जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

“हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी/ आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी”!  मैथिलीशरण गुप्त की यह काव्य पंक्तियाँ हमें बार-बार सोचने को मजबूर करती हैं।‌ आज सरिता सैल की प्रस्तुत इन दस कविताएँ भी उन सारी स्थितियों, दुनिया की जटिलताओं की ओर ध्यान दिलाती हैं, जैसे हर क़दम पर खुद से सवाल करने को प्रेरित करती हैं- अनुरंजनी

1) ईश्वर

इन दिनों बीहड़ में बैठकर
पाषाण पर लिख रहा है
दस्तावेज सृष्टि के पुनर्निर्माण का

उसके पहले वो छूना चाहता है
जंगली जानवर के हृदय में स्थित प्रेम
जिसका वह भूखा है सदियों से

उसने खाली कर दी तमाम बैठकें
जहां पाप के कीचड़ में पुण्यबीज
बोने की इच्छाएँ जमा हो गई हैं

दिमागों को अंतिम आशीर्वाद देकर
वो वहाँ से उठ चला है

नदियाँ बीहड़ की तरफ मुड़ी हैं
सुना है ईश्वर के चरणों के स्पर्श से
बंधनमुक्त सांसें भर रही हैं

वनराई के सबसे ऊँचे तरू से
बेल खींचकर ईश्वर ने
पुरूषों के कदमों का माप लिया है

कछुए के पीठ की कठोरता
उसने अपने कलम में भरकर
गढ़ ली है
स्त्री की प्रतिमा।

तमस गुणों को नवजात के
मुट्ठी में बंद करके
ईश्वर ने बांध दिया है
स्वार्थी मनुज को
दंतुरित मुस्कान में ।

2) विस्थापन

विस्थापितों के कोलाहल से
भरी पडी़ है
महानगरों की गलियां,
चौराहे, दुकानें

सोंधी मिट्टी सी देह
सन रही है काले धुँऐं से
थके हुए मन को
फुर्सत नहीं लौटने की

पंछी को मिल रहा है
बना बनाया घर
वे भूल रहे हैं
हुनर घोंसलों का

मुर्गे ने छोड़ दी है
पहरेदारी समय की
जैसे सूरज की परिक्रमा
नहीं करती पृथ्वी
हो गई है हद !

अब पीठ भी
विस्थापित हो रही हैं
बोरियां उठा रही हैं मशीने
खाली पीठ को याद आती है
गेहूँ की बोरियाँ
भूसे की गंध

डीज़ल की गंध से मिट रही हैं
हरियाली के बचे खुचे निशान
सुना है अब
कि कंक्रीट का जंगल
पसर रहा है अमरबेल की तरह
गाँव -गाँव, घर -घर
खेती की नाज़ुक देह पर
देखे जा सकते हैं,
लौह अजगर के
दांतों के निष्ठुर निशान..!!

3) मानदंड

पत्तों का पेड़ पर से गिरना
हरबार उसकी उम्र का
पूरा हो जाना नहीं होता
कभी कभी ये तूफान  की
साज़िशे भी होती है

सुहागिनों के मांग में सजा सिंदूर
हरबार उसके प्रेम की तलाश का
पूरा होना जाना ही नहीं होता
कभी कभी ये झूठे
मानदंड का वहन मात्र होता है

कलम से बहती स्याही हरबार
लिखाई भर नहीं होती
कभी – कभी लहू भी होता है
औरत के पीठ का जिसके
हंसने मात्र से उगा लाल रंग का निशान

सागर के तलहटी में स्थित सीप
हर बार मोती ही पोषित नहीं करता है
कभी – कभी उसके अंदर दफन होता है
नाकामयाबी का बांझ सा एक अंधियारा।

4) पिता का चले जाना

पिता के जाने के बाद
ठीक वैसा ही लगा था जैसे
एक गांव लुप्त होकर
मेरी स्मृतियों में बस गया हो

