जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

तसनीम खान की कहानी ‘रुख ए गुलजार ‘

आज तसनीम खान की कहानी. हाल में इनको भारतीय ज्ञानपीठ के युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. इस तरह के परिवेश और ऐसी जुबान में कहानियां लिखने वाले नई पीढ़ी में विरल होते जा रहे हैं- मॉडरेटर

=================

इद्दत को मैंने पहली बार कब जाना….. शायद आठ या नौ साल की रही होंगी। जब दादाजान का इंतकाल हुआ और देखा कि दादी दो दिन रोने के बाद तीसरे दिन से अजीब छटपटाहट में है। वे चिल्ला रही थीं और सभी से कमरे से बाहर जाने कह रही थीं।

बड़ी दादी यानी उनकी मां थी अपनी बेटी को समझा रही थी कि सब्र से काम लो, अब साढ़े चार महीने तुम्हें ऐसे ही रहना होगा। लेकिन वो किसी तरह मानने का तैयार नहीं। दूसरी ओर औरतें बातें कर रही थीं कि इसे शौहर के मरने के गम से ज्यादा तो बाहर निकलने की जल्दी है।

अरे, तू गुनाहगार होगी, जो कोठरी से बाहर उजाला भी देखा तो। ऊपरवाला सब देख रहा है। इद्दत में सूरज भी हराम है। मरियम दादी मुंह बिचकाते हुए बोली।

बाकी औरतों ने भी हां में हा मिलाई।

उरुज दादी कहने लगी- अजी हम जैसी इद्दत तो कौन निकाल सकता है। साढे चार महीने तक सिर ही ऊंचा नहीं उठाया। तभी से गर्दन झुकी ही है, लेकिन क्या मजाल की इद्दत के रिवाज को जर्रा बराबर भी गलत मानकर करने से इनकार किया हो।

फिर से सभी बूढी दादियों ने एक साथ हामी भरी। वहीं अधेड़ औरतें इसे दर्द समझ कर दादी को तरस भरी निगाह से देख रही थीं। उनकी बहन की आंखों से आंसुओं की बूंदे गिर पड़ी, उन्होंने झट से दुपट्टे के पल्लू से पौंछ दीं और दादी के उतरे कपड़ों को धोने चल दी।

दादी अपनी बड़ी मगर सूनी सी आंखों को नीचे किए खोई थी। जैसे ये सब बातें उनके कानों तक पहुंच ही नहीं रही। शायद सुन्न थीं। पर औरतों को इससे क्या। उन्हें तो लग रहा था कि शौहर की मौत के तीसरे दिन ही इसकी आंखें सूख गई। कोई और होती तो रो रोकर सुबकियां भर आती। यहीं बातें कर औरतें दादी को उलाहना ही देती रहती।

इन दिनों इस हवेली में यही चर्चा छिड़ी रहती। हवेली के सबसे नीचली मंजिल पर बीचोंबीच बना कोठरीनुमा कमरा अब दादी के रहने की जगह थी। दोनों ओर दालान थे। कमरे के एक ओर बरामदा था, उससे सटी बड़ी सी बैठक। अब बैठक और कमरे के बीच के बरामदों को भी भारी परदों से ढक दिया गया था। ताकि कमरे तक रोशनी ना पहुंचे। यह भी परिवार की पंचायत संभालने वाली कुछेक बुजुर्ग महिलाओं की राय पर किया गया था। उनका कहना था कि इद्दत जितना अंधेरे में कटे उतना अच्छा।

उरुज दादी को ही कहते सुना था कि- शौहर की मौत के बाद चार महीने दस दिन बीवी परदे में रहती है। ना कमरे से बाहर जाती है और ना ही अपने बेटे-भाई के सिवा किसी दूसरे मर्द रिश्तेदारों से मिल सकती हैं, यहां तक कि घूंघट में भी उनके सामने नहीं जा सकती।

याद है कि इससे पहले दादी इस निचली मंजिल में अक्सर खाना बनाने या खाना खाने ही आया करती थी। या फिर अपने लाडले पोता-पोती के स्कूल से आने के वक्त वे बरामदे में घूंघट निकाले उसका इंतजार करती होती। दोनों को नहलाकर, खाना-खिलाकर अपने कमरे में ले जाती।

