जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

वियोगिनी ठाकुर कविता व कहानी दोनों के लिए जानी जाती हैं। आज उनकी 18 कविताएँ प्रकाशित हो रही हैं, जो कि संख्या व विषय दोनों के लिहाज़ से समय की माँग करती कविताएँ हैं, जिनमें मनुष्य प्रेम के साथ-साथ प्रकृति प्रेम भी शामिल है, बल्कि इन कविताओं में कई बार प्रकृति प्रेम ही मनुष्य प्रेम से ऊपर दिखता है। आप भी पढ़ सकते हैं- अनुरंजनी

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1. करौंदे के फूल

करौंदे के फूल कभी चखे हैं तुमने 
पूछना चाहती हूँ इन दिनों तुमसे 
तुम पूछो तो मैं कहूँगी
 
मैंने चखा है 
मेरा तुम्हारा संबंध 
ठीक करौंदे के फूलों जैसा
खटास और नरमाई से भरा 

अपनी अनोखी गंध में सराबोर
कड़ी धूप में 
और अधिक उजलेपन की डूब से भरा

वही जो अदृश्य है मेरे तुम्हारे बीच
जिसे तुम कभी नहीं दोगे कोई नाम
मगर मैंने उसको नाम दिया है
करौंदे के फूल।

  1. बबूल वन

कितना हरा है
मेरे भीतर पसरा यह बबूल वन
जो कभी नहीं सूखता
कितना तो कँटीला

बेशक यहाँ फुदकती हैं गौरैयाँ
सैकडों गिलहरियाँ दौड़ लगाती हैं
मगर तुम यहाँ कभी मत आना 
मत रखना इस बीहड़ में पाँव 

और अगर आ ही जाओ कभी गलती से 
तो निहारना किसी फूलों गुँथी बेल की ओट तले
कि कैसे तपता है ये जंगल 
कितने ऊपर तक चढ़ आता है सूरज
रहता है कितनी प्यास से भरा

कैसे झरता है हर कातिक इसमें पीला पराग
और धरती की चटखी हुई दरारों में भर जाता है

और किस तरह चुपचाप देखते रहते हैं
यह उत्सव
खेतों में खड़े खजूर ।

  1. बैलगाड़ियाँ

उन दिनों ऑटो नहीं होते थे देहातों में
अब की तरह 
और मेरे पिता का गांव जो दो शहरों को 
आपस में जोड़ने वाली मुख्य सड़क के ठीक
 बीचों-बीच बसा हुआ है यहाँ की तरह 
वहाँ टमटम भी नहीं चला करते थे 

सुदूर देहात के उस गांव में 
जहाँ मेरी माँ का जन्म हुआ 
और ठीक छब्बीस बरस बाद नानी की 
उसी कोठरी में मेरा भी

मुख्य शहर से पचास किलोमीटर उत्तर में
बसे उस अशिक्षित और अलक्षित गांव में 
अब से तीस बरस पूर्व
 बैलगाड़ियाँ चला करती थीं भरपूर 
इतनी कि अचरज होता है
उस अनोखे संसार का
हिस्सा  रही हूँ मैं !
वह किसी और के जीवन की
या किसी और जीवन की बात नहीं है 

गांव से किसी व्यक्ति का पलायन 
किसी बेटी की विदाई जहाँ समूचे गांव और
वातावरण को सामूहिक रुदन से भर देती थी 
जल बहता था ऐसे कि मन के ताल हरे हो जाते थे

अलगाव और पीड़ा  का बोझ 
नववधुओं और पीहर से लौटती बेटियों के संग-संग
देर तक ढोते थे 
कच्चे-रास्ते चरमराती बैलगाड़ियों के संग  
पीड़ा के निशान छूटते जाते थे पीछे कच्ची धरती पर
कांस की झाड़ियों में उलझ जाते थे वस्त्र

विलाप देर तक बना रहता था पुलिया और
पीछे छूटे लोगों के बीचों-बीच 
धूल उड़ाता था बिछुडन की 
आँखें कसकती रहती थीं देर तक 
ज्यों हो रेत और अंधड़ से भरी 