उस दिन एक गूलक
असमय टूट गया था
घर फिर एक बार
धीरे-धीरे मकान में
तबदील हुआ था

आयने के सामने रखीं
श्रृंगार की हर चीज़
मौन होकर संदुक में चली गई थी
धूल की परत में
मां की मुस्कुराहट दब गई थी

जो पहाड़ बौना नजर
आता था दरवाजे से
पिता के चले जाने पर
उसकी कंटिली झाड़ियां
दहलीज को छूने लगी थी

अलगनी पर निस्तेज पड़े
पिता के गमछें ने
उनके  चाहे अनचाहे
पलों के दस्तावेजों को
मुझ से भी अधिक सहेजा था

मेरे काधें पर अचानक एक
मज़बूत हड्डी उग आयी थी
मेरे आवाज पर उंचककर
मां सहम जाती थी
मेरी ध्वनी में पिता की ध्वनी
इन दिनों घुलने लगी थी

5) युद्ध

युद्ध के ऐलान पर
किया जा रहा था
शहरों को खाली
लदा जा रहा था बारूद

तब एक औरत
दाल चावल और आटे को
नमक के बिना
बोरियों में बाँध रही थी

उसे मालूम था
आने वाले दिनों में
बहता हुआ आएगा नमक
और गिर जाएगा
खाली तश्तरी में

वह नहीं भूली
अपने बेटे के पीठ पर
सभ्यता की राह दिखाने वाली
बक्से को लादना
पर उसने इतिहास की
किताब निकाल रख दी
अपने घर के खिड़की पर
एक बोतल पानी के साथ
क्यों कि,
यह वक्त पानी के सूख जाने का है..!

6)  मैं तुम्हारा विरह लिखती हूँ

डुबोकर रक्त में तिनके
मैं तुम्हारा विरह लिखती हूँ

जिन राहों पर साथ चलते
चुभे थे पैरों में
कभी अपमान के कांटे
तुम्हारे तिरस्कार के
तलवों में पड़े छालों से
पत्थरों पर उगे निशान
मैं लिखती हूँ

रास्ते में पड़ते मंदिरों की चौखट में
बुदबुदाया करती थी मैं
तुम्हारे मुश्किलों की गांठें
उन कामयाबियों के
मन्नतों के धागे मैं लिखती हूँ

गोधूलि में लौटते
पक्षियों की थकान
जानवरों के पैरों में
लगे भूख के निशान
मेरे वापसी के सफर में
यातनाओं की वो गठरी
आँखों के वे किनारे
अपना साम्राज्य फैलाता
वह संमदर
और कुछ इस तरह से
तुम्हारी बेवफाई की पीठ पर
मैं आज भी वफा लिखती हूँ

7) तुम्हारे इंतज़ार में

तुम्हारे इंतज़ार में मैं लिखूँगी
युद्धों के दस्तावेजों पर
मेरा प्रेम तुम्हारे लिए
मिट जाएगी युद्धों की तारीखें
पिघलेगा औजारों का लोहा
लहरायेगा शांति का पंरचम
इंगित होगा जिसपर
मेरा प्रेम तुम्हारे लिए

तुम्हारे इन्तजार में मैं लिखूँगी
रेगिस्तान की पीठ पर
मेरा प्रेम तुम्हारे लिए
पिघलेंगे विरह के बादल
जन्म लेगी एक नदी
होगी तृप्त हर गगरी की देह
गोद दूंगी पानी के ह्रदय पर
मेरा प्रेम तुम्हारे लिए

तुम्हारे इन्तजार में मैं लिखूँगी
मिट्टी में धंसे पगडंडियों पर
मेरा प्रेम तुम्हारे लिए
और वहां बैठे गुनगुनाऊँगी
गीत वर्षा के आगमन का
निराश किसानों की
पुतलियां अंकुरित कर
धान की पातियों पर
अंकित करूँगी मेरा प्रेम तुम्हारे लिए

