दिनांक 15 दिसंबर 2024 को यह खबर सोशल मीडिया पर फैल गई कि उस्ताद ज़ाकिर हुसैन गुज़र गए। ना जाने कितने संगीत-प्रेमियों के वे चहेते रहे होंगे, अब भी रहेंगे। आज उन्हीं प्रशंसकों में से एक, आनंद कुमार अपने जुड़ाव को हमारे साथ साझा कर रहे हैं। आनंद कुमार स्वयं तबला वादक हैं तथा वर्तमान में केंद्रीय विद्यालय, मिज़ोरम में संगीत शिक्षक के पद पर कार्यरत हैं- अनुरंजनी
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‘उस्ताद ज़ाकिर हुसैन :1951 – फॉरएवर’
मैं शायद पाँच साल का था जब मैंने पहली बार ‘उस्ताद’ शब्द सुना। ‘ वाह! उस्ताद वाह’… उस ‘ताज महल चाय’ के प्रचार में। उसी दिन उस्ताद ज़ाकिर हुसैन को भी पहली बार देखा। चूँकि पापाजी तबला बजाते थे तो तबला से तो मैं परिचित था, मगर उस्ताद जी का वो ऐड देखकर लगा मानो मैं भी ऐसे बजा सकता हूँ और मुझे इन्हीं की तरह बजाना है। पापाजी से तबला की तालीम शुरू हुई और साथ ही साथ उस्ताद जी के टेप रिकॉर्डिंग से भी। उस समय उनका एक ही कैसेट मेरे पास उपलब्ध था तो मैं दिन भर उसी को सुना करता था। कुछ वर्ष सीखने के बाद मैंने उनकी नकल करनी भी शुरू कर दी। मेरा बाल मन जो कुछ भी समझ पाता था उसे बजाने की कोशिश करता। मुझे भी अपने लिए ‘उस्ताद’ का संबोधन सुनना था। कुछ वर्षों बाद पता चला कि हिंदू धर्म में ‘उस्ताद’ नहीं ‘पंडित’ बोलते हैं इससे मन थोड़ा दुखी हुआ। बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला और ज़माना आया ‘यूट्यूब’ का। अब मैं उन्हें सिर्फ़ सुन नहीं बल्कि देख भी सकता था। उनके सैंकड़ो वीडियो मिले। एक दिन उसी यूट्यूब पर उस्ताद जी का इंटरव्यू देखा।वे बोल रहे थे कि ‘फोटो कॉपी हमेशा डस्टबीन में ही जाते हैं, इसलिए आपलोग मेरी कॉपी ना बने और अपनी एक अलग पहचान बनाएँ’। उनकी यह बात दिल पे लग गई और मैं फिर उनकी नकल करने के बजाए अपनी एक अलग पहचान बनाने की कवायद में लग गया। मगर उस्ताद जी का जादू इस क़दर मेरे दिल और दिमाग में छाया था कि कई बार वे सपने में आ जाते।
उस्ताद जी तबला के पंजाब घराने के थे इसलिए मैं भी पंजाब के किसी गुरु से ही सीखना चाहता था मगर यह संभव नहीं हो सका।मैंने बनारस घराने से अपनी शिक्षा-दीक्षा ली मगर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में जाने के बाद गुरुजी ने बताया कि सभी घराने सीखने चाहिए। अगर उस्ताद जी की बात करें तो उन्होंने भी कभी किसी घराने में बंध कर तबला नहीं बजाया। वे तबला बजाते थे, कोई घराना नहीं। उनके तबले में सम्मोहन था। मैं इस क़ाबिल तो नहीं कि उनकी बजायकी या उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ भी लिख सकूँ मगर मेरी समझ से इतना प्रभावशाली तबला वादन के पीछे का कारण उनकी बहुत ही पारंपरिक तालीम और आधुनिक सोच का समन्वय था। उन्होंने ना सिर्फ़ बुजुर्ग और खाँटी शास्त्रीय संगीत की जनता का दिल जीता बल्कि युवाओं के भी रोल मॉडल रहे। हर प्रकार के संगीत में उतनी ही महारत। वे हरि प्रसाद चौरसिया जी के भी चहेते तबला वादक रहे और उनके भतीजे राकेश चौरसिया जी के साथ भी बजाया। इसी प्रकार पंडित शिव कुमार शर्मा और उस्ताद जी की जोड़ी भी मशहूर रही तथा इनके सुपुत्र राहुल शर्मा जी के साथ भी अनेक कार्यक्रम किए। वे उतने ही हंसमुख उतने ही सरल और साथ में स्वाभिमानी भी रहे।
हालांकि अब मैं बनारस घराने में पूरी तरह रम चुका था मगर सुनता सबको था। अब मुझे लगने लगा था कि उस्ताद जी को सामने से सुनना शायद नामुमकिन है, यह सोच कर भी मन थोड़ा उनसे हटने लगा था। अब मैं ज़्यादातर बनारस के ही कलाकारों को सुनता। उस्ताद जी का ‘क्रेज़’ मेरे मन से उतर चुका है ऐसा लगने लगा था मगर 2019 में कोलकाता में उन्हें सामने से देखने का अवसर मिला। उन्हें तबला बजाते हुए देख कर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं उन्हें प्रत्यक्ष देख रहा हूँ! उनहत्तर वर्ष की उम्र में भी वही 2003 वाले उस्ताद ज़ाकिर हुसैन। उस दिन यह महसूस हुआ कि भगवान जैसे तो कई हैं मगर भगवान बस एक ही हैं, उस्ताद ज़ाकिर हुसैन। उनके जैसे बहुत हैं मगर उस्ताद बस एक वे ही हैं। यह एक उलूल-जुलूल ख्याल ही था की उस्ताद जी कभी नहीं मरेंगे। क्योंकि जब से मैंने उनको जाना , तबसे उनको हमेशा सुपर हिट होते हुए ही देखा। एक हीरो की तरह। और हीरो तो कभी मरता नहीं है। बनारस में रहते हुए कई बार यह अफ़वाह उड़ी की इस बार संकट मोचन में उस्ताद जी आ रहे हैं, मगर ऐसा कभी नहीं हुआ। पहले मुझे लगता था कि ‘उस्ताद‘ बनना है मगर जो सही मायने में उस्ताद थे उन्होंने बताया कि हमेशा एक छात्र बने रहने में ही असल उस्तादी है।
उस्ताद जी को कौन-कौन से पुरस्कार से नवाज़ा गया या उपाधियाँ मिलीं इस बारे में मैं चर्चा नहीं करूँगा क्योंकि ऐसे लोग शायद एक युग में एक ही बार जन्म लेते हैं जो किसी पुरस्कार या उपाधि से सम्मानित नहीं होते बल्कि वे किसी पुरस्कार को स्वीकार कर उस पद या उपाधि को सम्मानित करते हैं। जिस दिन यह खबर आई की वे नहीं रहे उस दिन से लेकर आज तक बार-बार अपने मन को याद दिलाना होता है कि वे नहीं रहे। जब भी उनका कोई वीडियो सामने आता है तो लगता है अभी भी जीवित हैं, फिर अचानक एक झटका लगता है कि वे नहीं हैं और आँखो से अश्रुधारा फूट पड़ती है। उनके जाने से ऐसा लग रहा है मानो ख़ुद ‘तबला’ वाद्य अनाथ हो गया हो। अब ‘उस्ताद’ बनने की इच्छा तो नहीं रही मगर उनके जैसा छात्र बनने की इच्छा प्रबल हो गई है।