जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

मध्यकालीन साहित्य के विद्वान माधव हाड़ा के संपादन में ‘कालजयी कवि और उनका काव्य’ सीरिज़ में अनेक पुस्तकें आई हैं। हाल में ही इस सीरिज़ में कश्मीर की मध्यकालीन कवयित्री ललद्यद के ऊपर उनकी किताब आई है जिसमें ललद्यद की कविताओं के हिन्दी अनुवादों को भी उन्होंने संकलित किया है। यह संकलन अनुवाद नहीं है। यह ललद्यद के कुछ चुने हुए वाखों का भाव रूपांतर है। भाव रूपांतर के लिए ललद्यद के उपलब्ध वाखों के हिंदी, अंग्रेज़ी और संस्कृत रूपांतरों के साथ देवनागरी लिप्यतंरित  कश्मीरी मूल पाठों से सहयोग लिया गया है। जयालाल कौल के संचयन में हिंदी रूपांतर के साथ देवनागरी लिपि में मूल कश्मीरी पाठ भी दिया गया है और शिबन कृष्ण रैणा के संचयन में भी हिंदी-संस्कृत रूपांतर के साथ देवनागरी लिपि में मूल कश्मीरी पाठ भी है। अद्वैतवादिनी कौल के अनूदित और राधावल्लभ त्रिपाठी के संपादित संचयन में भी संस्कृत, हिंदी और देवनागरी में लिप्यतंरित कश्मीरी, तीनों पाठ सम्मिलित हैं। माधव हाड़ा ने सभी स्रोतों से इन वाखों(कविताओं) का चयन किया है। पढ़िए राजपाल एंड संज से प्रकाशित इस किताब से कुछ चुनिंदा वाख-

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अभी देखी
एक बहती हुई नदी
उस पर नहीं था कोई सेतु
नहीं थी कोई पुलिया
अभी देखी
एक खिले हुए फूलों की डाली
अभी देखा
उस पर नहीं थे
फूल और काँटे
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अभी देखा
ओस को गिरते हुए
अभी देखा पड़ते हुए पाला
अभी देखा
झरते हुए प्रकाश
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तुम थे मेरे भीतर
मैं दिन-रात ढूँढ़ती रही बाहर
हम तो एक हैं
अपने भीतर पाया तुम्हे
मैं हो गई आनंदमग्न
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सरोवर
जो अपने में नहीं समा सकता
एक भी दाना चावल
इसी के जल से
बुझती है सबकी प्यास
सब इसी से लेते हैं जन्म
सब इसी में
हो जाते हैं विलीन
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अविच्छिन्न गति से
आते-जाते रहे यहाँ निरंतर
दिन-रात चलता रहा यह चक्र
चलता रहेगा अभी यह और
कोशिश करो
जहाँ से आए हो
चले जाओ वहाँ
कुछ तो लो सीख!
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क्या हाल हो गया
मेरे शरीर के रंग का?
हुद-हुद के प्रहारों ने
काट डाला मेरा पत्थर हृदय
एक सूत्र में रह गया
सभी शास्त्रों का सार
लल के भीत फूट पड़ा अमृत-स्रोत
सोचती हूँ
कहीं बह नहीं जाऊँ!
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चेहरा बहुत सुंदर
लेकिन पत्थर है हृदय
जिसमें नहीं समाई कोई सच बात
पढ़ते-लिखते घिस गए
होठ और उँगलियाँ
लेकिन नहीं गया अंदर का द्वैत

 

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