जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

हम अक्सर बड़े लेखकों से बातचीत करते हैं, पढ़ते हैं. लेकिन आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं बातचीत एक युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर से, जो भूतनाथ के नाम से भी लेखन करते रहे हैं. आईआईटी दिल्ली से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके जिसने लेखन को चुना, हिंदी में लेखन को. उसका पहला उपन्यास हार्पर कॉलिन्स से छपा- अल्पाहारी गृहत्यागी. सुपर 30 के शहर पटना में आईआईटी की तैयारी करते लड़कों के सपनों को लेकर. सर्वान्तेस के उपन्यास ‘डॉन किहोते’ की शैली में लिखा गया वह उपन्यास हिंदी में अपने ढंग का अलग प्रयोग है, अछूता विषय है. यह अलग बात है कि सर्टिफिकेट जारी करने वाले मठाधीशों ने उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि प्रचण्ड का हिंदी में होना ‘आउटसाइडर’ की तरह है. यह दिलचस्प बातचीत भैरवी चटर्जी ने की है, जो खुद लेखिका हैं, लेकिन गुमनाम रहना चाहती हैं. अपने लेखन को भी सार्वजनिक करने से गुरेज करती हैं. अब बातचीत- जानकी पुल.

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भैरवी : आज फिर वही जिरह शुरू करते हैं जो हम तुम सालों से करते आये हैं। जानकीपुल से पूछा गया है कि तुम हिन्दी में क्यों लिखते हो? देखें आज कहाँ से इब्तिदा करते हैं जनाब!

भूतनाथ : याद है जब ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ आयी थी, तब बम्बई के एक नामी अखबार ने हमसे सम्पर्क किया था, और यही सवाल पूछा था। तब हमने कहा था कि इसलिये हिन्दी में लिखा क्योंकि हिन्दी में लिख सकता हूँ, उर्दू आती तो उर्दू में भी लिखता। बेचारी रिपोर्टर ने पूछा – अंग्रेजी में क्यों नहीं?

भैरवी : हमारी फूटी किस्मत, हमारी अंग्रेजी किताब को कोई अच्छा प्रकाशक नहीं मिला। अब तो मान लो कि इसी दुख से तुमने हिंदी में लिखना शुरू कर दिया।

भूतनाथ : जैसा आप सोचे। फिलहाल हिन्दी में लिख रहा हूँ, कभी कभार प्रतिलिपि में या जानकीपुल पर छप भी जाता है। आपने तो जैसे कसम खायी है कि केवल गरीबों और अनपढों के लिये लिखेंगी और वही पढेंगे।

भैरवी : कोई पढे न पढे इससे कहानीकार पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये। मैं तो इसके लिये कोशिश भी नहीं करना चाहती। पर तुम अधर में लटके हो। न मेरी तरह गुमनाम, न ही पूरी तरह से लेखन प्रचार-प्रसार में जुड़े हुये। अगर उस रिपोर्टर को बोल देते कि इसके पीछे एक राजनैतिक कारण है, फिर उसका मकसद पूरा हो जाता। दो-तीन पढे लिखे युवा लेखक मराठी में लिख रहे थे। क्षेत्रीय भाषा को ले कर उसका लेख बन जाता, इसी बहाने तुम्हारी किताब का प्रचार भी हो जाता।

भूतनाथ : फिर कोई राजनैतिक पार्टी कहती- देखो लोगों के लिये क्षेत्र की भावना कितना अहम है, फिर इसके नाम पर किसी गरीब को पीट कर अपने राज्य से निकाल देते और बेशर्मी से बहस करते।

भैरवी : क्षेत्रवाद में क्या बुरा है?

भूतनाथ : क्षेत्रवाद, राष्ट्रवाद, भाषावाद, जातिवाद, समाजवाद, पूँजीवाद – हर वाद में बुराई ही बुराई है।

भैरवी : क्या बुराई है? वाद तो एक तरह के विचार का प्रतिनिधित्व है। सब कुछ को गलत कहना कहाँ की होशियारी है?

