आज प्रस्तुत है दिव्या श्री की कुछ कविताएँ जिनमें अधिकता प्रेम की है। दिव्या कला संकाय में परास्नातक कर रही हैं।इनकी कविताएँ हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, पाखी, कृति बहुमत, समकालीन जनमत, नया पथ, परिंदे, समावर्तन, ककसाड़, कविकुम्भ, उदिता, हिन्दवी, इंद्रधनुष, अमर उजाला, शब्दांकन, जानकीपुल, अनुनाद, समकालीन जनमत, स्त्री दर्पण, पुरवाई, उम्मीदें, पोषम पा, कारवां, साहित्यिक, हिंदी है दिल हमारा, तीखर, हिन्दीनामा, अविसद, सुबह सवेरे ई-पेपर आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। जानकीपुल पर यह इनका दूसरा अवसर है – अनुरंजनी
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- ब्लॉक लिस्ट
यह एक ऐसी जगह है
जो मेरा स्थायी पता रहा है उसके जीवन में
मैं इसी पते पे रोज चिट्ठियां लिखती हूँ
जबकि जानती हूँ उसे मिलेगी नहीं
मेरी कविताएँ उन सारी चिट्ठियों का अंश मात्र हैं
मैं एक निरक्षर प्रेमिका उसके प्रेम का ब्लॉक शब्द पढ़ने में असमर्थ रही
जबकि अंग्रेजी मेरा पसंदीदा विषय रहा है
उसके प्रेम में मैं बस इतनी दूर थी जितनी दूरी होती है दो बालों के बीच
हमारे रिश्ते भी बालों की तरह घने थे कभी
रात गांठे बंधती तो सुबह होते ही सुलझाना सबसे पहला जरूरी काम होता था
रात से सुबह तक मैं लिस्ट में कैद इंतज़ार करती
सूर्य देवता के उगने का
मेरा जीवन उलझा रहा सूर्य और चंद्रमा के बीच
जब मेरी सारी सहेलियाँ अपने प्रेमियों से
आधी रात को बातें करती थी
उस समय मैं अपने स्थायी पता पे भटक रही होती थी
मेरे हिस्से का प्रेम केवल दिन था रात तो उसकी अपनी होती थी
मेरी रातों में सिवा उसके नींद भी नहीं थी
जो सपने लाकर देती
जिसके साथ खेलकर मन बहला लेती कुछ वक्त को ही
मैं प्रेम में थी जरूर पर रात की श्रापित थी
जब हर रात मैं सुबह होने का इंतज़ार करती
यह दुःख मेरे अपने थे पर मैं अपनी नहीं रही
जब मेरे दिन भी मेरी रात की तरह होने लगे
आज के दिन मैं अपने स्थायी पता पे हूँ
न दिन बदला न रात
एक दिन मेरे घर का पता बदल जायेगा
मेरे होने का पता वही होगा।
- वसंत विहीन जीवन
मर क्यों नहीं जाती
जो इतने दुःख मिरे ही हिस्से लिखे हैं
जबकि मैं मर-मर कर जीने के लिये ही श्रापित थी
अपने पूर्व जन्म से ही
यह क्या सोच रही हूँ मैं वक्त-बेवक्त
कि खुद को कितना खत्म किया उसके पीछे
जबकि सोचना था कब तक का बाकी बचा सफर है यह
यह जानने के बाद कि साथ आगे का रास्ता नहीं है
भटकने का सौंदर्य कोई पूछे मुझसे
अकेले चलने का भी सुख कम नहीं होता
मैंने सीखा है योगियों से
वह ईश्वर के प्रेम में था
प्रेमी भला कब तक देते हैं साथ
साथ तो प्रेम देता है
जिसकी कल्पना में ही बीत जाते हैं साल दर साल
कितने दिनों से यह प्रश्न कौंध रहा है बार- बार
कि प्रेम का अवशिष्ट क्या ही है अतिरिक्त दुःख के
जबकि सुख भी होना था
