जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

प्रस्तुत हैं भावना झा की कुछ कविताएँ- अनुरंजनी

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1. नींद में स्त्री  

इस क्षण वह गहरी नींद में है
बड़ी मशक्कत से सारी मसरूफ़ियत, चिंताओं और सारे ताम- झाम को बहलाया-फुसलाया है किसी 
हठी बच्चे की तरह ।
जैसे एक अंतराल के बाद वाक्य में 
 आता हो अल्प विराम 
 मोहलत पाते ही वैसे 
उनींदी पलकों पर दिन भर की
श्रांति ने हाजिरी दी है;
अभी खदेड़े गए हैं व्यथा, विषाद,
पीड़ा दूर कहीं 
इस अवधि देह व आत्मा भी उसकी 
किसी चोट या जख्म की
 तसदीक़ नहीं करेंगे 
इस वेला ताने ,नसीहतें या कोई समझाइश
नहीं फटकेगें उसके इर्द-गिर्द भी
इस पहर विमुख है वह घर बाहर 
सन्तुलन साधने के कौशल से ,
मन के सारे द्वंद्व सुस्ताने लगे हैं 
आँचल के छोर को पकड़े कहीं ..
अनधिकृत है इस वक्त तमाम झमेलों
 का उस तक पहुंचना 
बस स्वीकृति है इस घड़ी 
पुतलियों में प्रवेश करने उस 
स्वप्न का जो पलकों पर ठिठका, सहमा 
प्रतीक्षारत है वर्षों से,
अभी हल्की सी स्मित की रेखा तिरेगी
 अधर पर और मुख पर असीम शांति होगी
यह स्थगन काल है!
एक स्त्री के हिस्से में 
विराम संधि है एक अदद नींद..
वह अभी गहरी नींद में है !
 
2. बदलाव
 
कहते हैं कोस भर चलते ही
बदल जाता पानी का आस्वाद
और पग थोड़ा सा बढ़ाते ही
मिलती है नित-नूतन ठिठोली करतीं 
भाषाएँ और बोलियाँ 
मानो गले लगना अभिप्राय रहा हो..! 
उधर एक सखी
दूर किसी गिरि श्रृंखलाओं की तस्वीरें भेज
कहती है चित्त को स्वस्थ करने
इस मशविरे के संग कि
यह बदली ताज़ी हवा बहुत लाभप्रद होगी.. !
इसी तरह बाज़ दफा बदलाव की बातें कानों तक पहुंचती रहती हैं गाहे-बगाहे
पर शंकालु स्वभाव की प्रवृत्ति
भले ही एक झिझक संग ही सही
आख़िर में शाश्वत परिवर्तन को स्वीकार्य मान 
जुट जाती तलाश में संभावनाओं की जैसे बदलना अगर इतना ही सत्य है
तो चलो तलाशते हैं वो दृष्टि
जिसके सामने संस्कारों से लदी देह लिए
हम साथ चलते हुए जो कभी ठिठकें
तो वे क्रोधित होने के बजाय
मुग्ध हो स्नेहसिक्त करें..! 
इतनी घृणा के मध्य
जबकि जीवन एक
त्रासदी की तरह घटित हो रहा है
चाहती हूं बस इतना ही
कि जब कभी तुम पुकारो मेरा नाम तो हवा महक उठे
और सांसों में कुछ राहत की उम्मीद भरते ही
इधर के बाशिंदों के होंठ बुदबुदा उठें
और आँखें मुँदी होने पर भी
आत्मा बोल पड़े अहा प्रेम.. !
जानते तो होगे प्रिय 
हर कांधा दुःख को साथ-साथ लिए 
चलता है
एक पक्के साथी की तरह 
फिर भी बदलाव जो अगर शाश्वत नियम है
तब कुछ इतना ही तो बदले 
कि वो जो हमेशा रोता हुआ मिलता है
अबकी उसके अधरों पर हँसी 
ठहरे देर तक
भले मनबहलाव के लिए ही सही
और जाते हुए अपनी उजास
छोड़ जाए उसकी चौखट पर.. !
और बदलाव अगर इतना ही अवश्यंभावी है
तो बस अपने लिए सुख की 
कामना करते हुए
इस संसार से दो पल का एकांत चुराने में
मुख पर रत्ती भर परिताप की छाया न पड़े.. !
 
