड़ गया धीरे– धीरे.. इतने सुख और इतनी सुविधाएँ..यहाँ इच्छाओं का अंत था, लेकिन साधनों का नहीं।” उसकी आत्मलिप्ति उसकी अपूर्णता का कारण थी। शीलवती का अंतिम वाक्य है– “जब आत्मसंतोष की अंधी दौड़ हो व्यक्तिगत सुख की खोज– तो जीवन बहुत कठिन हो जाता है, ओक्काक.. और उसकी माँगें भी उतनी ही उलझी हुई.. पूर्ति के लिए एक से अधिक व्यक्ति चाहिए.. किसी से समाज में एक स्थान, किसी से भौतिक सुविधाएँ, किसी से भावना की तृप्ति.. किसी से शरीर का सुख..!” शीलवती के इस अंतिम वक्तव्य के संदर्भ में निर्देशक रामगोपाल बजाज कहते हैं– “यहीं एक भ्रांति हो सकती है कि क्या नाटककार एक से अधिक पुरुष को या एक से अधिक व्यक्ति को पूर्ति के लिए आवश्यक मानना नीति संगत मनवाना चाहता है। मुझे लगा, बल ‘आत्मसंतोष’, ‘व्यक्तिगत’ और ‘तो’ पर है। यदि व्यक्ति अपने को दूसरे के साथ पूरा जोड़ने को तैयार हो तो इसकी आवश्यकता नहीं। प्रश्न यह है कि क्या आज व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अपने को जोड़ने के लिए खो सकता है? यदि नहीं तो फिर इसका कहीं अंत नहीं और भटकने की आवृत्ति चलती रहेगी। इसलिए नाटक के अंत में घोषणा की आवृत्ति के साथ शीलवती और ओक्काक और अकेले दीखते हैं।” कहने का तात्पर्य यही है कि कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। सभी में खूबियाँ भी मौजूद होती हैं खामियाँ भी। हम सब अपने में अधूरे हैं। पूर्ण की खोज से बेहतर है कि हम एक दूसरे का पूरक बनें। व्यक्तिगत सुख के लिए संपूर्णता की खोज हमारे अधूरेपन को नहीं खत्म कर सकती। इसलिए संपूर्णता की लालसा से बेहतर है पूरकता।

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