जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.

स्वदेश दीपक पिछले आठ साल से लापता हैं. अभी कुछ लोगों ने फेसबुक पर उनको ढूंढने की मुहिम चलाई है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए. युवा कवयित्री विपिन चौधरी ने स्वदेश दीपक को याद करते हुए यह संस्मरणात्मक लेख लिखा है. आपके लिए – जानकी पुल
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इस दौर- ए- हस्ती में हमारा क्या ठिकाना
एक राह पर चलना
दूसरी से लौट आना
कभी सही दिशा न मिल पाने पर
गायब हो जाना
एक जीता जागता इन्सान हमारे बीच से अचानक कहीं चला जाता है, बरसो उसकी कोई खोज खबर नहीं मिलती  और  इधर हम अपने रोज़ के कामों मे गले तक डूबे रहते है अपने आस- पास की किसी खोज खबर से अनजान. 2 जून २००६ से आज ४ अप्रैल २०१२ तक हमारे प्रिय लेखक  स्वदेश दीपक का कोई पता नहीं. यह स्वदेश दीपक ही  थे, सुख और दुःख  में दुख को चुनने वाले। दुःख, जिसके लिए कोई मरहम पट्टी, कोई दवा- दारु कोई इलाज नहीं।
हमारे समय के अद्भुत और अलग तरह के लेखक हैं स्वदेश दीपक. जब वेमानसिक अस्वस्था के भयानक दौर से गुज़र रहे थे,तब  भी वे जीवन की राह पर स्थापित उन  मील का पत्थरों को गिनते रहे जो दुःख का वायस बन कर बार- बार उनके सामने आते रहे थे। जितना दुरुहपन, दुःख, त्रासदी उनकी कहानियों और उपन्यास  के पात्र सहते है लगभग वही दुरूहपन स्वदेश जी के अपने जीवन में भी पसरा हुआ था। बाईपोलर सिंड्रोमनामक मानसिक रोग की अंधेरी वीरान गलियों में अकेले गलियों में भटकते ही जी रहे थे  स्वदेश, पल दर पल, दिन दर दिन साल दर साल। अपने बीमारी और अकेलेपन में और भी अकेले अँधेरे के उस वीराने खोल में, जहाँ कोई पाठक तो क्या सबसे नजदीकी घरवाले भी प्रवेश नही पा सकते  थे।
अगर कोई साथ होता था तो वे थी हैलुसिनेशन की अनगिनत परछाईयाँ जिनसे स्वदेश दिन रात घिरे रहते थे। १९९० से १९९७  तक के सात साल के लम्बे अंतराल के बाद जब वे दुनियादारी के राहों पर सधे कदमों से चलने लायक हुये लगभग २००१ वर्ष के करीबी दिनों में. उन्हीं दिनों अपने भूतकाल को तलाश और तराश कर  स्वदेश दीपक जी ने अपने  आत्मसंस्मरण लिखे जो सिलसिलेवार २००१ मे कथा-देशके अंको मे  छपे। बेह्द मर्मस्पर्शी संस्मरणों कों पढने के बाद ही मुझे हरियाणा प्रदेशवासी इस अद्भुद लेखक का पता मिला तो लगा इस सूखे हरियाणा प्रदेश मे भी एक झरना बह रहा है जिससे मैं अनजान रही हूँ अब तक.उनके संकोची स्वभाव की तरह ही उनके लेखन का झरना  बिना आवाज़ की बहता रहा था, बरसो बरस  चुपचाप, मंधर गति से, साहित्य की राजनीति और ब्रांड संस्कृति  से दूर अम्बाला केंट के माल रोड पर स्तिथ  पुराने मकान मे अपने  दुःख मे कलम डुबो कर लिखने वाले बेहतरीन लेखक थे स्वदेश दीपक. उनके संस्मरण के  शीर्षक भी  हैरतअंग्रेज थे आपने कितने खून किये है स्वदेश दीपक”,”घूमते अँधेरे सा पतझर‘,  शीर्षक से लिखे लेखों कों पढकर  मानसिक बिमारी से  जुझते एक  जुझारु लेखक के जीवन और उनकी रचनाओ से मै रूबरू हुई,उन दिनों कछुआ गति से मेरे लेखन की शुरुआत हो रही थी.   