जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज पढ़िए अम्बर पाण्डेय के उपन्यास ‘मतलब हिन्दू’ पर यह टिप्पणी। लिखा है डॉ कुमारी रोहिणी ने। वाणी प्रकाशन से प्रकाशित यह उपन्यास जबसे प्रकाशित हुआ है तब से लगातार चर्चा में बना हुआ है। आप यह टिप्पणी पढ़िए- प्रभात रंजन

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किसी भी विषय पर लिखने से पहले उसकी मौलिकता, प्रासंगिकता और इतिहास की समझ बहुत जरूरी होती है। आप चाहे फ़िक्शन पढ़ें या नॉन-फ़िक्शन, दोनों ही विधा में इन तीनों बिंदुओं की महत्ता को कम नहीं आंका जा सकता है। इसके इतर किसी भी प्रकार और श्रेणी की रचना का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कैरेक्टरिस्टिक होता है जिसका नाम है ‘भाषा’। आप किस काल-खंड की कहानी रच और गढ़ रहे हैं इसे स्पष्ट करने का एक मात्र माध्यम भाषा ही है। शब्द-चित्र के माध्यम से ही लिखने वाला पाठकों के सामने एक नया संसार खड़ा करता है, एक ऐसा संसार जिसे पढ़ने वाले ने देखा नहीं होता क्योंकि वह उस देस-काल में था नहीं या था भी तो संभवतः उस रूप में उसे देख नहीं पाया।

पिछले दिनों बहुत कुछ पढ़ा जिसमें कई उपन्यास ऐसे थे जिसे हम ‘पीरियड नॉवेल’ की श्रेणी में रखते हैं। लेकिन उनमें से ज़्यादातर उपन्यास भाषा के स्तर पर मुझे कमजोर लगे। उसी एप्रीहेन्सन के साथ वाणी प्रकाशन से आई अम्बर पांडेय के ‘मतलब हिन्दू’ नाम के उपन्यास को भी पढ़ना शुरू किया था। हालाँकि उपन्यास के कवर पेज और अंदर के कुछ पन्नों पर बहुत बड़े-बड़े नामों द्वारा लिखे गये टेस्टीमोनियल पढ़ने को मिले जिसे पढ़कर कोई भी पाठक झट से किसी कृति के प्रति आकर्षित हो जाए। लेकिन साहित्यिक दुनिया की रवायतों और खुलूस को देखते हुए मेरा विश्वास इन चीजों में थोड़ा कम ही रहता है। हालाँकि इस बार मेरी शंका एक हद तक ग़लत निकली। जिस उपन्यास को बेमन से पढ़ना शुरू किया था पन्ने दर पन्ने आगे बढ़ते हुए उसके ख़त्म होने का डर हावी होने लगा, उसके पात्रों का पीछे छूट जाने या उनका साथ समाप्त हो जाने वाला भाव दिल-दिमाग़ पर छा सा गया।

ऐसा पिछली बार मेरे साथ कोरियाई लेखक शिन ग्यंग सुक के उपन्यास ‘प्लीज़ लुक आफ्टर मॉम’ को पढ़ते समय हुआ था। एक बहुत ही उदास कर देने वाला उपन्यास कैसे आपको अपनी गिरफ़्त में बांध लेता है ‘प्लीज़ लुक आफ्टर मॉम’ उसका एक नायाब उदाहरण हो सकता है। ख़ैर वापस ‘मतलब हिन्दू’ पर लौटते हैं। मेरा मानना है कि किसी पाठक को अपने साथ इस कदर जोड़ लेने के लिए कृति की भाषा को उस स्तर पर खरा और रीडेबल होना होता है क्योंकि बिना भाषा के कृति केवल और केवल विषय बन कर रह जाती है, वह उपन्यास, संस्मरण, जीवनी या कविता, कुछ भी नहीं हो पाती। ‘मतलब हिन्दू’ में कथानक, शिल्प और पात्रों को एक दूसरे के साथ गझिनता से बुनने का काम लेखन ने जिस महारत के साथ किया है उससे यह कहना अधिक नहीं होगा कि अम्बर पांडेय के पास कथा कहने और आपको उस विशेष काल-खंड में ले जाने का हुनर है। यहाँ इसी उपन्यास की अनुशंसा में लेखक ख़ालिद जावेद की बात सच होती दिखती है कि ‘यह उपन्यास लिखे हुए शब्दों के भेष में बोले गये शब्दों में अपने नैरेटिव की ऊँचाइयों को छू लेता है।’ ख़ालिद जावेद की इस बात से मैं सहमत हुए बिना नहीं रह पा रही हूँ।