हूक उठती थी अंतर में खोलते हुए 
नानी के बनाये आलू-पूड़ी-अचार
सौंफ की सुवास से भरी हुई कचौड़ियाँ
लौटने के दिन 
जिन्हें बनाने में वे भोर से ही जुट जाती थीं

बस-अड्डे के प्रतीक्षालय में
जिसे खाती थी बस की राह देखते हुए
देखते हुए हमें छोड़कर
वापस गांव की ओर लौटती हुई बैलगाड़ी 

बबूल और खजूर के मोड़ पर गुजरते
पलाश-वन की सीमारेखा से दाहिने मुड़ते हुए 
देखती रहती थी जिसे तब तक 
जब तक ओझल नहीं हो जाता था 
आँखों से उसका अंतिम चिन्ह ।

  1. अयोग्य

ब्याह मेरे लिए नहीं है
यह माँ को नहीं समझा पाती 
मेरे इनकार पर
कितनी बार सुनती आई हूँ उलाहना 
कहते हुए पिता से यह –
यह तो आप ही करेगी 
यह कहकर अनंतकाल से घायल मेरे मन में
वे एक कील और ठोंक देती हैं 

लहू बहता है हृदय से 
जो उन्हें नहीं दिखता
बरसों से रिसते रक्त का रंग 
अब लाल से काला हो गया है

घाव को हवा लगती है 
तो उसे आड़ नहीं देती
हवा को ही सौंप देती हूँ
कि लो, घेर लो इस रक्त-माँस को
मधुमक्खी के झुंड-सा चट कर जाओ
जीवन का बचा-खुचा शहद

ऐसा विरक्त मन लेकर वह बात भी कैसे सोचूँ ?
कैसे कहूँ यह कि –
विकल्पहीन हूँ मैं, वंचितों से भी वंचित 

मेरे  लिए 
किसी का हाथ थाम लेने से सरल है छोड़ देना 
बिना थामे ही 
फिर सरल होना इतना दुरूह क्यों है !
इतनी सीधी बात भी समझा नहीं पाती हूँ
कोई नहीं बताता कि सरल होकर जिया कैसे जाये 
चला कैसे जाये इस पत्थर दुनिया में  बिना अवरोध ?

मैं नहीं समझा पाती कि 
ब्याह मेरे लिए इतना पवित्र है 
कि वह मेरे लिए नहीं है 
जैसे देवता मेरे लिए नहीं हैं 
मनुष्य मेरे लिए नहीं हैं 
प्रेम मेरे लिए नहीं है

ऐसी अयोग्य हुई हूँ मैं
कि कुछ काम नहीं आया मेरे 
न सौंदर्य, न सरलता, न भोलापन
प्रेम से भरा होना 
बने रहना, बचे रहना मनुष्य 
कुछ भी तो नहीं !

  1. संकोच

संकोच 
दूब की तरह उग आता है
कहीं भी, कभी भी 

है वैसा ही जीवट और दूध से भरा 
जड़ जिसकी मजबूत है इतनी 
कि उखाड़ते हुए हथेली दुख जाती है
जो बिना बीज के भी 
उग आता है हर बार

जब से जन्मी हूँ 
वह भी जन्मा है भीतर
छाया है बार-बार इस तरह
कि उसने पूरा ढक लिया है मुझको 

मेरे रक्त में संकोच के फूल तैरते हैं
जो उभर आते हैं किनारों पर असंख्य बार

मैं उससे पीड़ित भी हूँ 
और उसकी आभारी भी रही हूँ
पीड़ित इस कारण 
वह मुझमें इतना रहा है कि 
कितना कुछ जरूरी छूट गया मुझसे
मेरी कंपकंपाती देह और कंपकंपाते स्वर से
कई बार मुझे वह समझ लिया गया
जो कि मैं नहीं हूँ