बाद मे उनकी कई कहानियाँ और संग्रह मसखरे कभी नहीं रोतेपढ़ा और उनके ट्रेजिक पात्रो से रूबरू हुई. उनके लिखे कालजयी  नाटक कोर्ट मार्शलका अरविंद गौड़ के निर्देशन में मंचन भी देखा. 
आज भी अच्छी तरह से याद है  फरवरी २००३ की दोपहर जब स्वदेश दीपक जी से पहली बार   फ़ोन पर बात  हुई थी. फोन करते वक्त मैं मैं थोडी असमंजस में थी कि  कहीं मैं एक एकांतप्रिय लेखक की शांति  तो नहीं भंग कर रही मैं, पर  फोन के उस तरफ से स्वदेश दीपक जी की बेहद शांत, स्थिर और शब्दों को तोल-तोल कर बोलने वाले स्पष्ट आवाज़ सुनाई दी. इस पहली ही बातचीत से उनकी साफगोई  का पता चला जो उनके लेखन में भी साफ़ झलकती थी  । स्वदेश जी ने मेरी कुछ कविताये  पढने के लिये माँगी, मैंने भेजी अपनी कुछ कवितायेँ फिर लौटती डाक से अंग्रेजी में लिखा उनका पत्र आया.  उसके बाद से लगातार बातचीत और पत्रों का का लम्बा सिलसिला चलता रहा  और उस वक्त तक चला जब तक उन्होंने दुनियादारी  से अपनी सदयस्ता  वापिस नहीं ले ली थी ।  मैंने मांडू नहीं देखाजब प्रकाशित होने  की प्रक्रिया मे थी तब उन्होंने बताया की मैंने एक किताब की लिए प्रसिद्ध  चित्रकार जहाँगीर सबावालाकी कलाकृति को चुना है, साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि जहाँगीर से मैं  कभी मिला नहीं सिर्फ फ़ोन पर ही बाते हुई है, फिर आगे इस आदर्श वाक्य को भी दोहराया कि  दोस्ती मे मेल मुलाकात से ज्यादा आपसी विश्वास का महत्व  होता है. दिल्ली मे जब इस पुस्तक का लोकार्पण हुआ तब भी स्वदेश जी ने बुलाया.
मानसिक बीमारी से ग्रस्त इस लेखक को पढ़ कर और उनसे बात कर करके  खुद मेरे  अपने घर के तीन-तीन सदस्यों को स्किजोफ्रेनिया से पीडित होने की त्रासदी मेरे बेहद नज़दीक आ गयी थी. मै इस सच को  करीब से जानती हूँ जब घर का सदस्य को  मानसिक रोग पकड ले तो  घर के लोगों का जीना किस कदर दुश्वार हो जाता है।  निराला, भुवनेश्वर से लेकर वशिस्ठ नारायण तक  हमारे देश की  कई सवेदनशील विभूतियाँ इस पीडा का सामाना कर चुके है। पर  अपने इस संक्रमण काल से काले कुएं से निकल कर लिखने वाले सिर्फ स्वदेश दीपक  जी ही थे . इस असाध्य तकलीफ भरी बिमारी के बारे में लिखना फिर से उसकी अंधेरी  सुरंग से गुज़रने जैसा था जहाँ बार बार दीवारों से सर टकराता  है, बार- बार लहू निकलता है बार बार आत्मा के भीतर कई  सुराख़ बनते जाते हैं। इसी सुरंग से निकाल कर लाये थे  स्वदेश मैंने मांडू नहीं देखाके संस्मरणों को जिसमे  उन्होंने टुकडों मे अपने पिछले कष्टकारी  दिनों का रेशा-रेशा सबके समय रखा.