हमने सुख को अपने ही हाथों मिटाया बारंबार
दुःख की नई परिभाषा गढ़ने हेतु
अब दुःख है कि साथ छोड़ता ही नहीं
जबकि वसंत जीवन का साथ कब का छोड़ चुका है
अब जाकर सोचती हूँ मैं
ठूंठ पेड़ पे चिड़ियां तो आती नहीं
वसंत विहीन जीवन में प्रेम क्या खाक आयेगा।
- जीवन की अपंगता
आहिस्ते- आहिस्ते प्यार को मरते हुए देखना
जीवन की अपंगता थी
प्रेम एक बीज की तरह आ टपका था जीवन में
बहुत ही दूर से
उसे एक नन्हें पौधे की भाँति सींचा
कई बसंत बीते कलियाँ आई, फूल खिले- मुरझाए भी
पौधे उसी जगह धसे रहे, यह प्रेम था
प्रेम केवल फूल नहीं थे, थे काँटे भी
जो उनकी रक्षा करते थे
प्रेम खुद नहीं मरता, उसकी हत्या होती है धीरे-धीरे
सूरजमुखी आखिर कब चाहता है उसका सूर्य अस्त हो जाए
वह बखूबी जानता है उसी में छिपी है उसकी मृत्यु
हम बार-बार मरने के आदी हो चुके
अबके फ़ैसला किया मरेंगे पर बार-बार नहीं
प्रेम का मर जाना वसंत का मरना है
यह जानते हुए कि अब यह मौसम नहीं आयेगा दोबारा
हमने अपने ही हाथों उसकी हत्या की
प्रेम को बचाने की जद्दोजहद में
हमारे हाथ वसंती खून से लथपथ हैं
अब मैं उन्हीं हाथों से कविताएँ लिखती हूँ
जिनके शब्द चीखते हैं, चिल्लाते हैं
अबके जीवन से केवल प्रेमी ही नहीं गया
गोया प्रेम भी गया, गया साथ- साथ उसका दुःख भी
सुख जीवन में कुछ था ही नहीं तो शोक कैसा!
मलाल बस इतना रहा कि वक्त की बर्बादी मैंने खूब की
मैं उस समय को भूलना चाहती हूँ
पर भूलना नियति में उतना ही है जो सवाल अंकित होते हैं प्रश्नपत्र पे
बाकी तो पृष्ठ दर पृष्ठ की कहानियाँ याद रहती हैं
तुम मेरी कहानियों में वही जगह लेते हो
जो दो शब्दों में बीच में होते हैं
तुम्हें साथ-साथ होना ही आखिर कब आया।
- कला के मंदिर
अभी-अभी कला के मंदिर से लौटी हूँ
ईश्वर की तस्वीरें खींचते हुए
कितने मनमोहक से दृश्य थे वे
शब्द नहीं थे पर गूँज हर जगह थी
शाम होने को ही थी
कि चिड़ियों का मंत्रोच्चार शुरु हो चुका था
पेड़ शांतिपूर्ण कतार में खड़े
चिड़ियों को सुनने को आतुर रहे
मैं जगह-जगह भटकती आखिरकार पहुँच ही गई ईश्वर तक
आँखों में झाँककर कुछ सवाल भी किये
जिसके जवाब में मिला मौन
अतीत हुए प्रेम की तरह
मानुष गंध से भरी महफ़िल में
अतीत को महसूसते
मेरी निगाह ठहर गई उस एक तस्वीर पे
जाने कितनी कविताओं के संग्रह थे उनमें
पहली बार देखा मैंने मनुष्यों को ईश्वर गढ़ते हुए
जानती आई थी अबतक कि ईश्वर ही गढ़ता है मनुष्य
मेरे देखने में ठहराव था, उसके हाथों में गति थी
रंग-बिरंगे हाथ उसके तितलियों और फूलों के मिलन का सबसे सार्थक प्रतिबिंब थे
वहाँ से लौटते हुए जाना मैंने
ईश्वर के मंदिर में कला मिले न मिले
कला के मंदिर में ईश्वर अवश्य मिलता है
अपने होने के अनेक रूप में।
* (पटना आर्ट कॉलेज में लिखी गई कविता)
- सखियाँ
पिछली रातें हम कुल जमा आधी दर्जन लड़कियाँ
