जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

आज हिंदी के मूर्धन्य लेखक मनोहर श्याम जोशी जीवित होते तो ७८ साल के हुए होते. आज उनके जन्मदिन पर उनके प्रेम-उपन्यास ‘कसप’ की रचना-प्रक्रिया पर उनका यह लेख प्रस्तुत है, जो उन्होंने मेरे कहने पर लिखा था और जो जनसत्ता में सबसे पहले प्रकाशित हुआ था. उनकी अमर स्मृति के नाम- जानकी पुल.
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हिंदी साहित्य से जुड़े लोग रचना-प्रक्रिया की बात अक्सर करते हैं. मैं आज तक ठीक-ठीक नहीं समझ पाया हूँ कि रचना-प्रक्रिया का मतलब क्या होता है. बिलकुल ही स्थूल स्तर पर रचना-प्रक्रिया मात्र इतनी होती है कि लेखक कलम उठाता है और कागज़ के कोरेपन से जूझता चला जाता है. मेरे मामले में तो ठीक-ठीक यह भी नहीं होता क्योंकि अक्सर मैं बोलकर टाइपराइटर या वर्ड प्रोसेसर पर किसी और से लिखवाता हूँ. “कसप’ लिखते वक्त घर में टाइपिस्ट नहीं था, इसलिए हाथ से ही कागज़ काले करता रहा. रोजाना सुबह ज़ल्दी उठकर दफ्तर जाने से पहले और शाम को दफ्तर से लौटने पर. एक दिन लिखता. अगले दिन टाइप करवाकर प्रेस भेज देता. चालीस दिन मैं अपने को अपने संसार से लगभग काटकर अपने कथानायक डीडी से जोड़े रहा. लिखते समय मेरे वर्तमान संसार की आवाज़ तक मेरे कान में न पड़े, इस नीयत से वाकमैन पर योरोपीय इलेक्ट्रौनिक संगीतकार वान जेलिस की वह कृति बजाता रहा जो उस जमाने की बहुचर्चित फिल्म ‘चैरिएट्स ऑफ फायर’ में नेपथ्य संगीत के रूप में प्रयुक्त की गई थी.
 
रचना-प्रक्रिया का इतना सतही निरूपण सुधी पाठक या समालोचकों को शायद ही स्वीकार हो. लेकिन अगर इस सतह को छोड़ मैं ‘कसप’ लिखने बैठे हुए मनोहर श्याम जोशी के मस्तिष्क में डुबकी लगाकर यह बताना चाहूँ कि कैसे दो और दो को जोड़कर पांच बना देने का वह प्रयास चल रहा था, जिसे रचनाधर्मिता का चमत्कार कहा जाता है तो मेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा. आधुनिक विज्ञान बताता है कि रचनाधर्मिता और आध्यात्मिकता हमारे नव-मस्तिष्क के संश्लेषण प्रवीण दाएँ भाग में रहती है जिसका विश्लेषण प्रवीण उस बाह्य हिस्से से कोई लेना-देना नहीं रहता जिसमें विज्ञान, तर्क, गणित और भाषा का वास है. इसका मतलब यह हुआ कि रचना-प्रक्रिया जो चीज़ है वह भाषातीत है. हद से हद लेखक के रूप में यह बता सकता हूँ कि लिखते समय मेरी मनःस्थिति और परिस्थिति क्या थी? ‘कसप’ मैंने घोर निराशा, गहन उदासी और मोहभंग की मनःस्थिति में लिखा. जिन लोगों को मैं अपना मित्र मानता आया था, उनमें से कुछ ने मेरी सम्पादकी कुर्सी छीनने के लिए कमीनेपन का सहारा लिया और उनके इस अभियान के दौरान मुझे पहली बार यह बोध हुआ कि वे मुझे निहायत ही कामना इंसान मानते आये थे.
 
बड़ी अतिनाटकीय किस्म की मनःस्थिति थी यह. धमाकेदार ढंग से धांसू. मेरे मन में यह आशंका गहन होती चली गई कि कहीं मैं ‘भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति’ वाला चक्कर न चला बैठूं कि साहब हर किसी में स्पष्ट(उसे) देखकर जाता है इस लोक से, अमर होता है. इस आशंका को टालने के लिए मैंने विज्ञान और नृतत्व की पोथियों में डुबकी लगाईं. फिर भीतरी कड़वाहट बाहरी(सतही) विद्वत्ता के प्रभाव में मैंने ‘कंसंस्यांग सबस्याओ’ नामक एक अजीबोगरीब उपन्यास लिखना शुरु किया कि एक ठो अजीबोगरीब साइंस फिक्शन लिखकर अपनी आत्मघातक अजीबोगरीब मनःस्थिति से पार पाऊं.
 
