आज कवि-विचारक अशोक वाजपेयी का जन्मदिन है। इस अवसर पर प्रस्तुत है कवयित्री स्मिता सिन्हा का यह लेख जो अशोक जी की माँ विषयक कविताओं पर है- मॉडरेटर
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“यह पवित्रता जो मुझे बलात् झुका रही है…
मैं इस सबको तुम्हारा नाम देता हूँ, दिदिया।”
आमतौर पर माँ पर कविता लिखते समय किसी भी कवि के मन में गहरी संवेदनाएँ उमड़ आती हैं, क्योंकि माँ सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं, बल्कि हमारी पहली अनुभूति होती है। उसकी गोदी का स्पर्श, उसकी आँखों की करुणा और उसकी आवाज़ का सुकून, ये सारी बातें कविता में साकार हो उठती हैं। कई बार माँ पर लिखते हुए एक अपराधबोध भी होता है, क्योंकि हम कभी पूरी तरह से उसकी पीड़ा और त्याग को समझ नहीं पाते हैं। लेकिन कविता में अक्सर यह अपराधबोध एक कृतज्ञता के रूप में अभिव्यक्त होता है। अशोक जी की अपनी दिदिया यानि माँ पर लिखी अनेक कविताएं इसका मूर्तिमंत उदाहरण हैं।
अशोक जी की कविता “दिवंगत माँ के नाम पत्र” एक ऐसा मार्मिक संवाद है, जिसमें एक बेटा अपनी दिवंगत माँ को स्मृति, पछतावे और प्रेम के माध्यम से सम्बोधित करता है। यह पत्र माँ के प्रति बेटे के गहरे लगाव और उसके गुजरने के बाद के शून्य को व्यक्त करता है। माँ की स्मृति उसके लिए एक पवित्रता बनकर उभरती है। वह माँ के प्यार, त्याग और संघर्ष को उस पवित्रता से जोड़ता है, जो उसे झुकने और अपने अतीत को समझने के लिए प्रेरित करती है।
अशोक जी की कविताओं में माँ के प्रति केवल एक बेटे का भावनात्मक लगाव ही नहीं व्यक्त होता है, बल्कि वे कविताएं एक समग्र मानवीय और सामाजिक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत करती हैं, जो माँ के जीवन, संघर्ष और प्रेम की वास्तविकता को बड़ी गहराई से उजागर करती हैं। माँ की अनुपस्थिति में उसकी यादें, उसकी गन्ध, उसकी मुस्कान हर शब्द में समाहित हो जाती हैं। माँ पर लिखी गयी यह कविता सिर्फ़ उसकी उपस्थिति का उत्सव नहीं, बल्कि उसकी अनुपस्थिति का
शोक भी है। यह एक आत्मा के भीतर झाँकने जैसा है, एक संवाद है जिसकी यात्रा में एक बेटा निरन्तर अपनी माँ के और करीब पहुँचने की कोशिश कर रहा है। यह एक श्रद्धांजलि है, जिसमें एक बेटा खुद को अपनी माँ के प्रेम में समेटने के लिए प्रयासरत है।
“व्यर्थ के कामकाज में उलझे होने से देर हो गयी थी,
और मैं अन्तिम क्षण तुम्हारे पास नहीं पहुँच पाया था।
तुम्हें पता नहीं उस क्षण सब कुछ से विदा लेते,
मुझ अनुपस्थित से भी विदा लेना याद रहा था या नहीं”
माँ की मृत्यु के समय न पहुँच पाने का अफ़सोस बेटे के हृदय में घर कर गया है। वह सोचता है कि क्या माँ ने विदा लेते हुए उसे भी याद किया होगा! बेटा माँ के गुजर जाने के बाद भी उनकी पीड़ा और संघर्ष को महसूस करता है। वह सोचता है कि मृत्यु के बाद क्या अपमान और तकलीफ का अन्त हो जाता है या वह किसी और रूप में अस्तित्व पर जड़ जाती है।
“तुम्हारे बाद ही वह किराये का मकान खाली कर देना पड़ा,
और वह मुहल्ला हमेशा हमेशा के लिए छूट गया।”