8) नदी

नदी को समझने के लिए
पानी होना पड़ता है
और नदी किसी से उम्मीद
नहीं करती है
ठीक उसी तरह से छोड़े हुए किनारे पर
नदी वापस नहीं लौटती है
नदी को समझने के लिए
पानी होना पड़ता है

9) अंतिम घर

अंतिम घर जब बचा था
तब मैं गांव गया था
रास्ता मेरी स्मृतियों में बसा था
पगडंडियों का नामोनिशान नहीं बचा था
मैं गैरूओं के पदचाप
जब ढूंढ रहा था तब बार-बार
जंगली झाड़ियों से परिचित हो रहा था

मैंने देर तक ढूंढा था उस दिन
लाल बूढ़ी का ओसारा
जहाँ पर बैठकर वो
पूरी बस्ती का चावल गेहूँ
पीसा करती थी चक्की में
बदले में आता था
किसी ना किसी घर से
उसके लिए माँड़-भात
पर पूरी बस्ती को घर समझकर
खिलाने -पिलाने का रिवाज
शायद लाल बूढ़ी के साथ ही उठ चला था

कहाँ गुम हो गए वो
छोटे बड़े जमीन में खोदें गड्ढे
जिसमें गोबर भूंसा  डाल
लड़कियाँ उपलें थापा करती थी

आई भी होगीं वे
अपने मायके को याद करके कभी

जो कभी अस्मिताओं के हाथ से
अर्पण होता था
नाजुक सी तुलसी बिरवां पर
या फिर श्री गणेश के विग्रह को
जल समाधि दे पावन होता था
गाँव का वो कुआँ
आज कितना विकराल रूप
धारण कर चुका था

इधर -उधर फैलें
आम के वो पेड़
फलों से लदे तो थे
पर बच्चों से घिरे ना होने के
कारण उदास से खड़े थे
उस दिन जब मैं अंतिम बचे
घर की तरफ मुड़ा था
तो दीमकों की उभरती बस्ती देख
मन ही मन खूब रोया था
चूल्हे की देह पर आग के
ना होने का यह संकेत था

10) दुख जो बहा नहीं धरा पर

औरतों के हिस्से जितना भी दु:ख आया
बहुत कम आँखों ने धरा को सौंपा
बहुत सा दुख आँखों के
किनारें पर शहर बन बसा

बदलते काल और परिवेश में
पगडंडियों और जंगलों में खपती
इन औरतों ने अपना दुःख रखा
साथी औरतों के कानों में
पर सांत्वना के शब्दों के एवज़ में
सम दुख की भागीदारिनी ही मिली

वे रात में मिला दुःख
सुबह बुहारते हुए रख आयी
आंगन के कोने में
और अधिक मात्रा में इकट्ठा होने पर
टोकरी में भरकर
राख़ में तबदील कर आयी
नजदीक के किसी खेत में

हर परिवेश और हर स्थिति में
दुखों का मापन और रंग एक सा रहा
महिलाओं के लिए आरक्षित रेल के डिब्बें में
हजारों उतरती चढ़ती आँखों में
बसा रहा दु:ख का साम्राज्य
काजल ने तो कभी काले चश्मे ने
यहाँ पहरेदारी अपने बजाई

एकांत की तलाश करते भीड़ में नजर आए
कितने ही दुपट्टे के छोर
कुछ औरतों ने अपना दुःख
अलमारी की उन साड़ियों की तह में
सुरक्षित रखा जिसे मायके का पानी लगा था

औरतों के हिस्से जितना भी दुःख आया
उजाले ने कम और अँधियारे ने अधिक जिया।

परिचय

सरिता सैल
जन्म : 10 जुलाई ,
शिक्षा : एम ए (हिंदी साहित्य)
सम्प्रति : कारवार  कर्नाटक के एक प्रतिष्ठित कालेज में अध्यापन
मेरे लिए साहित्य मानव जीवन की विवशताओं को प्रकट करने का माध्यम है।
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