अब सवाल यह प्रस्तुत हुआ कि पत्नी की फरमाइश पर कोई ‘अच्छी-अच्छी सी प्रेमकहानी’ लिखने के लिए मसाला कहाँ से जुटाऊँ. मेरा अपना अनुभव नहीं के बराबर था. जिसमें अपना कुछ भी न हो, ऐसा लिख सकना बहुत श्रमसाध्य होता है. और मैं चाहता था कि पत्नी के संतोष के लिए झटपट कोई प्रेमकहानी लिखकर फिर से विज्ञान-कथा को पूरा करने में जुट जाऊं. तब मुझे याद आया कि वर्षों पहले अपनी एक चचाजाद बहन की शादी में शामिल होने के लिए नैनीताल गया था और वहां मेरा उसकी सुन्दर-सी मौसेरी बहन से प्रथम साक्षात् तब हुआ जब खुले में बनाई गई अस्थायी टट्टी में फारिग होता हुआ मैं नाडा बांधते हुए अपने चचाजाद भाई और मित्र द्वारा पुकारे जाने पर खड़ा हो गया था. सामने चाय के गिलासों की थाली लिए वह खड़ी थी और घबराहट में मुझसे मारगाँठ लग गई थी. यह कहानी वस्तुतः चार दिन चली और सो भी सबसे छोटी चचाजाद बहन के सहयोग से. धर्मसंकट के एक क्षण से शुरु हुई वह प्रेमकहानी उससे भी बड़े धर्मसंकट पर तब समाप्त हो गई जब यह बात नायिका के पिताजी तक पहुँच गई और उन्होंने मेरे घर में प्रस्ताव भिजवाया कि मैं नायिका की बड़ी बहन से शादी कर लूं.
 
उस ज़माने में मैंने इस घटना पर एक कहानी भी लिखनी शुरु की थी जिसका शीर्षक था- ‘परछाइयों की परछाइयां’. उसमें कथानक की शुरुआत वर्षों बाद कुंवारे नायक और विवाहित नायिका के नैनीताल में ही झील के किनारे टहलते हठात मिल जीने के साथ की जानी थी कि इस मिलन के बाद नायक को लगा कि प्रेम परछाईं की तरह होता है. मैंने अपने पुराने कागज़ात टटोले और यह पाया कि वह कहानी मैंने दो बार शुरु की थी और दोनों बार तीन-तीन पृष्ठ लिखकर छोड़ दी थी. मैंने ‘परछाइयों की परछाइयां’ को भुला देना ही उपयुक्त समझा. पहले के लिखे उन पृष्ठों के अलग पटककर मैं सोचने बैठा तो सहसा मेरे मन में ‘प्यार हो आने की’ एक बड़ी पुरानी स्मृति जाग उठी. अपने छात्र जीवन में मैं एक बार अपने पुरखों के गाँव ‘गल्ली’ देखने अल्मोड़ा से पैदल निकल निकला.
 
पहली बार जा रहा था इसलिए बार-बार रास्ता पूछने की ज़रूरत पड़ रही थी. बहुत आगे जाकर मुझे एक चढाई पार करने के बाद दोनों हाथ सिर के पीछे रखे खड़ी एक शोख किशोरी मिली. मैंने उससे गाँव का रास्ता जानना चाहा तो उसने जवाब दिया-“कसप”(राम जाने). उसका परिचय पा सकने की कोशिश में कुछ और सवाल किए और हर सवाल का वही जवाब पाया. शाम ढल रही थी. मुझे गाँव पहुँचने की ज़ल्दी थी इसलिए उस पर मुग्ध होने के बावजूद मेरे लिए यह असंभव हो गया कि जवाब में ‘कसप’ सुनते चले जाने के लिए मैं उससे सवाल करता चला जाऊं.. मैंने तय पाया कि प्रेम ‘परछाईं-वरछाई’ भी नहीं ‘कसप’ की श्रेणी की कोई चीज़ है. उपन्यास का नाम सूझ गया- ‘कसप’. फिर यह लगा कि अब अगर उपन्यास का नाम ही कुमाऊंनी में है तो उपन्यास में कुमाऊंनी पात्रों के मुँह से खासकर नायिका के मुँह से अगर कुमाऊंनी नहीं तो कम से कम उस तरह की हिंदी बुलवानी होगी जो कुमाउँनी लोग बोलते हैं. कहानी का आरंभ तो वहीं से होना था जहाँ से नैनीताल के उस विवाह के दौरान हुआ था. रहा अंत तो मुझे बंकिम की रचना पर आधारित फिल्म ‘मशाल’ का अंत याद आ गया जो निहायत भावुक होते हुए भी किसी भी खांटी भारतीय किस्म का प्रेमकथांत था. विवाहिता नायिका एक अधूरा सा जुमला बोलती- अगर कोई अगला जन्म होता होगा तो, और नायक के इस विह्वल प्रश्न का उत्तर दिए बिना चली जाती है कि ‘तो तरु-तो तरु.’
 