कई बार किसी व्यक्ति से किसी जगह का जुड़ा होना इतना गहरा होता है कि यदि व्यक्ति चला जाए तो वह जगह उसके होने की स्मृतियों को बार-बार उभारती रहती हैं। मगर इस कविता में माँ का जाना सिर्फ उसके अपने जाने में ही पूरी तरह से नहीं घटता, बल्कि उस किराये के मकान के छूट जाने में माँ के जाने की पूर्णाहुति होती है। और उस मकान के छूट जाने से ऐसी कितनी ही बातें स्मृति-पटल से इस तरह धुंधला जाती हैं, जैसे उनका होना और माँ का होना एक-दूसरे में गूँथा हुआ हो। इसके बाद वे स्मृतियां इस तरह लौटती हैं जैसे किसी और सदी की बात हो।
“जहाँ अनाजों, दालों आदि से भरे कनस्तरों के पास, एक आले में लटके हैं तुम्हारे भगवान
और सामने रामचरितमानस की पुरानी पड़ती प्रति है।”
या फिर,
“यहाँ ईश्वर की इस सख़्त अभेद्य सी प्राचीर में,
कहाँ से खुल जाता है तुम्हारा भण्डार और पूजाघर।”
इस दृश्य में बेटे ने कितनी विनम्रता से माँ के भगवान के अस्तित्व के ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाया है, माँ की धार्मिक भावना और विश्वास को बिना एक भी खरोंच या ठेस लगाए, बल्कि बेहद कोमल भाव से सँभालते हुए।
अशोक जी के सबसे पहले संग्रह “शहर अब भी सम्भावना है” में एक छोटी सी कविता है “काँच के टुकड़े”, जिसका जिक्र भी अत्यंत जरुरी हो जाता है। बहुत ही छोटे कैनवास में चित्रित इस कविता का फलक बहुत ही विस्तृत है। कविता में माँ और उसके आठ बच्चों का एक गहन और प्रतीकात्मक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। काँच की नाजुकता को बच्चों के जीवन की संवेदनशीलता से जोड़ते हुए कवि यह बताना चाहते हैं कि इन रिश्तों की देखभाल कितनी महत्वपूर्ण है। माँ के लिए ये काँच महज भौतिक वस्तु नहीं, बल्कि उसकी ममता, त्याग और समर्पण का प्रतिबिम्ब है।
“काँच के आसमानी टुकड़े
और उनपर बिछलती सूर्य की करुणा
तुम उन सबको सहेज लेती हो
क्योंकि तुम्हारी अपनी खिड़की के
आठों काँच सुरक्षित हैं।”
‘सूर्य की करुणा’ का रूपक माँ के निस्वार्थ प्रेम और उसकी अडिग सहनशक्ति को उजागर करता है।
“सूर्य की करुणा
तुम्हारे मुंडेरों पर
रोज़ बरस जाती है।”
सूर्य की तरह माँ भी अपनी करुणा और ममता से बच्चों के जीवन को संवारती है। कवि ने इस बिम्ब के माध्यम से माँ के संघर्ष और उसकी आत्मीयता को ऊँचाई दी है। जैसे सूर्य धरती को जीवन देता है, वैसे ही माँ अपने समर्पण और त्याग से बच्चों की जड़ों को मजबूती और जीवन को सार्थकता प्रदान करती है।
अशोक जी की कविताओं में माँ की अनुपस्थिति एक स्थायी उपस्थिति के रुप में उभरती है। “लौटकर जब आऊँगा” कविता में एक बेटे की अपनी माँ से संवाद करने की यही जटिल मनोदशा उभरती है। यह संवाद केवल प्रश्नों का सिलसिला नहीं है, बल्कि संघर्ष और आत्ममंथन है, जो जीवन की वास्तविकताओं और आदर्शो के बीच झूल रहा है। यहाँ बेटा किशोर-मन वाले सवालों और अपने अनुभवों के साथ माँ के सामने खड़ा है, जैसे वह अपने भीतर की उलझनों और संसार के द्वंद्वों को माँ की आँखों से समझना चाहता हो।