स्वदेश जी के साथ इन संस्मरणों मे सिलिविया प्लैथ भी थी, जो कह रही थी” मरना भी बाकी सब चीजों  की तरह एक कला है, और मैं इस कला को असाधारण तरह से अच्छा  कर सकती हूं. स्वदेश दीपक के एक अद्भुत संस्मरण गाथा में विलियम फाक्नर भी थे जिन्होने कहा था कभी “मेरे दुख का समय शुरू हो चुका है” शेक्सपियर जैसा महान लेखक कह रहा था  “मेरा अंत ही मेरी शुरूआत है”. एलियट  जो कहते साफ़ सुनाई पड़ रहे थे कि विनम्रता अंतहीन हैऔर विल्लियम फाकनर जिन्होंने कहा “कुछ नहीं और दुःख के बीच मैं दुख चुनता हुँ‘” . और इन सबके साथ  स्वदेश दीपक भी था   जो कह रहा था ” आत्मा का दुख कभी बाँटा नहीं जा सकता”
दुख के अलग-अलग शेडस हैं, जीवन के दारुण सत्य को स्वदेश दीपक समय रहते  जान गए थे तभी अपनी रचनाओं में उस सत्य का अक्स उतार सके. चंडीगढ के पी जी आई होस्टल मे एक मरीज़ की रूप मे सामान्य से ऊँचे सफ़ेद बिस्तर पर चुपचाप लेटे हुए स्वदेश जानते है कि नर्से उनसे किस हद तक तक बेरूखी से पेश आती है, बिमारी की अवस्था में भी वे अच्छी तरह समझ पाते हैं कि उनके साथ कौन कैसा व्यवहार कर रहा है। जब भी स्वेदश जी जब ज्यादा मानसिक परेशानी में होते थे तो नर्से उन्हें रस्सियों से बाँध दिया करती थी।
मानसिक बिमारी इस हद तक रहस्यमय और जटिल होती है कि एक तरफ तो इंसान को कोई होश नहीं रहता वह हैल्युसिनेशन में रहता है दुसरी तरफ चेतना की कोई ना कोई कोशिका जाग्रतावस्था मे जरुर रहता है जो आस पास होने वाली घटनाओं की जानकारी देता है। हम सब जानते है मानसिक रोगियों से अस्पताल में रोगियों से कैसा व्यवहार होता है। बरसो गुलोकोस, ड्रिप, इंजेक्शन और ऐनिसथिसिया के आस पास ही जीवन घुमता रहा था. १९९१ से लेकर ११९७ तक के आज्ञातवास के ये साल स्वदेश दीपक खुद से ही लडते रहे, सबसे पहले अपने आप से दोस्ती टूटी, फिर घरवालों से फिर कलम से, दोस्ती हुई तो मायाविनी से जो जीवन के नज़दीक आने से पहले ही हाथ पकड कर रोक लेती। बगल की कुसी पर डेरा डाल लेती और कहती माई स्वदेश दीपक, माई पूअर स्वदेश your name will change into suffering. मै भी अब कुछ नहीं कर सकूंगी और यह भी कहती मैं  मायाविनी hu. the eternal sidktress.
उन्हें २००४ मे हरियाणा सरकार ने उन्हें सुर पुरस्कार भी मिला और संगीत नाटक अकादेमी का पुरूस्कार भी मिला वे  दिन खुशनुमा दिन  थे. पर २००४ में अचानक ही एक दिन अखबार मे स्वदेश दीपक को दिल का दौरा पड़ने और हरियाणा के मुख्यमंत्री से लेखक से मिलनें अस्पताल गये। तब स्वदेश जी की पत्नी गीता जी से लम्बी बात हुई उस दिन  मालूम हुआ की एक नेक भारतीय महिला में कितना सयंम और  कितना धैर्य था. गीता जी अपने दोनों छोटे छोटे बच्चो और हर दिन के उतार-चढाव को अकेले ही झेलती थी।