भूतनाथ : विचार के पीछे अंधभक्ति से डर लगता है। हर वाद ने कितने लोगों पर सितम ढाये हैं, सबका हिसाब लेने बैठे, तो यह दास्तां कभी नहीं खत्म नहीं होगी।

भैरवी : बात तो सही है, लेकिन तुमने ये नहीं कहा था। मुद्दे की बात करते हैं – हिन्दी में क्यों? इतने लोग अंग्रेजी में लिख रहे हैं। अगर ये भी मान लिया जाये कि ज्यादा लोगों तक बात पहुँचानी है फिर अंग्रेजी किताबें लोग पढ़ते हैं, ज्यादा बिकती हैं। तुम्हारे किसी दोस्त ने कहा था न – हिन्दी होमियोपैथी की तरह गरीब और बेसहारा लोगों के लिये है। उसका लेखक फटीचर होमियोपैथी डाक्टर – आत्ममुग्ध, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू। कुल हजार- दो हजार किताबें बिकने वाले हिन्दी किताबों का वर्तमान क्या- भविष्य क्या? हिन्दी में क्लास नहीं है, ग्लैमर नहीं है।

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम! तो नहीं है ये इकराम ही तो है
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

भूतनाथ : लगता है, कई बातें है। पहली बात यह कि अभी तो खुद को लेखक कहना बड़े लोगों को गाली देने जैसा है। आप और हम जैसे लोग कागज काले कर लेते हैं, पर अभी पढ़ने लायक कुछ भी नहीं किया है। वैसे भी मैं तो यही चाहूँगा कि हमारी रचनायें पढने से पहले लोग कालिदास, बाणभट्ट, सूरदास, जयशंकर प्रसाद, टॉल्सटॉय, पो, मोपासां, चेखोव, दोस्तोव्येसकी,बोर्हेज, काफ्का …. जैसे बड़े लोगों को पढे। मरने के बाद हमारा नम्बर कभी आ जाये तो फिर धन्य हो जायेंगे।

भैरवी : वेद में कहीं लिखा है न कि मनुष्य को बुढापे में अपने श्रम का फल भोगना चाहिये। तुम्हारे लिये ये बात तो सच में ही शर्म की है कि तुमने किताब प्रकाशित कर दिया। मेरा कहा मानते, पाँच-दस साल और रुकते। अब जो हुआ सो हुआ। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र में ऐसा लिखा है कि बिना संगीत के ज्ञाने के चित्रकला नहीं आ सकती। मुझे लगता है कि इसी तरह बिना नृत्य के संगीत नहीं सीखा जा सकता। अभिनय के बिना न्ृत्य नहीं, काव्य के बिना अभिनय नहीं।

भूतनाथ : समस्या गंभीर है।

भैरवी : हाँ, पहले छोटी समस्या – हिन्दी में क्यों लिखते हो? आर. के. नारायण ने कितनी प्यारी कहानियाँ लिखी अंग्रेजी में। समूचा भारत पढ़ता है उसको। ग्राहम ग्रीन तक उनका फैन था। अंग्रेजी भाषा की सीमाओं से मुक्त अंतर्राष्ट्रीय पाठकों के लिये हो सकता है।

भूतनाथ : बात तो ठीक लगती है। आर. के. नारायण तमिल में लिखते तो हम शायद उनकी रचना के अनुवाद पढ़ रहे होते। भाषा का क्या है? किसी भी भाषा में बात लोगो तक पहुँचे – अब हम सभी एंडरसन की कहानियाँ पढ ही रहे हैं। कविता का अनुवाद से चिढ हो सकती है, पर कहानी या उपन्यास के साथ अनुवाद मुझे कभी खलता नहीं।

भैरवी : मलयालम में पाठक हैं, बंगाल में कितनी किताबें बिकती हैं। मुझे ज्यादा पता तो नहीं, पर जो भी मैंने देखा है- वह यह है कि हिन्दी के वरिष्ठ लेखक हमारे सांसदों जैसे एक-दूसरे को झगड़ते हैं, राजनीति पर अधिक और साहित्य पर न्यूनतम चर्चा करते हैं। ऐसे नेताओं में साहित्य की दशा क्या, दिशा क्या? दुर्दशा ही दुर्दशा … क्या कारण लगता है कि इतने कम लोग किताबें खरीदते हैं।