यह अंत तय हुआ ही था कि सहसा यह याद आया कि मेरे मित्र रघुवीर सहाय की एक वास्तविक प्रेमकथा का अंत इस प्रकार हुआ था कि वह किसी और से ब्याही जाती अपनी प्रेमिका द्वारा सहवास का चुनौती भरा आमंत्रण अस्वीकार करके उसकी नग्न देह पर चादर खींच आया था. इस तरह दो-दो अंत सूझने पर यह लगा कि मूल प्रेम-कथा चादर खींचने के साथ ही खत्म हो जायेगी. लेकिन बरसों बाद कुंवारे नायक और विवाहिता नायिका का पुनर्मिलन होगा तो उसका अंत ‘तो तरु’ मय होगा. इसका मतलब था कि बीच के लिए भी लंबी-चौड़ी कहानी बनानी होगी. उसकी चिंता छोड़ मैं लिखने बैठ गया. पात्रों का भी कोई खाका मेरे दिमाग में नहीं था. सिवाय इसके कि मेरे मुख्य पात्र का नाम डीडी होगा जो कि मेरे जीवन में सदा विफल रहे भाई साहब का मित्रों में प्रचलित नाम था. डीडी का लेखक होना अनिवार्य था और उसे गढ़ने के लिए मेरे पास अपने कुछ नितांत भावुक लेखक मित्रों के सांचे मौजूद थे.
 
इलेक्ट्रोनिक संगीत नयेपन की तलाश में विचित्रता का संधान करता है, लेकिन वान जेलिस की वह कृति नयेपन की तलाश में शाश्वत और सार्वभौम से साक्षात करती-कराती है. ऐसा लगता है मानो कोई ब्रह्मांडव्यापी संगीत सुन रहे हों जो परमात्मा या परमाणु का रचा हुआ हो, किसी मनुष्य का नहीं. वह शाश्वत-शाश्वत सा, वह सार्वभौम-सार्वभौम सा मुझ रचनाकार पर हावी होता चला गया और यह शायद उसी का चमत्कार था कि मैं लिखने से पहले मन में उठे दोनों सवालों का संतोषप्रद समाधान कर पाया. प्रेम की सामान्य और एक स्तर पर लचर सी कहानी को साहित्यिक गरिमा प्रदान करने का यह उपाय सूझ गया कि उस कहानी को नायिका के पिता संस्कृत के प्राध्यापक शास्त्रीजी द्वारा पहले लिखा जा चुका मानकर उसके ही पुनर्पाठ के रूप में प्रस्तुत किया जाए और पुनर्पाठ करने वाला मनोहर श्याम जोशी न होकर उसकी ही जैसी मनःस्थिति में पड़ा हुआ दर्शनशास्त्र का कोई बुज़ुर्ग प्रोफ़ेसर हो. मुझे लगा कि इसके चलते मैं एक ओर अपने खिलंदड़ स्वाभाव को किशोर प्रेमलीला के व्यंग्य-विनोदपूर्ण निरूपण में सक्रिय रहने दे सकूंगा और साथ ही एक संस्कृत साहित्य का प्रोफ़ेसर और दूसरा दर्शनशास्त्र का प्रोफ़ेसर अपनी-अपनी गंभीरता से न केवल मेरे स्वाभाविक खिलंदड़पन अंकुश रख सकेंगे, बल्कि साधारण प्रेमकथा को कुछ असाधारण आयाम भी दे सकेंगे.
 
एक दूसरी शंका यह थी कि जब रचनाकार खुद घृणा और कटुता में आकंठ डूबा हो, तब प्रेमकथा लिखी गई भी तो उसका क्या रंग उभरेगा. वान जेलिस के अत्यंत आधुनिक संगीत के प्रभाव में मैंने पाया कि घोरतम अनास्था के क्षणों में ही इंसान किसी चमत्कार से गहनतम आस्था का अधिकारी बन जाता है. निराशा और कटुता का चरमोत्कर्ष ही एक नई तरह की आस्तिकता को जन्म देता है. तो मैं इस उपन्यास को लिखते हुए अपने कर्मकांडी और शैव-शाक्त उस पूर्वजों से जुड़ गया जिनके प्रति विद्रोह करते हुए ही मैंने अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत की थी. तो यह उपन्यास मध्यवर्गीय कुमाऊंनी ब्राह्मणों के जीवन-दर्शन का उपन्यास बनने लगा जबकि अजमेर में जन्मे और पले-बढ़े होने के कारण अपने पूर्वजों के शहर अल्मोड़ा या गाँव गल्ली से मेरा कभी वैसा घनिष्ठ या अन्तरंग परिचय नहीं रहा था जैसा कि उपन्यास के कथानायक का है. एक और आश्चर्य की बात यह है कि इसके कथानायक और मेरे तजुर्बे-नज़रिए में दूर-दूर तक कहीं कोई साम्य नहीं है. इसी तरह शाश्वत संधान में कथानक को नायिका के पिता के माध्यम से जिस सनातन नागर काशी से मैंने जोड़ दिया उसमें मैं तब तक केवल दो बार गया था और सो बी दो-दो दिनों के लिए. काशी और उसके मोहल्ले दूधनायक से मेरे परिचय का आधार मात्र इतना था कि मेरी दो-दो चचाजाद बहनें वहां ब्याही गई थीं और मेरे दोनों जीजा शास्त्रीजी कहलाने वाले प्राध्यापक थे. लेकिन उनमें और ‘कसप’ की नायिका के पिता में भी कहीं कोई साम्य नहीं है.
 
