जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

यह विवेक वर्मा की कविताओं के प्रकाशन का पहला अवसर है। उनकी कविताओं से परिचय करा रहे हैं आशुतोष प्रसिद्ध। आज के समय में यह देखना सुखद है कि एक कवि दूसरे कवि को न सिर्फ़ पढ़ रहे हैं बल्कि उनपर अपनी बात भी कह रहे हैं – अनुरंजनी

===================================

साहित्यिक लेखन का उद्देश्य जन सामान्य के जीवन को और बेहतर, और सुंदर बनाने का एक प्रयास है। मानवता को नए सिरे से स्थापित करना, बची हुई मानवीयता का परिशोधन करना, रूढ़ शब्दों के बीच ठहरे हुए जीवन में गति भरना, समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार करते हुए जागृति का नया मंत्र फूंकना- शब्द, कविता और साहित्य का काम है। कई बार ये कर्म इतने जटिल मंत्रजाल में फंस जाते हैं कि उन्हें समझने और समझाने के लिए अलग से किसी विशेषज्ञ के विश्लेषण की आवश्यकता पड़ती है, जहाँ से उस प्रक्रिया पुनः सरल करने का प्रयास किया जाता है किंतु आज कल साहित्यिक धारा में वे लेखक साहित्यिक विरासत के प्रति अधिक सरल और सहज हैं, जिनका सीधा जुड़ाव किसी अन्य विषय से है; बजाय हिंदी के। विवेक वर्मा पेशे से बैंक की जटिल प्रक्रियाओं से जुड़े हैं किंतु भाषा और संवेदना के स्तर पर बेहद ही सरल और संवेदनशील कवि हैं। कविता में भावों का कसाव जितना अधिक और स्पष्ट है, विषय और उनमें व्यक्त समस्याएं उनती ही महत्वपूर्ण। उनकी कविताओं से गुजरते हुए यह महसूस होता है कि जैसे यह किसी गहन आत्मचिंतन और आत्मालाप का परिणाम है। पाठक जैसे स्वयं से ही संवाद में लीन, शांतचित्त अपने भीतर झांक रहा हो। उनमें विषय की विविधता है, स्पष्टता है और सबसे ज़रूरी बात कि आधुनिक होने के दौड़ में भागते मनुष्य के हाथों मरती मनुष्यता के प्रति गहरा आत्मबोध है। विवेक नई पीढ़ी की ज़रूरतों को समझने वाले, उकेरने वाले, संवेदनशील और ज़रूरी लेखक हैं। उन्हें पढ़ना, समझना न सिर्फ़ उनकी कविताओं से गुजरना है बल्कि इस नई पीढ़ी के समाज की समस्याओं के प्रति सचेत व्यक्ति के गहरे अवलोकन को महत्व देना है- आशुतोष प्रसिद्ध

 

1. मैं बचा नहीं पाया

बहुत बारिश होती

तो सोचता थोड़ी सी धूप के बारे में

बहुत धूप होती

तो सोचता जाड़े के बारे में

मेरी कल्पनाएँ

आकांक्षाओं से लिप्त थीं

इतना आधिक्य

कि ऊब गया

और प्रार्थनाएँ करने लगा

कि जल्दी चली जाएँ

ईश्वर ने दिया सब कुछ

मैं बचा नहीं पाया

मुझे गर्मी के लिए

बचा लेनी थी थोड़ी बारिश

और थोड़ी सी ही धूप

बचा लेनी थी सर्दी के लिए

तुम्हें भी बचा ना सका

देखो कितनी बारिश होती है

कीचड़-कीचड़ हो जाता है

 