कई बार कह नहीं पाई  समय पर अपनी बात
और कई बार ठीक ढंग से नहीं पाई हूँ
कोशिश करके भी 
नहीं कर पाई हूँ कितना कुछ ऐसा 
जो करना चाहती थी  

कितनी ही बार
आँखों, हाथों, होंठो तक आकर लौट गईं इच्छाएँ
कितना कुछ नहीं कर पाई 
जो करना ही  चाहिए था मुझे

आभारी उससे भी अधिक रही हूँ 
जितना उसकी सताई हुई हूँ
रही हूँ इस कारण कि
उसने कितने अनर्थ से बचाया मुझे 
पाप से बचाया, बचाया अपराधी होने से 
कवच की तरह रक्षक हुआ है वह कितनी बार
उस ढाल के नीचे साँस लेती हुई मैं बनी रही पवित्र 

एक प्रेम में ही वह छूटा है कुछ क्षण को
पूरी तरह विलग हो गया है मुझसे 
वह जो नींद-जाग का भी संगी हुआ है मेरे।

6. दुख के दिन

दुख के दिन दरिद्रता के भी होते हैं 
ज़्यों भरे हैं भीतर तक मगर कितने खाली 
उँगलियों के पोर से झाँकता है रीतापन 
गले हुए रेशों में लिपटा हुआ 

फूट गये फूँस के छप्पर से ज़्यों झाँकता हो उजाला 
उजाले से सहजा आँखें चौंधिया जायें 
और आदमी हो जाये अंधता का शिकार 
ऐसे ही हो गई हूँ अंधी 
जैसी भरी हूँ तैसी  ही हूँ खाली 

ज़्यों टप-टप झरते हैं भर दुपहरी 
पीले कनेर के बासी फूल भरे जल में
तैसे ही झरता है दुख 
तैसे ही खिल जाता है भोर में 
पीड़ाओं के फूल नहीं देखे तो मुझे देखो
कहती हूँ चैत की मदभरी हवा से 
कोयल-सा नहीं कूक सकती 
पर पुकारती तो उसी को हूँ 
जिसे मैं याद ही नहीं हूँ न ही मेरा होना 

भाड़ में फूटी खील के जैसे खिल गये
तन की ओर लौटती हूँ, देखती हूँ   
रक्त की बूँद से भी है जो रिक्त 
ऐसा खिले दाने सा  श्वेत कि
छूट गये हैं सब आवरण 

ये प्रेम और पीड़ा के चरम दिन हैं 
जो उसने मुझे दिये हैं 
या हम दोनों ने ही 
या कुदरत ने ही अभिशप्त बना भेजा है
स्त्री जो हूँ
यह सोच पाने की मनस्थिति तो नहीं फिर भी
मनस्थिति नामक पहाड़ को फिर लाँघ जाना चाहती हूँ 
हर बार की तरह 

और लौट आना चाहती हूँ सम पर
चाहती हूँ फिर से छानी छाना 
जिसकी छाँव तले बीत सकें ऋतुएँ
जिस पर झर सकें चैत महीने में 
फिर मेरे प्रिय नीम के फूल ।

  1. जीवन अभिशप्त

कितने विकट हैं मोह के बंधन
समय के सिवा 
जिन्हें कोई काट नहीं पाता

जिनकी काट ढूँढने में लहूलुहान है
देह का अंग-अंग 
पीड़ा में लथपथ 
अँधेरी सुरंग में मन मुक्ति का मार्ग ढूँढता है 
ढूँढता है उजाले की एकलौती किरण
भटकता है बेसब्र 

नहीं जानता 
प्रेम की तृष्णा ने कैसे-कैसे जख़्म दिये हैं
उसकी भटकन में छली गई हूँ

एक रोज थक जाऊँगी जब 
पहले ढीले होंगे 
फिर किसी रोज स्वतः ही टूट जायेंगे 
पिंजरे के सारे बंध !

मुक्ति तब भी नहीं मिलेगी 
मन भटकेगा फिर एक बंधन को
ढूँढ लेगा मोह का मार्ग
फिर पहले-सी विकट प्यास से भर जायेगा

जीवन ऐसे ही बीतेगा 
हाँ, बीतेगा, हाँ, बीतेगा, हाँ, बीतेगा 
जीवन ऐसे ही बीतेगा अभिशप्त !