जहाँ तक कथानक की बात है तो एक ऐसे समय में जब अंधकार ही अंधकार है और जीवन के हर स्तर, आयाम और पहलू पर हमें सिर्फ़ एक चीज मिलती है वह अनैतिकता, उस समय अम्बर पांडेय बैरिस्टर बन चुके लेकिन अब तक महात्मा नहीं बने गाँधी के बहाने नैतिकता, शुद्धता और स्वच्छता जैसे विषय ना केवल सामने लाते हैं बल्कि गोवर्धन, गाँधी, गाँधी के रसोइए महाराज जी के बहाने इन तीनों ही विषयों के बीच के साम्य और द्वन्द को इस तरह ट्रीट करते हैं कि पाठक एक बारगी कुछ पल के लिए ठहरकर अपने जीवन में इन तीनों चीजों की भूमिका, स्थान और महत्त्व के बारे में सोचने लग जाता है। उपन्यास को आगे पढ़ते चले जाने पर हम पाते हैं कि बीच के कुछ अध्यायों में गाँधी सीधे-सीधे नहीं है लेकिन ना होकर उसी रूप और स्वरूप में उपस्थित हैं। हालाँकि इस उपन्यास में केवल गाँधी या उनके बहाने से कुछ या सब कुछ देखना एक हद तक उपन्यास और लेखक दोनों के साथ ज़्यादती होगी। क्योंकि उपन्यास में मृत्यु, सामाजिक नैतिकता, दाम्पत्य और उसके बाद वैधव्य (स्त्री-पुरुष दोनों ही के लिए) के दिनों में जीवन जीने के सलीक़े, मुख्य पात्र गोवर्धन की पत्नी अन्नपूर्णा (जिसे गोवर्धन की बुआ ने गोबरगौरी का नाम दिया) उसकी बुआ (बीमारी के कारण डॉक्टर ने जिनकी नाक काट दी थी), उसकी माँ (जिनका उपन्यास में कोई नाम नहीं दिया गया है) जिसे वह ‘बा’ पुकारता है, का पहले लिखना-पढ़ना और फिर अपमान के बाद घर छोड़कर ही कहीं चले जाना, प्रार्थना समाज के अनुयायी हो गये गणपति दादा, विवाह का उम्र हो जाने के बाद भी उनकी पुत्री लीलावती का विवाह ना होने या ना करने, बाद के दिनों में गोवर्धन का उसके प्रति आकर्षित होने आदि जैसी घटनाओं के माध्यम से जीवन-मृत्यु के चक्र, अशिक्षा, तब के समाज, घर और पुरुष के जीवन और उनकी दृष्टि में स्त्रियों की भूमिका, उनके महत्त्व और स्थान की बात भी गंभीरता और सजगता के साथ रेखांकित की गई है।

उपन्यास के आगे के हिस्सों में धर्म और कर्म-कांड के नाम पर और उसका ओट बनाकर समाज और स्त्रियों के साथ किए गये व्यभिचार को पढ़कर आपको लगेगा जैसे यह उन्नीसवी शताब्दी की नहीं बल्कि आज की और अभी आपके सामने घट रही ऐसी ही तमाम घटनाओं की बात कही जा रही है। वल्लभ सम्प्रदाय के जदुनाथजी महाराज द्वारा किए गये कृत्यों का ब्योरा देने वाले पन्नों को पढ़ते समय आँखों के सामने आज के कई बाबाओं (कुछ सजा काट रहे और कुछ खुले घूम रहे) के चेहरे स्पष्ट दिखाई पड़ने लगते हैं, फ़र्क केवल अपराधी और विक्टिम के नाम और काल-खंड का होता है। एक बंदरगाह से दूसरे बंदगार पहुँचने और फिर कुछ देर वहाँ समय बिताने के क्रम में पुरुष पात्रों द्वारा किए गये कामों चाहे वह किसी वैश्या के पास जाकर शरीर की भूख मिटाने का कृत हो या फिर बीच-बहस में अपने ही साथी यात्री की हत्या, हर एक घटना के माध्यम से पाठक उस समय के लोगों और उनकी मानसिकता और उनके जीवन में महत्त्व रखने वाली चीजों के बारे में जान-समझ सकता है। इन सभी घटानाओं के माध्यम से यह उपन्यास आपको औपनिवेशिक भारत (जो तब तक भारत राष्ट्र नहीं था) की यात्रा पर लेकर जाता है और आप स्वयं को यह सब होता देखते पाते हैं।