इस बिमारी की अवस्था को सहते हुए बीच में कभी स्वदेश आत्मदम्भी बैले नर्तक बन जाते तो कभी आतम्घाती इंसान, उन्होंने दो बार आत्मघाती बन खुद को जलाया। सफाई से अपनी कलाई की दोनों नस काटी ठीक निर्मल वर्मा के उपन्यास एक चिथडा सुखके एक पात्र  की तरह तीन -तीन बार स्वदेश अपने प्राण लेने की कोशिश करते है. स्वदेश जबमैने  मांडू नहीं देखामें  लिखते है कि बेहद सफाई से उन्होंने अपनी कलाई की  नस काटी तो निर्मल वर्मा के उपन्यास का वह किरदार याद  आता है जिसने अपनी जान लेने के लिये अपनी कलाई की  नस काटी थी और तब उस पात्र की स्तिथि भी ठीक इसी  तरह की  थी “वह टब मे लेटे थे वह खुली आँखों से हमें निहार रहे थे, एक हल्का से विस्मय उनमे था मानो उन्हें किसी बात का घोर आश्चर्य हो और वह उसे हमें बताना चाहते हो; उनका एक हाथ पानी मे था, दूसरा टब के किनारे पर, जहाँ शेव करने का ब्लेड रखा रखा था साफ़, चमकता हुआ, जिसकी धार पर खून का धब्बा जमा रह गया था, उन्होंने बहुत सफाई से सब काम किया था, कही कोई गंदगी नहीं, कोई हडबडाहट  नहीं.
स्वस्थ दिनों मे अम्बाला शहर मे १०८ माल रोड के अपने पुश्तैनी मकान के बरामदे में  अकेले बैठे स्वदेश  फूलो की लम्बी लताये देखते हुए सिगरेट के लंबे कश खींचते  और  फिर से उस अंधेरे कुऐं में छलाँग लगाते और वहाँ से  दुख-दर्द और  पीडा के कतरे  चुन चुन कर स्वदेश अपने आत्म संस्मरण लिखते. मेरे पास स्वेदश जी के जो खत आते उनमे अक्सर खतों में  आखिरी पंक्तियाँ होती थी मैं  गुम रहूंगी’, रहूँगा नहीं. क्या यह भी स्वदेश जी के भीतर बैठी  हुई मायाविनी कह रही थी, क्या मालूम .सचमुच स्वदेश दीपक का जीवन जीते जी एक खंडित कोलाज़ की शकल ले चूका था. आज भी स्वदेश दीपक के पाठकों को अपने इस नायब लेखक का इंतज़ार है, वे बार-बार कह रहे हैं-
कहाँ हो स्वेदश दीपक
अंधेरे की गिरफ्त में
(स्वदेश दीपक के लिये)
जीवन की हलचल से दूर
ठहरे हुए पानी के क़रीब चले गये तुम
घोर अंधेरे से कुछ सीढ़ियाँ के ऊपर 
तुमने अपना आसान जमा लिया
ठीक उसी दिन से
दुनियादारी का कोई सपना
तुम्हारी नींद में नहीं उतारा
तुम्हें नए सपने चाहिये थे
जीवन के पोषण के लिये 
पर तुम्हारी लगातार
बंजर होती जमीन पर कहाँ से
सपने अंकुरित होते
प्रेम का एक
बड़े हिस्से के तुम वाजिब हकदार थे
शायद इस बात से तुम वाकिफ नहीं थे की
दुनिया वाले प्रेम के एक बड़े भूखंड पर
कब्जा जमाये रहते हैं
बावजूद इसके
की वे ख़ुद इस भूखंड का एक छोटा हिस्सा
ही इस्तेमाल कर पाते हैं
यह तुम्हारा वादा था
सुनी साँझ
उदास सुबह
बेचैन दोपहर से कि
तुम हमेशा इन तीनों के बीच रहो
कई बरसों तक तुम इस
वादे को निबाहते रहे फिर
तुम्हारी पद्चाप धीमी पड़ती गयी
आज तुम उसी अंधेरे की
गिरफ्त में हो कहीं
जो कभी तुम्हारा संगी साथी था
और यह हमारी प्रार्थना की विफलता
ही है कि आज तक तुम्हारी
कोई ख़बर नहीं.
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50 Comments