2. अनुपात और समानुपात

आज से शुरू होने वाला है

मेरे घर के नवीकरण का कार्य

छेनी – हथौड़ी लिए एक मजदूर

दूर देस में खड़ा उसका एक मिट्टी का घर

बना-बनाया एक आलीशान मकान और मैं

चारों अपनी-अपनी व्यथा पर मुस्कुरा रहे हैं।

चार सौ रुपये मेरे हाथ में

और चार सौ रुपये मजदूर के हाथ में

अलग अलग दिखते हैं।

वो इतने रुपये में घर गढ़ता है

मैं इतने रुपये में मन कुढ़ता हूँ।

कमरे में बैठा मैं

पसीने से तर मजदूर को देखता हूँ

अपना माथा पोंछते हुए ठंडे की चुस्की लेता हूँ

पानी गमगीन हो मजदूर को देखता रहता है।

मेरे और मजदूर में बस इतना अंतर है

मुझे गीली मिट्टी खोदकर एक गड्ढा बनाना है

उसे पहाड़ तोड़कर एक रास्ता।

समानता ये

कि दोनों अपना-अपना काम बख़ूबी जानते हैं।

एक दिन मजदूर

निर्माण पूरा कर, बेरोजगार घर लौट जाएगा

और मैं अब भी खोदता रहूँगा

अपने हिस्से की गीली मिट्टी

और खिन्न होता रहूँगा।

 

3. पंचतत्व

मैं पृथ्वी पर

उलटा लटक जाना चाहता हूँ।

मैं चाहता हूँ

मेरे हाथ जमीन पर हों

और पैर आकाश पर।

बादल मेरे पैर के अंगूठे

और माध्यमिका के बीच से गुजरे

चिड़ियाँ बाकी की उंगलियों में

अपना घोंसला बना लें।

और आकाश

तलवे पर लेटकर थोड़ी देर सुस्ताए।

मैं चाहता हूँ

नदियाँ हाथ की उंगलियों के

बीच से गुजरें।

अमेज़ॉन

मेरे हथेली की छांव में लहलहाए।

कि फिर कभी ग़र वो जले

तो उसके जीव

मेरी बाहें पकड़कर पैर पर चढ़ जाएं

और बादलों की सवारी करें।

मैं चाहता हूँ

दूसरे हाथ की उंगलियाँ

खाइयों में अपनी जगह बना लें।

और उंगलियों के बीच की खाई को

पहाड़ अपनी ऊंचाई से भर दें।

गर मैं कुछ नहीं चाहता

तो वो है प्रकृति पर किसी भी प्रकार का वैज्ञानिक शोध

क्योंकि मैं प्रकृति को

किसी किताब की अक्षरशः ज्ञान की तरह

नहीं पढ़ना चाहता।

मेरे बाबा बताते हैं

कि मेरी देह इन्हीं पंचतत्वों से बनी है।

जो मैं इन्हें ही समर्पित कर

पूरी प्रकृति हो जाना चाहता हूँ।

 

4. नए ग्रह की खोज

ग्रंथों की माने तो

बहुत सारा पुण्य करने पर मिलता है

मनुष्य का जीवन

फिर सवाल उठता है

दिन-प्रतिदिन कैसे बढ़ती जा रही है

मनुष्यों की संख्या

उत्तर मिलता है

जानवर विलुप्त हो रहे हैं

और बन रहे हैं मनुष्य

जानवरों में जानवर होने की मात्रा

मनुष्यों में जानवर होने की मात्रा से

बहुत कम आँकी जा रही है।

सवाल आता है

मनुष्य का क्या फिर? वे कहाँ हैं?

मनुष्य समझ गया है

ईश्वर उन्हें स्थानांतरित कर रहा है

किसी अन्य ग्रह पर

जहाँ वह मरेगा नहीं

ज़िंदा रहेगा

और जीवन भर कोसता रहेगा स्वयं को

मनुष्य होने पर

मनुष्यों ने उस ग्रह की ख़ोज शुरू कर दी है

अपना जीवन संतुलित करने के लिए

 

5. स्त्रीलिंग

गीता के सर्वश्रेष्ठ उपदेशों में

एक उपदेश था —

“आत्मा ना तो पैदा होती है

ना ही मरती है।

केवल एक देह त्यागकर

दूसरे देह में समा जाती है।“

गीता शब्द ‘स्त्रीलिंग’ है

स्त्रीलिंग ही

वजह है कि शायद

उसे तथाकथित समाज एक अलग

दृष्टि से देखता है

कितनी अजीब बात है

समाज अपनी क्षमता उन स्त्रियों से नापता है

जो उसे पैदा करने की क्षमता रखती हैं

स्त्री की योनि

मृत्यु पश्चात जीवन देने का

एकमात्र द्वार है

और एक आत्मा को

उसके दूसरे शरीर

तक पहुंचाने का

एकमात्र माध्यम

एवं ‘शक्ति’