  1. कितना मुश्किल है

प्रेमी ही नहीं 
किसी वृक्ष को गले लगाने से पहले भी 
देखना पड़ता है चारों-ओर पैनी दृष्टि से 
कि कोई देख तो नहीं रहा 

जो देख ले तो सहजता विदा हो जायेगी 
अगले क्षण  उसकी आँखों से 
और उभर आयेगी उनमें कुरूपता
उभर आयेगा संशय 
चौकन्ना हो जायेगा वह तुम्हारे प्रति 
सोचेगा यह क्या नई बीमारी है 
जिससे वह परिचित नहीं है 

बहुत संभव है
वह चार लोगों को बताये जाकर 
चुटकुले की तरह 
कि तुम पागल हो गये हो
नहीं तो भला वृक्ष को कौन गले लगाता है 
आदमी की तरह !

प्रेम की बात कहना और जताना प्रेम
कितना दूभर है मनुष्य ही नहीं पेड़ से भी 
कितना मुश्किल है किसी फूल को सहलाना 
उसी कोमलता से 
जैसी उसके पास है  

तुम्हारे ठीक सामने बैठा हुआ कोई व्यक्ति
तब नहीं चौंकेगा
जब तुम उसे तोड़ डालोगे एक झटके में 
चौकन्ना हो जायेगा तब 
जब तुम उसे छुओगे आँखों से, हाथों से
दुलारोगे और  प्रेम से भर जाओगे। 

  1. लाँछना वन में 

मनुष्यों से अधिक
मुझपर पशुओं ने विश्वास किया
पशुओं से भी अधिक वृक्षों ने 
उन्हें मालूम था मैं उन्हें प्रेम करती हूँ

प्रेम की बात पर उन्होंने मुझे दुत्कारा नहीं
अयोग्य नहीं ठहराया, नहीं बताया अछूत
नहीं कहा प्रेमी की भाँति 
अगर एक हुआ होता हमारा नगर 
तब भी नहीं हुई होती तुम मेरी प्रेयसी 

मनुष्यों के संसार में
प्रेम के लिए रही मैं ऐसी अपात्र 
और लाँछनों की अधिकारी 
कितने धारण किये हैं मैंने कंटको के हार
लहू बहाया है दशकों तक 
कितना तो प्रेम किया है रे !
इसी जीवन में

फिर नहीं हो सकी हूँ 
अबतक उससे पूरी तरह रिक्त
जबकि भूख में उसी को बनाया है भोज्य
प्यास में उसी को पिया है जल की भाँति

फिर भी 
इतने लाँछनों से भरा रहा यह जीवन
कि लाँछना-वन में करती हूँ निवास ।

  1. धूल का फूल

कितना मुश्किल है
मन का संतुलन साधे रहना
बिना छलकाए 
प्रेम से भरे मन को संग-संग लिए फिरना

दुनिया को खबर लगाए बिना
हँसना-रोना, बोलना सबसे
समाना भीड़ में 
और उसे चीर कर साबुत निकल आना 
बिना दाग लगाए देह-मन पर 

बचे रहना हर बार तुम्हारे लिए
बावजूद इसके कि पारदर्शी हूँ
कोई भी देख सकता है
मगर कोई भी नहीं देखा करता 
धूल का फूल

पीड़ा तो यह
कि नहीं देखते हो तुम भी पलट कर 
नहीं छूते हो 
नहीं करते हो मुझे माटी से मानुष।

  1. किसी परिदृश्य में नहीं हूँ

मैं किसी परिदृश्य में नहीं हूँ
सिवाय पीडाओं के 
इन लपट और अगन से भरे दिनों में
किसी आँख को नहीं है मेरी प्रतीक्षा 

जबकि मैं पीड़ाओं की आश्रयस्थली हो गई हूँ
वे विचरती है मुझमें, दौड़ती भागती हैं 
हिरणियाँ बनी फिरती हैं 
जैसे मैं उनका जंगल हूँ