दूसरी रेखांकित की जा सकने वाली बात जो इस उपन्यास को अपने समय में लिखे जा रहे अन्य उपन्यासों से अलग करती है वह इसका मुख्य पात्र गोवर्धन। गोवर्धन जैसी मानसिकता और ऊहापोह से जूझने वाला व्यक्ति हमें अपने भीतर के साथ ही हर कहीं और हर दिशा में दिखाई पड़ता है। एक ही समय में ऑर्थोडॉक्स और प्रोग्रेसिव दोनों तरह की मानसिकता से जूझ रहा गोवर्धन समाज और देश में शुरू हो चुके बदलाव के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है। हालाँकि पुराने से नये की ओर भागने या आकर्षित होने का यह ट्रांजीशन उस समय केवल भारत में ही नहीं बल्कि अन्य एशियाई देशों में भी देखने को मिलता है जिसे आगे चलकर आधुनिकता या वेस्टर्न-इनक्लाइंड जैसे शब्द भी दिये गये। लेखन ने ऑर्थोडॉक्स और प्रोग्रेसिव वाला बाइनरी खड़ा तो किया है लेकिन उसके लिए उसने दो अलग-अलग पात्र नहीं गढ़े बल्कि एक ही व्यक्ति में इसे स्पष्ट और मुख्य दोनों रूपों में दिखाया है। इस उपन्यास में गोवर्धन से मिलने और उसे जानने के क्रम में मुझे निदा फ़ाजली साहब का वह शेर लगातार याद आता रहा कि ‘हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी, जिस को भी देखना हो कई बार देखना।’ अम्बर पांडेय का यह गोवर्धन निदा साहब का वही आदमी है जिसमें पाठकों को एक साथ और एक ही समय में दस बीस आदमी दिखाई पड़ते हैं।

‘मतलब हिन्दू’ के माध्यम से हम ‘भारत’ नामक के एक देश के निर्माण की गाथा को सुंदर, प्रवाहमान भाषा में पढ़ सकते हैं। यह इतिहास की किताब ना होकर भी आपको ऐतिहासिक घटनाओं और उनके पीछे के कारकों से प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों से अवगत करवाता है और ऐसे कई सूत्र देता है जिसे पकड़ कर आप मध्यकालीन इतिहास और उसके बाद के काल के इतिहास को जान-समझ सकते हैं। एक बार फिर से मैं यह कहना चाहूँगी कि मौलिकता, प्रासंगिकता और इतिहास तीनों ही कसौटी पर अम्बर पांडेय का ‘मतलब हिन्दू’ पूरी तरह से ना भी तो बहुत हद तक खरा उतरता महसूस होता है।

अंत में एक बात किताब के शीर्षक को लेकर, वह यह कि अम्बर मूलतः कवि हैं शायद इसलिए ही अपने उपन्यास के लिए उन्हें ‘मतलब हिन्दू’ जैसा एम्बिग्यूटी पैदा करने वाला शीर्षक पसंद आया होगा। जबकि उपन्यास को पढ़ने के क्रम में और उसके बाद तक यह एक बात कौंधती रही कि इस तरह के उपन्यास के कई अन्य आकर्षक शीर्षक हो सकते थे। लेकिन लेखक ने ‘मतलब हिन्दू’ जैसा शीर्षक क्यों रखा वह भी एक ऐसे नायक की कहानी कहने के लिए जो अपने अतीत को बचाने के प्रयास के साथ-साथ उससे निकलने उसकी बेड़ियों को तोड़ने के प्रयास में भी समान रूप से लीन है। भारत नाम का यह देश हर स्तर पर एक बड़ी सी उथल-पुथल वाले समय का साक्षी बन रहा है। एक ऐसा दौर जब यहाँ बसने वाले हम सभी चाहते न चाहते हिन्दू होने या हिन्दू बना दिये जाने की लड़ाई से व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक सभी स्तरों पर अपनी-अपनी और अपने-अपने तरह की लड़ाई लड़ रहे हैं। कोई आगे बढ़-चढ़कर इस पहचान को अपना रहा है तो किसी में इस पहचान से निकलने की उत्कंठा है। एक ऐसा समय जब यह देश कई स्तरों पर वांछित और अवांछित दोनों ही प्रकार के पुनर्निर्माणों की उठा-पटक का दंश झेल रहा है और उसकी पीड़ा से गुजर रहा है, वैसे समय में ‘मतलब हिन्दू’ जैसा शीर्षक आपको विमुख ना भी करे तो मन में एक हिचक पैदा तो कर ही देता है जबकि उपन्यास और उसके अंदर बाँची गई कथा और पात्रों की बौद्धिकता पूरी तरह से इस अवधारणा को नकारती प्रतीत होती है। संभवतः लेखक के शीर्षक से जुड़े इस निर्णय को उसके कवि रूप को विस्तार से देखने और जोखिम उठाने की क्षमता के आंकलन के माध्यम से समझा जा सके।

कुल मिलाकर वर्तमान समय में ‘मतलब हिन्दू’ मस्ट रीड की श्रेणी में ऊपरी पायदान पर रखी जाने वाली कृति के रूप में वर्गीकृत की जा सकती है। सबसे ज़रूरी बात पूरी किताब में प्रूफ़ की लगभग ना के बराबर ग़लतियाँ हम जैसे पाठकों से कुछ अतिरिक्त अंक पा लेती है।

अम्बर पांडेय का यह उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित है।

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