उन्हें अपना तीसरी मंजिल पर बना कमरा ही पसंद था। जैसे पूरी हवेली के बाकी कमरों से उन्हें कोई लेना-देना नहीं था। दूसरी मंजिल के कमरों में झांकते भी हमने उन्हें कभी ना देखा था। वो तो सीधे तीसरी मंजिल पर जा पहुंचती थीं। यह कमरा दादाजी ने खासकर उनके कहने पर ही बनवाया था। तब भी घर के लोगों ने इसका विरोध किया था। शौहर अपनी बीवी के कहे में चल रहा है, यह बात लोगों को नागवार गुजरी। फिर भी दादाजी ने एक ना सुनी और इस हवेली में एक कमरा बढ़ गया। कमरे के दोनों ओर खिड़कियां थीं, बाहर बरामदा जिसकी दीवारें ऊंची थी, मगर यहां बड़े-बड़े झरोखे थे। खुले झरोखे।

उन्होंने अपने कमरे में कहीं परदे नहीं लगा रखे थे। बारिश हो या सर्दी-गर्मी, कमरे की खिड़कियां हमेशा खुली रहती। बारिश में वे खिड़कियों के पास ही बैठा करती और भीगती रहती। एक बार उन्हें भीगता देख मैंने जैसे ही खिड़की बंद करनी चाही, उन्होंने हाथ रोक दिया।

कहा- ये बंद होंगी तो मेरा दम घुट जाएगा। इन खिड़कियों से आती हवाएं मुझे मेरे होने का अहसास कराती हैं। यही वो कोना है जहां मैं अपने आपको आजाद महसूस करती हूं। कोई बंधन यहां मुझे बांधता नजर नहीं आता। नहीं तो इस बंद हवेली की ऊंची दीवारों के बीच दम घुट जाता है।

वे मुझ जैसी छोटी नासमझ को जाने क्यों यह सब कह रही थीं, मैं नहीं समझी। खैर, मैं भी उनके साथ उन गिरती बूंदों के नीचे अपने आपको आजाद महसूस कराने की कोशिश में लगी थी और यह समझने की कोशिश कर रही थी कि इसका मतलब क्या होता है।

इन खिड़कियों का तआरुफ वे ‘रुख ए गुलजार’ कहकर कराया करती थीं। ये लफ्ज मेरे लिए उर्दू की मुश्किल पहेली से कम नहीं थे।

एक दिन पूछ ही लिया, दादी यह क्या होता है?

वे बोली- मेरी लाडो इसका मतलब होता है, ‘फूलों और हरियाली से भरे बगीचे की ओर’।

यही कि मुझे मेरी खिड़कियों से आती हवा यों लगती है जैसे ये किसी बगीचे के फूलों की खुशबू लेकर मेरे पास आ रही है।

वो ज्यादातर खामोश रहा करती, छोटी दादी यानी उनकी देवरानी से उनकी नहीं बनती, लेकिन फिर भी वे उनसे कभी कुछ ना कहती। कभी-कभार उन्हें अम्मी को यह कहते जरूर सुना कि- इन गंवारों की बातों में मत आना। बेटा-बेटी दोनों को पढ़ाना। नहीं तो हमारी तरह इसे भी किसी हवेली की बंद दीवारों को ही नसीब मानना होगा।

उनका इशारा शायद मेरी ओर था।

घर का का काम निपटाते ही जैसे उन्हें लगता कि उनकी खुली खिड़कियां और झरोखे उन्हें पुकार रहे हैं, सदा दे रहे हैं। और वे बेकरार सी दो मंजिल लांघ अपने इस कमरे में आ पहुंचती। जाने क्या आकर्षण था इन खुली खिड़कियों के कमरे का कि मैं भी दादी के साथ यहां आजी। मैं इन खुली खिड़कियों के साथ रहस्यमयी तौर पर जो जुड़ी थी, सो रहस्य जानने आती।

अरे हां, इस कमरे में तो खिड़की ही नहीं। मैंने दुखी मन से कहा।

अम्मी मिट्टी से पुते चूल्हे के पास बैठी आटा गूंथ रही थी, बोली- वह तो कभी थी ही नहीं, क्यों तुम्हें खिड़की का खयाल क्यों आया।

