आज पढ़िए युवा कवि विजय राही की छह कविताएँ। जानकीपुल पर उनके प्रकाशन का यह पहला अवसर है – अनुरंजनी
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1. याद
(१)
मैं तुम्हारी याद था
अब कौन मुझे तुम्हारी जगह याद करे
मैं तुम्हारा प्यार था
अब कौन मुझे तुम्हारी जगह प्यार करे
मैं तुम्हारे गले का हार था
अब कौन मुझे तुम्हारी जगह पहने
मैं तुम्हारी जान था
अब कौन मुझे तुम्हारी जगह अपनी जान कहे
तुम्हारे बग़ैर मैं निपट अकेला हूँ
तुम कब आओगी
कब अपने हाथों से अमरूद खिलाओगी
मैं कब से तुम्हारी बाट जोहता हूँ
कब तुम उस मोड़ पर आकर मेरा हाथ थाम लोगी
जहाँ से एक रोज़ हम और तुम
अरहर के खेतों बीच की पगडंडियों से अलग हुए थे
(२)
उन्नीस सौ निन्यानबे गुज़र गया
दो हजार दो गुज़र गया
और दो हजार बीस भी
हम ज़िन्दा हैं युद्ध, दंगों और महामारियों के बाद भी
अलग-अलग कस्बों में
अपना-अपना जीवन गुज़ारते हुए
सुना है तुम किसी स्कूल में मास्टरनी बन गई हो
कितना सुख मिला मेरे मन को यह सुनकर
कितना आकर्षण था स्कूल में मेरा
जब तुम मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी
सिर्फ़ एक कक्षा पीछे मुझसे
तुम अक्सर मेरी कक्षा के सामने से गुज़रती थी
जब भी मैं तुम्हारे बारे में सोचता था
मैं भी तो अक्सर ऐसा ही करता था
आज भी स्कूल के सामने से गुज़रता हूँ
तुम्हारी छवियाँ याद आती हैं
स्कूल की छत, सीढ़ियों और गुलमोहर तले से
हँसते, मुस्कुराते और हाथ हिलाते हुए
जैसे मुझसे कुछ कहना चाह रही हो
मैं कभी-कभी सोचता हूँ
तुम हिन्दी पढ़ाती होगी
कविता कैसे सुनाती होगी
कितने अच्छे होंगे वे बच्चे
जो तुमसे पढ़ते होंगे
मेरा मन करता है कि मैं भी तुमसे पढूँ
किसी दिन आ कर बैठ जाऊँ
तुम्हारी क्लास में पीछे की बेंच पर चुपचाप
2. पुकार
प्रेम की उम्र लंबी होती है
ऐसा मैंने सुना था
मैं भी तुम्हारे प्रेम में थी
इसी प्रेमवश तुमसे मिलने आई
तुम्हारे फूट चुके सर पे दुपट्टा बाँधा मैंने
जो तुमने मुझे ओढ़ाया था
कुछ ही देर पहले बहुत चाव से
कितना अच्छा होता
एक लाठी मेरे हिस्से भी आ जाती
मैं उसे फूल समझती
कैसे मैंने तुम्हें अपने सीने से हटाया
कैसे तुम्हें अपने बदन से दूर किया
कैसे तुम्हें मैंने नए वस्त्र पहनाएँ
जो तुम मिलने के लिए पहनकर आए थे
फिर कैसे अपने आपको सँभाल पाई
और ज़ोर से चिल्लाई
तुम्हें बचाने के लिए भी पुकारा
उसी निष्ठुर दुनिया को मैंने
जिस दुनिया से डरकर
एक दिन तुम्हारे पास चली आई थी
3. एलर्जी
बचपन में खीर प्यारी थी उसे
आँगन में बैठ थाली भरकर
सुबड़ते हुए खाता था वह
लेकिन फिर अचानक छूट गई
उसकी माँ कहती है
कोई बुरी नज़र ने देख लिया उसे
इस तरह खाते हुए
किसी की हाय लग गई
खीर नहीं खाने का तो
उसकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा
गेहूँ का चारा बैलगाड़ियों में भरने से
सोयाबीन का चारा ट्रकों में भरने से
टीबी ज़रूर हो गई उसे
गाँव के लोग कहते हैं
उसके बाप को भी यही बीमारी थी
अब उसे धूल-मिट्टी और चारे से दूरी बनानी पड़ी
जिनसे बचपन में गहरी दोस्ती थी
लेकिन वह सोचता है
किसी दिन उसे कहीं
मनुष्यों सहित तमाम जीवों से
एलर्जी न हो जाए
नहीं तो कहाँ जाएगा वह
कैसे बसर करेगा
निपट अकेला इस संसार में
4. दु:ख
हम एक दूसरे का मन समझते हैं
आस-पास कोई नहीं होता
जब उससे बात करने वाला
वह मेरे घर झाड़ा-बुहारी करने लगता है
5. संग-साथ
मुझे कोई अफ़सोस नहीं
तुम क्यों चले गए
मैं नहीं चाहता
सागर में लहरें मेरे चाहने पर
उठें और गिरें
सूरज मेरे कहने पर
उगें और छिपें
फूल मेरे कहने पर खिलें
पत्ते मेरे कहने पर हिलें
बसंत मेरे कहने पर
आएँ और जाएँ
इसलिए मैं कहता हूँ
मुझे बिल्कुल अफ़सोस नहीं
तुम क्यों आए और क्यों चले गए
क्योंकि इतना तो
हमारा जीवन साथ है कि
तुम्हें अपना कह सकूँ
तुम्हारा जाना सह सकूँ
6. अँधेरे का फूल
तुमको देखता हूँ
मुझे ऐसा लगता है
जैसे अँधेरे में कोई फूल
खिल रहा है
झर रही है ओस
तुम्हारी काँपती देह पर
मैं उसे आँखों से पी रहा हूँ
परिचय
नाम– विजय राही
शिक्षा– प्राथमिक शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल से, स्नातक राजकीय महाविद्यालय दौसा, राजस्थान से एवं स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय से।
प्रकाशन – हंस, पाखी, तद्भव, वर्तमान साहित्य, मधुमती, सदानीरा, विश्व गाथा, उदिता, समकालीन जनमत, परख, कृति बहुमत, अलख, कथेसर, किस्सा कोताह, नवकिरण, साहित्य बीकानेर, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, डेली न्यूज, सुबह सवेरे, प्रभात ख़बर, राष्ट्रदूत, रेख़्ता, हिन्दवी, समालोचन, अंजस, अथाई, उर्दू प्वाइंट, पोषम पा, इन्द्रधनुष, हिन्दीनामा, कविता कोश, तीखर, लिटरेचर पाइंट, दालान आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेबसाईट्स पर कविताएँ- ग़ज़लें प्रकाशित
पुरस्कार – दैनिक भास्कर प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार(2018), कलमकार मंच का द्वितीय राष्ट्रीय पुरस्कार (2019)
संप्रति – राजकीय महाविद्यालय, कानोता में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत।
मो.नं./व्हाट्सएप नं.– 9929475744
Email– vjbilona532@gmail.com
3 Comments
बहुत सुन्दर कविताएं
प्रणय की उदात्त भावनाओं से भरपूर
ऐसा बचा हुआ प्रेम ही दुनिया को बचाएगा
विजय राही भाई को बहुत बहुत बधाई इन कविताओं के लिए
विजय राही को देख रही हूं, धीरे-धीरे कविता जगत में स्थान बनाते !
इनकी कविताओं में जो दैनंदिन सुख-दुख अंकित हैं वे अपनी सहजता का प्रभाव छोड़ते हैं.
Nice poems