भूतनाथ : एक तो, आज भी पुस्तक खरीदना सबके बूते की बात नहीं। दूसरा जैसा आपने कहा – ग्लैमर नहीं हैं। जनता को स्नोवा बॉर्नो सरीखी सुंदरी भी चाहिये। लेकिन सोचने का यह तरीका- माँग और पूर्ति का – साहित्य व कला के लिये निम्न स्तरीय और मर्यादित नहीं लगता है। लोग माँग कर पढ लेते हैं। दूसरे, अगर शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से देखें तो जो किताब एक साल में दस हजार से कम बिके, वह सब चर्चा करने योग्य नहीं। इसके लिये हम सभी असफल होने के दोषी हैं। हम खुद को और हिन्दी साहित्य को हीन भावना से देखते हैं। एक वृहत वर्ग से दूर साहित्य अभिजात्य लोगों का तमाशा और दिल बहलाने का, आत्म-प्रचार का साधन है। एक जमाना था जब देवकीनंदन खत्री ने ….

भैरवी : वह जमाना बीत गया। प्रेमचंद नहीं रहे, जैनेन्द्र कुमार नहीं रहे, धर्मयुग अब नहीं छपता। जमाना फेसबुक का है। यही सच्चाई है। इससे मुँह मोड़ कर क्या बातें करे? अगर केवल बिक्री की संख्या का प्रश्न है, तो मोबी डिक सत्तर साल के बाद अचानक अच्छी किताब कैसे बन गयी, ये मेरी समझ से परे है। फरनांडो पेसोआ, काफ्का को लोगों ने मरने के बाद में जाना।

भूतनाथ : अगर मेलविले की और किताबें नहीं छपी होती, तो कौन पूछता। लेकिन बात हम गुणवत्ता और क्लासिक की नहीं कर रहे। हिन्दी की किताब और बिक्री की कर रहे हैं। इसे व्यवसाय की तरह देखना प्रकाशक का काम होना चाहिये, और आलोचकों का – लेखक का नहीं। मैं कितने पुस्तक विमोचन में जाता हूँ, लेकिन कभी किताब नहीं खरीदता। क्यों पैसे खर्च करूँ? बेकार निकलेगा तो पैसे बरबाद होंगे। अगर उतने पैसे की फिल्म देख लूँ, या कुछ खा पी लूँ … ये ग्राहक की मर्जी है। कड़वी सच्चाई यह है कि सांस्कृतिक रूप से हिन्दी का पाठक हिन्दी से दूर चला गया है। इसकी वजह जो भी हो, लेकिन बदलता जमाना ही एकमात्र उत्तर नहीं।

भैरवी : मैं बताऊँ … तुमने इसलिये लिखना शुरू किया क्योंकि तुम पराग, बालभारती, बालहँस, नंदन पढते आये। मैं बचपन से अंग्रेजी किताबें, परीकथायें पढ़ती आयी हूँ। बताओ, हिन्दी में कितना बाल साहित्य लिखा जा रहा है? पराग बंद हो गया। बालहँस और नंदन का स्तर पूरी तरह गिर चुका है। जो अंग्रेजी पढ भी रहे हैं, वह क्या पढ रहें हैं सभी जानते हैं। कोई जेम्स ज्वाइस, वाइल्ड, डिकेन्स नहीं पढा जा रहा। मैं बताऊँ क्या पढते – पाठक के हिसाब से – मैंने किसी लड़की को देखा, उसके पीछे भागा। पहले उसने ना किया, फिर हाँ, फिर वह नाराज हो गयी… फिर मैंने आइसक्रीम खिलायी, वह मान गयी। बकवास … वैसे विषयांतर हो गया है। अभी तक तुमने नहीं कहा कि तुम हिन्दी में क्यों लिखते हो। अब ये न कहना कि हिन्दी से प्रेम है, हिन्दी भाषियों से प्रेम है। क्योंकि इस प्रेम की परिभाषा तुम दे नहीं पाओगे, और अस्पष्ट बात मुझे मत सुनाना।