अपने सुख- दुःख का पिटारा लेकर बैठी
दो बिस्तर के छोटे से कमरे में
हाहा हीही करते हुए कब सात से बारह बज गए
शायद समय अपनी गति से तेज चल रहा था
हम अभी तक ठहरे हुए हैं वहीं के वहीं
हॉस्टल के एक छोटे से कमरे में
हम सब एक-दूसरे के अंजान थे पर अब रहे नहीं
हमारे बीच हुए संवाद ने हमें जोड़ दिया है
दुःख और सुख दोनों हमें जोड़ते हैं
बस अब देखना ये है कि इसे बचाता कौन है
अगले महीने तुम में कई चली जाओगी अपनी अगली यात्रा पर
हमारे ठहाके गूँजेंगे पर शायद इस तरह नहीं
जबकि हम सब अपने जीवन में खोने के आदी बन चुके हैं
खोना किसी को पूर्णतः पा लेना है
मैं तुम में से किसी को पूरा नहीं जानती
यह सुख है मेरे लिए
दुःख है कितना कम समय बचा है हमारे पास
हम सब दूर अपने घर से
एक ठिकाना बना लिया है खुद के लिए
यह भी एक दिन खत्म हो जाएगा
सारी चीजें नष्ट हो जाएँगी एक दिन
हमारी जगह कोई और होंगे उनकी जगह कोई और
प्रश्न है कि हमारा-तुम्हारा साथ कब तक रहेगा
एक दिन जब हम हो जाएँगे एक-दूसरे से बहुत दूर, बहुत व्यस्त
जीवन नये खूबसूरत पलों से फलित होंगे
तब हम याद करेंगे हमारा साथ, साथ बिताये हुए वे पल जो उड़ गए थे फुर्र से
फ़रवरी की यह मोहब्बत जीवन में वसंत का संकेत है
आज उनतीस फ़रवरी है, अगले साल मैं नहीं लिख सकूँगी कविता
फ़रवरी की यह पहली और आखिरी कविता है
इसमें शब्द कम और मोहब्बत अधिक हैं
गर पढ़ते हुए पाठक अपने बिछड़े हुए दोस्तों को याद करें तो इनायत होगी
मेरी सखियाँ बिछड़ने से पहले हम फिर महफ़िल सजाएँगे।
- प्रेम का मक़बरा
महीनों बाद शब्दों को उठाया
और लिखा तुम्हारे बारे में ही
अब जब बीत चुका है वसंत का महीना
याद करती हूँ
तुम्हारे जाने के बाद मैंने क्या-क्या किया
औचक ही सोचती हूँ
तुम्हें भूलने के अलावा और क्या किया
(यहाँ भूलना याद करने का पयार्यवाची है)
बहुत दिनों बाद घर लौटी हूँ
फिर से वापस जाने के लिए
कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा
होली में रंग है पर स्पर्श नहीं
गुलाल में चमक है पर खुशबू नहीं
घर मेरे होने से उदास है
सोचती हूँ न होने से कितना होता होगा
मेरे कमरे की आहटें अब मेरी कविता नहीं जानती
मेरी किताबें स्नेहिल स्पर्श को तरसती धूल धूसरित हो चुकी हैं
मैं उसी कमरे में लिख रही हूँ यह कविता
जिसकी खिड़कियाँ मकड़ी के जालों से पटी हैं
खोलने को उठी ही थी कि कलम ने रोक ली हाथ मेरी
अब मैं उन जालों में घूम-घूम कर पूरी कर रही हूँ कविता अपनी
यकायक मेरे हाथ थम गए, मैं सुन्न रह गई
मेरा अतीत मेरे सामने आ खड़ा हुआ
अबकी मैं अकेले थी यहाँ
जहाँ हमेशा अपने अदृश्य प्रेम संग हुआ करती थी
हमारे बीच हुए वार्तालाप का
सबसे खौफनाक गवाह था यह सन्नाटा
सब कहते हैं
दीवारों के भी कान होते हैं
सच है कि उनकी तो ज़ुबान भी होती है
अब यह कमरा मेरे प्रेम का मक़बरा है