बेटा बार-बार माँ से यह सवाल करता है, “लौटकर जब आऊँगा, क्या लाऊँगा?”। यह एक साधारण प्रश्न नहीं, बल्कि जीवन की सार्थकता और उद्देश्य को खोजने का प्रयास है। वह सोचता है कि क्या वह केवल भौतिक चीज़ें जैसे कपड़े, मिठाइयाँ, खिलौने लाएगा, या जीवन के अनुभवों से भरी कोई गहरी उपलब्धि? यह सवाल किशोरावस्था की उस मानसिक स्थिति को दिखाता है, जहाँ भविष्य की अनिश्चितता और आदर्शों की तलाश एक साथ टकराती हैं।
कविता में “नीले अश्व पर आरूढ़ भव्य अवतारी पुरुष” और फिर “नीले घोड़े पर सवार पिचके निर्वीर्य चेहरे वाले आदमी” का जिक्र गहरे प्रतीकात्मक अर्थों को समेटे हुए है।
बेटा माँ से सवाल करता है कि क्या वह वही शाश्वत, दिव्य और वीर व्यक्ति है, जिसकी प्रतीक्षा दुनिया कर रही थी? नीला अश्व यहाँ किसी आदर्श, किसी ईश्वरीय हस्तक्षेप या भविष्य की आशा का प्रतीक है। किशोर बेटा यह जानना चाहता है कि क्या वह सत्य और न्याय का प्रतिनिधि बनकर लौटा है, जो माँ और समाज की अपेक्षाओं को पूरा करेगा।
इसके उलट, बेटा यह भी मानता है कि शायद वह केवल एक आम आदमी की तरह लौटा है, जिसकी वीरता और आदर्श समय के साथ क्षीण हो गए हैं। यह सवाल जीवन की क्रूर वास्तविकताओं का सामना करने वाले हर युवा की आशंका को व्यक्त करता है, जो आदर्शवाद से यथार्थवाद की ओर बढ़ रहा है।
माँ यहाँ केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि बेटे की आदर्श और नैतिकता की पहली शिक्षिका है। बेटा अपने अनुभवों और संघर्षों को माँ के सामने रखते हुए उसकी तीखी दृष्टि से बचना भी चाहता है। वह माँ के सवालों या असहमति से डरता है, क्योंकि माँ की नज़र उसके हर दोष और कमी को पहचानने में सक्षम है।
बेटा यह स्वीकार करता है कि उसने जीवन की कठिन सच्चाइयों का सामना किया है। वह “अँधेरी गुफाओं में से” लौटा है, जहाँ भूख, अन्याय और पीड़ा का साम्राज्य है। लेकिन क्या वह माँ को यह सब कह पाएगा? या वह इन अनुभवों को छुपाकर केवल एक “काठ का नीला घुड़सवार” अपने छोटे भाई को देगा, जो प्रतीक है अधूरे आदर्शों और खोखले सपनों का?
माँ यहाँ बेटे के लिए आत्ममंथन का दर्पण है। कविता के अंत में बेटा पूछता है:
“क्या तब तुम पहली बार पहचानोगी-
मेरे चेहरे में छुपा
अपना ही ईश्वरदूषित चेहरा?”
यह पंक्ति माँ और बेटे के बीच गहरे संबंध और समानता को उजागर करती है। बेटा महसूस करता है कि उसकी विफलताएँ या अधूरे सपने माँ की उम्मीदों का प्रतिबिंब हैं। माँ की इच्छाएँ और संघर्ष बेटे के भीतर भी बसते हैं। वह अपनी पहचान और उद्देश्य की खोज को माँ की आँखों के माध्यम से देखना चाहता है।
अगर समग्रता में देखें तो अशोक जी की इन कविताओं में माँ केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि सृजन, स्मृति और संघर्ष का प्रतीक बनकर उभरती है। ये कविताएँ मातृत्व के अनुभवों को मानवीय संवेदनाओं, प्रेम, पीड़ा और स्मृतियों के गहन रंगों में चित्रित करती हैं। माँ की छवि यहाँ जीवन की आधारशिला, ममता की अनुगूँज, और अस्तित्व के संघर्षों में अडिग सहारा के रूप में प्रकट होती है। वाजपेयी जी की भाषा और प्रतीकात्मकता इन कविताओं को न केवल व्यक्तिगत, बल्कि सार्वभौमिक अनुभवों से जोड़ने का माध्यम बनाती है।