3. दुःख को सहेजना

 कठिन हताश और संतप्त दिनों को
सहेजकर रखना पास
हाँ भींच कर बिल्कुल पास
ठीक वहीं जहाँ हृदय नामक शै है।
पर उसे कतई भान न हो
कि किस अपरिचित के घर आ ठहरा हूँ!
भले ही उसे रहे ज्ञात
कि अनुपस्थिति में उसके
कितने रिक्त हो जाते हो
कि रातें बिल्कुल व्याकुल
और दिन भी मानो पहाड़ जान पड़ता हो!
कभी निकट से गुजरे जो कोई शोक
तो आंखें मिलाते हुए परहेज नहीं होता 
स्मृति छलकती तो वह स्मरण कर लेता
कि गोया अनुचर ही रहा हो कोई!
 शब्दकोश को विस्तृत करते हुए
वेदना, दुःख और निराशा
जैसे कि एक ही सखी
भिन्न -भिन्न नाम और रूप से
आ भर लेती हैं अंक में
चूमती हैं मस्तक तो
स्खलित होती हैं सारी इच्छाएं, प्रतीक्षाएँ
नतमस्तक होकर तुष्ट करते हुए फिर
उन्हें स्वीकारने में भला क्यों गुरेज हो! 
कहो कि तुम्हारे सामने ही अनावृत हो
देख पाता हूं स्वयं को पूरी तरह 
देखता हूं कि और कितनी सहनशीलता
कितनी मनुष्यता बची हुई है अंदर
कितना खाली हुआ हूँ
और रह गया हूँ कितना शेष
या फिर केवल असहिष्णुता ही बढ़ी!
उसकी पदचाप जो सुनाई दे
तो सहमना नहीं
भरना दोगुना सामर्थ्य
अभ्यागत समझ करना स्वागत
चार गुणा आधिक्य प्रेम से!
त्रासद कथाओं को पढ़ते हुए
करुणा उपजती तो है पर
सजल नेत्रों में पहले
कौंधता है एक पन्ना
जहाँ प्रिय कवि लिखते हैं कि
“दुःख सबको माँजता है”। 
और जी करता है
कि कवि के कहे पर
सहज विश्वास कर लूँ
तमाम बाध्यताओं के बावजूद 
प्रिय हो उठती है उनकी
यह छोटी सी एक उक्ति!
 
4.  पिता (एक नायक की याद )
 
छुटपन के किस्से कहानियों 
अमुक लकड़हारे या मछुआरे की
 तो कभी सुनी चकित होकर
 किसी अनाम द्वीप के राजकुमार की कथा 
जो हर बाधा विघ्नों को पार करता 
 हर कठिनाईयों से न जाने 
कैसे लड़ अंततः विजयी हो कर ही लौटता
और बहुत दिनों तक इन छोटी छोटी आंखों के बड़े स्वप्नों में साधिकार उपस्थित रहता 
उसका चेहरा न जाने क्यूं पिता से मिलता था
पसंदीदा चलचित्रों में कथानक 
औचक ही जब सुखद
मोड़ लेता था तब उस नायक में भी उभरती थी न जाने कैसे पिता की ही धुंधली छवि
जोड़, घटाव, गुणा, भाग के प्रश्नों को
आसानी से सुलझाने वाले पिता
जूझते रहे दुनियावी समीकरणों से 
कुकुरमुत्ते की तरह उगती आती थीं परेशानियां
चिंताएं, अपेक्षाओं की लकीरें 
असमय टपक पड़ती थीं पेशानी पर 
जिसे पोंछते पिता अगले पल मुस्कुरा कर “अच्छा कोई बात नहीं” कहते तभी एक सफल कथानक का नायक फिर मेरे सामने होता था…
अभावों के बीच भी दर्प से चमकता मुख मां का न जाने किस असीम स्नेह बल पर 
अपना सब छोड़कर आना आसान तो नहीं
रहा होगा हाथ किसी ऐसे का थामना
प्रेम के बाबत कुछ ना जानते हुए उस दिन मैं नतमस्तक हुई थी
कच्ची नाजुक उम्र की प्रेम कहानियों
 में पिता फिर नजर आए…
प्रतिस्पर्धाओं की दौड़ में निरंतर 
पीछे होते नायक को हारते हुए भी 
स्वाभिमान से मुस्कुराता देख 
कोफ्त तो होती थी पर नहीं सुन पाती
विरोध में उठती आवाजें 
हथेलियां कान पर लग क्षमायाचना
मांग लेती…
जीवन की तमाम जटिलताओं के मध्य
सरल रहने की कला 
क्यूं नहीं सीख पाई पिता की तरह?
जिद्दी है अपने पिता की तरह ही ये
कई बार सुन कर सर को झटका
पर विवशता के आगे तटस्थ
निर्विकार रहूं ये नहीं हो पाया !
कठोर होते हैं पिता ये भी कैसे मानती
सबसे कोमल स्पर्श उन्हीं हाथों का था
सबसे मीठी पुकार अपने नाम का एक ही कंठस्वर से उठता था
निस्संगता अनिवार्य होती प्रेम में 
बिछोह भले ही चिरायु हो मुस्कुराता है
मुझे विदा करते हुए पिता हमेशा
मुंह मोड़ लिया करते थे जाने क्यूं 
“तुम नहीं न आई उन्हें अंतिम विदा देने”?
आज भी सब पूछ ही लेते 
मैं ‘ना ‘कह फीकी हंसी हंसती हूं 
और पिता दूर कहीं मुस्कुरा रहे होते हैं…!!