मैंने कहा- दादी अब आजाद महसूस कैसे करेंगी।

अम्मी ने आंख निकाली और चुप रहने का इशारा किया। वहां से उठकर दादी के इस अंधेरे और बंद कमरे में आ बैठी। दादी का तो पता नहीं लेकिन बरामदे में परदे डलने के बाद मेरा तो इस कमरे में दम घुट रहा था। ऐसे ही बिना झरोखे और खुली खिड़की के दिन कट रहे थे, मेरे और दादी के।

दादी हर दिन अपनी मां से लड़ती कि उन्हेंं वहां से बाहर निकाले, वे इस अंधेरे कमरे में वक्त नहीं गुजार सकती। बड़ी दादी उनके बालों को प्यार से सहलाती और कहती क्या करूं बेटी… यह मेरे बस में नहीं। रिवाज है, निभाना होगा, नहीं तो लोग क्या कहेंगे। तुम अभी इद्दत में हो और इस दौरान तुम्हारा तेज आवाज में बात करना भी ठीक नहीं। औरतें आएं तो तुम गर्दन झुकाकर बैठा करो और बात ना किया करो।

इतना कहना होता और दादी बिफर पड़ती कि-अब क्या मैं लोगों के हिसाब से चलूं। एक कमरे के कोने में मुझे घुटन हो रही है। मैं जानती हूं, अब मुझे जिंदगी अकेले काटनी है और यह घुटन इस बात का अहसास हर पल कराती रहती है। मुझे समझ नहीं आया कि दादी जब बाहर जाना चाहती हैं तो इन पर इतनी बंदिशें क्यों?

खैर, कुछ ही दिन में दादी की दिमागी हालत बिगड़ने लगी थी। अब वो अपना बुर्का अपने घुटने के नीचे छिपाकर बैठने लगी थी। क्यों बैठती इसका पता तब चला जब एक दिन मौका मिलते ही वे घर से बाहर निकलने में कामयाब रहीं। लेकिन मोहल्ले के चौक में पहुंचते ही औरतों ने घेर लिया और उन्हें जबरदस्ती पकड़ लाई।

दादी अपनी बेबसी पर इतनी गुस्से में थीं कि उन्होंने बड़ी दादी को मारना शुरू कर दिया। जैसे-तैसे उन्हें छुड़ाया गया और दादी को पागल घोषित कर दिया गया। कुछ दिनों पहले तक समझदार दादी अब पागल घोषित हो गई थीं, क्यों, इसे समझने की किसी ने कोशिश नहीं की। बस, जो रिवाज ना निभाए या तो वह समाज में रहने लायक नहीं है या फिर पागल। उनकी घुटन उन पर नहीं मुझ पर भी हावी होने लगी थी। जब भी उन्हें देखती आंखें छलक उठती। मन करता उन्हें हाथ पकड़  कर बाहर खुली हवा में ले जाऊं और उन्हें उनके होने का अहसास दिलाऊं।

एक बार फिर से घर में मातम का माहौल था। पापा नहीं रहे, यह सोचकर ही दम घुटा जा रहा था। अब हमें उनके बिना जीना होगा, दिल मानने को तैयार नहीं और सबसे बड़ी तकलीफ कि अम्मी अब अकेले कैसे रह पाएंगी। यही सोच-सोचकर आंखों के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। लेकिन यह तकलीफ कम थी, उससे जो अम्मी को उठानी थी। एक कोने में सिर झुकाए बैठे रहने के एकाकीपन के साथ अब उन्हें साढे चार महीने गुजारने हैं, यह जानकर ही रोंगटे खड़े हो गए।

दादी की याद हो आई, जिन्होंने बमुश्किल अपने वो दिन गुजारे थे। लेकिन अम्मी जिन्होंने कभी रिवाजों को हमारे लिए बेड़ियां नहीं बनने दी, लगा कि वे ये दिन गुजारने से इनकार कर देंगी। लेकिन हैरानी थी देखकर कि उन्होंने खामोशी के साथ इद्दत के रिवाज के आगे घुटने टेक दिए थे और इसे गुजारने का फैसला कर लिया था।