उनके लिए खेत-खलिहान हो गई हूँ 
जिसमें बोई जा सकती है कभी भी मनचाही फसल
और काटी जा सकती है किसी भी अवसर पर

खेतों में चुभते हैं नंगे पांव 
गेहूँ के पौधों के सूखे हुए ठूँठ

मन हरियाली ढूँढता है बीहड़ में 
बबूल और खजूर की छाँव तले 
जो अब कहीं नहीं दीखती 

जबकि पलाश-वन कबका जलकर बुझ चुका है
छाँव नहीं मिलती है अब 
झूठ, पाखंड और आडम्बरों भरी इस दुनिया में 
मन को पोसने की कला मन अब भूल गया है ।

  1. कितनी अनगढ़ हूँ 

ये दुनिया सच बोलने नहीं देती 
और जीवन के इतने वसंत देखकर भी 
झूठ बोल नहीं पाती हूँ सलीके से 
कितनी अनगढ़ हूँ झूठ को गढ़ने में !
बोलते हुए सोचने लगती  हूँ हर बार 

यूँ मेरे झूठ बहुत नन्हें-से हैं, ऐसे
जिनमें किसी और का नुकसान नहीं है सिवाय मेरे 
जिन्हें बोलती हूँ 
ताकि बची रहूँ सवालों के जंजाल से 
मेरे लिए झूठ सीखना दुनियादारी सीखने जैसा है

कभी हँसती हूँ यह सोचते हुए
यह संसार मुझे और क्या सिखा सकता था ?
सत्य की चमकती, लपलपाती तलवार 
तो नहीं थमा सकता था हाथों में 
वह जो उसके पास है ही नहीं !

जानती हूँ संसार में साँस लेने के लिए 
आवरण भी जरूरी है
और सच के पास कोई आवरण नहीं हुआ करता 
निरावरण है वह इसीलिए मुझे प्रिय भी 
वह मेरी आत्मा का संगी !

फिर भी बोलती हूँ जब-जब
झूठ से मन झुलसता है 
कालिख लगती है उसपर
जिसे देखती रहती हूँ हाथ पर हाथ धरे 

सोचती हूँ  जीवन के विकट क्षणों में 
कैसी अभिशप्त होती हूँ वह करने के लिए 
जो कभी नहीं करना चाहा 
जिसे करते हुए हर बार मन मुरझा जाता है

मुझे मेरे मन के लोग क्यों नहीं मिलते 
जिनके साथ सहज रह सकूँ
या शायद जिनके साथ सहज रहा जा सके
ऐसे लोग संसार में अब दुर्लभ हैं !

मैं जो ऐसी पस्थितियों से बचाती आई हूँ दूसरों को 
स्वयं को कभी नहीं बचा पाती 
जीवन ऐसे क्षणों में कैसी चुनौती हो जाता है 
इसे वे नहीं जान सकते 
जो ऐसी स्थितियों में डाल देते हैं दूसरों को 

यह कितना दुखदायी है कि यह दुनिया 
निरे सत्य के साथ जीने नहीं देती 
वह ऐसे हर व्यक्ति की हत्या कर देती है 
करती ही रहती है
उस तमाम तरीकों से बार-बार
जितने भी उसके पास हुआ करते हैं।

  1. मोह

दिसंबर में उतनी धुँध नहीं घिरती
जितना हृदय पर मोह छाया रहता है
जबकि मैं मुक्त हो जाना चाहती हूँ उससे

होना चाहती हूँ झरने के जल जितनी साफ
नीला आसमान होना चाहती हूँ प्रेम में
रहे जिसमें चिड़ियों को भी जगह
और कपास के फूलों के लिए भी 
मिलती रहे हवा, मिलती रहे धूप, मिलता रहे जल

जानती हूँ बीत गये प्रेमी को
कोसने से नहीं छूटता है वह
मन फिर भी उससे बँधा ही रहता है 
जब तक कि समय काट नहीं देता 
अपने दाँतो से वह डोर