  1. बेहद मर्मस्पर्शी और दहलानेवाला संस्मरण. ईश्वर करे इस संस्मरण को लिखने के पीछे जो उद्देश्य है वह पूरा हो.

  2. कवि ने लिखा है .लगभग कविता ही की तरह विह्वल भी करता है यह लेख. हालांकि ,स्वदेश का कितना कुछ सामने नहीं भी आया है ..आ भी नहीं सकता .. उसे स्वदेश किसी से भी वैसे ही छीन लेता है जैसे अपने आप से और फिर ऐसी जगह छुपा देता है जहां से वह खुद भी कभी ढूंढ नहीं पाता .. स्वदेश के बहुत निकट हैं जो ,वह जानते हैं कि कहाँ जाकर वह गुम हो गया है ..ढूंढें जाने की तमाम कोशिशों को ज़िबह करके … उसे खोज निकाला जा सकता है पर यह उसकी 'हत्या 'करने जैसा होगा .. आ जाएगा जब 'आना' होगा उसे ..और नहीं तो फिर ढूँढना-पाना बेकार ही है ..!इतना स्वातंत्र्य तो मिलना ही चाहिए उसे ..!

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  6. विपिन…..बेहद जरूरी लेख। मन को छूने वाला। आपके लिए मन में एक अलग भाव बना गया यह ….

  7. स्वदेश दीपक से तीन-चार साल पहले बनारस हिन्दू विश्विद्य़ालय के मूर्तिकला विभाग के डीन और प्रतिभाशाली स्कल्पटर बलबीर सिंह कट भी इसी तरह लापता हो गए थे जिनका आज तक कोई पता नहीं चल पाया है। अपने भीतर की पुकार को इन दोनों ने अनसुना नहीं किया और उस अनजाने को एक्सप्लोर करने की कोशिश की जो सबको कभी न कभी बुलाता है। मुझे यकीन है कि दोनों या इनमें से एक लौटेगा जरूर।

  8. कहाँ हो स्वदेश जी लौट आओ. विपिन का आभार एक बेहतरीन संस्मरण के लिए. भावभीना. मार्मिक.

  9. मैं यहाँ विपिन चौधरी के गद्य लेखन की तारीफ़ करना चाहता हूँ लेकिन नहीं करूँगा क्योंकि लेख इनता मार्मिक और भावपूर्ण है और एक ऐसे उद्देश्य के लिए लिखा गया है जिस पर कुछ भी लिखना किसी भी तारीफ़ से परे है. विपिन जी, इस लेख के लिए आभार. प्रभात भाई, आपका भी आभार इस लेख को जानकीपुल पर लगाने और इस मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए.

    Sayeed Ayub

  10. भावपूर्ण हृदयस्पर्शी आलेख…
    प्रार्थनाएं फलीभूत हों, वे वापस आ जायें!

  11. स्वदेश दीपक के बारे में ,उन तकलीफ़ों के बारे में ,जिनसे वे गुजरे ,जानकारी देता लेख ! बेहद भावपूर्ण संस्मरणात्मक लेख !

  12. बेहतरीन लिखा है विपिन ने …कहाँ तो हम गर्व करते कि स्वदेश जैसा लेखक हिंदी में पैदा हुआ और कहाँ यह खबर कि स्वदेश जैसा लेखक इसी दुनिया में गुम हो गया | स्वदेश ने 'मैंने मांडू नहीं देखा' में लिखा है , कि इस दुनिया में बाकी गंभीर बिमारियों के प्रति सहानुभूति पायी जाती है , लेकिन मानसिक रोगी अभी भी यहाँ एक खिलौना बना हुआ है …क्या यह सच नहीं …?

    कहाँ हो स्वदेश ……….

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