अब वो अपने कमरे में परदे में थीं। घर के बीचोंबीच परदा डाल दिया गया था। कभी मर्द-औरतों के लिए इस घर में अलहदा रिवाज नहीं थे, लेकिन अब घर के दो हिस्से हो गए थे। एक अम्मी और बाकी औरतों के लिए तो दूसरा मर्दो के लिए। भाइयों के सिवा कोई उनसे मिलने नहीं आ सकता था। मेरे चाचा भी नहीं, जिन्हें उन्होंने बेटे की तरह पाला था। चाचा भी परदे के पार अपनी मां जैसी भाभी को इस मुश्किल घड़ी में भी दिलासा देने नहीं आ पाए।

यों तो अम्मी को कभी सजने-संवरने और जेवरों का शौक नहीं रहा, लेकिन जितने पहनती थी, उतने में उन्हें देखने की आदत सी हो गई थी। अब वो भी हमारे विरोध के बाद भी उतार दिए गए। पुराने, रंग उतरे कपड़े उन्होंने खुद ही अपने लिए चुन लिए।

अब उनके जीवन से लेकर शरीर तक पर सूनापन था। अजीब सूनापन। चीखों-चीत्कार से भरा सूनापन।

अम्मी का यह रहन-सहन हमारे लिए पापा के जाने के गम से भी ज्यादा तकलीफदेह था। बेपनाह दर्द। जो पूरे साढे चार महीने उनके साथ हमें भी भुगतना था। उनकी सूनी कलाइयां, बेरंग कपड़े और एक कोना। उन्हें देखकर दिल और दिमाग कुछ सोचने-समझने की हालत में नहीं होते और दर्द हद पार कर जाता। अब लगता था कि बचपन से ही अपनी मां, चाची या मामी से यही क्यों सुनती रही कि ‘वे सुहागन ही मरे’। इसका मतलब अब समझ आया था कि बेवा होने में साथी से बिछड़ जाने का ही दुख नहीं होता, बल्कि उसके बाद के रिवाजों को ओढना और भी ज्यादा दुख भरा होता है।

नवंबर का महीना था। भरपूर सर्दी थी। घर के सबसे पीछे वाला कमरा उनकी इद्दत के लिए तय किया गया था। वहां पीछे कोने में जाकर एक ही खिड़की थी, जिसे बंद कर दिया। दरी और पतला बिस्तर उनके सोने के लिए था। बैड या पलंग अब उनके लिए वर्जित था, जबकि हम जानते थे कि उन्हें आंगन में सोने की आदत ही नहीं थी। लेकिन औरतों का जमावड़ा और उनकी बातों का दबाव ना चाहते हुए भी हमें यह कबूल करने पर मजबूर कर रहा था।

बिस्तर लगाते हुए यही सोच रही थी कि अम्मी नहाकर आई। मैंने देखा कि वे क्रीम की बजाय तेल लगाकर चेहरे का रुखापन मिटाने की कोशिश कर रही थीं, मैंने सवालभरी नजरों से देखा तो उन्होंने नजरें चुराते हुए कहा- अब खुशबू की चीजों का इस्तेमाल नहीं कर सकती। अम्मी को पता है कि इतनी छोटी-छोटी बातों में भी मर्यादाओं का ध्यान करना हमें पसंद नहीं आएगा, शायद यही वजह थी उनके नजर चुरा लेने की।

याद आया कि अम्मी को खूब सर्दी लगा करती है। सर्दियों के दिन तो वे छत पर ही बिताया करती थी, अपनी किताबें पढ़ते हुए।

मैंने कहा- चलो ऊपर चलते हैं, आप नहाकर आई है तो धूप भी सेंक लेंगे और आप कोई मैग्जीन भी पढ़ लेंगी।

इतने में ही अमीरा फूफो गुस्से में बोली- काहे की धूप और किताबें। तू अपनी बातें अपने तक ही रख। इद्दत में कमरे से बाहर मुंह नहीं निकाला जाता जो तू छत पर ले जाएगी खुले में। अब इन चोंचलों को भूल जाओ।

उनके साथ दूसरी रिश्तेदार भी हामी भरने लगी तो मैं अपने का अकेली पड़ते देख कमरे से निकल गई। टीस और गुस्सा आंसुओं की शक्ल में बह रहा था।

‘जरूरी है कि यह औरतें अब पूरा दिन हम पर सवार ही रहे। अपने-अपने घर जाए तो हम और अम्मी चैन से तो रह सकें। अपनी मर्जी से अपने घर में रह सकें।’ तीनों बहनें बैठकर यही बातें कर रही थीं। खालाजान कमरे में दाखिल हुई। आते हुए उन्होंने यह सुन लिया था तो कहने लगी- देखो शहर में होते तो कोई ना आता।