छल-कपट, उपेक्षाएँ, क्रूरताएँ, कठोरताएँ
मानवता  विरोधी यह सब हथियार भी
व्यर्थ हो जाते  हैं एक समय
जब वह घेरे होता है मन को अमरबेल की भाँति 

होता है ऐसा ढीठ, ऐसा हठीला, ऐसा पिपासु 
कि बूँद भर भी जल नहीं छोड़ता जीवन में 
जब तक कर नहीं देता है पूरी तरह रिक्त

यह जानती हूँ
जानती हूँ इस कारण भी कि
इसी जीवन में ऐसे कितने अवसर आये हैं
जब मैं उसके लिए नहीं
उससे मुक्ति के लिए छटपटाई हूँ

मगर वह नहीं छूटा  
नहीं छूटा है
न ही काँसे की तरह मन को माँजने से
न ही काली अँधेरी रातों को जागने से 

प्रेमी को छोड़ 
उन पाखियों के बारे में विचारने से भी नहीं 
जिन्हें दिन में दिया करती हूँ चुग्गा

न ही उनको
जो जमुना के जल में 
अधगिरे वृक्ष पर बैठे होंगे समूह में असंख्य
ठिठुरते होंगे दिसंबर की बर्फीली नंगी रातों में
जल में झिलमिला रही होंगी
 जिनकी सफेद परछाईंयाँ।

14. तुमसे प्रेम करके

तुमसे प्रेम करके मैं सुंदर हो गई हूँ
कहा करते हो तुम 
मगर तुम यह नहीं जानते
प्यार में इंसान सिर्फ सुंदर नहीं हुआ करता

उन दिनों जब नहीं मिलते हो तुम मुझे
वे दिन कैसे बीतते हैं तुम नहीं जानते
कितना कुछ है जो गुजरता है प्रेम से होकर

पलाश-वन में अब नहीं करती प्रतीक्षा 
इसी लोक में पुकारती हूँ तुम्हें 
अंधकार की चादर तले
पुकारती हूँ ऐसे कि नाम नहीं लेती हूँ 
जानती हूँ तुम मिलोगे नहीं 
और पुकारते ही कुछ जाग जायेगा मुझमें

देखा करती हूँ तुम्हारे प्रिय रंग आकाश में
टकटकी बाँधे सजल नेत्रों से
देखना वह इंद्रधनुष भरी आँखों से 
क्या तुमको पुकारना नहीं है !

इतनी तड़प है भीतर कि खो देती हूँ स्वयं को
ऐसी है चाहना कि बतलाई न जा सके
ऐसा आवेग कि बहती ही जाती हूँ 
मगर तुम तक तब भी नहीं पहुँचती !

कितनी है अगन और कितना जल 
इस अभागे हृदय में तुम्हारे लिए
मैं नहीं बतला सकूँगी इस समूचे जीवन में
हजारों बार यह दुहरा कर भी 
कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ
इतना प्रेम
जिसकी माप संभव नहीं है!

  1. पीड़ाओं के प्रेत

स्त्री जितनी जल्दी जवान होती है
उतनी ही जल्दी ढल जाती है काया 
बता देना चाहती हूँ तुम्हें
सत्यानाशी के रास्ते से गुजरते हुए कि

सबसे मीठी हवा के बीच झर जायेंगे वे फूल 
जो कुछ दिनों पहले सबसे अधिक कोमल थे 
और भारहीन तितली के नाजुक पंखो-से
बिखर जायेगी पंखुड़ी-पंखुड़ी 

रक्त में सने काँटे-सी चुभती है यह रात 
हर रात, कल की और पिछले कल की भी
और उससे भी कई-कई दिन पहले की 
मुँह बाये खड़ी है समक्ष
निविड़ एकांत में उठ बैठते हैं सहसा 
कलेजे से लगकर सोये पीड़ाओ के प्रेत