 
5. स्वयं से संवाद करते हुए 

बिना किसी भूमिका के और बिना कोई 
सूत्र जाने मन चाहने लगता 
बरबस यूँ ही कि
और कुछ नहीं तो इतनी
 मोहलत हो मेरे पास
कि चौंधियाते आवरण में लिपटी मिथ्या को परे रख किसी व्यग्र, कातर, निर्दोष आंखों में लिखा ‘सच’ यत्नपूर्वक पढ़ने की 
चेष्टा कर सकूँ
भले उसकी भाषा एवं लिपि पूर्णतः‌ अपरिचित रहे
कभी हो यूँ भी कि अपने ही बनाए हुए
तमाम ज़रूरी, गैर-जरूरी कामों की फेहरिस्त मध्य
बस इतना सा ही मुझे स्मरण हो आए
कि कल जिस बात को कहने से ज़ुबान ने
अनधिगत हिचकिचाहट ओढ़ ली थी उसकी ..
वो कंठ में अटकी बात समय रहते सुन पाऊँ
हाँ, इतनी भर फुर्सत रहे!
इल्म रहे कि मशरूफ़ियत 
अपनी जगह है सबकी
 बेवक्त फोन करना महज़ 
मसखरापन नहीं भी हो…
शायद लाज़िम सी ही बात रही हो कोई ..
मिस्ड कॉल देख कर पूछने में देर न लगे 
कि तुम ठीक हो न!
इतना तो वक्त रख सकूं अपने पास …
किसी आघात पहुंचे मन का भेद 
कभी द्रष्टव्य हो जाए अनायास ही 
कहीं ऐसा न हो कि कहानी गढ़ने का चाव उमगे स्वयं को चेताते हुए ससमय ये
अंतर्मन में प्रयास जगे कि
कामना उठी होगी उस खंडित हृदय को
उस घड़ी एक अदद स्नेहिल स्पर्श की
तो आतुरता न दिखे हाथ छुड़ा कर जाने की
अपितु आकुलता दिखे थोड़ी देर पास बैठने की और सहजता पूर्वक उस व्यथा को महसूसने की! 
औचक ही अवकाश जो मिले किसी दिन
तो कविता लिखने से ज्यादा ग़रज़ 
उस किशोर मन को यह समझाने की हो
जिसे सबसे नाराज़गी है
कहूं उससे कि रूष्ट होने से 
अच्छा है क्षमा करना 
शुक्रिया कहना और साझा करना
चाहे वो दुःख हो या सुख ..
ये इस संसार को सुंदर 
 बनाने के अवयव हैं
कहूँ कि इस जग को अवहेलना की नहीं
थोड़े और अधिक प्रेम की आवश्यकता है !
 
  6. निकटता

उसे सब ‘निकटता’ कहते हैं 
जिसका आना अपरिहार्य ही समझा जाता है 
वह आती है बिना किसी पूर्व सूचना के
तुम लाख कहते हो कि दूरस्थ हूँ
व्यस्त हूँ अपने दैनंदिन में
 यूं आविष्ट हूँ अपने आप में कि, 
 कपाट सदैव बंद ही मिलेगा 
अनुपलब्धता बनी रहती है सदा।
फिर भी बगैर किसी प्रयोजन के
दुर्निवार हो उसका आना जैसे,
वह निकटता ही है जब एकाकीपन के
निविड़ अंधेरों में टटोलते हुए हाथ में
पहुंच ही जाती उसकी ऊष्मा 
सच्चे प्रेयस की भांति सोल्लास 
अंक में भरने को।
 हर अपरिचित चेहरे में
अपने सबसे निकटतम के रूप की परछाई ढूंढ़ना भी एक व्याधि है
किंतु इससे निष्कृति की चाह 
मत रखना 
एक मोहपाश ही है निकटता ।
शोक हो, घृणा हो हर दुर्दिन में 
बचा लेती है अपने ओट में लेकर
सप्रेम आधिपत्य दिखाती 
ज्यों कि आत्मजा हो
संवाद के असंभाव्यता के 
बीच भी हमारे मध्य रहती है 
कुछ उजाड़ सी उदासी लिए,
 मौजूदगी उसकी बर्खास्त किए गए संबंधों
में भी दबी मिलती है अंत: सलिला ऐसी है
किंतु एक दिन सारी इच्छाओं, कामनाओं के त्याज्य होने का समय भी आएगा 
सुविज्ञों ने मुखस्थ कराया था 
“आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रिय भवति”
 पर तुम्हारी निकटता की अनुकांक्षा सिरहाने  
रखते हुए चाहूंगी आक्षेप न लगे 
 कार्पण्य दोष का इसे
रहे हज़ारों मीलों की दूरी
पर किंचित कम न हो
हमारी तुम्हारी निकटता।

परिचय-
नामभावना झा
प्रकाशित रचनाएंहंस, हिंदवी, कथादेश, पाखी, प्रभात खबर, वनिता

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