सर्वप्रथम ‘स्त्रीलिंग’ है

तत्पश्चात कुछ और।

 

6. तुम किस मिट्टी की बनी हो

जो शरण देता है वही डुबोता है

एक कश्ती अपने भीतर भरे जल से बोली

जो अंदर है और जो बाहर

अगर उन्हें मिलना है तो डूबना होगा

जैसे एक साधु में डूबती है प्रकृति

जैसे एक पागल में डूबती है दुनिया

जैसे तुममें डूबता हूँ मैं

पर तुम मुझमें नहीं डूबती

तो हो जाता हूँ पागल

या हो जाता हूँ साधु

भगत सिंह कहते हैं –

‘प्रेमी, पागल और कवि

एक ही मिट्टी के बने होते हैं।’

मुझे क्षमा करना प्रिये

मैं तुम्हारे लिए बस कविता लिख पाया

काश! तुम और मैं भी

अपने लिए क्रांति कर पाते

तुम किस मिट्टी की बनी हो ?

 

7. भुला दिए जाओगे

तुम मन-भर काम करोगे

हर-रोज़ पोंछोगे पिता के जूते

सेवा-सत्कार करोगे

उनकी नाक ऊँची करने को

हर-एक काम करोगे

पर एक दिन

किसी साक्षात्कार से

ख़ाली हाथ घर आने पर

किसी टूटे हुए भगौने की तरह

भुला दिए जाओगे

लिखने-पढ़ने, आगे बढ़ने में

भाइयों की करोगे मदद

पिता की डाँट

और समाज की आँच से

बचाओगे उन्हें

पर किसी दिन अकस्मात्

एक स्त्री की प्रीत

और दो मीटर भीत के लिए

घिसे हुए चप्पल की भाँति

भुला दिए जाओगे

एक स्त्री से करोगे प्यार

भावनाओं के अंतरिक्ष में

सपनों का स्पेस-शिप उड़ाओगे

स्वाभिमान को बना दोगे

प्रेमिका के गालों का पाउडर

और अचानक किसी सुबह

जाति-धर्म,

आय-समुदाय

तुम्हें पता भी नहीं चलेगा क्यों

और उतारे हुए पुराने कपड़े की भाँति

भुला दिए जाओगे

पूरा जीवन

खुद-से और अपनी क़िस्मत से

जद्दोजहद के बाद भी

बहुत कुछ खो देने

और पा लेने के बाद भी

अनाज खाकर

किसी सेठ के डकार की तरह

जैसे किसान भुला दिया जाता है

चंद रोज़ बाद

जैसे ब्याह के लाई

स्त्री भुला दी जाती है

किसी अन्य के साथ होने पर

जैसे पहला प्रेम भुला दिया जाता है

तुम भी-तुम भी-तुम भी

भुला दिए जाओगे

इस दुनिया में

प्रेम के दुःख

धन के मोह

और देह के सुख को

कोई भी आत्मविश्वास

नहीं काट सकता

तुम्हें पता भी नहीं चलेगा

और-

मरे हुए आदमी की

स्वाँस की भाँति

देह दाह से भी पहले

भुला दिए जाओगे।

 

8. बिना अंगूठे का ईश्वर

मैं भागता हूँ

तरह आदमी के नहीं

न नक्षत्रों के

मन की तरह

और काल के भी नहीं

भागता हूँ

सेलफ़ोन पर भागते

अंगूठे की तरह

खुद को भीड़ बनाकर

अंगूठा दिखाकर

भागते लोगों की तरह

भागता हूँ

दुनिया की ज़मींदारी में

भागता जैसे

हूँ किसान का अंगूठा

मेरा मालिक

बिना अंगूठे का ईश्वर है

 

9. हमारे समय में नाम

स्कूल में होती थी प्रार्थना

‘ऐसी शक्ति हमें देना दाता’