और कर लेते हैं अबोध प्रेम के 
शावकों का भक्षण 
चरते हुए नरम दूब जो नहीं देख पाते हैं
अपनी भोली आँखों से 
मृत्यु का चरम क्षण 
और उनका ग्रास बन जाते हैं

मेरे भीतर जन्मते हैं दोनों
हर अर्धरात्रि घटता है यह रक्तरंजित दृश्य
यह जो इतना दैनिक है 
कि मैं इसे अधूरा छोड़ देखती रहती हूँ
समय किस तरह भोगता है मुझे 
कैसे गुजरता है जीवन का हर दिन 
देखती हूँ निरावरण होकर
कि किस तरह बनते और छूटते जाते हैं
भीतर-बाहर उसके चिन्ह

दृश्य, स्वप्न, कल्पना, उम्मीद, अवसाद, प्रेम 
और बाँकपन की सबसे नरम स्मृतियाँ भी 
पाकड़ के नवजात पत्तों-सी 
सुकोमल और तोतारंगी 
पीछे छूट रही हैं 
और छूट रहा है स्मृति-वन भी 
जिसने मुझे जीवन से भरा 
और गहरे मृत्युबोध से भी

किस तरह गुजरती है जीवन की रेल 
सुनाई पड़ती है उसकी 
धड़-धड़-धड़़-धड़-धड़-धड़

मुँदी आँखों में सिर्फ़ एक चाहना जागती है 
जबकि मेरे पास अब कोई गुलाबी गद्य नहीं है
जो प्रेम और उम्मीद से भरे 
और काट सके अवसाद के पारदर्शी और घने जाले 
फिर भी  हूँ ऐसी मोह से भरी कि चाहती हूँ
सूखे पपड़ाये होंठों पर गिरे वर्षा की एक बूँद 
फिर भले मर जाऊँ प्रेम की प्यास लिए समूची !

  1. वर्षा में मिलूँगा तुमसे

वर्षा में मिलूँगा तुमसे 
तब क्या कहोगी मुझसे
क्या करोगी बतलाओ ?

और जो मिल गया किसी रोज
तुम्हारे प्रिय माह भादों में
जब उफनती होंगी नदियाँ
बहते होंगे परनाले 
ठीक तुम्हारे हृदय की तरह
जब जल तोड़ रहा होगा सब तटबंध 

तब मिलूँगा तुम्हारे मन 
और तुम्हारी आँखों के जल से प्रथम बार
चूम लूँगा तुम्हारा अनछुआ कपाल 
तुम्हारी रक्तवर्णी ग्रीवा

तब क्या कहोगी मुझसे
क्या करोगी बतलाओ ?

तब क्या तुम भी दोहराओगी मुझको
कितने आग्रह से पूछा था तुमने एक दिन
पूछा था बारम्बार
कैसी तो मनुहार से 

सुनकर मैं सिमट गई थी स्वयं में 
लाज से आरक्त देह लिए
मुख से कहाँ कुछ कह पाई थी प्रिय! 
फूलों लदी डाल-सी दोहरी हो गई थी

तब भी, जब तुम हटाते रहे
लाज के आवरण
उतारते रहे रेशा-रेशा
पुकारते हुए मेरा राशिनाम
कहते हुए यह
मुझसे लजाती हो नवश्री ! 
मुझसे !
तब भी, 
जबकि तुम्हारा मुझसे अपना कौन !

तब कितने ही पुराने चलचित्रों के दृश्य 
उभर आये थे तरल नेत्रों में
जिनमें मैं हुई थी कोई बंग नायिका 
और तुम हुए थे मेरे नायक !