भूतनाथ : अब्बास किआरोस्तामी ने अपनी फिल्म ‘टेन ऑन टेन’ में कहा था – आज के जमाने में साम्राज्यवाद की जरूरत नहीं। वैचारिक साम्राज्यवाद का समय चल रहा है। हम अमेरिकी तरह से फिल्म देखते हैं, विकास का उनका मॉडल अपनाना चाहते हैं, जहाँ सारे पढे- लिखे लोग शहर आ कर बस जाये। शहरों में पचास मंजिला इमारत हो, और गाँव को ऐसे ही छोड़ दिया जाये। हम सब अंग्रेजी बोलें, उनके बनाये कपड़े पहने, उनकी सिखाई तहजीब सीखें। क्योंकि हर वह आदमी जाहिल है जो गाँव छोड़ कर शहर नहीं बस सकता, और वह भी जो अंग्रेजी नहीं बोल सकता। अच्छी बातों को पश्चिम से सीखने में कोई बुराई नहीं है, पर हम सीख क्या रहे हैं?

भैरवी : कालिदास ने कुमारसंभवम् के पहले श्लोक में लिखा है – शब्द और अर्थ एक हैं … उसी तरह तुम ये नहीं कहना चाहोगे कि हिन्दी के शब्दों में एक तरह का सोचने का तरीका है।

भूतनाथ : मुझे लगता तो ऐसा है पर यह कहने का अधिकार किसी भाषाविद का होना चाहिये। वैसे भाषा के साथ शील और सभ्यता तो जुड़ा है ही। पर देखिये,हमारे आस पास लोग तो ऐसे ही निरक्षर हैं। इतनी दूर क्या जायें?पहले सौ प्रतिशत लोग पढना तो सीखें। जो बोलचाल की जुबान है,पहले वही तो पढेंगे। इंटरनेट के जमाने में भी बीते जमाने का साहित्य क्या उनको जोड़ पायेगा?मुझे नहीं लगता है। इसलिये मैं अपनी जिम्मेदारी समझ कर लिखता हूँ।

भैरवी : मुझे याद आ रहा है,गोदार्द ने एक फिल्म बनायी थी-जानने का आनंद। फ्राँस की सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया था। जानने की बात है तो हम कैसे आगे बढना चाहते हैं-सारी नौकरियाँ अंग्रेजी बोलने वालों के लिये?सरकार और विचार शहरियों के लिये?सारे विचारों के लिये निज भाषा छोड़ के कोई विकल्प है क्या?एम.बी.ए.कर के लोग क्या करते हैं?कम्पनियाँ खून चूस कर काम कराती हैं। जब मतलब निकलता है तो फेंक देती हैं। लोग पढाई में इतनी मेहनत करते हैं,किसलिये-किसी का नौकर बनने के लिये?

भूतनाथ : फिर विषय से हट गये हम। हिन्दी की बात करते-करते अर्थशास्त्र और आजीविका की बात करने लगे।

भैरवी : तुमने ही तो चित्रसूत्र की बात की। एक आखिरी सवाल – वह क्या था जिसके कारण तुमने अंग्रेजी में लिखना बंद कर के,हिन्दी में लिखना शुरू किया?

भूतनाथ : कालिदास…संस्कृत के कवि थे पर…मुझे नहीं पता। ये बात सच है कि सच्चाई,समाज-परिवर्तन समय के साथ कैसी भी करवट ले सकता है। मैं अपनी संस्कृति को समझ कर,जान कर,उसका एक छोटा सा हिस्सा बनना चाहता हूँ। आर.के.नारायण ने अंग्रेजी को भी हमारी संस्कृति का अंग बना दिया। हम सबको बड़ा होना पड़ेगा। सोच में,समझ में,आचार में और व्यवहार में। मैंने बस एक रास्ता लिया है।

भैरवी : चलो,फिर मिलते हैं कभी। कुछ और जान लो तो जानने का आनंद मुझसे भी साझा करना।

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3 Comments

  1. "हम सबको बड़ा होना पड़ेगा। सोच में, समझ में, आचार में और व्यवहार में। मैंने बस एक रास्ता लिया है।"
    इस रास्ते पर सफलता ही सफलता मिले!

    भैरवी जी व भूतनाथ जी की सहज बातचीत प्रेरक है!
    आभार!

  2. बहुत सहज और बढ़िया बातचीत , भैरवी और प्रचंड दोनों को ज़रा ज़रा जानना अच्छा लगा ,और जानने की इच्छा हुई

  3. बहुत सुन्दर व्यवाहरिक सच से शुमार आलेख –धन्यवाद । जानकीपुल ।

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