एक किताब में आम, चीन और वहाँ की सांस्कृतिक क्रांति को लेकर यह दिलचस्प क़िस्सा पढ़ा तो आपसे साझा कर रहा हूँ। किताब का नाम पोस्ट में यथास्थान दिया गया है- प्रभात रंजन
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भारत और पाकिस्तान में तोहफ़े में आम लेने-देने का चलन है। आम के ऐसे ही तोहफ़े की एक कहानी एक ऐसी किताब में पढ़ी जो दुनिया भर में आम को लेकर अलग अलग तरह की कहानियों, संस्कृतियों को लेकर है।
क़िस्सा यूँ है कि 1968 में पाकिस्तान के विदेश मंत्री सैयद शरीफुद्दीन पीरज़ादा ने चीन के चेयरमैन माओ को तोहफ़े में आम के टोकरे भिजवाए। चीन में वह सांस्कृतिक क्रांति का दौर था। ख़ैर, माओ ने आमों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और उन आमों को चीन के अलग अलग कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों और रेड गार्ड छात्रों को भिजवा दिया- उनकी क्रांतिकारी भावना तथा अटूट निष्ठा के सम्मान में। हुआ यह कि उत्तरी चीन उस इलाक़े में तब तक आम के बारे में कोई नहीं जानता था, इसलिए उन आमों को माओ के सुनहरे आमों की संज्ञा दी गई। उन आमों को मज़दूरों और विद्यार्थियों के प्रति माओ के प्रेम के प्रतीक के रूप में संजो कर रखा जाने लगा, बल्कि एक कविता मिलती है जिसमें सुनहरे आमों को स्वयं चेयरमैन माओ के प्रत्येक के रूप में देखा गया। कविता का हिन्दी अनुवाद इस तरह हो सकता है-
उन सुनहरे आमों को देखना ऐसे हैजैसे
महान नेता चेयरमैन माओ को देखना
इन सुनहरे आमों के सामने खड़े होना ऐसे है
जैसे स्वयं चेयरमैन माओ के सामने खड़े होना
बार बार उन सुनहरे आमों को छुइये तो:
सुनहरे आम ऊष्मा से भरपूर लगते हैं
उन आमों की ख़ुशबू बार बार लीजिए
सुनहरे आम कितने सुगंधित थे
बात यहीं तक नहीं रुकी। आमों को लेकर देश के अलग अलग हिस्से में जुलूस निकाले गये। जब आम सड़ने लगे तो मज़दूरों ने आम का रस निकाला और उसको पानी के साथ उबालकर चम्मच से ऐसे पिया जैसे हमारे यहाँ गंगाजल पिया जाता है। पवित्र जल की तरह। उन आमों को आले पर रखा गया जिनके सामने कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूर सिर झुकाते। मोम से आमों की प्रतिकृतियाँ बनाई गईं और क्रांतिकारी मज़दूरों में बाँट दिया गया।
आमों को लेकर चीन में फैले जोश को देखकर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार विभाग ने आम के निशान वाली अलग अलग तरह की चीजें बनानी शुरू की, चादर से लेकर साबुन सिगरेट तक।अठारह महीने तक चीन में आम को लेकर ऐसा ही माहौल बना रहा।
बाद में 1974 में फ़िलीपींस की प्रथम महिला इमेल्डा मार्कोस अपने देश से आमों का एक टोकरा चीन आई और उन्होंने वह तोहफ़ा माओ की पत्नी मैडम माओ को दे दिया। आमों को देखकर मैडम माओ को आम को लेकर चीन की जनता के उस पुराने जोश की याद आ गई और उन्होंने सोचा कि एक बार फिर से उत्साह को पैदा किए जाए, उन्होंने ‘द सांग ऑफ मैंगो’ नाम से एक फ़िल्म बनवानी शुरू। की। लेकिन इसी बीच मैडम माओ को सरकार के ख़िलाफ़ सशस्त्रक्रांति का षड्यंत्र रचने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया और वह फ़िल्म रिलीज़ नहीं हो पाई। आम की मोम की जो प्रतिकृतियाँ बनाई गई थीं उनको पिघलाकर मोमबत्ती बनाई जाने लगी।
अब सवाल है कि चीन में सुनहरे आमों की आभा कैसे फैली? सुनहरा पीला रंग सूर्य का प्रतीक माना जाता है, चीन के यांग सिद्धांत का, और इस तरह प्रचुरता, संपत्ति और ख़ुशहाली का प्रतीक। इसलिए चीन वासियों ने उस फल को समृद्धि के संदेश के रूप में ग्रहण किया। उस दौरान चीन में इस तरह की अफ़वाह भी फैली कि आम के पेड़ में शातब्दी में एक बार फल आता है, और किसी किसी पेड़ में तो हज़ार साल में एक बार फल आता है। इसी वजह से माओ ने उस फल को स्वयं नहीं खाया और उसकी ‘अमरता’ को अपने वफ़ादार अनुयायियों में बाँट दिया। आज भी चीन में सड़क किनारे लगनेवाले बाज़ारों में आम के स्मृतिचिन्हों को ढूँढनेवाले लोग मिल जाते हैं। और आज भी बहुत से संग्राहकों के पास आम के बने वे स्मृतिचिन्ह मिल जाते हैं।
किताब का नाम है ‘मैंगो: ए ग्लोबल हिस्ट्री।’ लेखक द्वय हैं- कॉन्स्टेंस एल किरकर, औरमेरीन्यूमन।