यह दृश्य आँखों में कितना साफ दीखता है
जैसे किसी पूर्व जन्म में जिया हुआ कोई दिन
फिर इस जीवन में उतर आया हो 
वैसा ही सजीव

जिसमें वर्षा में भीगते थे हम संग-संग
और काँपकर दौड़ पड़ते थे बारम्बार
मौलश्री की छाँव तले 
मैं तुम्हारे हाथ थामे देखती थी
चहुँचोर बिखरा हुआ वर्षा-वन 
माटी और स्वेद से सनी देह लिए उतरती थी तुममें 
वर्षा में ही खोलती थी प्रथम बार सब रहस्य 

और यह भी, कि
एक-से नक्षत्र में जन्मे थे हम 
गंडमूल का शाप लिए

जन्मते ही
कैसी विपद लेकर आये थे स्वजनों पर
यह कहकर हँसते थे उस रोज
सिर पर झरते मौलश्री के 
फूलों-सी उजली हँसी बिखेरते
होड़ लगाते उन नन्हे धवल सुवासित पुष्पों से।

  1. साझी देह-गंध

देह से गंध फूटती है यों
मानो यह मेरी नहीं तुम्हारी है
ऐसी साझी है हमारी कि
अपनी ही देह-गंध से बावरा हुआ जाता है मन 
सहा नहीं जाता स्वयं को 
ऐसी कस्तूरी मृग-सी हूँ उन्मत

जबकि तुम कोसों दूर हो
इतने कि कितनी नदियाँ, पर्वत और
वनखंड पार करने पर
तुम्हारा नगर आयेगा यह भी नहीं जानती !

रुत बदल रही है प्रिय! 
फिर से आने को है हमारे मन का मौसम  
मगर इन आँखों से
जल बहने का कारण नहीं बदलता

फिर फूलेंगे टेसू के फूल 
और मैं पलाश-वन को देखूँगी भरे मन से
तुमको फिर नहीं देख पाऊँ इस बार 
और वे खिलकर धरती पर बिखर जायेंगे 
बीत जायेगा इस बार भी वसंत 

स्मृतियों के दाह में जलता हृदय लिए फिरूँगी 
प्यासी ऐसी कि 
रूँधे कंठ से तुम्हारा नाम भी नहीं उच्चार पाऊँगी 
सुनूँगी कोकिल के बोल और
अपने अभिशप्त जीवन पर रोऊँगी
न मेले में मिल सकूँगी  तुमसे बन-ठन कर
न ही किसी अरण्य में खोंसकर कुरक में वनफूल 
फिरूँगी सीने में विदग्ध  प्रेम की आँच लिये 

वर्षा, ग्रीष्म
शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत
आते-जाते हैं संगी !
विरह का यह मौसम बीतता ही नहीं 
न ही मुरझाते हैं इसके फूल 
खिले रहते हैं तब तक, जब तक बना है मानुष !

काया के फूल मसान के होने तक 
कामनाएँ नहीं झरा करती 
न ही मरता है प्रेम के लिए तड़पता 
भूखा-प्यासा घायल मन! 

18.  इतने अच्छे क्यों लगते हो

तुम मुझे इतने अच्छे क्यों लगते हो
क्या इसलिए कि तुम्हारे चेहरे का
सहज भोलापन मुझे भाता है
या इसलिए कि तुम्हारे भीतर बह रही
भावनाओं की निर्मल नदी में हो रही
कल-कल,छल-छल 
बहुत साफ सुनाई देती है

या फिर इसलिए
कि उस जल में बहाये जा सकते हैं
कितने ही ताजे कनेर के फूल 

मगर  यह प्रेम नहीं है 
कतई नहीं!
यह मेरी वह उत्सुक आँख है 
जो संसार की इस असभ्य भीड़  में
तलाशती रही है मनुष्यता 

वही जो मुझे तुममें दिखलाई पड़ती है
तुम्हारे भीतर का उछाह 
मुझे आकर्षित करता है

ठीक वैसे ही, जैसे सागर की लहरें
टकराती हैं चट्टान से
और हम देखते हैं उसे मंत्रमुग्ध आँखें बाँधे
तुम्हारा जलना 
और उतनी ही तीव्रता से बुझ जाना भी
यह कितना सुंदर है !
किसी बच्चे सा सहज भोलापन लिए 

या शायद सबसे अधिक यह, कि
मुझे खींचती है तुम्हारे भीतर की सरलता 
क्योंकि मुझे सरलता से प्रेम है
तुमसे नहीं है।

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