जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी वाणी त्रिपाठी ने आज अपने स्तंभ ‘जनहित में जारी सब पर भारी’ में आज बहुत संवेदनशील विषय उठाया है- क्या अभिनेता-अभिनेत्री के लिए लुक्स ही सब कुछ होता है। क्या इंस्टाग्रामीय युग में कला के ऊपर लुक्स भारी पड़ता जा रहा है। दिखना ही एकमात्र गुण रह गया है? आइये पढ़ते हैं- मॉडरेटर

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मनोरंजन की दुनिया में चमक-दमक और आकर्षण का एक सुनहरा पर्दा है, जो बाहर से सब कुछ परियों की कहानी जैसा दिखाता है। लेकिन इस पर्दे के पीछे, एक और दुनिया है—जहां असुरक्षा, सतही मानक, और ‘परफेक्ट इमेज’ का निरंतर दबाव कलाकारों को तोड़ने का काम करता है। अभिनय जैसी संवेदनशील कला को भी आज “लुक्स” और “इंस्टाग्राम अपील” के तराजू पर तौला जाने लगा है। अगर आपकी नाक एक खास एंगल में नहीं है, जबड़े पर तीखापन नहीं है, या त्वचा गोरी नहीं है—तो आपको पीछे कर दिया जाता है, चाहे आपके अभिनय में कितनी ही गहराई क्यों न हो।

यह एक खतरनाक चलन है। क्योंकि इससे पहले कि कोई कलाकार अपने हुनर को मांज सके, उससे कहा जाता है कि वह पहले अपनी ‘शक्ल’ ठीक करे। उन्हें अभिनय स्कूल भेजने के बजाय स्किन क्लीनिक, जिम, और प्लास्टिक सर्जन के पास भेजा जाता है। यह सब उस मानसिकता का नतीजा है जो मानती है कि दर्शक केवल सुंदर चेहरों को ही स्वीकार करते हैं। लेकिन क्या यही सच है?

मेरिल स्ट्रीप, जिनके अभिनय में भावनाओं की तीव्रता और सच्चाई की झलक मिलती है, को करियर की शुरुआत में यह कहकर नकारा गया था कि वे “अच्छी नहीं दिखतीं।” लेकिन आज वही मेरिल स्ट्रीप अभिनय की दुनिया की सबसे ऊँची मिसाल मानी जाती हैं। जेनिफर लॉरेंस को वजन घटाने के लिए मजबूर किया गया, पर उन्होंने अपने टैलेंट और आत्मविश्वास से ये साबित किया कि एक अभिनेत्री की सबसे बड़ी ताकत उसका शरीर नहीं, बल्कि उसका आंतरिक बल और परफॉर्मेंस होती है। नंदिता दास, जो भारतीय सिनेमा में सामाजिक यथार्थ को जीवंत करने वाली अद्भुत कलाकार हैं, ने कभी गोरेपन की मानसिकता को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने खुलेआम “डार्क इज़ ब्यूटीफुल” जैसे कैंपेन का समर्थन किया और बार-बार यह बताया कि रंग नहीं, संवेदना मायने रखती है। राधिका आप्टे, जो अपने रोल्स में एक अनूठी गहराई और सच्चाई लाती हैं, ने भी कभी अपनी इमेज को “परफेक्ट बॉडी” की परिभाषा में ढालने की कोशिश नहीं की। कंगना रनौत ने अपने अभिनय से इंडस्ट्री को दिखा दिया कि प्रतिभा को सर्जरी की नहीं, आत्म-स्वीकृति और मेहनत की जरूरत होती है।

अब सवाल यह है—जब कोई कलाकार अपने किरदार में पूरी तरह से डूब जाता है, जब उसकी आंखें कहानी कहती हैं और उसकी चुप्पी भी संवाद बन जाती है—तो क्या उसके गालों की बनावट या उसके होंठों की शेप कोई मायने रखती है? बिल्कुल नहीं। यह विचार ही कला का अपमान है। अभिनय एक आंतरिक प्रक्रिया है। यह आत्मा से जुड़ी अभिव्यक्ति है। और जब इस आत्मा को ‘बॉडी इमेज’ की बेड़ियों में जकड़ा जाता है, तो हम न सिर्फ एक कलाकार को नुकसान पहुंचाते हैं, बल्कि समाज को भी एक संवेदनशील और सच्ची कलाकारी से वंचित कर देते हैं।

इमेज कंसल्टेंट्स और मार्केटिंग एजेंसियां जब किसी अभिनेता से कहती हैं, “आपको अपनी नाक सही करवानी चाहिए,” या “अगर आप थोड़ा और गोरे होते तो आपको लीड रोल मिलता,” तब वे दरअसल अभिनय के मूल को ही विकृत कर रही होती हैं। वे बता रही होती हैं कि किरदार से ज्यादा किरदार की त्वचा की अहमियत है। यह एक गलत और खतरनाक संदेश है। अब वक्त आ गया है कि हम, दर्शक और समाज, इस मानसिकता को चुनौती दें। सच्ची कला केवल सुंदरता के खोल में नहीं होती—वह आंखों की सच्चाई में, आवाज की कंपन में, और उस खामोशी में होती है जो स्क्रीन पर भी बहुत कुछ कह जाती है। हमें चाहिए कि हम कलाकारों को उनके चेहरे से नहीं, उनकी भावनाओं से पहचानें।

जब भी अगली बार आप किसी फिल्म या शो में किसी अभिनेता को देखें, तो यह सोचें—क्या मुझे यह पसंद इसलिए आ रहा है क्योंकि यह सुंदर है, या इसलिए क्योंकि इसमें कुछ ऐसा है जो अंदर तक छू जाता है?

क्योंकि अंत में, चेहरे भुला दिए जाते हैं, लेकिन सच्चा अभिनय दिल में रह जाता है।

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