वहां तो रिश्तेदार दूर-दूर रहते हैं तो दो दिन बाद इतनी भीड़ नहीं रहती।

यह ठहरा गांव। पूरा समाज आसपास है और यहां रिवाज है कि कुनबे की औरतें पूरी इद्दत दिनभर यहीं रहेंगी। अब हम इनको मना नहीं कर सकते। पूरे परिवार, समाज की आंख की किरकिरी बन जाएंगे। सब्र से काम लो। यह दिन भी निकल जाएंगे। उन्होंने उठते-उठते छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरा। खालाजान भी नहीं चाहती थी कि उनकी बहन इस तरह रिवाजों की भेंट चढ़ी रहे, लेकिन लाचारी साफ झलक रही थी।

नागौर से अम्मी की सहेली आई थी, दुख जताने। शरीफन खाला। कमरे में आते ही दुख जताना भूल गई और कहने लगी- ये क्या। इस कमरे में तो आइना है और टीवी भी रखा है।

नानी ने शर्मिंदा होते हुए कहा-यह चलता नहीं, तार हटा दिए हैं।

तो क्या हुआ- वे फिर बोली। यह तो गुनाह है। इस दौरान औरत का चेहरा आइने में देखना भी हराम है।

आइने और टीवी को यहां से हटाओ या इन पर परदा लगाओ।

अम्मी ने शर्मिंदगी से सिर झुका लिया, जैसे वो खुद से सवाल कर रही हों कि उन्होंने पहले इन्हें हटाने पर ध्यान नहीं दिया।

मुझ पर गुस्सा सवार था, बोली- यह कौनसी शरीयत में लिखा है कि बेवा के कमरे में यह चीजें ना हों। नानी ने चुप रहने का इशारा किया। लेकिन चुप नहीं रहा गया।

शरीफन खाला मुंह ताकने लगी। उनके साथ आई दूसरी औरत कह रही थी कि हम क्या गलत कह रहे हैं। हमारे यहां तो औरतों के सामने भी बेवा का आंचल मुंह से नहीं उठता, नाखून दिखाना भी हराम समझा जाता है। फिर तुम्हारे रिवाज तुम जानो।

उनका तंज इतना गहरा था कि अम्मी और नानी का सिर झुक गया था।

सुबह के नौ ही बजे थे। अभी औरतों का आना शुरू नहीं हुआ था। कमरे की सफाई की और अम्मी की दरी बिछा दी। देख रही थी कि अम्मी बिलकुल खामोश थी। इतनी देर में उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की थी।

उनके पास बैठी और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोली- अम्मी आप क्यों चुप हो। बोलो, बातें करो जैसे पहले रहती थी वैसे ही रहो, कहने दो लोगों को जो कहना है, हम आपको घुटते हुए नहीं देख सकते।

उन्होंने मेरी ओर देखा।

उनकी आंखें… हां, उनकी आंखें बिलकुल सूनी थी। हमेशा टिमटिमाने वाली चमक गायब थी। कलेजा मुंह को आ रहा था कि २० दिनों में ही अम्मी का क्या हाल हो गया था।

उनकी आवाज के साथ मेरा ख्याल खत्म हुआ।

वो कह रही थी- क्यों औरतों से बहस करती हो। इनसे हम नहीं जीत पाएंगे। उनके इस हम ने कुछ हौसला दिया। लगा कि वह भी नहीं चाहती इन रिवाजों से गुजरना, लेकिन वे दबाव में थी।

मैंने कहा- जब मैं इद्दत को लेकर औरतों के सामने कुछ बोलती हूं तो आप साथ क्यों नहीं देती।

वे कह रही थीं- मैं अपने बच्चों के लिए उनके हकों के लिए लड़ सकती हूं, अपने लिए नहीं। कभी किसी से हार ना मानने वाली अम्मी के मुंह से आज ये बेबसी की बातें अच्छी नहीं लगी।