किस भाषा में लिखा गया

राम ने पढ़ा या रहीम ने

कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता

जिसे प्रार्थना याद होती

और जिसे नहीं भी

उनींदी आँखों से

दोनों हाथ जोड़े

हिलाते रहता था होंठ

अंत में राष्ट्रगान पढ़

भागता था कक्षा में

कौन-सी जगह पर

बैठे हैं किस-के बग़ल में –

से नहीं पड़ता था कुछ फ़र्क़

उस समय में

प्रार्थना थी या करते थे वज़ू –

से कोई लेना-देना नहीं था

साथियों के केवल

नाम और चेहरे हुआ करते थे

पता भी नहीं होता था

‘विवेक वर्मा’ केवल एक नाम नहीं बल्कि

जातीय और धार्मिक पहचान है

जिसकी एक उपयोगिता है।

कि इस नाम में

केवल अपनी पहचान नहीं – बल्कि

बाप-दादाओं की

निरंकुशता लेकर घूम रहा हूँ

जिसका कोई पश्चाताप नहीं।

अब, इस समय में

नाम की प्रासंगिकता

केवल पहचान तक सीमित नहीं है

नाम से लोग

ना जाने कैसे जान लेते हैं

मैं एक आतंकवादी हूँ

एक दक्षिणपंथी हूँ

या एक वामपंथी

अगर कहूँ

कि मेरा नाम ‘विवेक’ है

तो वे पूछते हैं —

‘पूरा नाम क्या है?’

अगर मैं पूरा नाम ना बताऊँ

तो मैं उनके लिए कोई नहीं होता।

होता हूँ
तो केवल एक चेहरा

निष्प्रयोज्य

वहीं एक चेहरा और एक नाम

जिसे वे मेरे चेहरे और नाम का

विलोम मानते हैं

इस सदी का

सबसे प्रयोगशील नाम और चेहरा है

जिन्हें कुछ भी बनाया जा सकता है।

हे दाता!

अगर यह मेरी प्रार्थनाओं का कुल जमा है —

तो मैं अपनी सभी संवेदनहीन प्रार्थनाओं के लिए

तुमसे क्षमा माँगता हूँ।

 

10. अनुभूतियाँ

कोई भी एक जगह

दूसरी जगह का स्थान नहीं घेरती

वे अपनी मर्यादा से बंधी होती हैं

बुरी अनुभूतियाँ

अच्छी अनुभूतियों के समक्ष नहीं आती

वे आदमी के बुरे दौर का इंतज़ार करती हैं

जैसे प्रेम में क्रोध

पर अच्छी अनुभूतियाँ

बुरी अनुभूतियों के मध्य प्रकट होती रहती हैं

जैसे निरा अंधेरे में जुगनू

किसी राह पर चलते हुए

मैं अकेला नहीं होता

कहीं और पहुँच जाने का ख़्याल

मेरे साथ-साथ चलता है

और वे पीड़ाएँ तथा इतिहास भी

जिन्हें मैं पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहता

वे वहीं होते हैं

ठीक मेरे पीछे, मेरा पीछा करते हुए

अपने आप से भागता इंसान

एक वक़्त पर अपने वर्तमान से अलग हो जाता है

एक पैर भविष्य और एक भूत में

रखकर खड़ा वह केवल मृत्यु की प्रतीक्षा करता है

उम्मीद ताँत का एक धागा है

जिसे खींचने पर वह टूटता नहीं

अपितु और लम्बा होता जाता है

जीवन के दोनों छोरों पर इसे कसकर बांधकर

दुःख के कितने ही कपड़े सुखाए जा सकते हैं

परिचय

नाम― विवेक वर्मा, निवासी- गोरखपुर, उत्तर प्रदेश / गणित से स्नातक और हिन्दी से परास्नातक की शिक्षा / वर्तमान में sbi में कार्यरत हैं। कविता लिखने के साथ अनुवाद भी करते हैं कुछ अनुवाद वेबपोर्टल पर प्रकाशित भी हैं।

फोन नम्बर: 9621333028

ईमेल: onlymevk@gmail.com

Share.
Leave A Reply

Exit mobile version