इन तमाम सीमाओं के बावजूद मैं काशी और अल्मोड़ा के बारे में, कुमाऊंनी गाँवों के बारे में, कर्मकांडी ब्राह्मणों के बारे में इस तरह लिखता चला गया मानो मेरा सारा जीवन वहीं कटा हो और उपन्यास के सभी काल्पनिक पात्र मेरे अन्तरंग रहे हों. मैं समझता हूँ यह चमत्कार भी इसलिए हुआ कि उपन्यास लिखने की अवधि में उस संगीत के प्रभाव में मैं अपने पूर्वजों का खून अपनी रगों में दौड़ता महसूस कर सका और अपने को भुलाकर अपनेपन की और अपने पहचान की खोज करता रहा. किशोर-प्रेम की कहानी लिखते हुए मैं अपने ससे कहीं ज्यादा उम्र का बुज़ुर्ग बनता चला गया और सौल बेलो के प्रगतिशील और प्रयोगधर्मी औपन्यासिक पात्र ‘ह्युबोल्ट’ की तरह बुढापे में इस नतीजे पर पहुँचने लगा कि हर व्यक्ति कि अंततः या मूलतः यही पहचान होती है कि वह किस मिटटी में पैदा हुआ था और उसके लिए सबसे बड़ा संतोष यही होता है कि उसकी अपनी मिटटी जन्मभूमि की मिटटी से एकाकार हो जाए. क्यों इस उत्तर-आधुनिक युग में भी हम अपने को अपनी पुरातन किस्म की पहचानों से जोड़कर ही परिपूर्ण अनुभव करते हैं. इसके जवाब में मैं यही कहने को मजबूर हूँ- कसप.
 
जो हो, इस उपन्यास को पूरा करने के बाद ने केवल मैं अपने विषाद पर विजय पा सका बल्कि मुझे यह भी लगा कि जिस तरह मैंने ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ लिखकर मनोहर श्याम जोशी से अपना हिसाब चुकता कर दिया था, वैसे ही ‘कसप’ लिखकर अपने ब्राह्मण पूर्वजों से कर दिया है. अब मैं स्वतंत्र हूँ ‘कंसंगश्यांग सबस्याओ’ जैसी अजीबोगरीब विज्ञानकथा लिखने के लिए. यह बात अलग है कि उस उदासी से उबरने के तुरंत बाद मैं टीवी के लिए धारावाहिक लिखने के धंधे से जुड़ गया और विज्ञान कथा ही नहीं उसके बाद शुरु किए गए कुछ और उपन्यास भी अधूरे ही रह गए.     
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12 Comments

  1. अपने रचना संसार के साथ ऐसी अंतरंगता आज कहाँ देखने को मिलती है? इसे पुनर्प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.

  2. Kaha jata hai ki har vyakti ke bheetar ek upnnyas jaroor chipa hota hai, 'KASAP' aeisi rachna hai ki jise padkar yah baat such saabit ho rahe. ……. Joshi ji ko shahitya akedamy puraskaar 'KYAAP' ke liye nahi 'KASAP' hi ke liye milna chaahiye tha.

  3. शुक्रिया प्रभात जी यह लेख साझा करने के लिए। पढकर अपने को और समऋद्व महसूस कर रही हूं। जीवन के अलग अलग क्षणों में संजोए गए अनुभव कब किसी रचना का हिस्‍सा बन जाते हैं पता ही नहीं चलता। आभार आपका।

  4. भाई 'कसप' से और जोशीजी से जोड़ने के लिए हार्दिक आभार। ये पूरा अंश है या उसका एक हिस्‍सा मात्र यह पता न चल सका। अगर कुछ शेष है तो उसे भी दे डालिए। कमेंट देने के लिए जटिलताओं से क्‍यों गुजरना पड़ रहा है, ये समझ में नहीं आया।

  5. अच्छा लगा उस मनोदशा से गुज़रना ..
    आभार प्रभात जी…

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