आज फिर अम्मी का खून का दौरा धीमा पड़ गया था और वे बैठे-बैठे ही बेहोश हो गई। भाईजान आए- साथ में चाचा का लड़का भी। वो अस्पताल में नर्स था, सो भाई उसे ले आया था। उसने अम्मी का बीपी नापा और भाई को जरूरी हिदायतें दी। लेकिन रिश्तेदार औरतें अब भी इस बात का जोड़-तोड़ बैठा रही थीं कि चाचा के लड़के को उनके पास आना चाहिए था या नहीं। यह ठीक था या नहीं।

इंजेक्शन लगने के बाद अम्मी अब बैठी थीं, भाभीजान गर्म कॉफी ले आई थी। भाईजान कह रहे थे कि बार-बार तबीयत बिगड़ रही है तो डॉक्टर को दिखा देते हैं। नानी और अम्मी दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर नजरें चुरा ली। लगा कि दोनों तो चाहती हैं कि डॉक्टर को दिखा दिया जाए।

इतने में ही किसी ने कहा- कमाल करते हो इद्दत में मर्द डॉक्टर के पास ले जाओगे। वैसे ही इस गम में बेहोशी आना आम बात है।

हम भाई-बहन देख रहे थे कि ये वही अम्मी हैं, जो कभी रिवायतों को बुरा नहीं मानती, लेकिन उन्हें जिंदगी में आगे बढ़ने की मुश्किल नहीं बनने देती थीं। जो आसानी से निभ गई, ठीक हैं, जो बेड़ी की तरह लगे उन्हें तोड़ देती थी।

जब मैं तीन साल की हुई तो उन्होंने मेरे लिए भी वही प्राइवेट स्कूल चुना, जिसमें भाईजान जाते थे।

रिश्तेदारों ने कहा पढ़ाना ही है तो पास ही सरकारी स्कूल है, उसी में पढ़ा लो, बेटी पर इतना पैसा खर्च करने की क्या जरूरत है।

मेरी अम्मी खामोश रही। खामोशी उनका अपना अंदाज था, जिसमें उन्होंने क्या छिपा रखा है, यह कोई नहीं जानता था। उन्होंने यह बात सुनी और मुझे तैयार कर स्कूल भेज दिया।

जब मिडिल स्कूल जाना हुआ तो फिर किसी ने कहा कि बड़ी हो रही है स्कर्ट पहनाकर मत भेजो, स्कूल में बात कर इसे सलवार कमीज में भेजने की इजाजत लो तो अच्छा रहेगा।

अम्मी ने फिर से खामोशी से सुना और मेरी स्कूल की नई स्कर्ट सिल डाली और भी नई फूलों वाली स्कर्ट सिली, जिन्हें मैं स्कूल समारोह में पहनकर जाती थी।

उनकी खामोशी इन रिवाजों को मानने से इनकार करती रही और मुझे यह समझाती रही कि मैं क्या पढूंगी या क्या पहनूंगी यह तय करने का अधिकार किसी को नहीं है। अम्मी की खामोशी मेरी बड़ी हिम्मत बनी। उस हिम्मत के साथ ही मैंने कुछ बनने का सपना देखा और विश्वास था कि मेरे हर फैसले में वे अपने अंदाज में मेरे साथ होंगी। रीति रिवाजों को मेरे आगे बढ़ने में बाधा नहीं बनने देंगी।

यही हुआ, वे मेरे लिए राहें आसान करती गई और मैं आगे बढ़ती रही।

लड़कों के साथ नहीं पढ़ने का रिवाज भी उनकी खामोशी ने खत्म कर दिया और मैंने उसी कॉलेज से पढ़ाई पूरी की जिसे आमतौर पर लड़कों वाला कॉलेज कहा जाता था। उन्होंने रीति-रिवाजों से परे होकर जिंदगी जीने का हौसला दिया और आगे बढ़ते जाना, बंदिशों को पीछे छोड़ते जाना भी उन्हीं से सीखा।

अपने बचपन में खोई थी कि छोटी बहन ने झिंझोड़ा, कहा- अम्मी की तबीयत ठीक नहीं, ठिठुर रही हैं और शायद फिर खून का दौरा धीमा पड़ गया है। बहन का झिंझोरना यों लगा, जैसे में लम्बी नींद से जागी हूं। खुद से कहा- अब तो जागना ही होगा। नहीं तो ये बुरे सपने डराते ही रहेंगे। कोई तो फैसला लेना ही होगा, नहीं तो मैं उम्रभर अम्मी की कर्जदार रहूंगी। गालों पर लुढक आए आंसु पौंछे, उठी और पिछले कमरे में औरतों के बीच होती हुई अम्मी तक पहुंची।

अम्मी कम्बल ओढे, गर्दन झुकाए बैठी थी।

मैंने अम्मी का हाथ पकड़ा और कहा- उठो, चलो यहां से।

अम्मी के साथ ही सारी औरतें हैरत में पड़ गई।

अम्मी ने बहुत ही धीमे लहजे में पूछा-कहां।

‘जहां मैं चाहूं वहीं ले जाऊंगी।’

उन्हें लगभग खींचते हुए उठाया, बहनों ने भी उनको सहारा दिया। चौक से आगे परदे के पार हाने को थी कि अम्मी बोली- नहीं बेटा बाहर नहीं। लेकिन मैं नहीं मानी

नानी हमारे साथ उनका हाथ पकड़े थीं। आज उन्होंने किसी रिवाज की दुहाई नहीं दी। शायद बेटी का पीला पड़ता चेहरा अब उनके लिए रिवाजों और औरतों की बातों से ज्यादा दुखदायी हो चला था।

पीछे आई रौनक अम्मा ने गुस्से में कहा- यह क्या गुनाह करवा रही है, लड़की।  इद्दत में सूरज की रोशनी में ले जाएगी, वो भी पराए मर्द से इलाज करवाने।  इसे गुनाह में डालेगी और तू भी गुनाहगार होगी।

मैंने कहा- इसके लिए कयामत के दिन मैं जवाबदेह होऊंगी, आपको ज्यादा फिक्रमंद होने की जरूरत नहीं।

करीमा फूफो समझाने लगी- अरे बेटा साढ़े चार महीने की ही तो बात है और लोग क्या कहेंगे कि आदमी को मरे चार दिन नहीं बीते की औरत घर से नहीं निकल गई।

उन्हें अनसुना करते मैं अम्मी से मुखातिब थी- जिन रिवाजों को आपने मुझे नहीं ओढने दिया, मुझे दूर रखा, अपना रास्ता चुनने का हौसला दिया, वैसे ही मैं आपको इन रिवाजों का निवाला नहीं बनने दूंगी। यह कहते हुए उन्हें कार में बैठाया। हम घर और रिवाजों से आगे बढ़ चुके थे और पीछे घर में तौबा की जा रही थी, लेकिन मैं अम्मी के दिए हर हौसले से भरी थी।

भैया ने कार आगे बढ़ा दी। पीछे की आवाजें कुछ मंद होने लगी थीं। अम्मी हैरत से देख रही थीं। उनकी आंखों में अब बेबसी नहीं थीं, वो पहले सी चमक रही थीं, टिमटिमा रही थीं।

भैया ने कहा- आप डरना नहीं अम्मी, समाज के इस दबाव से। हम आपके साथ हैं। आपके लिए ही नहीं हमारी किसी भी पीढ़ी के लिए इस रिवाज को हम बेड़िया नहीं बनने देंगे।

अम्मी ने हमारी ओर देखा और चेहरे पर हंसी की एक लकीर खिंच गई। बड़े दिनों बाद हमारे चेहरे भी दर्द से आजाद हुए थे।

हम वापस घर जा रहे थे। घर से पहले गली के कोने पर पुरानी हो चली हमारी पुश्तैनी हवेली नजर आ रही थी।  अब खंडहर हो गई थी, लेकिन तीसरी मंजिल पर बनी दादी के कमरे की खिड़कियां अब भी जीवन से भरपूर थीं। उस ओर से आया हवा का झोंका पुरसुकून था, जो हमारी सदियों की थकान मिटा गया था। दादी की उन खिड़कियों से होकर आ रही हवाएं ‘रुख ए गुलजार’ जो थीं। दादी की आजादी आज समझ आ गई। मन ही मन उनसे वादा कर लिया कि आने वाली पीढ़ियां अब इन अंधेरे और बिना झरोखों के कमरों से होकर नहीं गुजरेंगी।

Posted 28th March 2016 by prabhat ranjan

Labels: tasnim khan तसनीम खान

2

View comments

Share.

Leave A Reply

Exit mobile version